प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध 1775 - 1782 ई. तक चला। राघोवा (रघुनाथराव) ईस्ट इंडिया कम्पनी से सांठ-गांठ करके स्वयं पेशवा बनने का सपना देखने लगा था। उसने 1775 ई. में अंग्रेज़ों से सूरत की सन्धि की, जिसके अनुसार बम्बई सरकार राघोवा से डेढ़ लाख रुपये मासिक ख़र्च लेकर उसे 2500 सैनिकों की सहायता देगी। इस सहायता के बदलें राघोवा ने अंग्रेज़ों को बम्बई के समीप स्थित सालसेत द्वीप तथा बसीन को देने का वचन दिया। 1779 ई. में कम्पनी सेना की बड़गाँव नामक स्थान पर भंयकर हार हुई और उसे बड़गाँव की सन्धि करनी पड़ी। इस हार के बावजूद भी वारेन हेस्टिंग्स ने सन्धि होने तक युद्ध को जारी रखा था।
बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स का निर्णय
रघुनाथराव कम्पनी की सेना के सहयोग से पूना की तरफ़ अग्रसर हुआ। अंग्रेज कर्नल 'मीटिंग' और रघुनाथराव की संयुक्त सेना ने मई, 1775 में आनन्दनगर के मध्य स्थित 'अरस' नामक स्थान पर पेशवा की सेना को पराजित कर दिया। दूसरी ओर पूना में पेशवा की संरक्षक समिति का नेतृत्व नाना फड़नवीस कर रहे थे। नाना फड़नवीस ने अंग्रेज़ कैप्टन 'ऑप्टन' (अंग्रेज़ों का प्रतिनिधि) से मार्च, 1776 में पुरन्दर की सन्धि की। इसके तहत यह व्यवस्था की गई, कि कम्पनी रघुनाथराव का समर्थन नहीं करेगी, परन्तु सालसेत द्वीप पर कम्पनी का अधिकार बना रहेगा। पुरन्दर की सन्धि निरर्थक सिद्ध हुई, क्योंकि लंदन स्थित 'बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स' ने 'सूरत की सन्धि' को स्वीकार करते हुए 'पुरन्दर की सन्धि' को अस्वीकार कर दिया। बम्बई सरकार भी इस सन्धि को मानने को तैयार नहीं हुई, क्योंकि उसे सूरत की सन्धि अधिक लाभदायक प्रतीत हुई।
अंग्रेज़ों की हार एवं सन्धि
कालान्तर में इस सन्धि के महत्व को समाप्त कर बम्बई से कम्पनी ने सेना को पेशवा के विरुद्ध भेजा। दोनों पक्षों में बड़गांव के स्थान पर युद्ध हुआ, जिसमें कम्पनी की सेना पराजित हुई। परिणामस्वरूप 1779 ईं. में बड़गाँव की सन्धि हुई। जिसके तहत अंग्रेज़ों ने 1773 ई. के बाद जीते गये, सभी मराठा क्षेत्रों को वापस करने का वचन दिया। अंग्रेज़ों के लिए यह सन्धि बड़ी अपमानजनक थी, परन्तु वारेन हेस्टिंग्स ने बिना निराशा के युद्ध को निरन्तर जारी रखा।
राघोवा को पेंशन
1780 ई. में अहमदाबाद, गुजरात एवं ग्वालियर को जीतने में कम्पनी की सेना को सफलता मिली। लगभग 7 वर्ष के युद्ध के पश्चात् 1782 ई. में महादजी शिन्दे और अंग्रेज़ प्रतिनिधि 'डेविड एन्डरसन' के बीच सालबाई गांव में 17 सूत्री सन्धि सालबाई की सन्धि सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तो के अनुसार दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते गये प्रदेशों को छोड़ देने का वादा किया। मात्र सालसेत द्वीप एवं एलीफैन्टा द्वीप ही अंग्रेज़ों के अधिकार में रह गये। अंग्रजों ने राघोवा का साथ छोड़ दिया। पेशवा द्वारा राघोवा को पेंशन दी गई, साथ ही कम्पनी ने माधवराव नारायण को पेशवा के रूप में मान्यता प्रदान कर दी। वारेन हेस्टिंग्स ने सालबाई की सन्धि को “आपत्तिकाल की सफल शांति वार्ता” कहा है।
मराठों का पतन
पेशवा की बाल्यावस्था के कारण 'बारभाई परिषद' के सदस्य महादजी शिन्दे एवं नाना फड़नवीस कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र थे। कालान्तर में इन दोनों द्वारा सत्ता पर अधिकार करने के लिए गहरी प्रतिद्धन्दिता प्रारम्भ हो गई, जिससे मराठों की आन्तरिक स्थिति कमज़ोर हो गई। 1795 ई. में महादजी शिन्दे की मृत्य हो गई। इसी वर्ष तरुण पेशवा ने आत्महत्या कर ली। इसकी मृत्यु के बाद इन्दौर के होल्कर ने विनायकराव को पेशवा बनाया। जिसके फलस्वरूप बाजीराव द्वितीय भागकर अंग्रेज़ों की शरण में चला गया और उसने 1802 में बसीन की सन्धि कर ली।
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