मीर ज़ाफ़र बंगाल का 1757 ई. से 1760 ई. तक और फिर 1763 ई. से 1765 ई. तक नवाब था। वह बंगाल के नवाब अलीवर्दी ख़ाँ का बइनोई था और मुर्शिदाबाद के दरबार में बहुत अधिक प्रभाव रखता था। अलीवर्दी ख़ाँ के पौत्र तथा उत्तराधिकारी नवाब सिराजुद्दौला को उसकी स्वामिभक्ति में सन्देह था, और उसने उसे बख़्शी के पद से हटा दिया। इससे मीर ज़ाफ़र और क्रुद्ध हो गया और उसने सिराजुद्दौला को गद्दी से हटाने तथा खुद नवाब बनने के लिए असंतुष्ट दरबारियों के साथ षड्यंत्र रचा, जिसमें जगत सेठ भी सम्मिलित था।
अंग्रेज़ों से संधि
षड्यंत्रकारियों के नेता के रूप में मीर ज़ाफ़र ने 10 जून 1757 ई. को कलकत्ता में अंग्रेज़ों से एक संधि की। इस संधि के द्वारा मीर ज़ाफ़र ने वचन दिया कि यदि वह अंग्रेज़ों की सहायता से बंगाल का नवाब बन गया, तो सिराजुद्दौला ने अलीनगर की संधि (9 फ़रवरी 1757 ई.) के द्वारा उन्हें जो सुविधाएँ दे रखी हैं, उनकी पुष्टि कर देगा, अंग्रेज़ों से रक्षात्मक संधि करेगा, फ्रांसीसियों को बंगाल से निकाल देगा, 1756 ई. में कलकत्ता छीने जाने के बदले ईस्ट इंडिया कम्पनी को 10 लाख पौंड हर्जाना देगा और इसका आधा रुपया कलकत्ता के अंग्रेज़ निवासियों को देगा। मीर ज़ाफ़र ने गुप्त संधि करके अंग्रेज़ी सेना, नौसेना तथा कौंसिल के सदस्यों को काफ़ी अधिक धन देने का वादा किया।
बंगाल का नया नवाब
इस संधि के अनुसार 23 जून, 1757 ई. को प्लासी की लड़ाई में मीर ज़ाफ़र तथा उसके सहयोगी षड्यंत्रकारियों ने कोई हिस्सा नहीं लिया और अंग्रेज़ बड़ी आसानी से लड़ाई जीत गये। सिराजुद्दौला युद्ध-भूमि से भाग गया, परन्तु उसे शीघ्र बंदी बना लिया गया और मीर ज़ाफ़र के पुत्र मीरन ने उसका वध कर दिया। इसके बाद मीर ज़ाफ़र बंगाल का नया नवाब बना दिया गया। गद्दीनशीन होने पर उसने 10 जून, 1757 ई. की संधि के द्वारा जितने भी वादे किये थे सब पूरे कर दिये। इसके अतिरिक्त उसने कम्पनी को चौबीस परगने की ज़मींदारी भी दे दी। उसने 15 जून, 1757 ई. को कम्पनी के साथ एक और संधि की, जिसके द्वारा उसने दो नयी धाराओं से अपने को बाँध लिया। इन धाराओं में कहा गया था:-
- अंग्रेज़ों के दुश्मन मेरे दुश्मन होंगे, चाहे भारतीय हों या यूरोपीय,
- जब कभी मैं अंग्रेज़ों से सहायता की माँग करूँगा, उसका खर्च दूँगा।
अगौरवपूर्ण अध्याय
मीर ज़ाफ़र ने इस तरह बंगाल पर एक प्रकार से अंग्रेज़ों का राजनीतिक तथा सैनिक प्रभुत्व स्वीकार कर अपनी नवाबी का अगौरवपूर्ण अध्याय आरम्भ किया। उसने 1756 ई. में कलकत्ता पर दख़ल करने से अंग्रेज़ों को जो क्षति उठानी पड़ी थी उसके लिए 1,77,00,000 रू. हर्जाना देकर, अंग्रेज़ी सेना, नौसेना तथा अधिकारियों को 1,12,50,000 रु0 देकर (जिसमें 23,40,000 रु0 सिर्फ़ रॉबर्ट क्लाइव को दिये गये) तथा चौबीस परगने की सारी मालगुजारी कम्पनी को सौंप कर राज्य को दीवालिया बना दिया। वह अपनी फ़ौज की तनख्वाहें देने में भी असमर्थ हो गया। इस प्रकार मीर ज़ाफ़र अंग्रेज़ों पर अधिकाधिक निर्भर होता गया और शीघ्र ही अपनी स्थिति से बेचैन हो उठा। अतएव उसने अंग्रेज़ों के विरुद्ध डच लोगों से षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया। परन्तु अंग्रेज़ों ने बिदर्रा में डच लोगों को हरा दिया। 1760 ई. में मीर ज़ाफ़र का संरक्षक क्लाइव इंग्लैण्ड चला गया और इसके बाद मीर ज़ाफ़र का लड़का तथा भावी उत्तराधिकारी मीरन बिजली गिरने से मर गया। इसके फलस्वरूप मीर ज़ाफ़र के उत्तराधिकारी का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। क्लाइव के उत्तराधिकारियों ने क्लाइव का ही अनुकरण किया और 1760 ई. में उन्होंने मीर ज़ाफ़र को गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीर क़ासिम को नया नवाब बना दिया।
पुन: नवाब पद की प्राप्ति
मीर ज़ाफ़र ने बिना कोई प्रतिरोध किये 1760 ई. में नवाबी छोड़ दी, परन्तु 1763 ई. में अंग्रेज़ों और नवाब मीर क़ासिम में युद्ध छिड़ जाने पर उसे फिर नवाब बना दिया गया। पुन: नवाबी प्राप्त करने से पूर्व मीर ज़ाफ़र ने अंग्रेज़ों से एक संधि की, जिसके द्वारा उसने अपनी फ़ौजों की संख्या सीमित करना, राजधानी मुर्शिदाबाद में स्थायी ब्रिटिश रेजिडेंट रखना, अंग्रेज़ों के नमक के व्यापार पर केवल 2 प्रतिशत चुँगी लेना, कम्पनी को युद्ध के खर्च के तौर पर 35 लाख रुपया देना, अंग्रेज़ी सेना तथा नौसेना के सदस्यों को भेंट के तौर पर 37 लाख रुपया देना तथा मीर क़ासिम से युद्ध में जिन लोगों को व्यक्तिगत रूप से क्षति उठानी पड़ी, उन्हें हर्जाना देना स्वीकार कर लिया।
मृत्यु
इस प्रकार एक बार पुन: नवाबी मिलने पर मीर ज़ाफ़र की आर्थिक स्थिति पहले से भी अधिक शोचनीय हो गयी। उसका राजनीतिक भविष्य लगभग समाप्त हो गया। उसे अफीम की लत थी और वह कुष्ठ रोग से भी पीड़ित था। 1765 ई. में उसकी कलंकपूर्ण मृत्यु हो गयी। बंगाल में मुस्लिम शासन के पतन के लिए जो भारतीय मुसलमान ज़िम्मेदार थे, उनमें मीर ज़ाफ़र प्रमुख था।
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