वारिस अली शाह

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वारिस अली शाह (जन्म- 1819, बाराबंकी, मृत्यु- 17 अप्रैल 1905) सूफी संत एवं फारसी और अरबी के अच्छे जानकार थे। उन्होंने अविवाहित रह कर संन्यासी जीवन जीया।

परिचय

वारिस अली शाह का जन्म 1819 ईस्वी में बाराबंकी देवा कस्बे में एक सुसंस्कृत परिवार में हुआ था। उनके पिता कुर्बान अली की गणना प्रसिद्ध आलिमों में की जाती थी और उन्होंने बगदाद में शिक्षा पाई थी। परंतु माता पिता का साया वारिस अली के ऊपर से 3 वर्ष की उम्र में ही उठ गया था और दादी ने उनका पालन पोषण किया। वारिस अली में असाधारण प्रतिभा थी। अन्य विषयों में रुचि न होकर कुरान में उन्हें विशेष रुचि थी। लखनऊ के पास बाराबंकी जिले में 'देवा शरीफ' का प्रसिद्ध मेला लगता है। यहां सूफी संत वारिस अली शाह की मजार पर श्रद्धा अर्पित करने के लिए देश-विदेश से विभिन्न धर्म के लोग एकत्रित होते हैं।[1]

योग्यता

वारिस अली शाह को फारसी और अरबी भाषा में बहुत ज्ञान था। 5 वर्ष की उम्र में उन्होंने कुरान पढ़ना शुरु किया तो 2 वर्ष के भीतर ही उन्होंने पूरा कुरान कंठस्थ कर लिया था। वे बचपन में खेलने कूदने की बजाय एकांत में बैठ कर काफी देर तक सोचा करते थे। उनकी यह स्थिति देखकर उनके बहनोई सूफी खादिम अली ने 11 वर्ष की उम्र में उन्हें सूफीमत की शिक्षा दे दी। शीघ्र ही उनके विचारों में इतनी परिपक्वता आ गयी कि लोग उनके शिष्य बनने लगे।

सांसारिक सुखों का त्याग

वारिस अली शाह अविवाहित थे और उन्होंने सांसारिक सुखों से अपना ध्यान हटाकर सादा जीवन जीया। उनके पास जो कुछ था उसे लोगों में बाँट दिया। जमीन जायदाद के कागज पानी में फेंक दिए और सदा जमीन पर सोते रहे। 40 वर्षों तक उन्होंने सप्ताह में केवल एक बार भोजन किया। उन्होंने कभी भी अपना ढिंढोरा नहीं पीटा। किसी का उपहार स्वीकार नहीं किया। यदि कोई कुछ छोड़ भी गया तो उस उपहार को अन्य लोगों को दे देते थे। उनका कहना था कि यदि आदमी स्वंय को पूरी तरह ईश्वर की मर्ज़ी पर छोड़ दे तो उसकी सब चिन्ताएं समाप्त हो जाएंगी।

यात्रा एवं संदेश

वारिस अली शाह 15 वर्ष की उम्र में हज करने के लिए मक्का जाने की तैयारी करने लगे और 12 वर्ष तक अरब, सीरिया, फिलिस्तीन, ईरान, तुर्की, रूस, जर्मनी आदि देशों में घूमते रहे और दस बार हज के लिए मक्का गए। उनकी इन यात्राओं के दौरान इस्लामी देशों में हजारों व्यक्ति उनके शिष्य बने। स्वदेश लौटने पर वारिस अली शाह ने अपना जीवन घूम-घूम कर ही बिताया। सदा भाईचारे की शिक्षा दी। हिंदू और मुसलमान दोनों से वे कहते थे कि सब जगह ब्रह्म या अल्लाह को देखो। उनके यहां न धर्म का भेदभाव था, न स्त्री पुरुष का। उन्होंने स्त्रियों को भी अपना शिष्य बनाया। वे सदा इस बात पर जोर देते थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म पर ईमानदारी और सच्चाई के साथ चलना चाहिए।

मृत्यु

सूफी संत वारिस अली शाह का 17 अप्रैल 1905 को बाराबंकी ज़िला के देवा नाम के कस्बे में इंतकाल हो गया। जिस स्थान पर उन्होंने प्राण छोड़े वहीं उन्हें दफना दिया गया। उनकी मजार पर वहां प्रतिवर्ष कार्तिक मास में उर्स होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 780 |

बाहरी कड़ियाँ

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