वेलि क्रिसन रुकमणी री
वेलि क्रिसन रुकमणी री डिंगल भाषा का उत्कृष्ट खण्डकाव्य है। इसकी रचना राठौड़राज पृथ्वीराज ने 1580 ई. में की थी। इसी रचना में डिंगल के छंद वेलियो गीत का प्रयोग हुआ है। सम्पूर्ण कृति 305 पद्यों में समाप्त हुई है। यह कृष्ण और रुक्मिणी के विवाह की कथा कृति का विषय है। राजस्थान में ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ अत्यंत लोकप्रिय है। उसकी प्रशंसा में अनेक पद्य राजस्थान में प्रचलित हैं।
विषयवस्तु
कवि ने विषयवस्तु की प्रेरणा के लिए अपने को ‘श्रीमद्भागवत’ का आभारी माना है-
“वल्ली तसु बीच भागवत वायो।"
‘श्रीमद्भागवत’ के दशम स्कंध उत्तरार्ध चार अध्यायों (52-55) में कृष्ण-रुक्मिणी की परिणय कथा है, किंतु पृथ्वीराज ने कथा की रूपरेखा को सामने रखकर मौलिक काव्य ग्रंथ की रचना की है। रुक्मिणी का नखशिख-वर्णन षट्-ऋतु, युद्ध वर्णन जैसे प्रसंगों में कवि की मौलिकता के दर्शन होते हैं। ब्राह्मण के द्वारा पत्र द्वारा संदेश भेजना तथा रुक्मिणी के भाई रुक्म के सिर पर कृष्ण के हाथ फेरने से फिर केशों के उग आने के प्रसंग कवि कल्पित हैं।[1]
अलंकार योजना
'वेलि क्रिसन रुकमणी री' कृति श्रृंगार रस और वीर रस प्रधान है। अलंकारों के प्रयोग की दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण है। शब्दालंकारों में डिंगल में वयण सगाई अलंकार का प्रयोग बहुत ही सफल हुआ है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक का प्रयोग विशेष आकर्षक है।
ऋतु वर्णन
ऋतु वर्णन में राजस्थान की स्वाभाविक स्थानीय प्रकृति का आकर्षक वर्णन मिलता है। कवि ने साहित्यिक डिंगल भाषा का कृति में प्रयोग किया है। काव्य, युद्धनीति, ज्योतिष, वैद्यक आदि अनेक विषयों के जैसे संकेत कृति में मिलते हैं, उनमें पृथ्वीराज की बहुज्ञता का परिचय मिलता है।[1]
लोकप्रियता
राजस्थान में ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ अत्यंत लोकप्रिय रही है। उसकी प्रशंसा में अनेक पद्य राजस्थान में प्रचलित हैं। पृथ्वीराज के समकालीन आढ़ाजी दुरचा चारण कवि ने ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ को पाँचवाँ वेद तथा उन्नीसवाँ पुराण कहा था। उस पर ढूंढाड़ी, मारवाड़ी तथा संस्कृत में टीकाएँ भी लिखी गईं, जो पर्याप्त प्राचीन हैं। इस युग में ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ के साहित्यिक सौंदर्य की ओर ध्यान आकर्षित करने का श्रेय इतालवी विद्वान एल. पी. तेस्सी तोरी को मिलना चाहिए।
विविध संस्करण
तेस्सी तोरी का सुसम्पादित संस्करण 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी', बंगाल से वर्ष 1917 ई. में निकला। इस कृति का दूसरा महत्त्वपूर्ण संस्करण ‘हिन्दुस्तान अकादमी’, प्रयाग से 1931 ई. में निकला। उधर और भी सस्ते संस्करण निकले हैं, जिनमें कोई विशेषता नहीं है। अकादमी का संस्करण पुराना होते हुए भी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है।[2][1]
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