राजस्थानी मूर्ति कला
राजस्थान में काले, सफ़ेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर ज़िले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर 'बनजारे की छतरी' नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरूप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं।
गुप्तोतर काल के पश्चात् राजस्थान में सौराष्ट्र शैली, महागुर्जन शैली एवं महामास शैली का उदय एवं प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें महामास शैली केवल राजस्थान तक ही सीमित रही। इस शैली को मेवाड़ के गुहिल शासकों, जालौर व मण्डोर के प्रतिहार शासकों और शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों को संरक्षण प्रदान कर आठवीं से दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विकसित किया। 15वीं शताब्दी राजस्थान में मूर्तिकला के विकास का स्वर्णकाल था जिसका प्रतीक विजय स्तम्भ (चित्तौड़) की मूर्तियाँ है। सोलहवीं शताब्दी का प्रतिमा शिल्प प्रदर्शन जगदीश मंदिर उदयपुर में देखा जा सकता है। यद्यपि इसके पश्चात् भी मूर्तियाँ बनी किंतु उस शिल्प वैचिञ्य कुछ भी नहीं है किंतु अठाहरवीं शताब्दी के बाद परम्परावादी शिल्प में पाश्चात्य शैली के लक्षण हमें दिखलाई देने लगते हैं। इसके फलस्वरूप मानव मूर्ति का शिल्प का प्रादूर्भाव राजस्थान में हुआ।
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