महेत का उत्खनन

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महेत का उत्खनन
प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती
प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती
विवरण श्रावस्ती उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों में से एक है। बौद्ध एवं जैन तीर्थ स्थानों के लिए श्रावस्ती प्रसिद्ध है। यहाँ के उत्खनन से पुरातत्त्व महत्त्व की कई वस्तुएँ मिली हैं।
ज़िला श्रावस्ती
निर्माण काल प्राचीन काल से ही रामायण, महाभारत तथा जैन, बौद्ध साहित्य आदि में अनेक उल्लेख।
मार्ग स्थिति श्रावस्ती बलरामपुर से 17 कि.मी., लखनऊ से 176 कि.मी., कानपुर से 249 कि.मी., इलाहाबाद से 262 कि.मी., दिल्ली से 562 कि.मी. की दूरी पर है।
प्रसिद्धि पुरावशेष, ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल।
कब जाएँ अक्टूबर से मार्च
कैसे पहुँचें हवाई जहाज़, रेल, बस आदि से पहुँचा जा सकता है।
हवाई अड्डा लखनऊ हवाई अड्डा
रेलवे स्टेशन बलरामपुर रेलवे स्टेशन
बस अड्डा मेगा टर्मिनस गोंडा, श्रावस्ती शहर से 50 कि.मी. की दूरी पर है
संबंधित लेख जेतवन, शोभनाथ मन्दिर, मूलगंध कुटी विहार, कौशल महाजनपद आदि।


महेत का समीकरण प्राचीन श्रावस्ती से किया गया है। कनिंघम ने इसकी परिधि का विस्तार 17300 फुट निर्धारित किया है।[1] फोगल ने श्रावस्ती नगर का घेरा 17250 फुट तथा संपूर्ण क्षेत्रफल 40.773 एकड़ निश्चित किया है। इस नगर में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी के बीच निरंतर परिवर्तन होते रहे। चीनी चात्रियों ने इस नगर को परित्यक्त एवं निर्जन पाया। कोशल राज्य के पतन के पश्चात् इस नगर का क्रमश: ह्रास होता गया। अत: श्रावस्ती नगर के विस्तार का कभी मौक़ा नहीं मिल पाया। इस नगर का पूर्ण विनाश 12 वीं शताब्दी में मुसलमानों द्वारा किया गया। इस प्रकार फोगल द्वारा उल्लिखित वर्तमान महेत का 17250 फुट का घेरा श्रावस्ती की प्राचीन सीमा से बढ़ा हुआ नहीं प्रतीत होता।

विस्तार और विन्यास

विस्तार और विन्यास की दृष्टि से महेत प्राचीन नगर का एक प्रमुख स्थल था। नगर का बाहरी विस्तार मिट्टी की प्राचीरों से परिवेष्टित था। प्राचीरों की ऊँचाई एक समान नहीं है। पश्चिमी ओर की प्राचीरें 35 से 40 फुट ऊँची है, जबकि दक्षिण और पूर्व की प्राचीरों की ऊँचाई 25 फुट से 30 फुट है।[2] उन्नीसवीं शताब्दी संपूर्ण क्षेत्र वनों से आच्छादित था। प्राचीरों के बीच-बीच में खुला भाग था, जिन्हें लोग दरवाज़ा कहते थे।[3] इस तरह के दरवाज़ों की संख्या अट्ठाइस है, जिसमें फोगल ने ग्यारह को ही दरवाज़ा माना है, जिनमें से उत्तर और पूर्व की ओर एक-एक, दक्षिण की ओर चार और पश्चिम की ओर पाँच दरवाज़े हैं।

