रंगमंच

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रंगमंच
चरकुला नृत्य, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
चरकुला नृत्य, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
विवरण 'रंगमंच' वह स्थान है जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों।
'रंगमंच' शब्द का अर्थ रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों के मिलने से बना है। रंग इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छतों और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेशभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है, और मंच इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊँचा रहता है।
इतिहास नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं।
आधुनिक रंगमंच आधुनिक रंगमंच का वास्तविक विकास 19वीं शती के उत्तरार्ध से आरंभ हुआ और विन्यास तथा आकल्पन में प्रति वर्ष नए-नए सुधार होते रहे हैं; यहाँ तक कि 10 वर्ष पहले के थिएटर पुराने पड़ जाते रहे हैं, और 20 वर्ष पहले के अविकसित और अप्रचलित समझे जाने लगे हैं।
अन्य जानकारी चित्रपट (सिनेमा) के आ जाने से रंगमंच का स्थान बहुत संकीर्ण हो गया है। विशाल प्रेक्षागृहों में, केवल एक छोटा सा रंगमंच जिस पर कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर छोटे मोटे नृत्य, या एकांकी आदि खेले जा सकें, बना देना पर्याप्त समझा जाता है।

रंगमंच वह स्थान है जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों। रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों के मिलने से बना है। रंग इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छतों और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेशभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है, और मंच इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊँचा रहता है। दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समुचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला, या नाट्यशाला (या नृत्यशाला) कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम दिया जाता है।

आविर्भाव

ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लोगों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटकों के विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया है: "नाट्यकला की उत्पत्ति दैवी है, अर्थात्‌ दु:खरहित सत्ययुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने स्रष्टा ब्रह्मा से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की जिससे देवता लोग अपना दु:ख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलत: उन्होंने ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गायन, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर, नाटक का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने रंगमंच बनाया" आदि।

नाटकों का विकास चाहे जिस प्रकार हुआ हो, संस्कृत साहित्य में नाट्य ग्रंथ और तत्संबंधी अनेक शास्त्रीय ग्रंथ लिखे गए और साहित्य में नाटक लिखने की परिपाटी संस्कृत आदि से होती हुई हिन्दी को भी प्राप्त हुई। संस्कृत नाटक उत्कृष्ट कोटि के हैं और वे अधिकतर अभिनय करने के उद्देश्य से लिखे जाते थे। अभिनीत भी होते थे, बल्कि नाट्यकला प्राचीन भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग थी, ऐसा संस्कृत तथा पानी ग्रंथों के अन्वेषण से ज्ञात होता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से तो ऐसा ज्ञात होता है कि नागरिक जीवन के इस अंग पर राज्य को नियंत्रण करने की आवश्यकता पड़ गई थी। उसमें नाट्यगृह का एक प्राचीन वर्णन प्राप्त होता है। अग्नि पुराण, शिल्परत्न, काव्यमीमांसा तथा संगीतमार्तंड में भी राजप्रसाद के नाट्यमंडपों के विवरण प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार महाभारत में रंगशाला का उल्लेख है और हरिवंश पुराण तथा रामायण में नाटक खेले जाने का वर्णन है। इतना सब होते हुए भी यह निश्चित रूप से पता नहीं लगता कि वे नाटक किस प्रकार के नाट्यमंडपों में खेले जाते थे तथा उन मंडपों के क्या रूप थे। अभी तक की खोज के फलस्वरूप सीतावंगा गुफा को छोड़कर कोई ऐसा गृह नहीं मिला जिसे साधिकार नाट्यमंडप कहा जा सके।

