मेवाड़ के लोक संस्कार

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मेवाड़ अपने प्रारम्भिक समय से ही सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियों में जकड़ा रहा था। इन रूढ़ियों ने कई सामाजिक-धार्मिक संस्कारों को जन्म दिया तथा उन्हें समाज में एक स्थान दिया। यहाँ प्रचलित सोलह संस्कारों में से कुछ संस्कार निम्नलिखित थे-

  1. विवाह
  2. मृतक संस्कार
  3. पुंसवन
  4. सीमन्तोन्नयन
  5. जातकर्म
  6. नामकरण
  7. अन्नप्राशन
  8. चूड़ाकरण

उपरोक्त संस्कारों में विवाह तथा मृतक संस्कार सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग थे। अन्य संस्कारों का समाज पर उतना प्रभाव नहीं था। परन्तु 19वीं सदी के उपरान्त धीरे-धीरे संस्कारों का वैदिक स्वरूप लोक संस्कारों में परिवर्तित होने लगा था तथा लम्बे समय तक व्यवहार में आते-आते धार्मिक प्रथाओं का रूप ग्रहण कर चुका था।

विवाह संस्कार

मेवाड़ में संयुक्त परिवार व्यवस्था में विवाह संस्कार एक धार्मिक तथा सामाजिक दायित्व समझा जाता था। प्रायः परिवार के मुखिया ही वैवाहिक संबंध तय करते थे। कन्या के परिवार वाले अपनी स्थिति से उच्च तथा प्रतिष्ठित परिवार में संबंध करने की लालसा रखते थे। साधारणत: अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करने की प्रथा प्रचलित थी, किन्तु निम्न जातियों में इस प्रकार का कोई कठोर प्रतिबंध नहीं था। सगाई के समय ही दहेज देने का प्रचलन था। यह प्रथा पहले शासक एवं कुलीन वर्ग तक ही सीमित थी, किन्तु 11वीं सदी में इसका प्रभाव समूचे मेवाड़ी जन-जीवन पर दृष्टिगत होने लगा था। इसी प्रथा का परिणाम था कि परिवार में लड़की का जन्म अभिशाप समझा जाने लगा तथा कन्या-वध की अमानवीय परम्परा का प्रचलन हुआ। भील, ग्रासिया तथा मीणा जैसी जनजातियों में जीवन साथी चुनने की स्वच्छन्द परम्परा थी, अतः उनमें सगाई प्रथा का अधिक प्रचलन नहीं था। सगाई के बाद ज्योतिष अथवा पंडित से विवाह का शुभ मुहूर्त निश्चित किया जाता था। वर्षा ऋतु में विवाह नहीं किये जाते थे। जन्माष्टमी, बसंत पंचमी और अक्षय तृतीया के लिए मुहूर्त पूछने की आवश्यकता नहीं थी।

विवाह का दिन निश्चित हो जाने से लेकर बारात की विदाई तक अलग-अलग जातियों में विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। बारात की विदाई के पूर्व दहेज दिया जाता था, जिसका सामाजिक प्रदर्शन किया जाता था। इसके साथ ही जाति पंचायत के सामाजिक नेग व दस्तूर का लेन देन होता था और अमल-पानी का पान किया जाता था। विवाह की क्रिया में दोनों परिवारों द्वारा ज्योतिष, नाई, ढोली, सुथार, सोनी, चारण-भाट आदि को नेग दिया जाता था। सम्पूर्ण क्रिया से प्रतीत होता है कि 19वीं सदी में विवाह जैसे पवित्र संस्कार में धन सम्बन्धी लेन-देन ने अत्यधिक महत्व प्राप्त कर लिया था। कभी-कभी सगाई तय कर देने के बाद भी अधिक धन मिलने की संभावना होने पर सगाई संबंध तोड़ दिया जाता था, और लड़की का विवाह दूसरी जगह कर दिया जाता था। द्विज जातियों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में विधवा-विवाह धर्म-विरुद्ध समझा जाता था, किंतु विधुर पुरुष पुनर्विवाह कर सकते थे। दूसरी तरफ़ निम्न जातियों में 'दापा प्रथा' प्रचलित थी, जिसमें पति की मृत्युपरांत या जीवित अवस्था में भी स्त्री पुनर्विवाह कर सकती थी। 'दापा प्रथा' के अन्तर्गत घुमक्कड़ तथा आदिवासी जातियाँ 'वधू मूल्य' चुकाती थीं। दहेज अथवा दापा नहीं जुटा पाने की स्थिति में 'आटा-साटा प्रथा' द्वारा विवाह सम्पन्न होता था। समाज में 'बाल विवाह' का प्रचलन भी था। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने 'बाल विवाह' तथा 'अनमेल विवाह' को रोकने का प्रयत्न किया था, किन्तु अंधविश्वास व सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों ने इस प्रथा को लंबे समय तक जीवित रखा। कुलीन और अभिजात वर्ग में बहुविवाह तथा उपपत्नी (रखैल) रखने की प्रथा का भी प्रचलन था। यद्यपि समाज के अन्य वर्गों में भी रखैल स्त्री रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, तथापि इसका अधिक प्रचलन संपन्न लोगों के बीच ही था।

