हमारा भारत -स्वामी विवेकानन्द

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हमारा भारत -स्वामी विवेकानन्द
'हमारा भारत' पुस्तक का आवरण पृष्ठ
'हमारा भारत' पुस्तक का आवरण पृष्ठ
लेखक स्वामी विवेकानन्द
मूल शीर्षक हमारा भारत
प्रकाशक रामकृष्ण मठ
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 1998
देश भारत
भाषा हिंदी
विषय दर्शन
मुखपृष्ठ रचना अजिल्द
विशेष ‘हमारा भारत’ स्वामी विवेकानन्द के तीन लेखों का संग्रह है।

‘हमारा भारत’ स्वामी विवेकानन्द के तीन लेखों का संग्रह है। स्वामी जी शिकागों-सर्व-धर्मपरिषद में जगदव्यापी ख्याति प्राप्त कर लेने के बाद जब यूरोपीय देशों में भ्रमण कर रहे थे उन्हें प्राध्यापक मैक्समूलर तथा डॉक्टर पॉल डायसन से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। उन दोनों का भारत पर आन्तरिक प्रेम संस्करण भाषा में उनका महान् पण्डित्य तथा भारतीय दर्शन के महान् सार्वभौमिक सत्यों को सर्वप्रथम पाश्चात्यों के समक्ष घोषित करने का उनका सफल उद्यम देखकर अत्यन्त प्रभावित हुए थे।

प्रकाशक की ओर से

पुस्तक के प्रथम दो अध्याय ‘ब्रह्मवादिन् पत्र के सम्पादक को प्रकाशनार्थ भेजे गये वही दो लेख हैं जो स्वामीजी द्वारा मैक्समूलर तथा पॉल डायलसन पर लिखे गये थे; तथा खेतड़ी के महाराज द्वारा समर्पित किये गये अभिनन्दन-पत्र के उत्तर में स्वामीजी ने उनको जो पत्र लिखा था वही इस पुस्तक का तीसरा अध्याय है। स्वामीजी ने अभिनन्दन-पत्र के उत्तर में यह स्पष्ट रूप से दर्शा दिया है कि भारत का प्राण धर्म में अवस्थित है, और जब तक यह अक्षुण्ण बना रहेगा तब तक विश्व की कोई भी शक्ति उसका विनाश नहीं कर सकती। उन्होंने बड़ी ही मर्मस्पर्शी भाषा में भारत की अवनति का कारण चित्रित किया है तथा यह बता दिया है कि केवल भारत को ही नहीं वरन् सारे संसार को विनाश के गर्त में पतित होने से यदि कोई बचा सकता है तो वह है वेदान्त का शाश्वत सन्देश।

पुस्तक के कुछ अंश प्रथम अध्याय

यद्यपि हमारे ‘ब्रह्मवादिन्’ के लिए कर्म का आदर्श सदैव ही रहेगा कि ‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’’ अर्थात् ‘‘कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं,’’ किन्तु फिर भी किसी निष्कपट कर्मी के कर्मक्षेत्र से बिदा लेने के पहले लोग उसका कुछ न कुछ परिचय प्राप्त कर ही लेते हैं। हमारे कार्य का प्रारम्भ बहुत ही अच्छा हुआ है, और हमारे मित्रों ने इस विषय में जो दृढ़ आन्तरिक प्रदर्शित की है, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय, दोनों अस्त्रों से सुसज्जित होने पर अल्पसंख्यक लोग भी समस्त विघ्नबाधाओं को पराजित करने में समर्थ होंगे। अलौकिक ज्ञान का मिथ्यादावा करने वालों से सर्वदा ही दूर रहना; बात यह नहीं है कि अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, पर मेरे मित्रों, हमारे संसार में ऐसे व्यक्तियों में से नब्बे प्रतिशत के अन्दर काम, कांचन और यश-स्पृहारूप गुप्त कामना विद्यमान है, और शेष दस प्रतिशत में से नौ प्रतिशत व्यक्तियों की दशा तो पागलों जैसी है-वे डाक्टरों तथा वैद्यों के लिए आलोचना के विषय हैं। दार्शनिकों के लिए नहीं।
हमारी प्रथम और प्रधान आवश्यकता है-चरित्र-गठन, जिसे हम ‘प्रतिष्ठित प्रज्ञा’ के नाम से अभिहित करते हैं। यह जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है उसी प्रकार व्यक्तिसमष्टि समाज में भी इसकी आवश्यकता है। संसार हर एक नये प्रयत्न को यहाँ तक कि धर्म-प्रचार के नये उद्यम को भी सन्देह की दृष्टि से देखता है, अतः इससे तुम्हें विरक्त न हो जाना चाहिए। यह बेचारा अज्ञानान्धकार में डूबा संसार ! यह तो कितनी ही बार छला गया है ! किसी नये सम्प्रदाय की ओर संसार जितना ही सन्देह की दृष्टि से देखेगा अथवा उसके प्रति वैमनस्य दिखलायेगा, वह उतना ही उस सम्प्रदाय के लिये कल्याणकारी है। यदि उस सम्प्रदाय में प्रचार के योग्य कोई सत्य हो, यदि अभाव को हटाने के लिए उसका जन्म हुआ हो, तो शीघ्र ही निन्दा प्रशंसा में परिवर्तित हो जाती है एवं घृणा प्रेम का स्वरूप धारणा कर लेती है। आजकल लोग प्रायः धर्म को किसी प्रकार की सामाजिक अथवा राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के साधन के रूप में लेते हैं। इस विषय में सावधान रहना। धर्म का उद्देश्य धर्म ही है। जो धर्म केवल सांसारिक सुख पाने का साधन मात्र है, वह अन्य चाहे जो कुछ भी हो, पर धर्म नहीं है। और यह कहना कि बेरोक-टोक इन्द्रिय सुख-भोग के अतिरिक्त मनुष्य-जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं है, नितान्त धर्म-विरुद्ध है-ईश्वर एवं मनुष्यप्रकृति के विरुद्ध भयंकर अपराध है। [1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हमारा भारत (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 16 जनवरी, 2014।

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