रामलीला, मथुरा

पाश्चात्य विद्वानों की भी धारणा है कि धार्मिक कृत्यों से ही नाटकों का प्रादुर्भाव हुआ। इससे रंगस्थली (यदि वास्तव में उसे रंगस्थली की संज्ञा दी जा सके) के प्रारंभिक स्वरूप की कल्पना की जा सकती है कि वह वृत्ताकर रही होगी। धीरे-धीरे जब दर्शनीयता की ओर अधिक ध्यान दिया गया होगा, तब यह अनुभव किया गया होगा कि इस वृत्ताकार रंगस्थली में केवल आगे के कुछ दर्शक की दृश्य का पूरा आनंद उठा सकते हैं, पीछे बैठने वालों को सिर उठाने की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से कटोरानुमा स्थान रंगस्थली के लिए अधिक उपयुक्त समझा जाने लगा होगा। धार्मिक कृत्यों और नृत्य आदि के लिए यह उत्तम प्रबंध था। धीरे-धीरे जब नाटकों का रूप अधिक विकसित हुआ, तब यह अनुभव हुआ होगा कि कथाकार और अभिनेताओं के सामने की ओर बैठने वालों को ही देखने और सुनने की अच्छी सुविधा होती है। इसके लिए पर्वतीय स्थानों में घाटी बहुत उपयुक्त प्रतीत हुई होगी, जिसमें ढाल पर बैठे दर्शक नीचे अभिनेताओं को भली भाँति देख सुन सकते थे और उनके पीछे फैला हुआ विस्तृत भूखंड सहज सुंदर चित्रित प्राकृतिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता था। शायद इसी का अनुकरण अपर्वतीय पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता था। शायद इसी का अनुकरण अपर्वतीय स्थानों में कृत्रिम रंगशालाएँ बनाकर किया गया, जिनमें वृत्ताकार दीवार के अंदर सीढ़ीनुमा स्थान दर्शकों के बैठने के लिए होता था, जो भीतर बने ऊँचे चबूतरे को तीन ओर से घेरे रहता था। चौथी ओर सीधी दीवार होती थी, जिसमें सुंदर चित्रकारी होती थी। इसके पीछे नेपथ्य होता था। जहाँ अभिनेताओं के उठने बैठने और उनकी रूपसज्जा का प्रबंध रहता था। उपर्युक्त चिरप्रतिष्ठित रंगशाला के प्राचीन रूपों में धीरे-धीरे सुधार होता गया। कालांतर में प्रेक्षास्थान तीन ओर के बजाय केवल एक ओर, सामने ही सामने रह गया। सारा विन्यास गोल से बदलकर चौकोर हो गया और नाट्यशाला का आधा, या इससे भी अधिक स्थान घेरने लगा।

भारत के आदिकालीन रंगमंच

सीतावंगा की गुफा के देखने से पुराने नाट्यमंडपों के स्वरूप का कुछ अनुमान हो जाता है। यह गुफा 13.8 मीटर लंबी तथा 7.2 मीटर चौड़ी है। भीतर प्रवेश करने के लिए बाईं ओर से सीढ़ियाँ हैं, जिनसे कदाचित अभिनेता प्रवेश करते थे। भीतरी भाग में रंगमंच की व्यवस्था है। यह 2.3 मीटर चौड़ी तीन सीढ़ियों (चबूतरों) से बना है, जो एक दूसरे से 75 सेंमी. ऊँची हैं। चबूतरों के समने दो छेद हैं, जिनमें शायद बाँस या लकड़ी के खंभे लगाकर पर्दें लगाए जाया करते थे। दर्शकों के लिए जो स्थान है, वह ग्रीक ऐंफीथिएटर की भाँति सीढ़ीनुमा है। यहाँ 50 व्यक्ति बैठ सकते हैं। यह आदिकालीन रंगमंच का स्वरूप भी ऊपर वर्णित विकसित स्वरूप से मेल खाता है। भरत नाट्यशास्त्र से भी हमें नाट्यमंडप के प्राचीन स्वरूप का संकेत मिलता है। आदिवासियों के मंडप गुफारूपी (शैलगुहाकारी) हुआ करते थे, किंतु आर्य लोग अपनी आश्रम सभ्यता के अनुरूप अस्थायी तंबूनुमा नाट्यमंडपों से ही काम चलाया करते थे।

