हैदराबाद का इतिहास

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गोलकुंडा क़िला, हैदराबाद

हैदराबाद आन्ध्र प्रदेश, दक्षिण भारत की भूतपूर्व रियासत तथा उसका मुख्य नगर। ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्राचीन न होते हुए भी पिछले दो सौ वर्षों से दक्षिण की राजनीति में इस नगर का प्रमुख भाग रहा है। ककातीय नरेश गणपति ने वर्तमान गोलकुंडा की पहाड़ी पर एक कच्चा क़िला बनवाया था। 14वीं शती में इस प्रदेश में मुसलमानों का अधिकार हो जाने के पश्चात् बहमनी राज्य स्थापित हुआ। 1482 ई. में बहमनी राज्य के एक सूबेदार सुल्तान क़ुलीकुतुबुलमुल्क ने इस कच्चे क़िले को पक्का बनवाकर गोलकुंडा में अपनी राजधानी बनवायी।[1]

नामकरण

क़ुतुबशाही वंश के पांचवे सुल्तान मुहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह ने 1591 ई. में गोलकुंडा से अपनी राजधानी हटाकर नई राजधानी मूसी नदी के दक्षिणी तट पर बनाई, जहां हैदराबाद स्थित है। राजधानी गोलकुंडा से हटाने का कारण था, वहां की खराब जलवायु तथा जल की कमी। यह नया हरा भरा तथा खुला स्थान सुल्तान ने यूं ही एक दिन यहां आखेट करते हुए पसन्द कर लिया था। उसने इस नये नगर का नाम अपनी प्रेमिका 'भागमती' के नाम पर 'भागनगर' रखा। मूूसी नदी के पास एक गांव चिचेलम, जहां भागमती रहती थी, नए नगर के भावी विकास का केन्द्र बना। सुन्दरी भागमती को क़ुतुबशाह ने बाद में 'हैदरमल' की उपाधि प्रदान की और तत्पश्चात् भागनगर भी हैदराबाद कहलाने लगा।[1] यह भी कहा जाता है कि वर्तमान हैदराबाद के स्थान पर प्राचीन समय मे 'पाटशिला' नामक नगर बसा हुआ था। क़ुतुबशाह फ़ारसी भाषा का अच्छा कवि था। 'चिचेलम' ग्राम के स्थान पर 'चारमीनार' नामक भवन बनवाया गया, जिसके ऊपर एक हिन्दू मन्दिर स्थित था। गिरधारी प्रसाद द्वारा रचित 'हैदराबाद के इतिहास' द्वारा सूचित होता है कि चारमीनार के ऊपर एक कलापूर्ण फव्वारा भी था। हैदराबाद के अनेक भवनों में 'खुदादाद' नामक महल क़ुतुबशाह को बहुत प्रिय था। इसके विषय में उसने अपनी कविता में लिखा है कि- "यह महल स्वर्ग के समान ही सुन्दर तथा सुखदाई था। यहां उसकी बारह बेगमें तथा प्रेमिकांए रहती थीं।"

टॅवरनियर का उल्लेख

हैदराबाद का नक्शा त्रिकोण था। इसमें गोलकुंडा की सारी आबादी को लाकर बसाया गया था। नगर शीघ्र ही उन्नति करता चला गया। फ़्राँसीसी यात्री जीन बैप्टिस्ट टॅवरनियर ने, जो यहां नगर के निर्माण के थोड़े ही समय के पश्चात् आया था, लिखा है कि- "नगर को बहुत ही कलापूर्ण ढंग से बनाया तथा नियोजित किया गया था और उसकी सड़कें भी बहुत चैंड़ी थीं। नगर में चार बाज़ारों का निर्माण किया गया था, जिनके प्रवेश द्वारों पर चार कमान नामक तोरण बनवाए गये थे। इनके दक्षिण की ओर चारमीनार स्थित है।" इसका प्रयोजन अभी तक निश्चित नहीं किया जा सका है।

