शिवाजी का प्रारम्भिक जीवन
शिवाजी के प्रारम्भिक जीवन में ही उनके पिता शाहजी भोंसले ने उनकी माँ जीजाबाई को त्याग दिया था। शाहजी पूना की ज़ागीर अपनी उपेक्षित पटरानी जीजाबाई तथा छोटे लड़के शिवाजी को सौंपकर चले गये थे। 1645 तथा 1647 के बीच अठारह वर्ष की आयु में पूना के निकट रायगढ़, कांडण तथा तोरण के क़िलों पर क़ब्ज़ा करके शिवाजी ने अपनी बहादुरी का प्रमाण दिया। 1647 में अपने अभिभावक दादाजी कोंडदेव की मृत्यु के बाद शिवाजी पूरी तरह आज़ाद हो गए थे और अपने पिता की सारी ज़ागीर उनके नियंत्रण में आ गई थी।
विजय अभियान
शिवाजी ने अपना असली विजय अभियान 1656 में आरम्भ किया, जब उन्होंने मराठा सरदार चंद्रराव मोरे से जावली छीन लिया। जावली का राज्य तथा वहाँ मोरों का ख़ज़ाना बहुत महत्त्वपूर्ण था और शिवाजी ने इस पर षड़यंत्र रचकर क़ब्ज़ा कर लिया। जावली की विजय से वह मावल क्षेत्र के शासक हो गये और सतारा तथा कोंकण तक का रास्ता उनके लिए साफ़ हो गया। मावल के पैदल सैनिक शिवाजी की सेना के प्रमुख अंग बन गये। उनकी सहायता से शिवाजी ने पूना के निकट और भी कई पहाड़ी क़िलों को जीतकर अपनी स्थिति खूब मज़बूत कर ली।
औरंगज़ेब की नीति
1657 में बीजापुर पर मुग़लों के आक्रमण के कारण शिवाजी बीजापुर के जवाबी हमले से बच गये। उन्होंने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के साथ पहले बातचीत का तरीक़ा अपनाया तथा औरंगज़ेब से उन सभी बीजापुरी क्षेत्रों, जो उनके अधिकार में थे, के अलावा कोंकण में दभौल बंदरगाह तथा अन्य क्षेत्रों की माँग की। लेकिन इसके बाद शिवाजी ने अपना रुख़ बदल लिया और मुग़ल क्षेत्रों पर ही आक्रमण कर बड़ी मात्रा में धन लूटा। जब औरंगज़ेब का बीजापुर के नये शासक के साथ समझौता हो गया, तब उसने शिवाजी को भी क्षमा कर दिया। लेकिन औरंगज़ेब को अभी भी शिवाजी पर भरोसा नहीं था और उसने बीजापुर के शासक को सलाह दी कि वह शिवाजी को उन सभी बीजापुरी क्षेत्रों से निकाल दे, जिन पर शिवाजी ने कब्ज़ा कर रखा था। औरंगज़ेब ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि बीजापुर का शासक शिवाजी को अपनी सेवा में रखना चाहे भी तो उसे मुग़ल सीमा के पार कर्नाटक में रखे।
अफ़ज़ल खाँ की हत्या
औरंगज़ेब जैसे ही उत्तर में लौटा, शिवाजी ने एक बार फिर बीजापुर के क्षेत्रों के ही विरुद्ध अभियान आरम्भ कर दिया। उन्होंने कोंकण के पहाड़ तथा समुद्र के बीच के तटीय क्षेत्र पर हमला किया तथा उत्तरी भाग पर अपना कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने कई अन्य पहाड़ी क़िले भी जीते। बीजापुर के शासक ने शिवाजी के ख़िलाफ़ अब कड़ी कार्यवाई करने की सोची। उसने बीजापुर के प्रमुख सरदार अफ़ज़ल ख़ाँ को दस हज़ार सैनिकों के साथ शिवाजी के ख़िलाफ़ भेजा। अफ़ज़ल ख़ाँ का आदेश था कि वह किसी भी तरह से शिवाजी को बंदी बना ले। उन दिनों षड़यंत्रों तथा धोखाधड़ी से काम लेना एक आम बात थी और अफ़ज़ल ख़ाँ तथा शिवाजी, दोनों ने कई अवसरों पर ऐसे तरीक़े अपनाये थे।