भरत नाट्यशास्त्र पहली अथवा दूसरी शती ई. में संकलित हुआ समझा जाता है। भरत ने आदिवासियों तथा आर्यों दोनों के नाट्यमंडपों के आकार को अपनाया है। इन दोनों के सम्मिश्रण से इन्होंने नाट्यमंडपों के जो रूप निर्धारित किए, वे सर्वथा भारतीय हैं। प्राचीन यूनानी और रोमन स्वरूपों से इनका कोई संबंध नहीं प्रतीत होता। पाश्चात्य नाट्यमंडप खुले मैदानों में बनते थे और उनमें दर्शकों के हेतु सीढ़ीनुमा अर्धचंद्राकार प्रेक्षास्थान बनते थे। इसके विपरीत भारत में नाट्यमंडप की व्यवस्था एक गृह के भीतर होती थी।

भरत के रंगमंच

भरत नाट्यशास्त्र के अनुसार रंगमंच के रूप [1]
विकृष्ट (आयताकर)
चतुरस्र (वर्गाकार)
त्रयस्र (त्रिभुजाकार)

भरत ने तीन प्रकार के नाट्यमंडपों का विधान बताया है :

  • विकृष्ट (अर्थात्‌ आयताकार),
  • चतुरस्र (वर्गाकार) तथा
  • त्र्यस्त्र (त्रिभुजाकार)।

उन्होंने इन तीनों के फिर तीन तीन भेद किए हैं :

  • ज्येष्ठ (देवताओं के लिए),
  • मध्यम (राजाओं के लिए), तथा
  • अवर (औरों के लिए)।

इनकी माप के विषय के दिए गए निर्देशों के अनुसार ज्येष्ठ की लंबाई लगभग 51 मीटर, मध्यम की लगभग 29 मीटर और अवर की लगभग 14.5 मीटर होगी। चतुरस्र मंडप की चौड़ाई लंबाइ के बराबर, और विकृष्ट की लंबाई से आधी होगी।

भरत नाट्यशास्त्र के अनुसार नाट्यमंडप की नाप के आधार अणु, रज (=8 अणु), बाल (=8 रज), लिक्षा (=8 बाल), यूका (=8 लिक्षा), यव (=8 यूका), अँगुली (=8 यव), हस्त (=24 अंगुली), और दंड (=4 हस्त) हुआ करते थे। इस प्रकार एक हस्त 456 मिलीमीटर का होता है। कौटिल्य और पाणिनि ने माप के जो आधार दिए हैं, वे भी इनसे मिलते हैं। विद्वानों का मत है कि ये आधार सिंधु सभ्यता के बाद इस देश में चालू हुए होंगे, क्योंकि उस प्राचीन सभ्यता में जो मापें मिली हैं, उनका आधार दशमलव प्रणाली है।

नाट्यशाला का प्राय: आधा भाग दर्शकों के लिए होता था, जिसे प्रेक्षागृह कहते थे; शेष आधे में रंगमंडप होता था। रंगमंडप के पिछले आधे भाग में नेपथ्य होता था। शेष के आधे में सामने रंगशीर्ष और पीछे, नेपथ्य की ओर, रगंपीठ होता था। नेपथ्य से रंगपीठ में आने जाने के लिए किनारों पर दो दरवाज़े होते थे, जिनमें संभवत: किवाड़े नहीं लगा करते थे। रंगपीठ के ऊपर ही, चार खंभों पर छत रखकर, मत्तवारणी बनाई जाती थी। मत्तवारणी संभवत: अटारी का द्योतक है। खंभों पर प्राय: हाथी के सिर के सदृश बनी घोड़ियों के ऊपर यह छत रहती थी, इसी से (शायद) इसे मत्तवारणी कहते थे। प्रेक्षागृह सीढ़ीनुमा बनाया जाता था। इन सीढ़ियों में से प्रत्येक 1 हाथ ऊँची होती थी, और उस पर लकड़ी के पटरे भी लगा करते थे, शायद उसी प्रकार के जैसे रोमन थिएटरों में होते थे।

