भक्त सेन नाई
भक्त सेन नाई
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पूरा नाम | भक्त सेन नाई |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | बान्धवगढ़ नगर, बघेलखण्ड |
प्रसिद्धि | भक्त |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | भक्त सेन नाई भगवान को ही सब कुछ मानते थे। राजा और नगर निवासी उनकी नि:स्पृहता और सीधे-सादे उदार स्वभाव की सराहना करते थे। भक्त सेन परम भागवत थे, भगवान के महान् कृपापात्र-भक्त थे। |
भक्त सेन नाई भगवान के महान् कृपापात्र-भक्त थे। भक्त सेन जाति के नाई थे। वे नित्य प्रात: काल स्नान, ध्यान और भगवान के स्मरण-पूजन और भजन के बाद ही राजसेवा के लिये घर से निकल पड़ते थे और दोपहर को लौट आते थे। वे एक परम संतोषी, उदार, विनयशील व्यक्ति थे।
परिचय
पाँच-छ: सौ साल पहले की बात है। बघेलखण्ड का बान्धवगढ़ नगर अत्यन्त समृद्ध था। महाराज वीर सिंह के राजत्व काल में बान्धवगढ़ का सुदूर प्रान्तों में बड़ा नाम था। नगर के एक भाग में अट्टालिकाएँ थीं, सुन्दर और प्रशस्त राजपथ थे, अच्छे-अच्छे उपवन और मनमोहक सरोवर थे। एक ओर सभ्य, संस्कृत और शिष्टजनों के घर थे तो दूसरी ओर कुछ झोपड़ियाँ थी, हरे-भरे खेत थे, प्रकृति देवी की सुषमा थी, दैवी सुख और शान्ति का अकृत्रिम साम्राज्य था। नगर के इसी दूसरे भाग में एक परम संतोषी, उदार, विनयशील व्यक्ति रहते थे; उनका नाम था सेन। राज परिवार से उनका नित्य का सम्पर्क था; भगवान की कृपा से दिनभर की मेहनत-मजदूरी से जो कुछ भी मिल जाता था, उसी से परिवार का भरण-पोषण और संत-सेवा करके निश्चिन्त हो जाते थे। न तो उन्होंने कभी किसी के सामने एक पैसे के लिये हाथ पसारा और न उन्हें कभी आवश्यकता ही प्रतीत हुई कि किसी से कुछ माँगकर काम चलायें। भगवान ही उनके सब कुछ थे। राजा और नगर निवासी उनकी नि:स्पृहता और सीधे-सादे उदार स्वभाव की सराहना करते थे।
वे नित्य प्रात: काल स्नान, ध्यान और भगवान के स्मरण-पूजन और भजन के बाद ही राजसेवा के लिये घर से निकल पड़ते थे और दोपहर को लौट आते थे। जाति के नाई थे। राजा का बाल बनाना, तेल लगाकर स्नान कराना आदि ही उनका दैनिक काम था।[1]
भक्त मण्डली का आगमन
एक दिन वे घर से निकले ही थे कि उन्होंने देखा एक भक्त मण्डली मधुर-मधुर ध्वनि से भगवान के नाम का संकीर्तन करती उन्हीं के घर की ओर चली आ रही है। संत-समागम का पवित्र अवसर मिला, इससे बढ़कर आनन्द की बात दूसरी थी भी नहीं। सेन ने प्रेमपूर्वक बड़ी श्रद्धा और भक्ति से उनकी चरणधूलि ली। उन्हें इस बात का तनिक भी ध्यान नहीं रहा कि महाराज वीर सिंह उनकी प्रतीक्षा करते होंगे। संतों को घर लाकर सेन ने यथा शक्ति उनकी सेवा-पूजा की, सत्संग किया।
भगवान नाई रूप में
