वैदेही वनवास अष्टदश सर्ग

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वैदेही वनवास अष्टदश सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली खंडकाव्य
सर्ग / छंद स्वर्गारोहण / तिलोकी
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वैदेही वनवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल अठारह (18) सर्ग
वैदेही वनवास प्रथम सर्ग
वैदेही वनवास द्वितीय सर्ग
वैदेही वनवास तृतीय सर्ग
वैदेही वनवास चतुर्थ सर्ग
वैदेही वनवास पंचम सर्ग
वैदेही वनवास षष्ठ सर्ग
वैदेही वनवास सप्तम सर्ग
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वैदेही वनवास दशम सर्ग
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वैदेही वनवास षोडश सर्ग
वैदेही वनवास सप्तदश सर्ग
वैदेही वनवास अष्टदश सर्ग

शीत-काल था वाष्पमय बना व्योम था।
अवनी-तल में था प्रभूत-कुहरा भरा॥
प्रकृति-वधूटी रही मलिन-वसना बनी।
प्राची सकती थी न खोल मुँह मुसकुरा॥1॥

ऊषा आयी किन्तु विहँस पाई नहीं।
राग-मयी हो बनी विरागमयी रही॥
विकस न पाया दिगंगना-वर-बदन भी।
बात न जाने कौन गयी उससे कही॥2॥

ठण्डी-साँस समीरण भी था भर रहा।
था प्रभात के वैभव पर पाला पड़ा॥
दिन-नायक भी था न निकलना चाहता।
उन पर भी था कु-समय का पहरा कड़ा॥3॥

हरे-भरे-तरुवर मन मारे थे खड़े।
पत्ते कँप-कँप कर थे ऑंसू डालते॥
कलरव करते आज नहीं खग-वृन्द थे।
खोतों से वे मुँह भी थे न निकालते॥4॥

कुछ उँजियाला होता फिर घिरता तिमिर।
यही दशा लगभग दो घण्टे तक रही॥
तदुपरान्त रवि-किरणावलि ने बन सबल।
मानो बातें दिवस-स्वच्छता की कही॥5॥

कुहरा टला दमकने अवधपुरी लगी।
दिवनायक ने दिखलाई निज-दिव्यता॥
जन-कल-कल से हुआ आकलित कुछ-नगर।
भवन-भवन में भूरि-भर-गई-भव्यता॥6॥

अवध-वर-नगर अश्वमेधा-उपलक्ष से।
समधिक-सुन्दरता से था सज्जित हुआ॥
जन-समूह सुन जनक-नन्दिनी-आगमन।
था प्रमोद-पाथोधि में निमज्जित हुआ॥7॥

ऋषि, महर्षि, विबुधों, भूपालों, दर्शकों।
सन्त-महन्तों, गुणियों से था पुर भरा॥
विविध-जनपदों के बहु-विधा-नर वृन्द से।
नगर बन गया देव-नगर था दूसरा॥8॥

आज यही चर्चा थी घर-घर हो रही।
जन-जन चित की उत्कण्ठा थी चौगुनी॥
उत्सुकता थी मूर्तिमन्त बन नाचती।
दर्शन की लालसा हुई थी सौगुनी॥9॥

यदि प्रफुल्ल थी धवल-धाम की धवलता।
पहन कलित-कुसुमावलि-मंजुल-मालिका॥
बहु-वाद्यों की ध्वनियों से हो हो ध्वनित।
अट्टहास तो करती थी अट्टालिका॥10॥

यदि विलोकते पथ थे वातायन-नयन।
सजे-सदन स्वागत-निमित्त तो थे लसे॥
थे समस्त-मन्दिर बहु-मुखरित कीर्ति से।
कनक के कलस उनके थे उल्लसित से॥11॥

कल-कोलाहल से गलियाँ भी थीं भरी।
ललक-भरे-जन जहाँ तहाँ समवेत थे॥
स्वच्छ हुई सड़कें थीं, सुरभित-सुरभि से-
बने चौरहे भी चारुता-निकेत थे॥12॥