महेत, श्रावस्ती

उपर्युक्त दरवाज़ों में से कुछ का नामकरण उसकी स्थिति के आधार पर किया गया है। उदाहरणार्थ- एक दरवाज़ा पिपरहवा के नाम से जाना जाता है। इसका नामकरण प्राचीर के आस-पास एक विशेष प्रकार के वृक्ष, पीपल के उगने के कारण हुआ था। अन्य मुख्य दरवाज़ों में गंगापुर, बंकी, गेलही, नौसहरा, काँदभारी एवं बाज़ार दरवाज़े हैं।[4] उत्खनन में इस स्थल से कच्ची कुटी, पक्की कुटी एवं शोभनाथ मंदिर के अवशेष मिले हैं। इन स्थलों से प्राप्त वस्तुओं में मृण्मूतियाँ, मृण्भांड, मुहरें, प्रतिमाएँ एवं लोहे के उपकरण भी हैं।[5]

कच्ची कुटी

कच्ची कुटी का उत्खनन सर्वप्रथम होवी ने किया था। तत्पश्चात् फोगल ने इस खंडहर से विभिन्न काल की संरचनाओं का पता लगाया। उत्खनन के समय फोगल को टीले के ऊपरी हिस्से में आधुनिक काल का एक ईंटों का मंदिर मिला था। जिसकी उत्तरी और पश्चिमी दीवारे अब भी विद्यमान हैं। अन्य दोनों किनारे[6] कच्ची चिनाई से पुनर्निर्मित हैं, जिसका निर्माण वहाँ निवास करने वाले किसी महात्मा ने करवाया था। इसी महात्मा ने पूर्ववर्ती चिनाई को खुदवाकर मंदिर का भी निर्माण करवाया था। इस वर्तमान मंदिर का प्रवेश-द्वार पूर्व तरफ से है। पूर्ववर्ती मंदिर का वास्तविक द्वार पश्चिम तरफ से था, जिसे यहाँ निवास करने वाले किसी साधु ने एक बड़े पत्थर से बंद कर दिया था। यह पत्थर (3 फुट 6 इंच X 1 फुट 6 इंच X 7 ½ फुट) एक मूर्ति की पीठिका प्रतीत होती है। संभव है यह पीठिका एवं मूर्ति पहले इसी मंदिर में स्थापित रही हों।[7]

कच्ची कुटी का उत्खनन

उत्खनन में फोगल को यहाँ से कुछ पत्थर के टुकड़े मिले थे, जो निश्चित रूप से किसी प्रतिमा के खंडित अंश हैं। यद्यपि ये टुकड़े इतने छोटे हैं कि इनको मिलाकर किसी प्रतिमा का प्रारूप तैयार करना कठिन है; फिर भी यह तो लगभग निश्चित है कि परवर्ती काल में निर्मित यह मंदिर जिसके खंडहर अभी भी वर्तमान हैं, एक प्रस्तर प्रतिमा से युक्त रहा होगा।

शोभनाथ मन्दिर, श्रावस्ती
अधिष्ठान

इस मंदिर का अधिष्ठान[8] अत्यंत प्राचीन है, जिसका विस्तार पूर्व से पश्चिम 105 फुट तथा उत्तर से दक्षिण 72 फुट था। मंदिर में पहुँचने के लिए पश्चिम तरफ से 45 फुट लंबी और 14 फुट 5 इंच चौड़ी सीढ़ियाँ बनी थीं।[9] मंदिर के आयताकार अधिष्ठान का प्रत्येक किनारा 18 फुट से 19 फुट के प्रक्षेपण से युक्त था। इसका उत्तरी-पूर्वी किनारा पुनर्निर्मित है। 14 फुट ऊँची उत्तरी दीवारें अभी भी सुरक्षित हैं। इस दीवार का ऊपरी भाग अनालंकृत ईंटों से निर्मित भित्तिस्तंभ की पंक्तियों से सुसज्जित है, जिनमें 11 इंच विस्तृत निमग्नफलक आपस में 3 फुट 10 इंच की दूरी पर बने हैं।

इसमें प्रयुक्त ईंटें भिन्न आकारों की हैं। सबसे निचली परतों में डिनेटेड ईंटों का प्रयोग मिलता है। इसके ऊपर की परतों में गोलाकार ईंटों का प्रयोग मिलता है। कार्निश के नीचे 6 से 8 फुट की दूरी पर वीप-होल्स की कतारें भी मिली हैं।