दीवारों की सजावट

दीवारों को भीतर की ओर सजाने का भी विधान है। भरत के अनुसार भीत पर अच्छा भित्तिलेप (प्लास्टर) चढ़ाना चाहिए। विद्वानों का मत है कि मिट्टी तथा भूसी को मिलाकर लेवा चढ़ाया जाता था। इसे पीटकर समतल किया जाता था। फिर एक परत चूने की चढ़ाई जाती थी, जिसे घिस घिसकर चिकना किया जाता था। इसके ऊपर शंख पीसकर चढ़ाते थे, और पॉलिश करते थे। इन भीतों पर सुंदर चित्रकारी की जाती थी।

नाट्यमंडप में दीवारों के साथ खंभे बनाकर ऊपर छत बनाई जाती थी। रात्रि के समय प्रकाश के लिए दीपक व्यवहार में आते थे। बहुत से दीपकों के अतिरिक्त शायद मशाल से भी काम लिया जाता रहा होगा। ध्वनि नियंत्रण तथा विस्तार का कोई प्रबंध शायद न था; इसलिए भी नाट्यशालाएँ कुछ छोटी ही हुआ करती थीं। भारतीय प्रेक्षागृह आकार में ग्रीक प्रेक्षागृहों की अपेक्षा, जो बहुधा खुले हुआ करते थे, बहुत छोटे होते थे।

भरत नाट्यशास्त्र में दिए हुए नाट्यमंडप के आकार प्रकार तथा सजावट से ऐसा ज्ञात होता है कि उस समय तक भारत के आदिवासियों के नाट्यमंडपों का प्राथमिक रूप, जो हमें सीतावंगा गुफा, हाथीगुंफा, तथा नासिक के पास फुलुमई गुफा में प्राप्त होता है, आर्यों के प्राचीनतम लकड़ी के मकानों के रूप में समन्वित होकर तथा दोनों के सम्मिश्रण से एक नया ढाँचा खड़ा हो चुका था। यही नहीं, नाट्यमंडप के रूप के विषय में नियम भी बन चुके थे तथा उन पर धर्म का नियंत्रण भी प्रारंभ हो चुका था। ये नियम इतने कड़े थे कि मापने की रस्सी टूट जाना तथा एक भी स्तंभ का दोषयुक्त होना, नाट्यमंडप के स्वामी के मरण का सूचक समझा जाने लगा था। भरत के समय तक भारतीय रंगमंच इस महान् संसार का द्योतक माना जाने लगा था, जहाँ स्त्री पुरुष पविष्ट होकर अपनी पूर्वनिश्चित लीला करते हैं तथा उसकी समाप्ति पर यहाँ से विदा लेते हैं।

वर्तमान भारतीय रंगमंच

नौटंकी, बेंगलोर

आधुनिक भारतीय नाट्य साहित्य का इतिहास एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है। इस्लाम धर्म की कट्टरता के कारण नाटक को मुग़ल काल में उस प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला जिस प्रकार का प्रोत्साहन अन्य कलाओं को मुग़ल शासकों से प्राप्त हुआ था। इस कारण मुग़ल काल में के दो ढाई सौ वर्षों में भारतीय परंपरा की अभिनयशालाओं अथवा प्रेक्षागारों का सर्वथा लोप हो गया। अंग्रेजों का प्रभुत्व देश में व्याप्त होने पर उनके देश की अनेक वस्तुओं ने हमारे देश में प्रवेश किया। उनके मनोरंजन के निमित्त पाश्चात्य नाटकों का भी प्रवेश हुआ। उन लोगों ने अपने नाटकों के अभिनय के लिए यहाँ अभिनयशालाओं का संयोजन किया, जो थिएटर के नाम से अधिक विख्यात हैं। इस ढंग का पहला थिएटर, कहा जाता है, प्लासी के युद्ध के बहुत पहले, कलकत्ता में बन गया था। एक दूसरा थिएटर 1795ई. में खुला। इसका नाम 'लेफेड फेयर' था। इसके बाद 1812 ई. में 'एथीनियम' और दूसरे वर्ष 'चौरंगी' थिएटर खुले।