राजमार्ग पर जो बहु-फाटक थे बने।
कारु-कार्य उनके अतीव-रमणीय थे॥
थीं झालरें लटकती मुक्ता-दाम की।
कनक-तार के काम परम-कमनीय थे॥13॥

लगी जो ध्वजायें थी परम-अलंकृता।
विविध-स्थलों मन्दिरों पर तरुवरों पर॥
कर नर्तन कर शुभागमन-संकेत-बहु॥
दिखा रही थीं दृश्य बड़े ही मुग्धकर॥14॥

सलिल-पूर्ण नव-आम्र-पल्लवों से सजे।
पुर-द्वारों पर कान्त-कलस जो थे लसे॥
वे यह व्यंजित करते थे मुझमें, मधुर-
मंगल-मूलक-भाव मनों के हैं बसे॥15॥

राजभवन के तोरण पर कमनीयतम।
नौबत बड़े मधुर-स्वर से थी बज रही॥
उसके सम्मुख जो अति-विस्तृत-भूमि थी।
मनोहारिता-हाथों से थी सज रही॥16॥

जो विशालतम-मण्डप उसपर था बना।
धीरे-धीरे वह सशान्ति था भर रहा॥
अपने सज्जित-रूप अलौकिक-विभव से।
दर्शक-गण को बहु-विमुग्ध था कर रहा॥17॥

सुनकर शुभ-आगमन जनक-नन्दिनी का।
अभिनन्दन के लिए रहे उत्कण्ठ सब॥
कितनों की थी यह अति-पावन-कामना।
अवलोकेंगे पतिव्रता-पद-कंज कब॥18॥

स्थान बने थे भिन्न-भिन्न सबके लिए।
ऋषि, महर्षि, नृप-वृन्द, विबुध-गण-मण्डली॥
यथास्थान थी बैठी अन्य-जनों सहित।
चित्त-वृत्ति थी बनी विकच-कुसुमावली॥19॥

एक भाग था बड़ा-भव्य मंजुल-महा।
उसमें राजभवन की सारी-देवियाँ॥
थीं विराजती कुल-बालाओं के सहित।
वे थीं वसुधातल की दिव्य-विभूतियाँ॥20॥

जितने आयोजन थे सज्जित-करण के।
नगर में हुए जो मंगल-सामान थे॥
विधि-विडम्बना-विवश तुषार-प्रपात से।
सभी कुछ-न-कुछ अहह हो गये म्लान थे॥21॥

गगन-विभेदी जय-जयकारों के जनक।
विपुल-उल्लसित जनता के आधाद ने॥
जनक-नन्दिनी पुर-प्रवेश की सूचना।
दी अगणित-वाद्यों के तुमुल-निनाद ने॥22॥

सबसे आगे वे सैकड़ों सवार थे।
जो हाथों में दिव्य-ध्वजायें थे लिये॥
जो उड़-उड़ कर यह सूचित कर रही थीं।
कीर्ति-धरा में होती है सत्कृति किये॥23॥

इनके पीछे एक दिव्यतम-यान था।
जिसपर बैठे हुए थे भरत रिपुदमन॥
देख आज का स्वागत महि-नन्दिनी का।
था प्रफुल्ल शतदल जैसा उनका बदन॥24॥

इसके पीछे कुलपति का था रुचिर-रथ।
जिसपर वे हो समुत्फुल्ल आसीन थे॥
बन विमुग्ध थे अवध-छटा अवलोकते।
राम-चरित की ललामता में लीन थे॥25॥

जनक-सुता-स्यंदन इसके उपरान्त था।
जिसपर थी कुसुमों की वर्षा हो रही॥
वे थीं उसपर पुत्रों-सहित विराजती।
दिव्य-ज्योति मुख की थी भव-तम खो रही॥26॥

