वास्तुशास्त्र राजप्रासाद

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यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण

सूत जी कहते हैं

ऋषियो! अब मैं चतु:शाल[1] त्रिशाल, द्विशाल आदि भवनों के स्वरूप, उनके विशिष्ट नामों के साथ बतला रहा हूँ। जो चतु:शाल चारों ओर भवन, द्वार तथा बरामदों से युक्त हो, उसे 'सर्वतोभद्र' कहा जाता है। वह देव-मन्दिर तथा राजभवन के लिये मंगलकारक होता है। वह चतु:शाल यदि पश्चिम द्वार से हीन हो तो 'नन्द्यावर्त', दक्षिण द्वार से हीन हो तो 'वर्धमान', पूर्व द्वार से रहित हो तो 'स्वस्तिक' , उत्तर द्वार से विहीन हो तो 'रूचक' कहा जाता है।

अब त्रिशाल भवनों के भेद बतलाते हैं।:-

उत्तर दिशा की शाला से रहित जो त्रिशाल भवन होता है, उसे 'धान्यक' कहते हैं। वह मनुष्यों के लिये कल्याण एवं वृद्धि करने वाला तथा अनेक पुत्र रूप फल देने वाला होता है। पूर्व की शाला से विहीन त्रिशाल भवन को 'सुक्षेत्र' कहते हैं। वह धन, यश और आयु प्रदान करने वाला तथा शोक-मोह का विनाशक होता है। जो दक्षिण की शाला से विहीन होता है, उसे 'विशाल' कहते हैं। वह मनुष्यों के कुल का क्षय करने वाला तथा सब प्रकार की व्याधि और भय देने वाला होता है। जो पश्चिमशाला से हीन होता है, उसका नाम 'पक्षघ्न' है, वह मित्र, बन्धु और पुत्रों का विनाशक तथा सब प्रकार का भय उत्पन्न करने वाला होता है।

अब 'द्विशालों' के भेद कहते हैं:-

दक्षिण एवं पश्चिम- दो शालाओं से युक्त भवन को धनधान्यप्रद कहते हैं। वह मनुष्यों के लिये कल्याण का वर्धक तथा पुत्र प्रद कहा गया है। पश्चिम और उत्तरशाला वाले भवन को 'यमसूर्य' नामक शाल जानना चाहिये। वह मनुष्यों के लिये राजा और अग्नि से भयदायक और कुल का विनाशक होता है। जिस भवन में केवल पूर्व और उत्तर की ही दो शालाएँ हों, उसे 'दण्ड' कहते हैं। वह अकालमृत्यु तथा शत्रुपक्ष से भय उत्पन्न करने वाला होता है। जो पूर्व और दक्षिण की शालाओं से युक्त द्विशाल भवन हो, उसे 'धन' कहते हैं। वह मनुष्यों के लिये शस्त्र तथा पराजय का भय उत्पन्न करने वाला होता है। इसी प्रकार केवल पूर्व तथा पश्चिम की ओर बना हुआ 'चुल्ली' नामक द्विशालभवन मृत्यु सूचक है। वह स्त्रियों को विधवा करने वाला तथा अनेकों प्रकार का भय उत्पन्न करने वाला होता है। केवल उत्तर एवं दक्षिण की शालाओं से युक्त द्विशाल भवन मनुष्यों के लिये भयदायक होता है। अत: ऐसे भवन को नहीं बनवाना चाहिये। बुद्धिमानों को सदा सिद्धार्थ[2] और वज्र से[3] भिन्न द्विशाल भवन बनवाना चाहिये।[4]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रावणदि के ऐसे चतु:शाल, त्रिशाल आदि भवनों का उल्लेख वाल्मीकीय रामायण, सुन्दरकाण्ड, राजतरंगिणी 3।12, मृच्छ्रकटिकनाटक 3।7 तथा बृहत्संहिता अ0 53 आदि में आता है। शिल्परत्न, समरांगण, काश्यपशिल्पादि में इनकी रचना का विस्तृत विधान है।
  2. एक प्रकार का स्तम्भ जिसमें 8 पहल या कोण होते हैं।
  3. जिस द्विशाल में केवल दक्षिण और पश्चिम की ओर भवन हों (बृहत्संहिता 53।39)।
  4. मत्स्य पुराण॥1-13.5

बाहरी कड़ियाँ

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