महाराज वीर सिंह को प्रतीक्षा करते-करते अधिक समय बीत गया। इधर सेन संतों के आतिथ्य और स्वागत-सत्कार में पूर्णरूप से निमग्न थे। उन्हें तनिक भी बाह्यज्ञान नहीं था। काफ़ी धूप चढ़ चुकी थी। इतने में सेन नाई के रूप में स्वयं लीलाविहारी राजमहल में पहुँच गये। सदा की भाँति उनके कंधे पर छुरे, कैंची तथा अन्य उपयोगी सामान तथा दर्पण आदि की छोटी-सी पेटी लटक रही थी। मुख पर अलौकिक शान्ति की किरणें थीं, प्रसन्नतामयी मुस्कान की ज्योतिर्मयी तरंगें अधरों पर खेल रही थीं। उनकी प्रत्येक क्रिया में विलक्षण नवीनता थी। उन्होंने राजा के सिर में तेल लगाया, शरीर में मालिश की, दर्पण दिखाया। उनके कोमल करस्पर्श से राजा का आज जितना सुख मिला, उतना और पहले कभी अनुभव में नहीं आया था। सेन नाई राजा की पूरी-पूरी परिचर्या और सेवा करके चले गये। राजा को ऐसा लगा कि सेन के रूप में कोई स्वर्गीय और सर्वथा दिव्य प्राणी ही उतर आये थे।
भक्त मण्डली चली गयी। थोड़ी देर के बाद भक्त सेन को स्मरण हुआ कि मुझे तो राजा की सेवा में भी जाना है। उन्होंने आवश्यक सामान लिया और डरते-डरते राजपथ पर पैर रखा। वे चिन्ताग्रस्त थे, राजा के बिगड़ने की बात सोचकर वे डर रहे थे।
‘कुछ भूल तो नहीं आये?’ एक साधारण राजसैनिक ने टोक दिया।
‘नहीं तो, अभी तो राजमहल ही नहीं जा सका।' सेन आश्चर्य चकित थे।
'आपको कुछ हो तो नहीं गया हैं? मस्तिष्क ठीक-ठिकाने तो है न?’
‘भैया ! अब और बनाने का यत्न न करो।' सेन के मुख से सहसा निकल पड़ा।
‘आप सचमुच भगवान के भक्त हैं। भगवान के भक्त कितने सीधे-सादे होते हैं, इसका पता तो आज ही चल सका।' सैनिक कहता गया। ‘आज तो राजा आपकी सेवा से इतने अधिक प्रसन्न हैं कि इसकी चर्चा सारे नगर में फैल रही है।' सैनिक आगे कुछ न बोल सका।
- भक्त सेन की प्रभु से क्षमा
सेन को पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि मेरी प्रसन्नता और संतोष के लिये भगवान को मेरी अनुपस्थित में नाई का रूप धारण करना पड़ा। वे अपने-आपको धिक्कारने लगे कि एक तुच्छ-सी सेवापूर्ति के लिये शोभा निकेतन श्री राघवेन्द्र को बहुरूपिया बनना पड़ा। प्रभु को इतना कष्ट उठाना पड़ा! जो पलभर में समस्त लोक-लोकान्तर का संहार कर सकते हैं, जिनके एक संकल्पाभास मात्र पर विश्व का विधान उलट जाता है, उन्होंने कंधे पर छूरे आदि की पेटी लटकाने में भी रस की अनुभूति की। भगवान की सहज रसमयता, प्रगाढ़ भक्तवत्सलता, कोमल कृपा और पावन प्रसन्नता का चिन्तन करते-करते वे आत्मग्लानि के अतल सागर में डूबने-उतराने लगे। उन्होंने भगवान के चरण-कमल का ध्यान किया, मन-ही-मन प्रभु से क्षमा माँगी।
राजा का आभार
उनके राजमहल में पहुँचते ही राजा वीर सिंह बड़े प्रेम और विनय तथा स्वागत-सत्कार से मिले, भगवान के साक्षात्कार का प्रभाव जो था। भक्त सेन ने बड़े संकोच से विलम्ब के लिये क्षमा माँगी, संतों के अचानक मिल जाने की बात कही। दोनों ने एक-दूसरे का जी भर आलिंगन किया। राजा ने सेन के चरण पकड़ लिये। वीर सिंह ने कहा- "राज परिवार जन्म-जन्म तक आपका और आपके वंशजों का आभार मानता रहेगा। भगवान ने आपकी ही प्रसन्नता के लिये मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्य पाप-तापों का अन्त किया है।" भक्त सेन तो प्रेमविह्वल थे। शरीर में विलक्षण भाव-कम्पन था, अंग-अंग भगवान के रूपमाधुर्य के रस में सम्प्लावित थे। बान्धवगढ़ सेन की उपस्थिति से धन्य हो गया। वे परम भागवत थे, भगवान के महान् कृपापात्र-भक्त थे।[1]
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