विवाह का मुख्य सामाजिक-धार्मिक लक्ष्य संतानोत्पत्ति करना था। वयस्क विवाहिता के विवाहोपरांत दो-तीन वर्ष में यदि संतानोत्पत्ति के चिह्न दिखाई नहीं देते थे तो उसे बांझ स्त्री की संज्ञा दी जाती थी और बांझ स्त्री का सामाजिक सम्मान कम हो जाता था। ऐसी स्त्रियों को परिवार में प्रताड़नाओं का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। पुत्र प्राप्ति की उत्कृष्ट लालसा के कारण स्त्रियाँ जादू-टोनों, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वासों तथा अनाचारों में फंस जाती थीं। नातायत जातियों में तो पुत्र उत्पन्न न होने पर विवाह-विच्छेद तक हो जाते थे। समाज में इस विवाह-विच्छेद को 'लुंगड़ा-फाड़ना' कहा जाता था। किंतु यदि किसी स्त्री ने पुत्र को जन्म दिया है तो उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का स्तर बढ़ जाता था। परिवार में हर्ष और उल्लास फैल जाता था। संपन्न एवं धनि परिवार के लोग इस अवसर पर प्रीतिभोज का आयोजन कर दान-पुण्य करते थे। दूसरी ओर आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर परिवारों में कांसे की थाली बजाकर तथा गुड़ बांटकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की जाती थी। शिशु के जन्मोत्सव के बाद अन्य लोक संस्कारों का भी पालन किया जाता था।[1]

मृतक संस्कार

मेवाड़ में अंत्येष्टि संस्कार भी एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक क्रिया थी। हिन्दू धर्म की मान्यतानुसार मनुष्य परलोक में अंत्येष्टि संस्कार की शुद्धता द्वारा ही सुख भोगता है और जब तक उसका मोक्ष नहीं हो जाता, उसकी आत्मा भटकती रहती है तथा जीवित प्राणियों को कष्ट देती है। भील, मीणा व ग्रामिया जाति में भी यह मान्यता थी कि अच्छी और बुरी आत्मा द्वारा जीवित व्यक्तियों को लाभ और हानि दी जा सकती है। अतः अलग-अलग जातियों में मृतक संस्कार के पृथक-पृथक् रिवाजों की परम्परा होते हुए भी संस्कार की शुद्धता सभी जातियों में महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। मेवाड़ी समाज में इस संस्कार का पालन करना अनिवार्य था, अन्यथा समाज इसके लिए व्यक्ति अथवा परिवार को बाध्य करता था। किसी व्यक्ति की मृत्यु निकट प्रतीत होने पर उसे खाट या पलंग से उतार कर गोबर पुते फर्श पर सुलाया जाता था। उसके संबंधी गीता अथवा रामायण का पाठ सुनाते हुए मुँह में गंगाजल या तुलसी का पत्ता डालते थे। साथ ही शास्त्रानुसार दस दान- गौ, भूमि, तिल, स्वर्ण, घृत, वस्त्र, धान, गुड़, चाँदीनमक का आर्थिक स्थिति के अनुसार संकल्प कराते थे। मृत्यु के पश्चात् समृद्ध मृतक को अर्थी के साथ-साथ उसके सम्बन्धी रुपया, पैसा, मोती, कौड़ियाँ तथा अन्न उछालते थे और आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर परिवार वाले नारियल के टुकड़े साथ कौड़ियाँ उछालते थे। श्मशान घाट में मान्यतानुसार मृतक को जलाया अथवा गाड़ा जाता था। मेवाड़ में अभिजात वर्ग का श्मशान घाट "महासत्या" कहलाता था। मेवाड़ में यह परम्परा रही है कि किसी महाराणा की मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी स्वर्गीय महाराणा की दाह क्रिया में सम्मिलित नहीं होता था। जन साधारण में बारह दिन का अशौच रखा जाता था।

