जैसलमेर की स्थापत्य कला

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सोनार क़िला, जैसलमेर
Sonar Fort, Jaisalmer

जैसलमेर के सांस्कृतिक इतिहास में यहाँ के स्थापत्य कला का अलग ही महत्त्व है। किसी भी स्थान विशेष पर पाए जाने वाले स्थापत्य से वहाँ रहने वालों के चिंतन, विचार, विश्वास एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता का आभास होता है। जैसलमेर में स्थापत्य कला का क्रम राज्य की स्थापना के साथ दुर्ग निर्माण से आरंभ हुआ, जो निरंतर चलता रहा। यहाँ के स्थापत्य को राजकीय तथा व्यक्तिगत दोनो का सतत् प्रश्रय मिलता रहा। इस क्षेत्र के स्थापत्य की अभिव्यक्ति यहाँ के क़िलों, गढियों, राजभवनों, मंदिरों, हवेलियों, जलाशयों, छतरियों व जन-साधारण के प्रयोग में लाये जाने वाले मकानों आदि से होती है। जैसलमेर नगर में हर 20-30 किलोमीटर के फासले पर छोटे-छोटे दुर्ग दृष्टिगोचर होते हैं, ये दुर्ग विगत 1000 वर्षो के इतिहास के मूक गवाह हैं। दुर्ग निर्माण में सुंदरता के स्थान पर मज़बूती तथा सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता था। परंतु यहां के दुर्ग मज़बूती के साथ-साथ सुंदरता को भी ध्यान मं रखकर बनाये गये। दुर्गो में एक ही मुख्य द्वार रखने के परंपरा रही है। दुर्ग मुख्यतः पत्थरों द्वारा निर्मित हैं, परंतु किशनगढ़, शाहगढ़ आदि दुर्ग इसके अपवाद हैं। ये दुर्ग पक्की ईंटों के बने हैं। प्रत्येक दुर्ग में चार या इससे अधिक बुर्ज बनाए जाते थे। ये दुर्ग को मज़बूती, सुंदरता व सामरिक महत्त्व प्रदान करते थे। [1]

नगर का स्थापत्य

जैसलमेर नगर का विकास 15वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। जब जैसलमेर दुर्ग में आवासीय कठिनाईयाँ प्रतीत हुई, तो कुछ लोगों ने क़िले की तलहटी में स्थायी आवास बनाकर रहना प्रारंभ कर दिया। बहुत कम ही ऐसे नगर होते हैं, जिनका अपना स्थापत्य होता है। जैसलमेर भी उनमें से एक है। इस काल में जैसलमेर शासकों का मुग़लों से संपर्क हुआ व उनके संबंध सदैव सौहार्दपूर्ण बने रहने से राज्य में शांति बनी रही। इसी कारण यहाँ पर व्यापार-वाणिज्य की गतिविधियाँ धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। महेश्वरी, ओसवाल, पालीवाल व अन्य लोग आसपास की रियासतों से यहाँ आकर बसने लगे व कालांतर में यहीं बस गए। इन लोगों के बसने के लिए अपनी-अपनी गोत्र के हिसाब से मौहल्ले बना लिए। आमने-सामने के मकानों से निर्मित 20 से 100 मकानों के मुहल्ले, सीधी सड़क या गलियों का निमार्ण हुआ और ये गलियाँ एक दूसरे से जुड़ती चली गयीं। इस प्रकार वर्तमान नगर का निर्माण हुआ। ये सगोत्रीय, सधर्म या व्यवसायी मौहल्ले पाड़ा या मौहल्ले कहलाते थे व इन्हें व्यावसाय के नाम से पुकारते हैं। जैसे- बीसाना पाड़ा, पतुरियों का मुहल्ला तथा चूड़ीगर अलग-अलग व्यावसायियों के अलग-अलग मौहल्लों में रहने से यहाँ प्रत्येक मोहल्ले में पृथक-पृथक् बाज़ारों का उदय हुआ।[2]