शिवाजी की सेना खुले मैदान में युद्ध करने की आदी नहीं थी और वह इस शक्तिशाली सेना से खुले मैदान में लड़ाई करने से हिचकिचा रही थी। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को एक व्यक्तिगत भेंट के लिए एक संदेश भेजा और इस बात का वायदा किया कि वह बीजापुर दरबार से उसे क्षमा दिलवा देगा। शिवाजी को विश्वास था कि यह धोखा है, फिर भी वे उस भेंट के लिए पूरी तरह तैयार होकर गये और चालाकी तथा साहस के साथ 1659 में अफ़ज़ल ख़ाँ की हत्या कर डाली। इसके बाद शिवाजी ने उसकी नेतृत्वहीन सेना को तितर-बितर कर दिया तथा सारे साज़ो-समान और तोपख़ाने पर कब्ज़ा कर लिया। इस विजय से मराठा सेना की हिम्मत बढ़ गयी और उसने पन्हाला के मज़बूत क़िले पर भी क़ब्ज़ा कर लिया तथा दक्षिण कोंकण और कोल्हापुर के ज़िलों में कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।
शिवाजी की ख्याति
अपने विजय अभियानों के कारण शिवाजी का नाम घर-घर में फैल गया और लोग उनकी जादुई शक्तियों के बारे में चर्चा करने लगे थे। मराठा क्षेत्रों से बड़ी संख्या में लोग उनकी सेना में भरती होने के लिए आने लगे। यहाँ तक की पेशेवर अफ़ग़ान सैनिक, जो पहले बीजापुर की सेवा में थे, वे भी शिवाजी की सेना में भरती हो गये। उधर मुग़ल सीमा के इतने नज़दीक मराठों की शक्ति को बढ़ता देखकर औरंगज़ेब चिन्चित था। 1636 की संधि के अंतर्गत पूना तथा आसपास के क्षेत्रों, जो पहले अहमदनगर राज्य का हिस्सा थे, को बीजापुर को दे दिया गया था। अब मुग़लों ने इन क्षेत्रों पर अपना दावा किया।
औरंगज़ेब ने दक्कन के नये मुग़ल प्रशासक शाइस्ता ख़ाँ, जो औरंगज़ेब का सम्बन्धी भी था, को शिवाजी के क्षेत्रों पर आक्रमण करने का आदेश दिया। बीजापुर के शासक आदिलशाह से भी सहयोग देने के लिए कहा गया। आदिलशाह ने अबीसीनियाई सरदार सिद्दी जौहर को भेजा। उसने पन्हाला में शिवाजी को घेर लिया। शिवाजी यहाँ से भाग निकले। लेकिन पन्हाला पर बीजापुर के सैनिकों का क़ब्ज़ा हो गया। आदिलशाह शिवाजी को पूरी तरह नष्ट नहीं करना चाहता था, इसलिए उसने शिवाजी के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके विपरीत उसने शीघ्र ही शिवाजी से एक गुप्त समझौता कर लिया। अब शिवाजी मुग़लों का मुक़ाबला करने के लिए स्वतंत्र था।
प्रतिष्ठा में वृद्धि
अपने प्रारम्भिक जीवन में शिवाजी को विशेष सफलता नहीं मिली। शाइस्ता ख़ाँ ने 1660 में पूना पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे अपना मुख्यालय बनाया। इसके बाद उसने शिवाजी के चंगुल से कोंकण को छुड़ाने के लिए वहाँ अपनी सेना भजी। मराठों की बहादुरी तथा शिवाजी के छापामार हमलों के बावजूद मुग़ल उत्तरी कोंकण पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गये। और कोई चारा न देखकर शिवाजी ने एक अत्यन्त साहसपूर्ण क़दम उठाया। वह रात के अंधेरे में पूना में शाइस्ता ख़ाँ के खेमे घुस गये और जब वह हरम में था, उस पर हमला कर दिया। उन्होंने शाइस्ता ख़ाँ के लड़के तथा उसके एक सेनाध्यक्ष को मार डाला तथा ख़ान को भी ज़ख्मी कर दिया। इस साहसपूर्ण हमले के बाद शाइस्ता ख़ाँ की इज़्ज़त घट गई और उधर शिवाजी की प्रतिष्ठा एक बार फिर क़ायम हो गई। औरंगज़ेब ने गुस्से में आकर शाइस्ता ख़ाँ को बंगाल भेज दिया। यहाँ तक की उस समय की प्रथा के विपरीत बदली के समय औरंगज़ेब ने ख़ान से मिलने से भी इंकार कर दिया। इस बीच शिवाजी ने एक और साहस का काम किया। उन्होंने मुग़लों के मुख्य बंदरगाह सूरत पर 1664 में आक्रमण किया तथा उसे पूरी तरह लूटा। इस हमले में उनके हाथ अपार सम्पत्ति लगी।
इन्हें भी देखें: शाहजी भोंसले, जीजाबाई, दादाजी कोंडदेव, पेशवा एवं बाजीराव प्रथम
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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