श्री होवी ने कच्ची कुटी के उत्खनन में दक्षिण और उत्तरी ओर की दीवारों के नींच की खुदाई करके दो कक्षों का पता लगाया।[10] ये दोनों कक्ष आकार में आयताकार थे जो ऊँची ईंटों की दीवारों से परिवेष्टित थे। निर्माण संरचना के आधार पर फोगल ने इन कक्षों को आवास-गृह नहीं माना है। कच्ची कुटी से नौशहरा और काँदभारी दरवाज़ों की ओर दो रास्ते जाते थे।

उत्खनन में यहाँ से फोगल को 356 मृण्मूर्तियाँ एवं कुछ प्रस्तर प्रतिमाएँ मिली थी।[11] इसमें से अधिकांश मूर्तियाँ खंडित हैं। अन्य वस्तुओं में मिट्टी की मुहरें, मृण्भांड एवं लोहे के उपकरण उल्लेखनीय हैं।[5]

शोभनाथ का मंदिर

शोभनाथ मन्दिर, श्रावस्ती

शोभनाथ का मंदिर महेत के पश्चिम में स्थित है। इस मंदिर का शोभनाथ नाम तीसवें तीर्थंकर संभवनाथ के नाम पर पड़ा। विश्वास किया जाता है कि जैनियों के तीसरे तीर्थकर संभवनाथ का जन्म श्रावस्ती में ही हुआ था।[12] श्री होवी ने सर्वप्रथम यहाँ 1824-25 और 1875-76 में सीमित उत्खनन करवाया था लेकिन उत्खनन से प्राप्त विवरण अत्यंत संक्षिप्त एवं संदिग्ध है।[5]

पक्की कुटी

‘महेत’ में स्थित पक्की कुटी एक महत्त्वपूर्ण स्थल है जो कच्ची कुटी से उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसका आधुनिक नाम यहाँ निवास करने वाले किसी फ़क़ीर (साधु) के निवास-स्थान के कारण पड़ा। कनिंघम ने इसे चीनी यात्रियों के अंगुलिमाल स्तूप से समीकृत किया है। इस खंडहर की आंशिक खुदाई श्री होवी ने की थी। कालांतर में फोगल ने इस क्षेत्र का उत्खनन करवाया जिससे ज्ञात हुआ कि इसका आकार चतुष्कोणीय था। इसका उत्तर से दक्षिण विस्तार 120 फुट तथा पूर्व से पश्चिम 77 फुट 8 इंच था। इस कुटी के पूर्वी किनारे का उत्खनन अभी नहीं हो पाया है। संभव है कि इस भवन का विस्तार और आगे तक रहा हो। इस कुटी की आंतरिक संरचना में अनियमित ढंग की दीवारें तथा आयताकार एवं वर्गाकार कक्ष मिले हैं। इन कक्षों में दरवाज़ों एवं खिड़कियों का अभाव इस तथ्य का साक्षी है कि इस संरचना का प्रयोग आवासगृह के रूप में नहीं हो होता था। वस्तुत: यह एक स्तूप था। उत्खनन में इस स्थल से कोई भी ऐसी वस्तु नहीं मिली है, जिससे इसकी बुद्धकालीन विहार की सूचना को प्रश्रय मिले।

टीले के केंद्र में वक्राकार दीवारें भी मिली हैं। श्री होवी ने उत्खनन करते समय इस कुटी के मध्य भाग में दक्षिण से उत्तर की ओर एक सुरंग बना दी ताकि वर्षा से इस टीले की रक्षा हो सके। होवी की भूमि की सतह पर विभाजक दीवारों के भी अवशेष मिले हैं। उत्खनन में पक्की कुटी से ऐसी कोई वस्तु नहीं मिली, जिससे उसकी धार्मिकता प्रमाणित हो सके। चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों में उल्लिखत प्राचीन न्यायालय कक्ष की संरचना को होवी पक्की कुटी से समीकृत करते हैं। होवी इस संरचना को परवर्ती काल की पुनर्निर्मित संरचना मानते हैं।[13][5]

आनंद बोधि वृक्ष, जेतवन, श्रावस्ती

स्तूप ‘ए’

