वैदेही वनवास अष्टम सर्ग

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वैदेही वनवास अष्टम सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली खंडकाव्य
सर्ग / छंद आश्रम-प्रवेश / तिलोकी
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वैदेही वनवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल अठारह (18) सर्ग
वैदेही वनवास प्रथम सर्ग
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वैदेही वनवास तृतीय सर्ग
वैदेही वनवास चतुर्थ सर्ग
वैदेही वनवास पंचम सर्ग
वैदेही वनवास षष्ठ सर्ग
वैदेही वनवास सप्तम सर्ग
वैदेही वनवास अष्टम सर्ग
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वैदेही वनवास दशम सर्ग
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वैदेही वनवास षोडश सर्ग
वैदेही वनवास सप्तदश सर्ग
वैदेही वनवास अष्टदश सर्ग

था प्रभात का काल गगन-तल लाल था।
अवनी थी अति-ललित-लालिमा से लसी॥
कानन के हरिताभ-दलों की कालिमा।
जाती थी अरुणाभ-कसौटी पर कसी॥1॥

ऊँचे-ऊँचे विपुल-शाल-तरु शिर उठा।
गगन-पथिक का पंथ देखते थे अड़े॥
हिला-हिला निज शिखा-पताका-मंजुला।
भक्ति-भाव से कुसुमांजलि ले थे खड़े॥2॥

कीचक की अति-मधुर-मुरलिका थी बजी।
अहि-समूह बन मत्त उसे था सुन रहा॥
नर्तन-रत थे मोर अतीव-विमुग्ध हो।
रस-निमित्त अलि कुसुमावलि था चुन रहा॥3॥

जहाँ तहाँ मृग खड़े स्वभोले नयन से।
समय मनोहर-दृश्य रहे अवलोकते॥
अलस-भाव से विलस तोड़ते अंग थे।
भरते रहे छलाँग जब कभी चौंकते॥4॥

परम-गहन-वन या गिरि-गह्वर-गर्भ में।
भाग-भाग कर तिमिर-पुंज था छिप रहा॥
प्रभा प्रभावित थी प्रभात को कर रही।
रवि-प्रदीप्त कर से दिशांक था लिप रहा॥5॥

दिव्य बने थे आलिंगन कर अंशु का।
हिल तरु-दल जाते थे मुक्तावलि बरस॥
विहग-वृन्द की केलि-कला कमनीय थी।
उनका स्वगत-गान बड़ा ही था सरस॥6॥

शीतल-मंद-समीर वर-सुरभि कर बहन।
शान्त-तपोवन-आश्रम में था बह रहा॥
बहु-संयत बन भर-भर पावन-भाव से।
प्रकृति कान में शान्ति बात था कह रहा॥7॥

जो किरणें तरु-उच्च शिखा पर थीं लसी।
ललित-लताओं को अब वे थीं चूमती॥
खिले हुए नाना-प्रसून से गले मिल।
हरित-तृणावलि में हँस-हँस थीं घूमती॥8॥

मन्द-मन्द गति से गयंद चल-चल कहीं।
प्रिय-कलभों के साथ केलि में लग्न थे॥
मृग-शावक थे सिंह-सुअन से खेलते।
उछल-कूद में रत कपि मोद-निमग्न थे॥9॥

आश्रम-मन्दिर-कलश अन्य-रवि-बिम्ब-बन।
अद्भुत-विभा-विभूति से विलस था रहा॥
दिव्य-आयतन में उसके कढ़ कण्ठ से।
वेद-पाठ स्वर सुधा स्रोत सा था बहा॥10॥

प्रात:-कालिक-क्रिया की मची धूम थी।
जद्दघ-नन्दिनी के पावनतम-कूल पर॥
स्नान, ध्यान, वन्दन, आराधन के लिए।
थे एकत्रित हुए सहस्रों नारि-नर॥11॥

स्तोत्रा-पाठ स्तवनादि से ध्वनित थी दिशा।
सामगान से मुखरित सारा-ओक था॥
पुण्य-कीर्तनों के अपूर्व-आलाप से।
पावन-आश्रम बना हुआ सुरलोक था॥12॥

हवन क्रिया सर्वत्र सविधि थी हो रही।
बड़ा-शान्त बहु-मोहक-वातावरण था॥
हुत-द्रव्यों से तपोभूमि सौरभित थी।
मूर्तिमान बन गया सात्तिवकाचरण था॥13॥