कुश मणि-मण्डित-छत्र हाथ में थे लिये।
चामीकर का चमर लिये लव थे खड़े॥
एक ओर सादर बैठे सौमित्र थे।
देखे जनता-भक्ति थे प्रफुल्लित-बड़े॥27॥

सबके पीछे बहुश:-विशद-विमान थे।
जिनपर थी आश्रम-छात्रों की मण्डली॥
छात्राओं की संख्या भी थोड़ी न थी।
बनी हुई थी जो वसंत-विटपावली॥28॥

धीरे-धीरे थे समस्त-रथ चल रहे।
विविध-वाद्य-वादन-रत वादक-वृन्द था॥
चारों ओर विपुल-जनता का यूथ था।
जो प्रभात का बना हुआ अरविन्द था॥29॥

बरस रही थी लगातार सुमनावली।
जय-जय-ध्वनि से दिशा ध्वनित थी हो रही॥
उमड़ा हुआ प्रमोद-पयोधि-प्रवाह था।
प्रकृति, उरों में सुकृति, बीज थी बो रही॥30॥

कुश-लव का श्यामावदात सुन्दर-बदन।
रघुकुल-पुंगव सी उनकी-कमनीयता॥
मातृ-भक्ति-रुचि वेश-वसन की विशदता।
परम-सरलता मनोभाव-रमणीयता॥31॥

मधुर-हँसी मोहिनी-मूर्ति मृदुतामयी।
कान्ति-इन्दु सी दिन-मणि सी तेजस्विता॥
अवलोके द्विगुणित होती अनुरक्ति थी।
बनती थी जनता विशेष-उत्फुल्लिता॥32॥

जब मुनि-पुंगव रथ समेत महि-नन्दिनी।
रथ पहँचा सज्जित-मण्डप के सामने॥
तब सिंहासन से उठ सादर यह कहा।
मण्डप के सब महज्जनों से राम ने॥33॥

आप लोग कर कृपा यहीं बैठे रहें।
जाता हूँ मुनिवर को लाऊँगा यहीं॥
साथ लिये मिथिलाधिप की नन्दिनी को।
यथा शीघ्र मैं फिर आ जाऊँगा॥34॥

रथ पहुँचा ही था कि कहा सौमित्र ने।
आप सामने देखें प्रभु हैं आ रहे॥
श्रवण-रसायन के समान यह कथन सुन।
स्रोत-सुधा के सिय अन्तस्तल में बहे॥35॥

उसी ओर अति-आकुल-ऑंखें लग गईं।
लगीं निछावर करने वे मुक्तावली॥
बहुत समय से कुम्हलाई आशा-लता।
कल्पबेलि सी कामद बन फूली फली॥36॥

रोम-रोम अनुपम-रस से सिंचित हुआ।
पली अलौकिकता-कर से पुलकावली॥
तुरत खिली खिलने में देर हुई नहीं।
बिना खिले खिलती है जो जी की कली॥37॥

घन-तन देखे वह वासना सरस बनी।
जो वियोग-तप-ऋतु-आतप से थी जली॥
विधु-मुख देखे तुरत जगमगा वह उठी।
तम-भरिता थी जो दुश्चिन्ता की गली॥38॥

जब रथ से थीं उतर रही जनकांगजा।
उसी समय मुनिवर की करके वन्दना॥
पहुँचे रघुकुल-तिलक वल्लभा के निकट।
लोकोत्तर था पति-पत्नी का सामना॥39॥

ज्योंही पतिप्राणा ने पति-पद-पर्कं।
स्पर्श किया निर्जीव-मूर्ति सी बन गई॥
और हुए अतिरेक चित्त-उल्लास का।
दिव्य-ज्योति में परिणत वे पल में हुई॥40॥

लगे वृष्टि करने सुमनावलि की त्रिदश।
तुरत दुंदुभी-नभतल में बजने लगी॥
दिव्य-दृष्टि ने देखा, है दिव-गामिनी।
वह लोकोत्तर-ज्योति जो धरा में जगी॥41॥

