अरहर
अरहर भारत में उगायी जाने वाली लगभग सभी दालों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसका उत्पादन देश के सभी भागों में होता है, किन्तु इसका उपभोग गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में सबसे अधिक होता है। अरहर की दाल को 'तूअर' भी कहा जाता है। यह ज्वार, बाजरा, रागी आदि अन्य अनाजों के साथ बोयी जाती है। यह मई से जुलाई तक बोई जाती है तथा इसकी फ़सल 6 से 8 महीने में पक कर तैयार हो जाती है, अर्थात् दिसम्बर से मार्च तक। 2007-08 के दौरान कुल 310 लाख टन अरहर का उत्पादन हुआ।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
अरहर को विविध प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है, पर हल्की रेतीली दोमट या मध्यम भूमि, जिसमें प्रचुर मात्रा में स्फुर तथा पी.एच.मान 7-8 के बीच हो तथा समुचित जल निकासी वाली हो, इस फ़सल के लिये उपयुक्त है। गहरी भूमि व पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र में मध्यम अवधि की या देर से पकने वाली जातियाँ बोनी चाहिए। हल्की रेतीली कम गहरी ढलान वाली भूमि में व कम वर्षा वाले क्षेत्र में जल्दी पकने वाली जातियाँ बोना चाहिए। देशी हल या ट्रेक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई करना आवश्यक है तथा पाटा चलाकर खेत को समतल करना भी महत्त्वपूर्ण है। भूमि से जल निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।[1]
बोनी का समय एवं बीज की मात्रा
अरहर की बोनी वर्षा प्रारंभ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यत: जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करनी चाहिए। जल्दी पकने वाली जातियों में 25-30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर एवं मध्यम पकने वाली जातियों में 15-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर बोना चाहिए। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 30 से 45 से.मी व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 60 से 75 सें.मी. होनी चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 10-15 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 20 से 25 से.मी. होना चाहिए।[1]
उर्वरक का प्रयोग
बुवाई के समय 20 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. स्फुर, 20 कि.ग्रा. पोटाश व 20 कि.ग्रा. गंधक प्रति हेक्टेयर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिए। तीन वर्ष में एक बार 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट का उपयोग आखरी बखरीनी पूर्व भुरकाव करने से पैदावार में अच्छी बढ़ोत्तरी होती है।
सिंचाई
जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो, वहाँ एक सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार अच्छी होती है।
खरपतवार प्रबंधन
खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निराई तथा फूल आने से पूर्व दूसरी निराई होनी चाहिए। 2-3 बार खेत में कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है, व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है। पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्त्व है। बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है। नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना चाहिए।[1]
रोग
अरहर की फ़सल को हानि पहुँचाने वाले रोग निम्नलिखित हैं-
- 1- उकटा रोग
अरहर में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। यह 'फ़्यूजेरियम' नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फ़सल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई देते हैं। नवम्बर से जनवरी महीनें के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है। इससें जडें सड़कर गहरें रंग की हो जाती हैं तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की ऊँचाई तक काले रंग की धारियॉ पाई जाती हैं। इस बीमारी से बचने के लिए रोगप्रतिरोधी जातियॉ को बोया जाना चाहिए। उन्नत जातियों का बीज बीजोपचार करके ही बोना चाहिए। गर्मी में खेत की गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फ़सल लेने से इस रोग का संक्रमण कम होता है।[1]
- 2- बांझपन विषाणु रोग
यह रोग विषाणु[2] से फैलता है। इसके प्रकोप से पौधे की उपरी शाखाओं में पत्तियॉ छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती हैं और फूल-फली नहीं लगती हैं। ग्रसित पौधों में पत्तियॉ अधिक लगती हैं। यह रोग 'माइट मकड़ी' के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधीं किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए।
- 3- फ़ायटोपथोरा झुलसा रोग
इस रोम में ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफूँद नाशक दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करनी चाहिए। बुआई पाल पर करना चाहिए और मूंग की फ़सल साथ में लगाना चाहित।