विद्यालय का वर-कुटीर या रम्य-थल।
आश्रम के अन्यान्य-भवन उत्तम बड़े॥
परम-सादगी के अपूर्व-आधार थे।
कीर्ति-पताका कर में लेकर थे खड़े॥14॥

प्रात:-कालिक-दृश्य सबों का दिव्य था।
रवि-किरणें थी उन्हें दिव्यता दे रही॥
उनके अवलम्बन से सकल-वनस्थली।
प्रकृति करों से परम-कान्ति थी ले रही॥15॥

इसी समय अति-उत्तम एक कुटीर में।
जो नितान्त-एकान्त-स्थल में थी बनी॥
थीं कर रही प्रवेश साथ सौमित्रा के।
परम-धीर-गति से विदेह की नन्दिनी॥16॥

कुछ चल कर ही शान्त-मूर्ति-मुनिवर्य्य की।
उन्हें दिखाई पड़ी कुशासन पर लसी॥
जटा-जूट शिर पर था उन्नत-भाल था।
दिव्य-ज्योति उज्ज्वल-ऑंखों में थी बसी॥17॥

दीर्घ-विलम्बित-श्वेत-श्मश्रु, मुख-सौम्यता।
थी मानसिक-महत्ता की उद्बोधिनी॥
शान्त-वृत्ति थी सहृदयता की सूचिका।
थी विपत्ति-निपतित की सतत प्रबोधिनी॥18॥

देख जनक-नन्दिनी सुमित्रा-सुअन को।
वंदन करते मुनि ने अभिनन्दन किया॥
सादर स्वागत के बहु-सुन्दर-वचन कह।
प्रेम के सहित उनको उचितासन दिया॥19॥

बहुत-विनय से कहा सुमित्रा-तनय ने।
आर्य्या का जिस हेतु से हुआ आगमन॥
ऋषिवर को वे सारी बातें ज्ञात हैं।
स्वाभाविक होते कृपालु हैं पुण्य-जन॥20॥

पुण्याश्रम का वास धर्म-पथ का ग्रहण।
परम-पुनीत-प्रथा का पालन शुध्द-मन॥
क्यों न बनेगा सकल सिध्दि प्रद बहु फलद।
महा-महिम का नियमन-रक्षण संयमन॥21॥

है मेरा विश्वास अनुष्ठित-कृत्य यह।
होगा रघुकुल-कलस के लिए कीर्तिकर॥
करेगा उसे अधिक गौरवित विश्व में।
विशद-वंश को उज्ज्वल-रत्न प्रदान कर॥22॥

मुनि ने कहा वसिष्ठ देव के पत्र से।
सब बातें हैं मुझे ज्ञात, यह सत्य है-
लोक तथा परलोक-नयन आलोक है।
भव-सागर में पोत समान अपत्य है॥23॥

वंश-वृध्दि, प्रतिपालन-प्रिय-परिवार का।
वर्धन कुल की कीर्ति कर विशद-साधना॥
मानव बन करना मानवता अर्चना।
है सत्संतति कर्म, लोक-अराधना॥24॥

ऐसा ही सुत सकल-जगत है चाहता।
किन्तु अधिक वांछित है नृपकुल के लिए॥
क्योंकि नृपति वास्तव में होता है नृपति।
वही धरा को रहता है धारण किए॥25॥

इसीलिए कुछ धर्म, प्राण, नृपकुल-तिलक।
गर्भवती निज प्रिय-पत्नी को समय पर॥
कुलपति आश्रम में प्राय: हैं भेजते।
सब-लोक-हित-रत हो जिससे वंशधार॥26॥

रघुकुल-रंजन के अति-उत्तम कार्य का।
अनुमोदन करता हूँ सच्चे-हृदय से॥
कहियेगा नृप-पुंगव से यह कृपा कर।
सब कुछ होता सांग रहेगा समय से॥27॥

पुत्रि जनकजे! मैं कृतार्थ हो गया हूँ।
आप कृपा करके यदि आईं हैं यहाँ॥
वे थल भी हैं अब पावन-थल हो गए।
आपका परम-शुचि-पग पड़ पाया जहाँ॥28॥

आप मानवी हैं तो देवी कौन है।
महा-दिव्यता किसे कहाँ ऐसी मिली॥
पातिव्रत अति पूत सरोवर अंक में।
कौन पति-रता-पंकजिनी ऐसी खिली॥29॥