कलात्मक हवेलियाँ

जैसलमेर नगर झरोखों की नगरी व हवेलियाँ के नाम से भी विख्यात है। जैसलमेर शहर का प्रत्येक मकान कलात्मक खुदाई एवं इसमें बने झरोखों से सुसज्जित हैं। जैसलमेर की पटवों की हवेलियाँ, सालिमसिंह की हवेली, नथमल की हवेली तो कलात्मकता के लिए सुविख्यात हैं। जैसलमेर की इन हवेलियों के झरोखें अनुपम व उत्कृष्ट नक़्क़ाशी से युक्त हैं।

पटवों की हवेलियाँ

छियासठ झरोखों से युक्त ये हवेलियाँ निसंदेह कला का सर्वोत्तम उदाहरण है। ये कुल मिलाकर पाँच हैं, जो कि एक-दूसरे से सटी हुई हैं। ये हवेलियाँ भूमि से 8-10 फीट ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई है व ज़मीन से ऊपर छह मंज़िल है व भूमि के अंदर एक मंज़िल होने से कुल 7 मंजिली हैं। पाँचों हवेलियों के अग्रभाग बारीक नक़्क़ाशी व विविध प्रकार की कलाकृतियाँ युक्त खिड़कियों, छज्जों व रेलिंग से अलंकृत है। जिसके कारण ये हवेलियाँ अत्यंत भव्य व कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर व सुरम्य लगती है। हवेलियों में प्रवेश करने हेतु सीढियाँ चढ़कर चबूतरे तक पहुँचकर दीवानख़ाने (मेहराबदार बरामदा) में प्रवेश करना पडता है। दीवानख़ाने से लकड़ी की चौखट युक्त दरवाज़े से अंदर प्रवेश करने पर प्रथम कमरे को मौ प्रथम कहा जाता है। इसके बाद चौकोर चौक है, जिसके चारों ओर बरामदा व छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं। ये कमरे 6'x 6' से 8' के आकार के हैं, ये कमरे प्रथम तल की भांति ही 6 मंज़िल तक बने हैं। सभी कमरें पत्थरों की सुंदर खानों वाली अल्मारियों व आलों से युक्त हैं, जिसमें विशिष्ट प्रकार के चूल युक्त लकड़ी के दरवाज़े व ताला लगाने हेतु लोहे के कुंदे लगे हैं। प्रथम तल के कमरे रसोई, भण्डारण, पानी भरने आदि के कार्य में लाए जाते थे, जबकि अन्य मंज़िले आवासीय होती थीं। दीवानख़ानें के ऊपर मुख्य मार्ग की ओर का कमरा अपेक्षाकृत बङा है, जो सुंदर सोने की कलम की नक़्क़ाशी युक्त लकड़ी की सुंदर छतों से सुसज्जित है। यह कमरा 'मोल' कहलाता है, जो विशिष्ट बैठक के रूप में प्रयुक्त होता है।

सालिम सिंह की हवेली

सालिम सिंह की हवेली छह मंजिली इमारत है, जो नीचे से संकरी और ऊपर से निकलती-सी स्थापत्य कला का प्रतीक है। जहाजनुमा इस विशाल भवन पर आकर्षक खिड़कियाँ, झरोखे तथा द्वार हैं। नक़्क़ाशी यहाँ के शिल्पियों की कलाप्रियता का खुला प्रदर्शन है। इस हवेली का निर्माण दीवान सालिम सिंह द्वारा करवाया गया, जो एक प्रभावशाली व्यक्ति था और उसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण था। दीवान मेहता सालिम सिंह की हवेली उनके पुस्तैनी निवास के ऊपर निर्मित कराई गई थी। हवेली की सर्वोच्च मंज़िल जो भूमि से लगभग 80 फीट की उँचाई पर है, मोती महल कहलाती है।

