मृत्युंजय (उपन्यास)
मृत्युंजय | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- मृत्युंजय (बहुविकल्पी) |
मृत्युंजय (उपन्यास)
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लेखक | शिवाजी सावंत |
मूल शीर्षक | मृत्युंजय |
प्रकाशक | भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी 2002 |
ISBN | 81-263-0769-2 |
देश | भारत |
भाषा | मराठी |
विधा | उपन्यास |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
विशेष | इसका अनुवाद अंग्रेज़ी एवं हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम, बांग्ला आदि अनेक भाषाओं में भी हो चुका है। |
मृत्युंजय मराठी के यशस्वी उपन्ययासकार शिवाजी सावंत का सांस्कृतिक उपन्यास है जो आधुनिक भारतीय कथा-साहित्य में निःसन्देह एक विरल चमत्कार है। मूर्तिदेवी पुरस्कार सहित कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित और अनेक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनूदित यह कालजयी उपन्यास अपने लाखों पाठकों की सराहना पाकर इस समय भारतीय साहित्य-जगत् में लोकप्रियता के शिखर पर प्रतिष्ठित है।
कथानक
मृत्युंजय उपन्यास महारथी दानवीर कर्ण के विराट् व्यक्तित्व पर केन्द्रित है। महाभारत के कई मुख्य पात्रों के बीच - जहाँ स्वयं कृष्ण भी - कर्ण की ओजस्वी, उदार, दिव्य और सर्वांगीण छवि प्रस्तुत करते हुए श्रीसावंत ने जीवन के सार्थकता, उसकी नियति और मूल-चेतना तथा मानव-सम्बन्धों की स्थिति एवं संस्कारशीलता की मार्मिक और कलात्मक अभिव्यक्ति की है। मृत्युंजय में पौराणिक कथ्य और सनातन सांस्कृतिक चेतना के अन्तः सम्बन्धों को पूरी गरिमा के साथ उजागर किया गया है। उपन्यास को महाकाव्य का धरातल देकर चरित्र की इतनी सूक्ष्म पकड़, शैली का इतना सुन्दर निखार और भावनाओं की अभिव्यक्ति में इतना मार्मिक रसोद्रेक - सब कुछ इस उपन्यास में अनूठा है।[1]
'मृत्युंजय' और शिवाजी सावंत
विचित्र है कथा इस उपन्यास-रचना की। 14 वर्ष की अवस्था में एक किशोर ने सहपाठियों के साथ एक नाटक खेला जिसमें उसने कृष्ण की भूमिका निभायी। स्कूल के मंच पर नाटक होते ही रहते हैं। नाटककार और नाटक और अभिनेता सब अपने-अपने रास्ते लगे। लेकिन इस लड़के के मन में कर्ण आकर ऐसे विराजे कि आसन से उठने का नाम ही न लें। मन की उर्वरा भूमि में सृजन का एक बीज पड़ गया। धीरे-धीरे जमीन तैयार होती रही। जब 23-24 वर्ष की आयु में शिवाजी सावन्त ने कर्ण के चरित्रों को कागज पर उतारने का प्रयत्न किया तो एक नाटक की रेखाएँ उभरकर आने लगीं, किन्तु चित्र नहीं बन पाया। और तब शिवाजी सावन्त की अन्तःप्रेरणा ने कथा-नायक को समुचित विधा की भूमिका दे दी। यह उपन्यास आकार लेने लगा। महाभारत का पारायण तो मूल आधार था ही, लेकिन दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ और केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ का खण्डकाव्य ‘कर्ण’ ने बीज को ऐसे सींच दिया कि अंकुर फूट आये। अंकुर फूटने से लेकर वृक्ष के पल्लवित, पुष्पित और फलित होने तक की कथा सदा ही धरा की व्यथा-कथा भी रही है और पुलक- गाथा भी।[1]
प्रथम संस्करण
जब 1967 में मराठी में इस उपन्यास का 3000 का प्रथम संस्करण छपा तो पाठक पढ़कर स्तब्ध रह गये। कर्ण, कुन्ती, दुर्योधन, वृषाली (कर्ण-पत्नी), शोण और कृष्ण के मार्मिक आत्म-कथ्यों की श्रृंखला को रूपायित करने वाला यह उपन्यास पाठकों में इतना लोकप्रिय हुआ कि चार पाँच वर्षों में इसके चार संस्करण प्रकाशित हो चुके, प्रतियों की संख्या पचास हजार में। समीक्षकों और कृती साहित्यकारों की प्रशंसा का यह हाल कि महाराष्ट्र सरकार का साहित्य पुरस्कार इस कृति को प्राप्त हुआ; केलकर पुरस्कार, महाराष्ट्र साहित्य परिषद एवं ‘ललित’ पत्रिका पुरस्कार आदि द्वारा भी यह कृति और यह कृतिकार अभिनन्दित हुए। उपन्यास का गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। आकाशवाणी पूना से इसका रेडियों रूपान्तर भी प्रसारित हुआ है।[1]
अन्य भाषाओं में अनुवाद
यह उपन्यास शिवाजी सावंत की लोकप्रियता का प्रतिमान बना। इसका अनुवाद अंग्रेज़ी एवं हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम, बांग्ला आदि अनेक भाषाओं में भी हो चुका है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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