श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 56 श्लोक 16-27
दशम स्कन्ध: षट्पञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (56) (उत्तरार्धः)
वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था।’ सत्राजित् की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूसी करने लगे । जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरुषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिये वन में गये । वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढे, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर एक रीछ ने सिंह को भी मार डाला है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया । भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए । उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धय भयभीत की भाँति चिल्ला उठीं। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये । परीक्षित्! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे । जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने में अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का, तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा । परीक्षित्! व्रज-प्रहार के समान कठोर घूँसों से आपस में वे अट्ठाईस दिन तक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे । अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के घूँसों की चोट से जाम्बान् के शरीर की एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित—चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा— ‘प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं । आप विश्व के रचयिता ब्रम्हा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अंतरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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