वह थी पातिव्रत-विमान पर विलसती।
सुकृति, सत्यता, सात्तिवकता की मूर्तियाँ॥
चमर डुलाती थीं करती जयनाद थीं।
सुर-बालायें करती थीं कृति-पूर्तियाँ॥42॥

क्या महर्षि क्या विबुध-वृन्द क्या नृपति-गण।
क्या साधारण जनता क्या सब जनपद॥
सभी प्रभावित दिव्य-ज्योति से हो गए।
मान लोक के लिए उसे आलोक प्रद॥43॥

मुनि-पुंगव-रामायण की बहु-पंक्तियाँ।
पाकर उसकी विभा जगमगाई अधिक॥
कृति-अनुकूल ललिततम उसके ओप से।
लौकिक बातें भी बन पाई अलौकिक॥44॥

कुलपति-आश्रम के छात्रों ने लौटकर।
दिव्य-ज्योति-अवलम्बन से गौरव-सहित॥
वह आभा फैलाई निज-निज प्रान्त में।
जिसके द्वारा हुआ लोक का परम-हित॥45॥

तपस्विनी-छात्राओं के उद्वोधा से।
दिव्य ज्योति- बल-से-बल सका प्रदीप वह॥
जिससे तिमिर-विदूरित बहु-घर के हुए।
लाख-लाख मुखड़ों की लाली सकी रह॥46॥

ऋषि, महर्षियों, विबुधों, कवियों, सज्जनों।
हृदयों में बस दिव्य-ज्योति की दिव्यता॥
भवहित-कारक सद्भावों में सर्वदा।
भूरि-भूरि भरती रहती थी भव्यता॥47॥

जनपदाधि-पतियों नरनाथों-उरों में।
दिव्य-ज्योति की कान्ति बनी राका-सिता॥
रंजन-रत रह थी जन-जन की रंजिनी।
सुधामयी रह थी वसुधा में विलसिता॥48॥

साधिकार-पुरुषों साधारण-जनों के।
उरों में रमी दिव्य-ज्योति की रम्यता॥
शान्तिदायिनी बन थी भूति-विधायिनी।
कहलाकर कमनीय-कल्पतरु की लता॥49॥

यथाकाल यह दिव्य-ज्योति भव-हित-रता।
आर्य-सभ्यता की अमूल्य-निधि सी बनी॥
वह भारत-सुत-सुख-साधन वर-व्योम में।
है लोकोत्तर ललित चाँदनी सी तनी॥50॥

उसके सारे-भाव भव्य हैं बन गये।
पाया उसमें लोकोत्तर-लालित्य है॥
इन्दु कला सी है उसमें कमनीयता।
रचा गया उस पर जितना साहित्य है॥51॥

उसकी परम-अलौकिक आभा के मिले।
दिव्य बन गयी हैं कितनी ही उक्तियाँ॥
स्वर्णाक्षर हैं मसि-अंकित-अक्षर बने।
मणिमय हैं कितने ग्रंथों की पंक्तियाँ॥52॥

आज भी अमित-नयनों की वह दीप्ति है।
आज भी अमित-हृदयों की वह शान्ति है॥
आज भी अमित तम-भरितों की है विभा।
आज भी अमित-मुखड़ों की वह कान्ति है॥53॥

आज भी कलित उसकी कीर्ति-कलाप से।
मंजुल-मुखरित उसका अनुपम-ओक है॥
आज भी परम-पूता भारत की धरा।
आलोकित है उसके शुचि आलोक से॥54॥

उठकर इतना उच्च ठहरती क्यों यहाँ।
इस ध्वनि से ही उस दिन थी ध्वनिता-मही॥
अपने दिव्य गुणों की दिखला दिव्यता।
वह तो स्वर्गीया ही जाती थी कही॥55॥

दोहा

अधिक-उच्च उठ जनकजा क्यों धरती तजतीं न।
बने दिव्य से दिव्य क्यों दिव देवी बनतीं न॥56॥

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