भारत की स्वतंत्रता में जवाहरलाल नेहरू का योगदान
भारत की स्वतंत्रता में जवाहरलाल नेहरू का योगदान
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पूरा नाम | पंडित जवाहरलाल नेहरू |
अन्य नाम | चाचा नेहरू, पंडित जी |
जन्म | 14 नवम्बर, 1889 |
जन्म भूमि | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 27 मई, 1964 |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
मृत्यु कारण | दिल का दौरा |
अभिभावक | पं. मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी |
पति/पत्नी | कमला नेहरू |
संतान | इंदिरा गाँधी |
स्मारक | शांतिवन, दिल्ली |
नागरिकता | भारतीय |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
पद | भारत के प्रथम प्रधानमंत्री |
कार्य काल | 15 अगस्त 1947-27 मई 1964 |
शिक्षा | बैरिस्टर |
विद्यालय | इंग्लैण्ड के हैरो स्कूल, केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज |
भाषा | हिन्दी, अंग्रेज़ी |
जेल यात्रा | नौ बार जेल यात्रा की |
पुरस्कार-उपाधि | भारत रत्न सम्मान |
संबंधित लेख | जलियाँवाला बाग़, महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, इंदिरा गाँधी |
रचनाएँ | विश्व इतिहास की झलक, भारत की खोज आदि |
अन्य जानकारी | नेहरू जी का जन्म दिवस 14 नवंबर पूरे देश में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। |
जवाहरलाल नेहरू महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े। चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। मलिक ने बताया कि नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसीलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। सन् 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1923 में वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए।
भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष
वर्ष | घटना क्रम |
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1889 | 14 नवंबर जन्म इलाहाबाद उत्तर प्रदेश |
1912 | इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बार की सदस्यता |
1916 | 8 फ़रवरी श्रीमती कमला नेहरू से विवाह |
1917 | 19 नवंबर इंदिरा गांधी का जन्म |
1921 | पहली बार जेल गये |
1923 | पिता मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस छोड़ दी। |
1924 | इलाहाबाद महानगर पालिका के अध्यक्ष बने |
1926 | यूरोप की यात्रा की |
1929 | कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये |
1931 | मोतीलाल नेहरू की मृत्यु |
1944 | भारत एक खोज पुस्तक लिखी। |
1947 | भारत के प्रथम प्रधान मंत्री बन। |
1948 | गांधी जी की हत्या। |
1951 | पहली पंचवर्षीय योजना लागू की। |
1964 | 27 मई निधन |
साइमन कमीशन के विरुद्ध लखनऊ के प्रदर्शन में उन्होंने भाग लिया। एक अहिंसात्मक सत्याग्रही होने पर भी उन्हें पुलिस की लाठियों की गहरी मार सहनी पड़ी। 1928 ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामंत्री बने 1929 के लाहौर अधिवेशन के बाद नेहरू देश के बुद्धिजीवियों और युवाओं के नेता के रूप में उभरे। नेहरू जी ने कहा था:-
मेरे विचार में, हम भारतवासियों के लिए- एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा। मैं आपको कह सकता हूँ कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है, तो मुझे कितना बुरा लगता है। लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?
यह सोचकर कि उस समय अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे, गांधी ने बुद्धिमानीपूर्वक कुछ वरिष्ठ नेताओं को अनदेखा करते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। महात्मा का यह आकलन भी सही था कि इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी के साथ नेहरू भी मध्यम मार्ग पर क़ायम रहेंगे।
राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में
1931 में पिता की मृत्यु के बाद जवाहरलाल कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए। यद्यपि 1942 तक गांधी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, पर 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे। मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा। इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आन्दोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया।
गोलमेज सम्मेलन
यह आशा कि गाँधी-इरविन समझौता भारत और ब्रिटेन के संबंधों में शांति का पूर्वाभास साबित होगा, साकार नहीं हुई; लॉर्ड वैलिंगडन (जिन्होंने वाइसरॉय के रूप में 1931 में लॉर्ड इरविन का स्थान लिया) ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही समय बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया। उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने के प्रयास का आरोप लगाया गया। नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल के कारावास की सज़ा दी गई।
प्रांतीय स्वशासन
भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति अंततः 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई। आख़िरकार इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे। संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया। नेहरू जी ने कहा था:-
आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी। कोई भी देश-जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत समय तक नहीं टिक सकता।
