श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 56 श्लोक 1-15
दशम स्कन्ध: षट्पञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (56) (उत्तरार्धः)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! सत्राजित् ने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिये उसने स्वयं स्यमन्तकमणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण सौंप दी ।
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन्! सत्राजित् ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमन्तकमणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ?
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! सत्राजित् भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान ने प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमन्तकमणि दी थी । सत्राजित् उस मणि को गले में धारण ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित! जब सत्राजित् द्वारका में आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके ।दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गयीं। लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे । लोगों ने कहा—‘शंख-चक्र-गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द! आपको नमस्कार है ।
जगदीश्वर! देखिये! अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरशिम भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं । प्रभो! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं’ ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अनजान पुरुषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा—‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित् है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है । इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राम्हणों के द्वारा स्यमन्तमणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया । परीक्षित! वह मणि प्रतिदिन आठ भार[1] सोना दिया करती थी। और वहाँ वह पूजित होकर रहती थी वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था । एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा—‘सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप—लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।
एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया । वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला | उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिये दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित् को बड़ा दुःख हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भार का परिमाण इस प्रकार है—अर्थात् ‘चार व्रीहि (धान) की एक गुंजा, पाँच गुंजा का एक पण, आठ पण का एक धरण, आठ धरण का एक कर्ष, चार कर्ष का एक पल, सौ पल की एक तुला और बीस तुला का एक भार कहलाता है।’
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