वाल्मीकि
वाल्मीकि
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वंश-गोत्र | महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। |
रचनाएँ | रामायण |
यशकीर्ति | संस्कृत भाषा के आदि कवि और हिन्दुओं के आदि काव्य 'रामायण' के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध है। |
अन्य जानकारी | सीता जी ने अपने वनवास का अन्तिम काल इनके आश्रम पर व्यतीत किया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। |
महर्षि वाल्मीकि संस्कृत भाषा के आदि कवि और हिन्दुओं के आदि काव्य 'रामायण' के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध है। महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है, इसलिये इन्हें प्राचेतस् नाम से उल्लेखित किया जाता है।[1] उपनिषद के विवरण के अनुसार ये भी अपने भाई भृगु की भांति परम ज्ञानी थे। एक बार ध्यान में बैठे हुए वरुण-पुत्र के शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बाँबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से जिसे वाल्मीकि कहते हैं, बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे।
तमसा नदी के तट पर व्याध द्वारा क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार डालने पर वाल्मीकि के मुंह से व्याध के लिए शाप के जो उद्गार निकले वे लौकिक छंद में एक श्लोक के रूप में थे। इसी छंद में उन्होंने नारद से सुनी राम की कथा के आधार पर रामायण की रचना की। कुछ लोगों का अनुमान है कि हो सकता है, महाभारत की भांति रामायण भी समय-समय पर कई व्यक्तियों ने लिखी हो और अतिम रूप किसी एक ने दिया हो और वह वाल्मीकि की शिष्य परंपरा का ही हो।
वाल्मीकि डाकू ?
जिस वाल्मीकि के डाकू का जीवन बिताने का उल्लेख मिलता है, उसे रामायण के रचयिता से भिन्न माना जाता है। पौराणिक विवरण के अनुसार यह रत्नाकर नाम का दस्यु था और यात्रियों को मारकर उनके धन से अपना परिवार पालता था। एक दिन नारदजी भी इनके चक्कर में पड़ गए। जब रत्नाकर ने उन्हें भी मारना चाहा तो नारद ने पूछा-जिस परिवार के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार है ? रत्नाकर नारद को पेड़ से बांधकर इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए घर गया। वह यह जानकर स्तब्ध रह गया कि परिवार का कोई भी व्यक्ति उसके पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं है। लौटकर उसने नारद के चरण पकड़ लिए और डाकू का जीवन छोड़कर तपस्या करने लगा। इसी में उसके शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया, जिसके कारण यह भी वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
'मरा' या 'राम'
एक अन्य विवरण के अनुसार इनका नाम अग्निशर्मा था और इन्हें हर बात उलटकर कहने में रस आता था। इसलिए ऋषियों ने डाकू जीवन में इन्हें 'मरा' शब्द का जाप करने की राय दी। तेरह वर्ष तक मरा रटते-रटते यही 'राम' हो गया। बिहार के चंपारन ज़िले का भैंसा लोटन गांव वाल्मीकि का आश्रम था जो अब वाल्मीकि नगर कहलाता है।
कथा
महर्षि वाल्मीकि पहले का नाम रत्नाकर था। इनका जन्म पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ था, किन्तु डाकुओं के संसर्ग में रहने के कारण ये लूट-पाट और हत्याएँ करने लगे और यही इनकी आजीविका का साधन बन गया। इन्हें जो भी मार्ग में मिल जाता, ये उसकी सम्पत्ति लूट लिया करते थे। एक दिन इनकी मुलाक़ात देवर्षि नारद से हुई। इन्होंने नारद जी से कहा कि 'तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे निकालकर रख दो! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।' देवर्षि नारद ने कहा- 'मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अतिरिक्त है ही क्या? तुम लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो? देवर्षि की कोमल वाणी सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा- भगवान्! मेरी आजीविका का यही साधन है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ।' देवर्षि बोले- 'तुम जाकर पहले अपने परिवार वालों से पूछकर आओं कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण-पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप-कर्मों में भी हिस्सा बटायेंगे। तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जायँगे। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बाँध दो।' देवर्षि को पेड़ से बाँध कर ये अपने घर गये। इन्होंने बारी-बारी से अपने कुटुम्बियों से पूछा कि 'तुम लोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझ से केवल भरण-पोषण ही चाहते हो।' सभी ने एक स्वर में कहा कि 'हमारा भरण-पोषण तुम्हारा कर्तव्य है। तुम कैसे धन लाते हो, यह तुम्हारे सोचने का विषय है। हम तुम्हारे पापों के हिस्सेदार नहीं बनेंगे।' अपने कुटुम्बियों की बात सुनकर वाल्मीकि के हृदय में आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल में जाकर देवर्षि के बन्धन खोले और विलाप करते हुए उनके चरणों में पड़ गये। नारद जी ने उन्हें धैर्य बँधाया और राम-नाम के जप का उपदेश दिया, किन्तु पूर्वकृत भयंकर पापों के कारण उनसे राम-नाम का उच्चारण नहीं हो पाया। तदनन्तर नारद जी ने सोच-समझकर उनसे मरा-मरा जपने के लिये कहा।
भगवान्नाम का निरन्तर जप करते-करते वाल्मीकि अब ऋषि हो गये। उनके पहले की क्रूरता अब प्राणिमात्र के प्रति दया में बदल गयी। एक दिन इनके सामने एक व्याध ने क्रौंच पक्षी के एक जोड़े में से एक को मार दिया, तब दयालु ऋषि के मुख से व्याध को शाप देते हुए एक श्लोक निकला। वह संस्कृत भाषा में लौकिक छन्दों में प्रथम अनुष्टुप छन्द का श्लोक था। उसी छन्द के कारण वाल्मीकि आदिकवि हुए। इन्होंने ही रामायण रूपी आदिकाव्य की रचना की। वनवास के समय भगवान श्री राम ने स्वयं इन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। सीता जी ने अपने वनवास का अन्तिम काल इनके आश्रम पर व्यतीत किया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गान सिखाया। इस प्रकार नाम-जप और सत्संग के प्रभाव से वाल्मीकि डाकू से ब्रह्मर्षि हो गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दू धर्म कोश |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ |संपादन: डॉ. राजबली पाण्डेय |पृष्ठ संख्या: 857 |
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