शीतला सप्तमी
शीतला सप्तमी
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विवरण | 'शीतला सप्तमी' व्रत का अन्य व्रतों में बेहद खास महत्व है। हिन्दू धर्म में शीतला माता को रोगों को दूर करने वाला माना जाता है। |
देश | भारत |
अनुयायी | हिन्दू |
तिथि | श्रावण माह में कृष्ण पक्ष की सप्तमी |
विशेष | इस व्रत में एक दिन पहले बना हुआ बासी भोजन माता को अर्पण करना चाहिए और स्वयं भी ग्रहण करना चाहिए। |
संबंधित लेख | शीतला चालीसा, शीतला अष्टमी व्रत, शीतला माता की आरती |
अन्य जानकारी | शीतला सप्तमी के दिन सफेद पत्थर से बनी माता शीतला की मूर्ति की पूजा की जाती है। उत्तर भारत में खासकर भगवती शीतला की पूजा विशेष रूप से की जाती है। |
शीतला सप्तमी श्रावण माह में कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि पर मनाई जाती है।[1] वैसे तो शीतला सप्तमी या अष्टमी का व्रत केवल चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को होता है यानि होली के बाद जो भी सप्तमी या अष्टमी आती है, उस तिथि को; लेकिन कुछ पुराण ग्रंथों में चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ और श्रावण में शीतला सप्तमी-अष्टमी व्रत रखने का विधान भी बताया गया है। शीतला सप्तमी पर कलश स्थापित कर उस पर शीतला की प्रतिमा का पूजन एवं पाठ वर्ष या उससे कम अवस्था की 7 कुमारियों को भोजन कराया जाता है।
व्रत और पूजा-विधि
शीतला सप्तमी के दिन सफेद पत्थर से बनी माता शीतला की मूर्ति की पूजा की जाती है। उत्तर भारत में खासकर भगवती शीतला की पूजा विशेष रूप से की जाती है। इस दिन व्रती को प्रात:काल उठकर शीतल जल से स्नान कर स्वच्छ होना चाहिए। फिर व्रत का संकल्प लेकर विधि-विधान से माता शीतला की पूजा करनी चाहिए। पहले दिन बने हुए यानि बासी भोजन का भोग लगाना चाहिए। साथ ही शीतला सप्तमी-अष्टमी व्रत की कथा भी सुननी चाहिए। रात में माता का जागरण भी किया जाना अच्छा माना जाता है।
कथा
एक कथा के अनुसार एक बार शीतला सप्तमी के दिन एक बुढ़िया और उसकी दो बहुओं ने व्रत रखा। उस दिन सभी को बासी भोजन ग्रहण करना था। इसलिये पहले दिन ही भोजन पका लिया गया था। लेकिन दोनों बहुओं को कुछ समय पहले ही संतान की प्राप्ति हुई थी, कहीं बासी भोजन खाने से वे और उनकी संतान बिमार न हो जाए, इसलिए बासी भोजन ग्रहण न कर अपनी सास के साथ माता की पूजा अर्चना के बाद पशुओं के लिये बनाये गए भोजन के साथ अपने लिए भी रोटी बना उनका चूरमा बनाकर खा लिया।
जब सास ने बासी भोजन ग्रहण करने को कहा तो काम का बहाना बनाकर टाल गईं। उनके इस कार्य से माता कुपित हो गईं, जिस कारण उन दोनों के नवजात शिशु मृत मिले। जब सास को पूरी कहानी पता चली तो उसने दोनों को घर से निकाल दिया। दोनों अपने शिशु के शवों को लिए जा रही थीं कि एक बरगद के पेड़ के नीचे विश्राम के लिए ठहर गईं। वहीं पर ओरी और शीतला नामक दो बहनें भी थीं, जो अपने सर में पड़ी जूंओं से बहुत परेशान थीं। दोनों बहुओं को उन पर दया आयी और उनकी मदद की, सर से जूंए कम हुई तो उन्हें कुछ चैन मिला और बहुओं को आशीष दिया कि तुम्हारी गोद हरी हो जाए। उन्होंने कहा कि हरी-भरी गोद ही लुट गई है। इस पर शीतला ने लताड़ लगाते हुए कहा कि पाप कर्म का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा।
बहुओं ने पहचान लिया कि ये तो साक्षात माता हैं तो चरणों में पड़ गईं और क्षमा याचना की। माता को भी उनके पश्चाताप करने पर दया आयी और उनके मृत बालक जीवित हो गए। तब दोनों खुशी-खुशी गांव लौट आयीं। इस चमत्कार को देखकर सब हैरान रह गए। इसके बाद पूरा गांव माता को मानने लगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ व्रतराज (237-241)।
बाहरी कड़ियाँ
अन्य संबंधित लिंक
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