इस स्तूप को श्री होवी ने ह्वेनसांग द्वारा वर्णित अंगुलिमाल स्तूप से समीकृत किया है। यह पक्की कुटी से पूर्व में और कच्ची कुटी से उत्तर-पूर्व में स्थित था। होवी ने 9 फुट की परिधि में 30 इंच तक नीचे खुदाई की और पाया कि इसका आंतरिक भाग ठोस है। स्तूप के ऊपर का अंड 20 फुट परिधि में विस्तृत था। इसमें प्रयुक्त ईंटें कई आकार की हैं। सबसे बड़ी ईंटें 12 ½ इंच X 9 इंच X 2 ½ इंच आकार की हैं। इस स्तूप के बाहरी स्थल का उत्खनन फोगल ने 8 फुट नीचे तक करवाया था। इसका निचला अधिष्ठान एक आयताकार चबूतरे (72 फुट X 45 फुट) से युक्त था, जिसके पूर्व में सीढ़ियाँ थीं। ये सीढ़ियाँ 22 फुट लंबी और 14 फुट चौड़ी थीं, जो कच्ची कुटी और शोभनाथ मंदिर में प्रयुक्त सीढ़ियों के सदृश थीं। उत्तरी ओर का चबूतरा सुरक्षित था जिसकी ऊँचाई 4 फुट थी। यहाँ से प्राप्त अधिकांश ईंटें खंडित हैं। वैसे सामान्यतया ईंटों की माप 12 ½ इंच X 9 इंच X 2 ½ इंच है। चिनाई में नक़्क़ाशीदार ईंटों का सर्वथा अभाव मिलता हैं।[14]

स्तूप ‘ए’ का उत्खनन

कच्ची कुटी के द्वार से स्तूप की दिशा में फोगल ने 6 ½ फुट विस्तृत एक खत्ती खुदवाई थी। यहाँ से उन्हें एक निचली संरचना के अवशेष मिले थे। इस संरचना में प्रयुक्त ईंटों को चार परतों का भी पता चलता है। उत्खनन में बड़ी संख्या में छोटे मृण्भांड एवं कुछ मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं। इन्हें भी देखें: खत्ती

स्तूप ‘ए’ का वैज्ञानिक उत्खनन

श्रावस्ती का वैज्ञानिक उत्खनन 1959-60 ई. में श्री कृष्ण कुमार सिन्हा द्वारा किया गया,[15] जिससे यहाँ की दुर्ग संरचना तथा सुरक्षात्मक दीवार के काल-क्रम पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है। इनके उत्खनन से ज्ञात हुआ कि श्रावस्ती का विकास तीन कालों में हुआ था। इन कालों में यहाँ से प्राप्त वस्तुओं तथा निर्माण प्रक्रिया में अंतर दृष्टिगत होता है।

प्रथम काल
शांति घण्टा, श्रावस्ती

प्रथम काल में नगर की बाहरी दीवारों का निर्माण नहीं हुआ था। उल्लेखनीय है परवर्ती काल में बाहरी दीवारें मिलती हैं। इस काल के मृण्भांड विकसित परंपरा में मिलते हैं। यहाँ से उत्तरी कृष्ण परिमार्जित मृण्भांड बड़ी संख्या से प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त कुछ मृण्भांड 600 ई. पू. के एथेनियन कलशों के समान हैं।[16] इस प्रकार के मृण्भांडों को विस्तार भारत-पाकिस्तान उपमहाद्वीपीय क्षेत्र में मिलता है। इसके अतिरिक्त शीशे की पारभाषी चूड़ियाँ भी मिली हैं। धातु के रूप में इस समय मुख्यत: ताँबे का ही प्रयोग किया जाता था, तथापि लोहे का प्रचलन भी हो चुका था। ताँबे का प्रयोग मुख्य रूप से गृहस्थी के सामानों एवं आभूषणों के रूप में किया जाता था।[17]