मुग़ल आधिपत्य

1397-98 में विशाल 'जामा मस्जिद' बनकर तैयार हुई। इसी समय के आस-पास मूसी नदी का पुल, राजप्रासाद[2], 'गुलजार हौज', 'खुदादाद महल'[3] और 'नन्दी महल'[4] इत्यादि बनें। हैदराबाद शीघ्र ही अपने सौंदर्य और वैभव के कारण जग प्रसिद्ध नगर हो गया। फ़ारस के शाह के राजदूत तथा तहमस्प शाह का पुत्र, यहां कई वर्षों तक रहते रहे। 1617 ई. में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के दो राजदूत 'मीरमक्की' तथा 'मुंशी जादवराय' यहां नियुक्त थे। हैदराबाद पर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की बहुत दिनों से कुदृष्टि थी। उसने 1697 ई. में गोलकुंडा पर चढ़ाई करके क़िले को हस्तगत कर लिया और हैदराबाद का नगर भी उसके हाथ में आ गया। मुग़ल साम्राज्य की अवनति होने पर मोहम्मद रंगीले के शासनकाल में दक्कन का सूबेदार निज़ामुलमुल्क आसफ़ ख़ाँ स्वतंत्र हो गया और 1724 ई. में उसने हैदराबाद की स्वतंत्र रियासत कायम कर ली। उन दिनों मराठों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण निज़ाम की दशा अच्छी न थी, किन्तु 18वीं शती के अन्त में अंग्रेज़ों से 'सहायक सन्धि' करने के उपरान्त निज़ाम अंग्रेज़ों के नियन्त्रण में आ गया और उसकी रियासत की रक्षा स्वतंत्रता बेच कर हुई।[1]

स्वतंत्र राज्य की स्थापना

1724 ई. में चिनकिलिच ख़ाँ ने हैदराबाद में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। उसे प्रायः 'निज़ामुलमुल्क' के नाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ ने दक्कन में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का सपना तब देखा, जब बहादुरशाह प्रथम के समय 1708 ई. में वह दक्कन का वायसराय बना था। परन्तु 1713 ई. में उसकी मृत्यु के बाद यह योजना समाप्त हो गयी। निज़ामुलमुल्क तुरानी गुट का था। उसने सैय्यद बंधुओं के पतन मे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। 1722 ई. में निज़ामुलमुल्क को दिल्ली में वज़ीर का पद दिया गया। वज़ीर के पद पर कार्य करते हुए चिनकिलिच ख़ाँ दिल्ली दरबार के दूषित माहौल को देखते हुए 1723 ई. के अन्त में शिकार खेलने के बहाने दक्कन चला गया।

ऐतिहासिक इमारतें तथा मंदिर

मक्का मस्जिद, हैदराबाद

हैदराबाद में कई ऐतिहासिक मन्दिर भी स्थित हैं। इसमें 'झामसिंह का मंदिर' प्रसिद्ध है, जिसे तृतीय निज़ाम सिकन्दरशाह के समय में उसके अश्वसेनापति झामसिंह ने बनवाया था। यह मंदिर बालाजी का है। इसके लिये निज़ाम ने जागीर भी निश्चित की थी। इस मंदिर के द्वार पर अश्व प्रतिमांए बनी हैं। हैदराबाद की रेजीडेंसी 1803 से 1808 ई. तक बनी थी। इसको केप्टन एचीलीज क्रिकपेट्रिक[5] ने बनवाया था। क्रिकपेट्रिक ने अपनी मुसलमान बेगम खैरून्निसा के लिए रेजीडेंसी के अंदर रंगमहल बनवाया था। हुसैन सागर झील, जो डेढ़ मील लम्बी है, 1560 ई. के लगभग इब्राहिम क़ुली क़ुतुबशाह द्वारा बनवाई गई थी। पुराने समय में इस झील के तट पर दो सरायें थीं, जिनमें परस्पर गूंज द्वारा बात की जा सकती थी। विशाल 'मक्का मस्जिद' को गोलकुंडा के सुल्तान मुहम्मद क़ुतुबशाह ने बनवाना प्रारम्भ किया था और यह औरंगज़ेब के समय में 1687 ई. में पूरी हुई। फ़्राँसीसी सरदार रेमंड का मक़बरा सुरूरनगर की पहाड़ी पर है। निज़ाम की ओर से यह सरदार खुर्दा (कुर्दला) की लड़ाई में मराठों से लड़ा था। इस मक़बरे के पास वेंकटेश्वर का अति प्राचीन मन्दिर है। सिकन्दराबाद, हैदराबाद के निकट फ़ौजी छावनी है। 1806 ई. में अंग्रेज़ों की सहायक सेना प्रथम बार यहां आकर रहने लगी थी। सिकंदराबाद को सिकन्दरजाह तृतीय निज़ाम ने बसाया था। यहाँ 19वीं शती में सर रोनेल्ड रॉस ने मलेरिया के मच्छर की खोज की थी।[1]