पति-देवता कहाँ किसको ऐसी मिली।
प्रेम से भरा ऐसा हृदय न और है॥
पति-गत प्राणा ऐसी हुई न दूसरी।
कौन धरा की सतियों की सिरमौर है॥30॥

किसी चक्रवर्ती की पत्नी आप हैं।
या लालित हैं महामना मिथिलेश की॥
इस विचार से हैं न पूजिता वंदिता।
आप अर्चिता हैं अलौकिकादर्श से॥31॥

रत्न-जटिल-हिन्दोल में पली आप थीं।
प्यारी-पुत्तालिका थीं मैना दृगों की॥
मिथिलाधिप-कर-कमलों से थीं लालिता।
कुसुम से अधिक कोमलता थी पगों की॥32॥

कनक-रचित महलों में रहती थीं सदा।
चमर ढुला करता था प्राय: शीश पर॥
कुसुम-सेज थी दुग्ध-फेन-निभ-आस्तरण।
थीं विभूतियाँ अलकाधिपति-विमुग्धकर॥33॥

मुख अवलोकन करती रहती थीं सदा।
कौशल्या देवी तन मन, धन, वार कर॥
सब प्रकार के भव के सुख, कर-बध्द हो।
खड़े सामने रहते थे आठों पहर॥34॥

किन्तु देखकर जीवन-धन का वन-गमन।
आप भी बनी सब तज कर वन-वासिनी॥
एक-दो नहीं चौदह सालों तक रहीं।
प्रेम-निकेतन पति के साथ प्रवासिनी॥35॥

बन जाती थीं सकल भीतियाँ भूतियाँ।
कानन में आपदा सम्पदा सी सदा॥
आपके लिए प्रियतम प्रेम-प्रभाव से।
बनती थीं सुखदा कुवस्तुएँ दु:खदा॥36॥

पट्ट-वस्त्रा बन जाता था वल्कल-वसन।
साग पात में मिलता व्यंजन स्वाद था॥
कान्त साथ तृण-निर्मित साधारण उटज।
बहु-प्रसाद पूरित बनता प्रासाद था॥37॥

शीतल होता तप-ऋतु का उत्ताप था।
लू लपटें बन जाती थीं प्रात:-पवन॥
बनती थी पति साथ सेज सी साथरी।
सारे काँटे होते थे सुन्दर सुमन॥38॥

जीवन भर में छह महीने ही हुआ।
पति-वियोग उस समय जिस समय आपको॥
हरण किया था पामर-लंकाधिपति ने।
कर सहस्र-गुण पृथ्वी तल के पाप को॥39॥

किन्तु यह समय ही वह अद्भुत समय था।
हुई जिस समय ज्ञात महत्ता आपकी॥
प्रकृति ने महा-निर्मम बनकर जिस समय।
आपके महत-पातिव्रत की माप की॥40॥

वह रावण जिससे भूतल था काँपता।
एक वदन होते भी जो दश-वदन था॥
हो द्विबाहु जो विंशति बाहु कहा गया।
धृति शिर पर जो प्रबल वज्र का पतन था॥41॥

महा-घोर गर्जन तर्जन प्रतिवार कर।
दिखा-दिखा करवालें विद्युद्दाम सी॥
कर कर कुत्सित रीति कदर्य्य प्रवृत्ति से।
लोक प्रकम्पित करी क्रियायें तामसी॥42॥

रख त्रिलोक की भूमि प्रायश: सामने।
राज्य-विभव को चढ़ा-चढ़ा पद पद्म॥
न तो विकम्पित कभी कर सका आपको।
न तो कर सका वशीभूत बहु मुग्ध कर॥43॥

जिसकी परिखा रहा अगाध उदधि बना।
जिसका रक्षक स्वर्ग-विजेता-वीर था॥
जिसमें रहते थे दानव-कुल-अग्रणी।
जिसका कुलिशोपम अभेद्य-प्राचीर था॥44॥

जिसे देख कम्पित होते दिग्पाल थे।
पंचभूत जिसमें रहते भयभीत थे॥
कँपते थे जिसमें प्रवेश करते त्रिदश।
जहाँ प्रकृत-हित पशुता में उपनीत थे॥45॥

उस लंका में एक तरु तले आपने।
कितनी अंधियाली रातें दी हैं बिता॥
अकली नाना दानवियों के बीच में।
बहुश:-उत्पातों से हो हो शंकिता॥46॥