द्विज जातियों में दसवें दिन मृतक के ज्येष्ठ पुत्र द्वारा पिण्डदान किया जाता था और मृतक के पुरुष रिश्तेदार, जो उम्र में मृतक से छोटे होते थे, सिर क बाल, दाढ़ी और मूंछ मुण्डवाकर भदर होते थे। बारहवें दिन मृतक भोज का आयोजन किया जाता था तथा पगड़ी की रस्म अदा की जाती थी। समाज में मृतक भोज का आयोजन महारोग के समान व्यापक था। सामाजिक दबाव और लोक भय के कारण निर्धन लोगों को कर्ज़ लेकर भी मृतक भोज का आयोजन करना पड़ता था और वे जीवन भर ऋण नहीं चुका पाते थे। राज्य के उच्चाधिकारी अथवा कृपा पात्रों को मृतक भोज के लिए राज्य की ओर से द्रव्य एवं नक़द सहायतार्थ दिया जाता था। मृत्यु के एक वर्ष बाद श्राद्ध कर्म किया जाता था। अभिजात एवं संपन्न वर्ग द्वारा यह श्राद्ध कर्म हरिद्वार, गया अथवा बनारस में किया जाता था या फिर कभी तीर्थयात्रा के अवसर पर इसे पूर्ण किया जाता था। श्राद्ध के अवसर पर दान-पुण्य करने का भी नियम प्रचलन में था। आदिवासी जातियों में श्राद्ध की परंपरा चलन में नहीं थी।[2]

डाकन प्रथा

मेवाड़ी दलित समाज में, विशेषकर भील, मीणा आदि रुढ़िवादी जातियों में 'डाकन प्रथा' नामक कुप्रथा प्रचलित थी। आदिवासी जातियों में यह अंधविश्वास व्याप्त था कि मृत व्यक्ति की अतृप्त आत्मा जीवित व्यक्तियों को कष्ट पहुँचाती है। ऐसी आत्मा यदि पुरुष के शरीर में प्रवेश करती है, तो उसे 'भूत लगना' तथा स्त्री के शरीर में प्रवेश करने पर उसे 'चुड़ैल लगना' कहा जाता था। चुड़ैल प्रभावित स्त्री को डाकन कहा जाता था। डाकन घोषित कर दी गई स्त्री समाज के लिए अभिशाप समझी जाती थी। अतः उस स्त्री को जीवित जलाकर या सिर काटकर या पीट-पीटकर मार दिया जाता था। राज्य द्वारा भी डाकन घाषित स्त्री को मृत्यु दण्ड दिया जाता था।

कन्या वध

18वीं और 19वीं शताब्दी के मध्य तक मेवाड़ में 'कन्या वध' की प्रथा सीमित मात्रा में प्रचलित थी, लेकिन धीरे-धीरे इस घृणित कृत्य ने गंभीर रूप धारण कर लिया। यहाँ तक की कुछ हद तक ये कुप्रथा परम्परा का एक हिस्सा बन गई। कन्या वध की परम्परा की उत्पत्ति का सर्वप्रमुख कारण था- "कन्या के विवाह की समस्या"। किसी भी कन्या का विवाह अपने से उच्च कुल अथवा खांप में किया जाना उचित माना जाता था। कोई भी राजपूत अपने सम्पूर्ण कुल के सदस्यों को भाई-बहन के रूप में मानते थे, अतः अपने कुल में शादी नहीं कर सकते थे। अपने से निम्न कुल में कन्या विवाह समाज में प्रतिष्ठा के विरुद्ध माना जाता था। उच्चोच्च वंश विवाह की परम्परा के कारण वैवाहिक सम्बन्धों का क्षेत्र काफ़ी सीमित हो गया। उच्च घराने में विवाह करना खर्चीला था। उनके अनुरूप दहेज तथा त्याग के खर्चे जुटाने में लोग आर्थिक रूप से पंगु हो जाते थे। मेवाड़ पर मराठों के अतिक्रमण व लूटमार के कारण जनता की आर्थिक स्थिति पहले से ही दयनीय थी। इस प्रकार परिस्थितिवश राजपूतों ने कन्या वध का विकल्प चुना। किंतु यह उल्लेखनीय है कि खुद महाराणाओं व सामन्तों ने इस प्रथा को नहीं अपनाया था। प्रारम्भ में कन्या वध की प्रथा के विरुद्ध कोई ध्यान नहीं दिया गया। वैसे तो अधिकांश राजपूत कन्या वध के विरोधी थे, लेकिन इस परम्परागत प्रथा को समाप्त करने के लिए कोई भी व्यक्ति पहल करने को तैयार नहीं था। मेवाड़ के महाराणा ने सर्वप्रथम 1834 ई. में मीणा जाति के लिए कन्या वध को गैर क़ानूनी घोषित कर दिया। समस्या की जटिलता को देखते हुए पुनः 24 मई, 1844 ई. को सभी जातियों के लिए इस प्रथा को गैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन चूंकि कन्या वध की परम्परा लोगों की मनःस्थिति से जुड़ी थी, अतः शिशु वध की घटनाओं में धीरे-धीरे कमी तो आई, लेकिन इसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका।[3]