इस प्रकार पाश्चात्य रंगमंच के संपर्क में सबसे पहले बंगाल आया और उसने पाश्चात्य थिएटरों के अनुकरण पर अपने नाटकों के लिए रंगमंच को नया रूप दिया। दूसरी ओर बंबई में पारसी लोगों ने इन विदेशी अभिनयशालाओं के अनुकरण पर भारतीय नाटकों के लिए, एक नए ढंग की अभिनयशाला को जन्म दिया। पारसी नाटक कंपनियों ने रंगमंच को आकर्षक और मनोरंजक बनाकर अपने नाटक उपस्थित किए।

पाश्चात्य रंगमंच

यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यता में हम चौथी शती ई. पूर्व में रंगमंच होने की कल्पना कर सकते हैं। इतिहास प्रसिद्ध डायोनीसन का थिएटर एथेंस में आज भी उस काल की याद दिलाता है। एक अन्य थिएटर एपिडारस में है, जिसका नृत्यमंच गोल है। 364 ई. पूर्व रोम वाले इट्रस्कन अभिनेताओं की एक मंडली अपने नगर में लाए और उनके लिए 'सर्कस मैक्सियस' में पहला रोमन रंगमंच तैयार किया। इससे कल्पना की जाती है कि इट्रूरियावालों से ही (जिनका उद्गम विवादग्रस्त है) नाट्यकला और फलत: रंगमंच का प्रारंभिक रूप रोम में आया। सीज़र (कैसर) ऑगस्टस (दूसरी शती ई.पू.) ने रोम को बहुत उन्नत किया। पांपेई का शानदार थिएटर तथा एक अन्य (पत्थर का) थिएटर उसी के बनवाए बताए जाते हैं।

लगभग दूसरी शती ईसवी में रंगमंच कामदेव का स्थान माना जाने लगा। ईसाइयत के जन्म लेते ही पादरियों ने नाट्यकला को ही हेय मान लिया। गिरजाघर ने थिएटर का ऐसा गला घोटा कि वह आठ शताब्दियों तक न पनप सका। कुछ उत्साही पादरियों ने तो यहाँ तक फतवा दिया कि रोमन साम्राज्य के पतन का कारण थिएटर ही है। रोमन रंगमंच का अंतिम संदर्भ 533 ई. का मिलता है। किंतु धर्म जनसामान्य की आनंद मनाने की भावना को न दबा सका और लोकनृत्य तथा लोकनाट्य, छिपे छिपे ही सही, पनपते रहे। जब ईसाइयों ने इतर जातियों पर आधिपत्य कर लिया, तो एक मध्यम मार्ग अपनाना पड़ा। रीति रिवाजों में फिर से इस कला का प्रवेश हुआ। बहुत दिनों तक गिरजाघर ही नाट्यशाला का काम देता रहा, और वेदी ही रंगमंच बनी। 10 वीं से 13 वीं शताब्दी तक बाइबिल की कथाएँ ही प्रमुखत: अभिनय का आधार बनीं, फिर धीरे-धीरे अन्य कथाएँ भी आईं, किंतु ये नाटक स्वतंत्र ही रहे। चिर प्रतिष्ठित रंगमंच, जो यूरोप भर में जगह-जगह टूटे फूटे पड़े थे, फिर न अपनाए गए।

कठपुतलियाँ
पुनर्जागरण

इतालवी पुनर्जागरण के साथ वर्तमान रंगमंच का जन्म हुआ, किंतु उस समय जहाँ सारे यूरोप में अन्य सभी कलाओं का पुनरुद्वार हुआ, रंगमंच का पुन: अपना शैशव देखना पड़ा। 14 वीं शताब्दी में फिर से नाट्यकला का जन्म हुआ और लगभग 16 वीं शताब्दी में उसे प्रौढ़ता प्राप्त हुई। शाही महलों की अत्यंत सजी धजी नृत्यशालाएँ नाटकीय रंगमंच में परिणत हो गईं। बाद में उद्यानों में भी रंगशालाएँ बनीं, जिनमें अनेक दीवारों के स्थान पर वृक्षावली या झाड़बंदी ही हुआ करती थी।