कितनी फैला बदन निगलना चाहतीं।
कितनी बन विकराल बनातीं चिन्तिता॥
ज्वालाएँ मुख से निकाल ऑंखें चढ़ा।
कितनी करती रहती थीं आतंकिता॥47॥

कितनी दाँतों को निकाल कटकटा कर।
लेलिहान-जिह्ना दिखला थीं कूदती।
कितनी कर बीभत्स-काण्ड थीं नाचती।
आप देख जिसको ऑंखें थीं मूँदती॥48॥

आस पास दानव-गण करते शोर थे।
कर दानवी-दुरन्त-क्रिया की पूर्तियाँ॥
रहे फेंकते लूक सैकड़ों सामने।
दिखा-दिखा कर बहु-भयंकरी-मूर्तियाँ॥49॥

इन उपद्रवों उत्पातों का सामना।
आपका सबलतम सतीत्व था कर रहा॥
हुई अन्त में सती-महत्ता विजयिनी।
लंकाधिप-वध-वृत्ता लोक-मुख ने कहा॥50॥

पुत्रि आपकी शक्ति महत्ता विज्ञता।
धृति उदारता सहृदयता दृढ़-चित्तता॥
मुझे ज्ञात है किन्तु प्राण-पति प्रेम की।
परम-प्रबलता तदीयता एकान्तता॥51॥

ऐसी है भवदीय कि मैं संदिग्ध हूँ।
क्यों वियोग-वासर व्यतीत हो सकेंगे॥
किन्तु कराती है प्रतीति धृति आपकी।
अंक कीर्ति के समय-पत्र पर अंकेंगे॥52॥

जो पतिप्राणा है पति-इच्छा पूर्ति तो।
क्या न प्राणपण से वह करती रहेगी॥
यदि वह है संतान-विषयिणी क्यों न तो।
प्रेम-जन्य-पीड़ा संयत बन सहेगी॥53॥

देख रहा हूँ मैं पति की चर्चा चले।
वारि दृगों में बार-बार आता रहा॥
किन्तु मान धृति का निदेश पीछे हटा।
आगे बढ़कर नहीं धार बनकर बहा॥54॥

है मुझको विश्वास गर्भ-कालिक नियम।
प्रति दिन प्रतिपालित होंगे संयमित रह॥
होगा जो सर्वस्व अलौकिक-खानि का।
रघुकुल-पुंगव लाभ करेंगे रत्न वह॥55॥

इतनी बातें कह मुनि पुंगव ने बुला।
तपस्विनी आश्रम-अधीश्वरी से कहा॥
आश्रम में श्रीमती जनक-नन्दिनी को।
आप लिवा ले जायँ कर समादर-महा॥56॥

जो कुटीर या भवन अधिक उपयुक्त हो।
जिसको स्वयं महारानी स्वीकृत करें॥
उन्हें उसी में कर सुविधा ठहराइए।
जिसके दृश्य प्रफुल्ल-भाव उर में भरें॥57॥

यह सुन लक्ष्मण से विदेहजा ने कहा।
तुमने मुनिवर की दयालुता देख ली॥
अत: चले जाओ अब तुम भी, और मैं-
तपस्विनी आश्रम में जाती हूँ चली॥58॥

प्रिय से यह कहना महान-उद्देश्य से।
अति पुनीत-आश्रम में है उपनीत-तन॥
किन्तु प्राण पति पद-सरोज का सर्वदा।
बना रहेगा मधुप सेविका मुग्ध-मन॥59॥

मेरी अनुपस्थिति में प्राणाधार को।
विविध-असुविधाएँ होवेंगी इसलिए॥
इधर तुम्हारी दृष्टि अपेक्षित है अधिक।
सारे सुख कानन में तुमने हैं दिए॥60॥

यद्यपि तुम प्रियतम के सुख-सर्वस्व हो।
स्वयं सभी समुचित सेवाएँ करोगे॥
किन्तु नहीं जी माना इससे की विनय।
स्नेह-भाव से ही आशा है भरोगे॥61॥

सुन विदेहजा-कथन सुमित्रा-सुअन ने।
अश्रु-पूर्ण-दृग से आज्ञा स्वीकार की॥
फिर सादर कर मुनि-पद सिय-पग वन्दना।
अवध-प्रयाण-निमित्त प्रेम से विदा ली॥62॥

दोहा

कर मुनिवर की वन्दना रख विभूति-विश्वास।
जाकर आश्रम में किया जनक-सुता ने वास॥63॥




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