वैदिक संस्कृति -गोविन्द चन्द्र पाण्डे
वैदिक संस्कृति -गोविन्द चन्द्र पाण्डे
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लेखक | गोविन्द चन्द्र पाण्डे |
मूल शीर्षक | वैदिक संस्कृति |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 2008 |
ISBN | 81-8031-064-7 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 651 |
भाषा | हिंदी |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
विशेष | इस पुस्तक में गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी ने भारत की वैदिक संस्कृति, धर्म, दर्शन और विज्ञान की अधुनातन-सामग्री के विश्लेषण में आधुनिक पाश्चात्य एवं पारम्परिक दोनों प्रकार की व्याख्याओं की समन्वित समीक्षा लिखने का प्रयत्न किया है |
वैदिक संस्कृति गोविन्द चन्द्र पाण्डे का लिखा एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका प्रकाशन 2001 में लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद ने किया था। वैदिक संस्कृति, धर्म, दर्शन और विज्ञान की अधुनातन-सामग्री के विश्लेषन में आधुनिक पाश्चात्य एवं पारम्परिक दोनों प्रकार की व्याख्याओं की समन्वित समीक्षा वैदिक संस्कृति में की गयी है।
भूमिका
इस ग्रन्थ में न केवल मैक्समूलर आदि की नयी व्याख्याएं एवं सायण आदि की यज्ञपरक व्याख्या पर, बल्कि दयानन्द, श्रीअरविन्द, मधुसूदन ओझा आदि की संकेतपरक व्याख्या पर भी विचार किया गया है। वैदिक संस्कृति की परिभाषा करने वाले ऋत-सत्यात्मक सूत्रों की विवेचना एवं किस प्रकार वे भारतीय सभ्यता के इतिहास में प्रकट हुए हैं इस पर भी चिन्तन किया गया है। वैदिक संस्कृति, धर्म, दर्शन और विज्ञान की अधुनातन-सामग्री के विश्लेषण में आधुनिक पाश्चात्य एवं पारम्परिक दोनों प्रकार की व्याख्याओं की समन्वित समीक्षा इस पुस्तक में की गयी है। इस प्रकार तत्व जिज्ञासा और ऐतिहासिकता के समन्वयन के द्वारा सर्वांगीणता की उपलब्धि का प्रयास इस ग्रन्थ की विचार शैली का मूलमन्त्र और प्रणयन का उद्देश्य है।[1]
मूल्यांकन
भारतीय परम्परा में वेद को अनादि अथवा ईश्वरीय माना गया है। इतिहास और संस्कृत के विद्यार्थी के लिए इनमें भारतीय एवं आद्यमानव परम्परा की निधि है। महर्षि यास्क से लेकर सायण तक वेद के पण्डितों ने इनके अनेक अर्थ निकाले हैं, जिसके कारण वेदों की सही व्याख्या कठिन है। आधुनिक युग में वेदों पर जो भी प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे गये हैं उनमें इतिहास की दृष्टि से व्याख्या भले की गयी हो लेकिन आध्यात्मिक और सनातन अर्थ उपेक्षित है। पुरानी भाषाशास्त्रीय व्याख्या के स्थान पर नयी पुरातात्त्विक खोज के द्वारा वेदों का जो इतिहास पक्ष बदला है उसका मूल्यांकन भी यहाँ किया गया है।[1]
लेखक का कथन
भारतीय परम्परा वेदों को धर्म, ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्रों में परम प्रमाण मानती है। आधुनिक विद्वान वेद को प्राचीन मानव-संस्कृति के, विशेषतया मूलभूत आर्य-संस्कृति के ज्ञान के लिए आकार ग्रंथ मानते हैं। इस प्रकार वेदों की महिमा सर्वविदित होते हुए भी उनका अध्ययन-अध्यापन बहुत दिनों से उपेक्षित-सा रहा है। यद्यपि वे अब मुद्रित और प्रकाशित हैं, उनका सही अर्थ अनेक अंशों में दुर्बोध है।
वेदविद्या में पारंगत गुरुवर आचार्य क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय से सीखा था कि वेदों के सही परिशीलन के लिए आधुनिक पाश्चात्य एवं पारम्परिक दोनों ही प्रकार की व्याख्याओं का उपयोग अपेक्षित है। यही उपदेश इस ग्रंथ की विचारशैली का मूलमंत्र है। एक ओर ऐतिहासिक और तुलनात्मक पद्धतियों का उपयोग है, दूसरी ओर सायण आदि की यज्ञ-केन्द्रित व्याख्याओं का, जिनमें आनुषंगिक रूप से विस्तृत सांस्कृतिक सामग्री संग्रहीत है। दयानन्द, श्री अरविन्द एवं मधुसूदन ओझा आदि की व्याख्याओं में वेदों के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक रहस्यों का निर्वचन है। कुछ नये विद्वानों ने आधिदैविक पक्ष पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 पाण्डे, गोविन्द चन्द्र। वैदिक संस्कृति (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 15 मई, 2016।
बाहरी कड़ियाँ
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