रंगमंच का विकास विसेंजा और परमा में बनी हुई रंगशालाओं से स्पष्ट परिलक्षित होता है। विसेंजा की ओलिंपियन अकादमी में एक सुंदर रंगशाला सन्‌ 1580-1585 में बनी, जिस पर छत भी थी। इसमें पीछे की ओर वीथिकाओं जैसे अनेक कक्ष बढ़ाए गए। सन्‌ 1588 में सैवियोनेटा में स्कमोज़ी ने इन कक्षों को मुख्य रंगमंच से मिला दिया, और धीरे-धीरे बाद में वे भी रंगमंच ही हो गए। आगे चलकर सन्‌ 1618-1619 में परमा थिएटर में समूचा रंगमंच ही पीछे कर दिया गया और पृष्ठभूमि की चित्रित दीवार आगे आ गई, जिस पर बीच में बने एक बड़े द्वार से ही नाटक देखा जा सकता है। इस द्वार पर पर्दा लगाया जाने लगा। पर्दा उठने पर दृश्य किसी फ्रेम में जड़ी तस्वीर जैसा दिखाई पड़ता है। रंगमंच में भी दृश्यों के अनुकूल प्रभाव उत्पन्न करने के लिए अनेक पर्दें लगाए जाने लगे। मिलन का 'ला स्काला' ऑपेरा हाउस 18 वीं - 19 वीं शती में रंगमंच के विकास का आदर्श माना जाता है। इसमें पखवाइयाँ लगाने के लिए बगलों में स्थान बने हैं।

पुनर्जागरण सारे यूरोप में फैलता हुआ एलिज़बेथ काल में इंग्लैंड पहुँचा। सन्‌ 1574 तक वहाँ एक भी थिएटर न था। लगभग 50 वर्ष में ही वहाँ रंगमंच स्थापित होकर चरम विकास को प्राप्त हुआ। इस कला की प्रगति की ज्योति इटली से फ्रांस, स्पेन और वहाँ से इंग्लैंड पहुँची। रानी एलिज़ाबेथ को आर्डबर और तड़क भड़क से प्रेम था। इससे रंगमंच को भी प्रोत्साहन मिला। 1590 से 1620 ई. तक शेक्सपियर का बोलबाला रहा। रंगमंच विशिष्ट वर्ग का ही नहीं, जनसामान्य के मनोरंजन का साधन बना। किंतु प्रोटेस्टैट संप्रदाय द्वारा इसका विरोध भी हुआ और फलस्वरूप 1642 ई. में नाट्य कला पर रोक लग गई। धीरे-धीरे दरबारियों और जनता का आग्रह प्रबल हुआ, और रोक हटानी पड़ी। मार्लो, शेक्सपियर तथा जॉनसन आदि के विश्वविश्रुत नाटक पुन: प्रकाश में आए। ग्लोब थिएटर एलिज़बेथ कालीन रंगमंच का प्रतिनिधि है। इसमें पुरानी धर्मशालाओं का स्वरूप परिलक्षित होता है, जहाँ पहले नाटक खेले जाते थे। प्रांगण के बीच में रंगमंच होता था और चारों ओर तथा छज्जों में दर्शकों के बैठने का स्थान रहता था।

जब सारे यूरोप के रंगमंच लोकतंत्र की ओर अग्रसर हो रहे थे, संयुक्त राज्य अमेरिका, में अपनी ही किस्म के जीवन का स्वतंत्र विकास हो रहा था। चार्ल्सटन, फिलाडेल्फ़िया, न्यूयॉर्क, और बोस्टन के रंगमंचों पर लंदन का प्रभाव बिलकुल नहीं पड़ा। फिर भी अमरीकी रंगमंचों में कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं थीं। उनके सामान्य रंगमंच घुमंतू कंपनियों के से ही होते थे। किंतु 18 वीं शती के अंत तक अनेक उत्कृष्ट काटि के थिएटर बन गए, जिनमें फ़िलाडेल्फ़िया का चेस्टनट स्ट्रीट थिएटर (1794 ई.) और न्यूयॉर्क का पार्क थिएटर (1798 ई.) उल्लेखनीय हैं। इनमें सुंदर प्रेक्षागृह बने, और कुछ यूरोपीय प्रभाव भी आ गया। तदनंतर 20-25 वर्ष में ही अमरकी रंगमंच यूरोपीय रंगमंच के समकक्ष, बल्कि उससे भी उत्कृष्ट हो गया।