1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था। 1936 के आरंभ में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे। इसके कुछ ही समय बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। उस समय भी उन्होंने इस बात पर बल दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा, हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विवाद
प्रांतीय स्वायत्तता लागू होने के बाद हुए चुनाव में अधिकांश प्रांतों में कांग्रेस पार्टी सत्तारूढ़ हुई, तो नेहरू दुविधा में पड़ गए। चुनावों में मुहम्मद अली जिन्ना (जो पाकिस्तान के जनक बने) के नेतृत्व में मुस्लिम लीग का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। इसलिए कांग्रेस ने अदूरदर्शिता दिखाते हुए कुछ प्रांतों में मुस्लिम लीग और कांग्रेस की गठबंधन सरकार बनाने के जिन्ना के अनुरोध को ठुकरा दिया। इस निर्णय में नेहरू की कोई भूमिका नहीं थी। इसके फलस्वरूप कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच के विवाद ने अंततः हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष का रूप ले लिया, जिसकी परिणति भारत के विभाजन और पाकिस्तान के गठन के रूप में हुई।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कारावास
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से परामर्श किए बिना भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके विरोध में कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए। कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया।
विचारों में मतभेद
युद्ध के बारे में नेहरू के विचार गांधी से भिन्न थे।
- आरंभ में महात्मा का विचार था कि अंग्रेज़ों को बिना शर्त समर्थन दिया जाए और यह समर्थन अहिंसक होना चाहिए।
- नेहरू का विचार था कि आक्रमण से प्रतिरक्षा में अहिंसा का कोई स्थान नहीं है और सिर्फ़ एक स्वतंत्र देश के रूप में ही भारत को नाज़ियों के ख़िलाफ़ युद्ध में ग्रेट ब्रिटेन का साथ देना चाहिए। अगर भारत मदद नहीं कर सकता, तो अड़चन भी न डाले।
'हिन्दी' का मज़हब से कोई सम्बन्ध नहीं, और हिन्दूस्तानी मुसलमान और ईसाई उसी तरह से ज़िन्दा हैं-जिस तरह कि एक हिन्दू मत का मानने वाला। अमरीका के लोग, जो सभी हिन्दुस्तानियों को 'हिन्दू' कहते हैं, बहुत ग़लती नहीं करते अगर वे 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग करें, तो उनका प्रयोग बिल्कुल ठीक होगा। जवाहर लाल नेहरू
अक्तूबर 1940 में महात्मा गाँधी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था। नेहरू को गिरफ़्तार करके चार वर्ष के कारावास की सज़ा दी गई। एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया। इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई। 1942 की बसंत ॠतु में, जब जापान ने बर्मा (वर्तमान म्यांमार) के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया, तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ थोड़ा हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया। प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स, जो युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी तथा जिन्ना के परिचित थे, को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा। क्रिप्स का यह अभिमान असफल रहा, क्योंकि गाँधी स्वतंत्रता से कम कुछ भी स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे।
भारत छोड़ो प्रस्ताव
कांग्रेस पार्टी में अब नेतृव्य गाँधी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया, नेहरू हालांकि युद्ध- प्रयत्नों पर प्रश्न उठाने में संकोच कर रहे थे, लेकिन गाँधी का साथ देने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था। 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस पार्टी द्वारा 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव पारित करने के बाद गाँधी जी और नेहरू समेत समूची कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया। अपने नौवें और अंतिम कारावास से नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए।
भारत और पाकिस्तान का विभाजन
दो वर्ष के भीतर भारत को स्वतन्त्र और विभाजित होना था। वाइसरॉय लॉर्ड वेवेल द्वारा कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग को साथ लाने की अंतिम कोशिश भी नाक़ाम रही। इस बीच लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था। उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को नियुक्त कर दिया। अब प्रश्न भारत की स्वतन्त्रता का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही स्वतंत्र राज्य होगा या एक से अधिक होंगे। जहाँ गाँधी ने विभाजन को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। वहीं नेहरू ने अनिच्छा, लेकिन यथार्थवादिता से मौन सहमति दे दी। भारत की स्वतंत्रता दिवस पर प्रकाशित होने वाले उत्तराखण्ड के प्रमुख पत्र युगवाणी में नेहरू जी द्वारा दिनांक 9 अगस्त 1947 को दिल्ली के रामलीला मैदान में दिये गये भाषण का अंश प्रकाशित करते हुये लिखा गया था कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि -
15 अगस्त दुनिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना का दिन होगा। इस दिन दुनिया से औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का अंत हो जायेगा जिसकी नींव 150 वर्ष पहले ब्रिटेन ने भारत में डाली थी। 5 वर्ष हुये 1942 में कांग्रेस ने ब्रिटेन को भारत छोडने को कहा था आज से 6 दिन बाद हमारा संकल्प फलीभूत होगा...
15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग स्वतंत्र देश बने। नेहरू स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री हो गए।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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