हानिकारक कीट
अरहर की फ़सल को कई प्रकार के कीट भी हानि पहुँचाते हैं-
- 1- फली मक्खी
यह मक्खी फली पर छोटा-सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं खाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्य विकास रूक जाता है। मादा छोटे व काले रंग की होती है, जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडो से मेगट बाहर आते हैं ओर दाने को खाने लगते हैं। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है, जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है ओर दानों का आकार छोटा रह जाता है। यह मक्खी तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
- 2- फली छेदक इल्ली
छोटी इल्लियॉ फलियों के हरे ऊतकों को खाती हैं व बड़े होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों पर नुकसान करती है। इल्लियॉ फलियों पर टेढ़े-मेढ़े छेद बनाती हैं। इस कीट की मादा छोटे सफ़ेद रंग के अंडे देती है। इल्लियॉ पीली, हरी और काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पटिटयॉ होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में यह कीट चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करता है।
- 3- फल्ली का मत्कुण
मादा प्राय: फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु वयस्क फली एवं दानों का रस चूसते है, जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते हैं। यह कीट एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करता है।
- 4- प्लू माथ
इस कीट की इल्ली फली पर छोटा-सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विश्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दानो के आस-पास लाल रंग की फफूँद आ जाती है।
- 5- ब्रिस्टल बिटल
ये कीट भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलियों को खाता है, जिससे उत्पादन में काफ़ी कमी आ जाती है। यह कीट अरहर, मूंग, उड़द तथा अन्य दलहनी फ़सलों पर भी नुकसान पहुँचाता है। भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से इसका प्रभाव नियंत्रण हो जाता है।[1]
कीटों का नियंत्रण
कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु निम्न उपाय अपनाने चाहिए-
- गर्मी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए।
- शुद्ध अरहर नहीं बोनी चाहिए।
- फ़सल चक्र को अपनाना चाहिए।
- क्षेत्र में एक ही समय बोनी करनी चाहिए।
- रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें।
- अरहर में अन्तरवर्षीय फ़सले, जैसे- ज्वार, मक्का या मूँगफली को लेना चाहिए।
कटाई
जब पौधे की पत्तियाँ गिरने लगें एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की पड़ जाएँ, तब फ़सल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रेक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिशत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए।
मुख्य उत्पादक राज्य
उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश अरहर की दाल के मुख्य उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यो में अरहर के अन्तर्गत 95 प्रतिशत क्षेत्रफल पाया जाता है। ये ही राज्य देश का लगभग 85 प्रतिशत अरहर उत्पादित करते हैं। अरहर के उत्पादन की दृष्टि से देश में महाराष्ट्र का प्रथम, उत्तर प्रदेश का द्धितीय तथा कर्नाटक का तृतीय स्थान है।
- उत्तर प्रदेश - उत्तर प्रदेश में अरहर के मुख्य उत्पादक क्षेत्र वाराणसी, झांसी, आगरा, इलाहाबाद और लखनऊ ज़िले हैं।
- मध्य प्रदेश - छिंदवाड़ा, पूर्वी नीमाड़, सीधी और भिंड ज़िले मध्य प्रदेश में अरहर पैदा करने वाले मुख्य ज़िले हैं।
- महाराष्ट्र - अरहर की पैदावार महाराष्ट्र राज्य में मुख्य रूप से यवतमाल, वर्धा, अमरावती, अकोला, नागपुर, बीड़, उस्मानाबाद और परभनी में की जाती है।
उत्पादन एवं क्षेत्र
भारत में वर्ष 2008-2009 में कुल 39 लाख हेक्टेअर क्षेत्र में अरहर बोई गई, जिसमें कुल 31 लाख टन अरहर का उत्पादन हुआ। इस वर्ष देश में अरहर प्रति हेक्टेअर उत्पादन 731 किग्रा रहा। अरहर के अतिरिक्त उत्तर पश्चिमी एवं दक्षिणी भारत में प्रायः खरीफ की फसल में उड़द, मूंग, मोंठ एवं चैला की दालों की उपज भी होती है। माँग की तुलना में दालों की उपज में वृद्धि की दर कम रही है। दालों की कमी एवं उनके मूल्यों में वृद्धि का यही सबसे प्रमुख कारण रहा है। देश में 2008-2009 में दालों का उत्पादन 147 लाख टन हुआ। दालों के उत्पादन में महाराष्ट्र (20.46 प्रतिशत) का स्थान प्रथम, मध्य प्रदेश (16.6 प्रतिशत) का दूसरा स्थान तथा आन्ध्र प्रदेश (11.52 प्रतिशत) का तृतीय स्थान है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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