आधुनिक रंगमंच

पंजाबी पोशाक में रंगमंच पर नाटक करते कलाकार

आधुनिक रंगमंच का वास्तविक विकास 19वीं शती के उत्तरार्ध से आरंभ हुआ और विन्यास तथा आकल्पन में प्रति वर्ष नए-नए सुधार होते रहे हैं; यहाँ तक कि 10 वर्ष पहले के थिएटर पुराने पड़ जाते रहे हैं, और 20 वर्ष पहले के अविकसित और अप्रचलित समझे जाने लगे हैं। निर्माण की दृष्टि से लोहे के ढाँचोंवाली रचना, विज्ञान की प्रगति, विद्युत् प्रकाश की संभावनाएँ और निर्माण संबंधी नियमों का अनिवार्य पालन ही मुख्यत: इस प्रगति के मूल कारण हैं। सामाजिक और आर्थिक दशा में परिवर्तन होने से भी कुछ सुधार हुआ है। अभी कुछ ही वर्ष पहले के थिएटर, जिनमें अनिवार्यत: खंभे, छज्जे और दीर्घाएँ हुआ करती थीं, अब प्राचीन माने जाते हैं।

आधुनिक रंगशाला में एक तल फर्श से नीचे होता है, जिसे वादित्र कक्ष कहते हैं। ऊपर एक ढालू बालकनी होती है। कभी कभी इस बालकनी और फर्श के बीच में एक छोटी बालकनी और होती है। प्रेक्षागृह में बैठे प्रत्येक दर्शक को रंगमंच तक सीधे देखने की सुविधा होनी चाहिए, इसलिए उसमें उपयुक्त ढाल का विशेष ध्यान रखा जाता है। ध्वनि उपचार भी उच्च स्तर का होना चाहिए। समय की कमी के कारण आजकल नाटक बहुधा अधिक लंबे नहीं होते, और एक दूसरे के बाद क्रम से अनेक खेल होते हैं। इसलिए दर्शकों के आने जाने के लिए सीढ़ियाँ, गलियारे, टिकटघर आदि सुविधाजनक स्थानों पर होने चाहिए, जिससे अव्यवस्था न फैले।

1890 ई. तक रंगमंच से चित्रकारी को दूर करने की कोई कल्पना भी न कर सकता था, किंतु आधुनिक रंगमंचों में रंग, कपड़ों, पर्दों, और प्रकाश तक ही सीमित रह गया है। रंगमंच की रंगाछुही और सज्जा पूर्णतया लुप्त हो गई है। सादगी और गंभीरता ने उसका स्थान ले लिया है, ताकि दर्शकों का ध्यान बँट न जाए। विद्युत प्रकाश के नियंत्रण द्वारा रंगमंच में वह प्रभाव उत्पन्न किया जाता है जो कभी चित्रित पर्दों द्वारा किया जाता था। प्रकाश से ही विविध दृश्यों का, उनकी दूरी और निकटता का और उनके प्रकट और लुप्त होने का आभास कराया जाता है।

विभिन्न दृश्यों के परिवर्तन में अभिनेताओं के आने जाने में जो समय लगता है, उसमें दर्शकों का ध्यान आकर्षित रखने के लिए कुछ अवकाश गीत आदि कराने की आवश्यकता होती थी, जिनका खेल से प्राय: कोई संबंध न होता था। अब परिभ्रामी रंगमंच बनने लगे हैं, जिनमें एक दृश्य समाप्त होते ही, रंगमंच घूम जाता है, और दूसरा दृश्य जो उसमें अन्यत्र पहले से ही सज़ा तैयार रहती है, सामने आ जाता है। इसमें कुछ क्षण ही लगते हैं। अभी सन्‌ 1962 में जबलपुर (मध्य प्रदेश) में एक परिभ्रामी रंगमंच तैयार हुआ है। ऐसे रंगमंच अब प्राय: सभी प्रगतिशील देशों में बनने लगे हैं।

