राष्ट्रीय किसान आयोग
राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन 2004 में एम.एस .स्वामीनाथन की अध्यक्षता में किया गया था। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थापित किया गया है। किसान आयोग अपने अनुसार पैदावार की लागत तय करता है फिर उसके आधार पर मुनाफा निर्धारण करता है। इस समय किसानों की लागत आंकने के जो तरीके हैं उनमें जमीन का किराया, बीज से लेकर उपज तक के खर्च तथा परिवार के श्रम का मोटा- मोटा आकलन किया जाता है, जिसमें मुनाफा होता ही नहीं है। हालांकि किसानों की पैदावार के मूल्य जितने बढ़ते हैं, खाद्यान्न महंगाई भी उसी तुलना में बढ़ती है।
स्थापना
1956 में संसद में एक अधिनियम पास करके खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की स्थापना की गयी थी। चीनी उद्योग में तकनिकी कुशलता के सुधार हेतु इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ शुगर टेक्नोलॉजी की स्थापना कानपुर में की गयी है। चीन के बाद भारत विश्व में प्राकृतिक रेशम का दूसरा बड़ा उत्पादक राष्ट्र है। भारत में प्रथम रेशम उत्पादक राज्य कर्नाटक है। हीरापुर में पीग आयरन का उत्पादन होता है, जिसे स्टील के उत्पादन हेतु कुल्टी भेजा जाता है । भारत में किसान क्रेडिट कार्ड योजना का प्रारंभ 1998 -1999 में किया गया था। राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन 2004 में एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में किया गया था। राष्ट्रीय किसान आयोग का मुख्यालय नई दिल्ली में है।
लक्ष्य
राष्ट्रीय किसान आयोग का लक्ष्य यह कि सबसे पहले खेती को कैसे लाभ का पेशा बनाया जाए तथा पढ़े-लिखे लोग भी इसमें आएं इस पर उसे ध्यान केंद्रित करना होगा। दूसरे, किसानों का जीवन-स्तर ऊंचा उठे, उनके परिवार को खेती से कैसे व्यवस्थित जीवन जीने का आधार मिले। कुल मिलाकर खेती को विकसित करने की नीतियों, कार्यक्रमों, उपायों की दिशा मेंं वह किसानों के साथ मिलकर और सरकारों के साथ सामंजस्य स्थापित करके काम करे। राष्ट्रीय किसान आयोग कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन का वाहक बने। राष्ट्रीय किसान आयोग कृषि लागत मूल्य निर्धारण तथा किसानों की पैदावार का मूल्य तय करता है। खेती को राज्यों का विषय बना दिए जाने के कारण वैसे भी ज्यादा जिम्मेवारी राज्यों की आ जाती है। वास्तव में खेती और किसानों की समस्याओं और आवश्यकताओं पर समग्रता में विचार करने के लिए किसी ढांचागत संस्था के न होने से बड़ी शोचनीय स्थिति पैदा हुई है। किसान आयोग उसमें उम्मीद की किरण बनकर आ सकता है।
अर्थव्यवस्था
खेती का योगदान हमारी समूची अर्थव्यवस्था में भले चौदह-पंद्रह प्रतिशत रह गया है, लेकिन हमारी आबादी के साठ प्रतिशत से ज्यादा लोगों का जीवन उसी पर निर्भर है। चाहे वे सीधे खेती करते हों या खेती से जुड़ी अन्य गतिविधियों में लगे हों। भारतीय अर्थव्यवस्था को इसीलिए तो असंतुलित अर्थव्यवस्था कहते हैं जिसमें उद्योग तथा सेवा क्षेत्र का योगदान पचासी प्रतिशत के आसपास है लेकिन इस पर निर्भर रहने वालों की संख्या चालीस प्रतिशत से कम होगी। उसमें भी सेवा क्षेत्र में ऐसे अनेक कार्य हैं जिनका जुड़ाव आपको खेती या उससे संबंधित गतिविधियों से मिल जाएगा। सेवा के अनेक क्षेत्र दोनों से भी जुड़े हैं। अगर भारत की अर्थव्यवस्था को संतुलित करना है तो फिर खेती को प्राथमिकता में लाना होगा और जो काम पहले न हो सका या आरंभ करके फिर रोक दिया गया उन सबको वर्तमान परिप्रेक्ष्य में करने या फिर से आरंभ करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय किसान आयोग उनमें सर्वप्रमुख माना जा सकता है।
राष्ट्रीय किसान विकास आयोग
किसान संगठनों ने जो प्रस्ताव देश के सामने रखा था उसमें कहा गया था कि खेती-बाड़ी को फायदेमंद बनाने तथा युवाओं को इस क्षेत्र में आकर्षित करने के लिए राष्ट्रीय किसान विकास आयोग बनाया जाना चाहिए। आयोग अकेली संस्था हो जिसमें सारी अन्य संबंधित संस्थाओं को समाहित कर दिया जाए। मसलन, कृषि लागत और मूल्य आयोग तथा लघु कृषक कृषि व्यापार संघ का इसमें या तो विलय कर दिया जाए या फिर उनके मातहत बना दिया जाए। कारण, ये दोनों संस्थाएं किसानों की पैदावार के लागत मूल्य के मूल्यांकन तथा उचित मूल्य दिलवाने में सफल नहीं रही हैं। यह भी कहना उचित होगा कि देश के सभी किसान संगठनों को मिलाकर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में ‘भारतीय कृषक परिसंघ’ का भी गठन किया जाए जिसमें सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और कृषिमंत्री रहें। कोई भी स्वीकार करेगा कि इससे कृषि क्षेत्र के समन्वित विकास को गति मिल सकेगी। ध्यान रखिए, भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में वायदा किया हुआ है कि वह एम. एस. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप किसान को कृषि उपज की लागत पर पचास प्रतिशत लाभ दिलाना सुनिश्चित करेगी।