द्वितीय काल

यद्यपि प्रथम काल के अंत तथा द्वितीय काल के प्रारंभ में समय की दृष्टि से कोई विशेष अंतर नहीं है तथापि दोनों की निर्मित वस्तुओं में पर्याप्त भिन्नता दिखाई देती है। द्वितीय काल में लोहे का उपयोग प्रचुरता से मिलता है। साथ ही अस्थिनिर्मित बाणाग्र भी बड़ी संख्या में मिले हैं। इस काल की मुख्य विशेषता दुर्ग-संरचना है। मुख्य प्राचीरों के परवर्ती कालों में विस्तृत रूप से समान अंतराल पर बने दुर्ग एवं इनकी दीवारें नगर के विकास-क्रम को सिद्ध करती है। श्रावस्ती की नगरीय दीवारों की संरचना की तुलना कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लिखित दुर्ग-संरचना से की जा सकती है।[18]

श्रावस्ती के इस सीमित क्षेत्र के उत्खनन से सुरक्षा प्राचीरों पर पूर्णत: प्रकाश नहीं पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन रक्षा-प्राचीरों का निर्माण हिन्द-यवन राजाओं के आक्रमण के सुरक्षार्थ किया गया था। यह घटना मौर्यवंश के पतन के पश्चात् स्थानीय राज्यों के अभ्युदय के समकालिक है। द्वितीय काल में निर्मित मकानों में मिट्टी के गारे से युक्त पकी ईंटों का प्रयोग मिलता है। इस काल की निर्माण संरचना की तीन अवस्थाएँ दृष्टिगत होती हैं। श्री सिन्हा[19] ने इन तीनों प्रावस्थाओं का काल-क्रम निम्नलिखित रूप से निर्धारित किया है-

  1. प्रारम्भिक प्रावस्था – 275 ई. पू. से 200 ई. पू.
  2. मध्यवर्ती प्रावस्था – 200 ई. पू. से 125 ई. पू.
  3. परवर्ती प्रावस्था – 125 ई. पू. से 50 ई. पू.।
तृतीय काल

उत्खनन से तृतीय काल के अवशेष अत्यंत सीमित क्षेत्र से मिले हैं, इससे यह प्रतीत होता है कि इस समय यह नगर विनष्ट हो चुका था। उत्खनन से परवर्ती काल में निर्मित कुछ संरचनाओं का भी पता चला है।[5]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ए. कनिंघम , ऐंश्येंट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया, पृष्ठ 346
  2. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 84
  3. ऐसा प्रतीत होता है कि चार दरवाज़ों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण) को छोड़कर प्रवेश के लिए प्रयुक्त होने वाले ये वास्तविक दरवाज़े नहीं थे। वरन् समय-समय पर नागरिकों द्वारा सुविधानुसार बनाए गए स्थानापन्न दरवाज़े थे।
  4. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 85-90
  5. 5.0 5.1 5.2 5.3 5.4 सिंह, डॉ. अशोक कुमार उत्तर प्रदेश के प्राचीनतम नगर (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 98-124।
  6. पूर्वी और उत्तरी
  7. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 91
  8. नींव
  9. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 92
  10. होवी ने इन दोनों कक्षों को ‘ए’ और ‘बी’ नामों से अभिहित किया है।
  11. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 95
  12. देखें; व्यूहलर और बर्गेस ‘दि इंडियन सेक्ट जैनाज, (लंदन 1903) पृष्ठ 67
  13. देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स, पृष्ठ 78
  14. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 110
  15. कृष्ण कुमार सिन्हा, एक्सकैवेशंस ऐट श्रावस्ती, (वाराणसी, 1967
  16. रोचक हैं कि इस तरह के मृण्भांड भारत के अन्य स्थलों से नहीं मिले हैं।
  17. कृष्ण कुमार सिन्हा, एक्सकैवेशंस ऐट श्रावस्ती, पृष्ठ 9
  18. अर्थशास्त्र (आर. शामशास्त्री संस्करण), मैसूर 1919, अध्याय 2
  19. कृष्ण कुमार सिन्हा, एक्सकैवेशन्स ऐट श्रावस्ती, (वाराणसी, 1967), पृष्ठ 12
  • ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

बाहरी कड़ियाँ

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