रासलीला, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा

चित्रपट और रंगमंच

चित्रपट (सिनेमा) के आ जाने से रंगमंच का स्थान बहुत संकीर्ण हो गया है। विशाल प्रेक्षागृहों में, केवल एक छोटा सा रंगमंच जिस पर कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर छोटे मोटे नृत्य, या एकांकी आदि खेले जा सकें, बना देना पर्याप्त समझा जाता है। पृष्ठभूमि पर रजतपट रहता है: आवश्यकतानुसार एक दो पर्दे भी लगाए जा सकते हैं। वादित्र के लिए रंगमंच के सामने एक गढ़े में थोड़ा सा स्थान रहता है। दर्शकों के लिए अधिक स्थान होने के कारण उपयुक्त संवातन, ध्वनिनियंत्रण, एवं अन्य व्यवस्थाओं की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है। अब तो पाँच छह हज़ार दर्शकों के लिए स्थान वाले, बड़ी सुखप्रद कुर्सियों से युक्त प्रेक्षागृह सभी बड़े नगरों में बनते हैं।

सिनेमा का आकर्षण अधिक होने पर भी, नाटकों के लिए उपयुक्त रंगमंच बनाने का पाश्चात्य देशों में काफ़ी प्रयास हो रहा है। मनोरंजन की दृष्टि से कम, शिक्षा की दृष्टि से इनकी उपयोगिता अधिक समझी गई है। शैक्षणिक रंगमंच में अमरीका संसार में अग्रणी है। अमरीकी शैक्षणिक रंगमंच की शाखाएँ बहुत से विश्वविद्यालयों में खुली हैं।

भारत में भी सिनेमा का प्रचार दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। किंतु यहाँ देहात अधिक होने के कारण रंगमंच के लिए अब भी पर्याप्त क्षेत्र है और प्रोत्साहन मिलने पर यह सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बना रहेगा। इस दृष्टि से रंगमंच के प्रति केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों की अनुभूति बढ़ती रही है और वे सक्रिय सहायता भी देती हैं। केंद्रीय सरकार ने संगीत नाटक अकादमी को मार्फत सन्‌ 53 से 58 ई. तक 10.5 लाख रुपया अनुदान के रूप में विविध संस्थाओं को दिया है। बंबई राज्य ने रंगमंचों के लिए 33.3 प्रतिशत मनोरंजन कर समाप्त कर दिया है। रंगमंच के विकास का अनुमान गोवालिया टैंक (बंबई) में गोकुलदास थिएटर, और बिड़ला थिएटर जैसी आधुनिक और वातानुकूलित रंगशालाओं के निर्माण से लगता है; यद्यपि उनके मंच और पृष्ठमंच में समुचित सुविधाओं का आयोजन नहीं किया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संकेताक्षर- न=नेपथ्य, र=रंगपीठ, म=मत्तवारणी, र.श.=रंगशीर्ष तथा प्रे.=प्रेक्षागृह।
  • हिन्दी विश्वकोश खण्ड- 10 (पृष्ठ- 2)
  • राय गोविंदचंद्र: भरत नाट्य शास्त्र में नाट्यशालाओं के रूप;
  • भारतीय रंगमंच के क्षितिज, (वैज्ञानिक अनुसंधान और सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय, भारत सरकार);
  • आर.के. याज्ञिक: दि इंडियन थिएटर;
  • मुल्कराज आनंद: दि इंडियन थिएटर;
  • एलारडाइस निकोल: दि डेवलपमेंट ऑव दि थिएटर;
  • रिचार्ड लीक्रॉफ्ट: सिविक थिएटर डिज़ाइन।

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