त्याग प्रथा

मेवाड़ में राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर राज्य के तथा राज्य के बाहर के चारण-भाट, ढोली आ जाते थे तथा मुँह मांगी दान-दक्षिणा प्राप्त करने का हठ करते थे। चाराणों, भाटों व ढोलियों को दी जाने वाली यह दान दक्षिणा "त्याग" कहलाती थी। इसी प्रकार अन्य द्विज जातियों में कुम्हार, माली, नाई आदि नेग लिया करते थे। मुँह मांगी दान दक्षिणा नहीं मिलने पर उस परिवार का सामाजिक उपहास किया जाता था। चारणों की माँग पूर्ति के लिए व्यक्ति को असह्य व्यय-भार उठाना पड़ता था। लड़की के पिता के लिए तो यह व्यय-भार और भी अधिक हो जाता था। एक तरफ़ जब कन्या-वध की प्रथा को गैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया था, तब उसे सफल बनाने के लिए इस त्याग समस्या का हल करना आवश्यक हो गया था। 'त्याग प्रथा' के अन्तर्गत अधिकतम त्याग की राशि देकर लोग अपनी प्रतिष्ठा व आर्थिक स्थिति को ऊपर दिखाने की कोशिश करते थे। और इसी तरह के अहं प्रदर्शन की प्रतिस्पर्द्धा के कारण यह प्रथा अत्यन्त ही विकृत रूप धारण करने लगी थी।

सर्वप्रथम 1841 ई. में जब जोधपुर राज्य ने त्याग के सम्बन्ध में नियम बनाये, तब ब्रिटिश सरकार ने राजपूताना के अन्य शासकों को भी इस प्रकार के नियम जारी करने के सम्बन्ध में विशेष खरीते भेजे। इसके फलस्वरूप महाराणा सरदार सिंह ने 1844 ई. में तथा महाराणा स्वरूपसिंह ने 1855 ई. व 1860 ई. में त्याग करने तथा सामाजिक-आर्थिक प्रदर्शनों की प्रतिस्पर्द्धा रोकने के लिए राजकीय आदेश जारी किये। इन आदेशों के अंतर्गत दूसरे राज्यों के चारण-भाटों को उदयपुर आने से रोक लगा दिया गया और उदयपुर के चारण-भाटों का अन्य राज्यों में त्याग मांगने के लिए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन आदेशों से त्याग की समस्या काफ़ी अंशों तक हल हो गयी। 1888 ई. में राजपूताना के ए. जी. जी. कर्नल वाज्टर ने राजपूतों व चारणों में प्रचलित सामाजिक-आर्थिक प्रतिस्पर्धा को रोकने, शादी और गर्मी में होने वाले खर्चे में कमी करने, लड़के-लड़कियों की विवाह योग्य आयु का नियमन कर अनमेल विवाह की भावना जागृत करने आदि के लिये वाल्टर कृत 'राजपूत्र हितकारिणी सभा' की स्थापना की। इस सभा की प्रथम बैठक अजमेर में 1888 ई. में हुई, जिसमें प्रस्ताव पारित किया गया कि चारण-भाटों व ढोलियों को त्याग केवल लड़के के पिता द्वारा किया जायेगा तथा प्रत्येक राजपूत्र जागीरदार व शासक अपने ज्येष्ठ पुत्र के प्रथम विवाह पर अपनी वार्षिक आय के नौं प्रतिशत से अधिक त्याग नहीं देगा और दूसरे पुत्रों व भाइयों के विवाह पर एक प्रतिशत से अधिक त्याग नहीं देगा। इस सभा की बैठक प्रति वर्ष अजमेर में होने लगी, जिसमें प्रत्येक राज्य में गठित स्थानीय समितियों की रिपोर्टों पर विचार किया जाता था। यह स्थानीय समितियाँ अपने-आप राज्यों में सभा के निर्णय लागू करवाती थीं तथा निर्णयों की अवहेलना करने वालों को चेतावनी अथवा दण्ड देती थीं। सभा की कार्यवाहियों का लाभ राजपूत जातियों के साथ अन्य जातियाँ भी उठाने लगीं तथा उन जातियों के सामाजिक-आर्थिक व्यय पर नियंत्रण करने के लिये नियमों का निर्माण किया गया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी के आते-आते सुधारों के परिणाम दृष्टिगत होने लगे।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मेवाड़ में विवाह संस्कार का प्रचलन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 जनवरी, 2013।
  2. मेवाड़ में मृतक संस्कार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 जनवरी, 2013।
  3. कन्या वध (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 जनवरी, 2013।
  4. त्याग प्रथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 29 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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