भूमिका
किसानों को उनकी उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ही मिलता है। लाभ या मुनाफा शब्द का कहीं प्रयोग नहीं है। यहीं किसान आयोग की भूमिका शुरू होती है। वह अपने अनुसार पैदावार की लागत तय करेगा फिर उसके आधार पर मुनाफा का निर्धारण कर सके। इस समय किसानों की लागत आंकने के जो तरीके हैं उनमें जमीन का किराया, बीज से लेकर उपज तक के खर्च तथा परिवार के श्रम का भी एक मोटी-मोटी आकलन किया जाता है, जिसमें मुनाफा होता ही नहीं। हालांकि किसानों की पैदावार के मूल्य जितने बढ़ते हैं, खाद्यान्न महंगाई भी उसी तुलना में बढ़ती है जो कि सरकारों के लिए सिरदर्द भी साबित होती है। मगर इस महंगाई की कीमत किसानों की जेब में नहीं जाती, यह भी सच है। कम से कम आयोग इस बात का तो ख्याल रखेगा कि जो मूल्य बाज़ार में हैं उनका उचित आनुपातिक हिस्सा किसानों को मिले। लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया है, किसान आयोग का कार्य केवल मूल्य तय करना नहीं होगा। यह उसके कार्य का एक प्रमुख हिस्सा अवश्य होगा।
कृषि उत्पादन
आखिर कृषि उत्पादनों के बाज़ार का नियमन राज्य सरकारों के पास है और इसके लिए हर राज्य का एक कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून (एपीएमसी एक्ट) है। कोई भी राज्य सरकार इसमें बदलाव लाकर संगठित व्यापारियों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहती। कम से कम आयोग तो ऐसे दबावों से मुक्त होकर काम कर सकेगा। भारतीय खेती इस समय एक साथ कई संकटों और चुनौतियों का सामना कर रही है। परंपरागत खेती के तरीके ध्वस्त कर दिए जाने से जो कृषि अपने-आप में स्वावलंबी थी वह आज पूरी तरह परावलंबी हो गई है। बीज तक के लिए किसान बड़ी कंपनियों पर निर्भर हैं। उर्वरक तो खैर उनके हाथ में था ही नहीं। इनके मूल्य कंपनियाँ तय करती हैं। अगर किसान आयोग होगा तो इस पर अध्ययन करके उसके अनुसार जो कदम उसके दायरे में होगा वह उठाएगा और जो केंद्र और राज्य सरकारों के बस में होगा उसके लिए सिफारिशें करेगा। यहाँ पूर्व में किसान आयोगों के अनुभवों का भी ध्यान रखना होगा। कई राज्यों में पहले किसान आयोग बने, पर वे बंद कर दिये गए। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश को लीजिए। 19 सितंबर 2006 को आयोग का गठन किया गया था, लेकिन 31 दिसंबर 2010 को ही बंद कर दिया गया। क्योंकि यह केवल सिफारिशी संस्था बन कर रह गई थी। भारतीय किसान संघ ने मांग की कि इसे संवैधानिक दर्जा दिया जाए या इसे बंद कर दिया जाए। सरकार ने संवैधानिक दर्जा देने यानी अधिकार संपन्न बनाने की जगह इसे बंद कर दिया। प्रदेश में आयोग ने अपने चार वर्ष तीन माह के कार्यकाल में सात प्रतिवेदन राज्य सरकार को सौंपे। इनमें 811 अनुशंसाएं की गर्इं, जिनमें कुछ पर ही काम हुए। वस्तुत: किसान आयोग केवल सिफारिशी संस्था होगा तो उससे ज्यादा-कुछ हासिल नहीं हो सकता। उसे शक्तियां भी देनी होंगी, अन्यथा इसकी भूमिका कार्यशाला आयोजित करने, भाषण करने-करवाने, किसानों से संवाद करने तथा सुझाव देने तक सीमित रह जाएगी।
आयोग की रिपोर्ट
राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट है कि समर्थन मूल्य खेती की लागत से कम होता है, इस कारण खेती घाटे का सौदा बन गई है और देश के 40 प्रतिशत किसान अब खेती छोड़ने को बाध्य हो रहे हैं। गौरतलब है कि 1925 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 18 रुपए और एक क्विंटल गेहूं 16 रुपए का होता था। 1960 में 10 ग्राम सोना 111 रुपए और एक क्विंटल गेहूं 41 रुपए का था। वर्तमान में 10 ग्राम सोने 32000 रुपए का और एक क्विंटल गेहूं 1285 का है। 1965 में केंद्र सरकार के प्रथम श्रेणी अधिकारी के एक माह के वेतन मंश छह क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता था, आज उसके एक माह के वेतन में 30 क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता है। यह आंकड़े प्रमाणित करते हैं कि सरकार किसान के श्रम-मूल्य की गणना अन्यायपूर्ण तरीके से करके समर्थन मूल्य घोषित करती है, जो देश की लगभग 60 फीसदी आबादी के सम्मान से जीने के और समानता के मौलिक अधिकारों का हनन है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ किसान आयोग की संस्तुति लागू हो (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 29 जनवरी, 2017।
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