दीवान नाथमल की हवेली

जैसलमेर में यह हवेली दीवान नाथमल द्वारा बनवाई गई है तथा यह कुल पाँच मंजिली पीले पत्थर से निर्मित है। इस हवेली का निर्माण काल 188-85 ई. है। हवेली में सूक्ष्म खुदाई मेहराबों से युक्त खिड़कियों, घुमावदार खिड़कियाँ तथा हवेली के अग्रभाग में की गई पत्थर की नक़्क़ाशी पत्थर के काम की दृष्टि से अनुपम है। इस अनुपम काया कृति के निर्माणकर्त्ता हाथी व लालू उपनाम के दो मुस्लिम कारीगर थे। ये दोनों उस समय के प्रसिद्व शिल्पकार थे। हवेली का निर्माण आधा-आधा भाग दोनों शिल्पकारों को इस शर्त के साथ बराबर सौंपा गया था कि दोनों आपस में किसी की कलाकृति की नकल नहीं करेंगे, साथ ही किसी कलाकृति की पुनरावृत्ति नहीं करेंगे। आज जब हम इस हवेली को दूर से देखते हैं, तो यह पूरी कलाकृति एक सी नज़र आती है, परंतु यदि ध्यान से देखा जाए तो हवेली के अग्रभाग के मध्य केंद्र से दोनों ओर की कलाकृतियाँ सूक्ष्म भिन्नता लिए हुए हैं, जो दो शिल्पकारों की अमर कृति दर्शाती हैं। हवेली का कार्य ऐसा संतुलित व सूक्ष्मता लिए हुए है कि लगता ही नहीं दो शिल्पकार रहें हों।

मंदिर स्थापत्य

जैसलमेर दुर्ग, नगर व आस-पास के क्षेत्र में स्थित ऊँचे शिखरों, भव्य गुंबदों वाले जैन मंदिरों का स्थापत्य कला की दृष्टि से बड़ा महत्त्व है। जैसलमेर स्थिर जैन मंदिर में जगती, गर्भगृह, मुख्यमंडप, गूढ़मंडप, रंगमंडन, स्तंभ व शिखर आदि में गुजरात के सोलंकी व बघेल कालीन मंदिरों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

पार्श्वनाथ मंदिर

दुर्ग में स्थित पार्श्वनाथ तीर्थकर का मंदिर अपने स्थापत्य मूर्तिकला व विशालता हेतू प्रसिद्व है। 'वृद्धिरत्नमाला' के अनुसार इस मंदिर में मूर्तियों की कुल संख्या 1253 है। इसके शिल्पकार का नाम ध्त्रा है। पार्श्वनाथ मंदिर के प्रथम मुख्य द्वार के रूप में पीले पत्थर से निर्मित शिल्पकला से अलंकृत तोरण बना हुआ है। इस तोरण के दोनों खंभों में देवी, देवताओं, वादक-वादिकाओं को नृत्य करते हुए, हाथी, सिंह, घोड़े, पक्षी आदि उकेरे हुए हैं, जो सुंदर बेल-बूटों से युक्त हैं। तोरण के उच्चशिखर पर मध्य में ध्यानस्थ पार्श्वनाथ की मूर्ति उत्कीर्ण हुई है। द्वितीय प्रवेश द्वार पर मुखमंडप के तीन तोरण व इनमें बनी कलामय छत विभिन्न प्रकार की सुंदर आकृतियों से अलंकृत है। तोरण में तीर्थकरों की मूतियाँ वस्तुतः सजीव व दर्शनीय है।

संभवनाथ मंदिर

यह मंदिर अपने उत्कृष्ट नक़्क़ाशी तथा स्थापत्य की अन्य कलाओं के कारण प्रसिद्ध है। संभवनाथ मंदिर में मंदिर का रंग मंडप की गुंबदनुमा छत स्थापत्य में दिलवाङा के जैन मंदिर के अनुरुप है। इसके मध्य भाग में झूलता हुआ कमल है, जिसके चारों ओर गोलाकार आकार में बाहर अप्सराओं की कलाकृतियाँ हैं। अप्सराओं के नीचे के हिस्से में गंद्धर्व की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है। अप्सराओं के मध्य में पद्मासन मुद्राओं में जो प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं, जिनके नीचे हंस बने हैं, गुंबद का अन्य भाग पच्चीकारी से युक्त है। इस मंदिर में कुल मिलाकर 604 प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से एक जौ के आकार का मंदिर है, जिसमें तिल के बराबर जैन प्रतिमा है, जो कि उस समय की उन्नत स्थापत्य कला को दर्शाता है। इस मंदिर का निर्माण सन् 1320 ई. में 'शिवराज महिराज' एवं 'लखन' नाम का ओसवाल जाति के व्यक्तियों ने कराया था तथा मंदिर के वास्तुकार का नाम 'शिवदेव' था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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