रियासत

दक्षिण-मध्य भारत का पूर्व सामंती राज्य, निज़ाम-उल-मुल्क (मीर क़मरूद्दिन) द्वारा स्थापित, जो 1713 से 1721 तक दक्कन में लगातार मुग़ल बादशाहों के सूबेदार रहे। उन्हें 1724 यह पद फिर से मिला और उन्होंने आसफ़जाह की उपाधि ग्रहण की। वस्तुतः इस समय तक वह स्वतंत्र हो गए थे। उन्होंने हैदराबाद में निज़ामशाही की स्थापना की। 1748 में उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों और फ़्राँसीसियों ने उत्तराधिकार के लिए हुए युद्धों में भाग लिया।

ब्रिटिश आधिपत्य

अस्थायी रूप से मैसूर के शासक हैदर अली के साथ रहने के बाद 1767 में निज़ाम अली ने 'मसुलीपटटम की संधि' (1768) द्वारा ब्रिटिश आधिपत्य स्वीकार कर लिया। 1778 में उनके राज्य में एक ब्रिटिश रेज़िडेंट और सहायक सेना तैनात की गई। 1795 में निज़ाम अली ख़ाँ अपने कुछ क्षेत्र, जिनमें बरार के कुछ हिस्से भी शामिल थे, मराठों के हाथ हार गए। जब उन्होंने सहायता के लिए फ़्राँसीसियों की ओर देखा, तो अंग्रेज़ों ने उनके राज्य में तैनात अपनी सहायक सेना को बढ़ा दिया। टीपू सुल्तान के विरुद्ध 1792 और 1799 में अंग्रेज़ों के सहयोगी के रूप में जीत में निज़ाम को मिले क्षेत्र इस सेना का ख़र्च चलाने के लिए अंग्रेज़ों को दे दिए गए।

निज़ाम अली का समझौता

चारमीनार, हैदराबाद
Charminar, Hyderabad

तीन ओर (उत्तर, दक्षिण और पूर्व) से ब्रिटिश आधिपत्य वाले अथवा उन पर निर्भर क्षेत्रों से घिरे होने से निज़ाम अली ख़ां 1798 में ब्रिटिश शासन के साथ एक समझौता करने पर मजबूर हो गए। इस समझौते के अनुसार उन्होंने अपना राज्य अंग्रेज़ों के संरक्षण में दे दिया। इस प्रकार वह ऐसा करने वाले पहले शासक बने, लेकिन अंदरूनी मामलों में उनकी स्वतंत्रता की पुष्टि की गई। निज़ाम अली ख़ाँ दूसरे और तीसरे मराठा युद्धों (1803-1805, 1815-1819) में अंग्रेज़ों के सहयोगी थे और निज़ाम नसीरूद्दौला व हैदराबाद का सैनिक दस्ता भारतीय क्रांति (1857-58) के दौरान ब्रिटिश शासन के वफ़ादार रहे। 1918 में निज़ाम मीर उस्मान अली को ‘हिज एक्ज़ॉल्टेड हाइनेस’ की उपाधि दी गई, यद्यपि भारत की ब्रिटिश सरकार ने कुशासन की स्थिति में उनके राज्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार सुरक्षित रखा। हैदराबाद एक शांत, लेकिन कुछ पिछड़ा हुआ सामंती राज्य बना रहा, जबकि भारत में स्वतंत्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया।

हिन्दू-मुस्लिम एकता

19वीं शताब्दी के दौरान आसफ़जाहियों ने पुराने शहर के उत्तर में मूसा नदी के पार विस्तार कर पुनः शक्ति एकत्रित करना आरंभ किया। उत्तर की ओर सिकंदराबाद एक ब्रिटिश छावनी के रूप में विकसित हुआ, जो हुसैन सागर झील पर बने एक मील लंबे बंद (तटबंध) द्वारा हैदराबाद से जुड़ा था। यह बंद एक विहार स्थल का कार्य करता है और नगर का गौरव था। हिन्दूमुस्लिम शैलियों का सुंदर अम्मिश्रण प्रदर्शित करने वाली कई नई संरचनाएँ बाद में बनाई गईं। निज़ामों के शासन में हिन्दू और मुसलमान भाईचारे से रहते थे, यद्यपि भारत की आज़ादी के तुरंत बाद एक कट्टर मुस्लिम गुट रज़ाकारों ने राज्य और नगर में तनाव पैदा कर दिया था।

भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन

1947 में भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन होने पर निज़ाम ने भारत में शामिल होने की अपेक्षा स्वतंत्र रहना चाहा। 29 नवंबर, 1947 में उन्होंने भारत के साथ एक साल की अवधि का यथास्थिति क़ायम रखने का समझौता किया और भारतीय सेनाएँ हटा ली गईं। समस्याएँ बनी रहीं, लेकिन निज़ाम ने अपनी स्वायत्ता मनवाने के प्रयास जारी रखे। भारत ने ज़ोर दिया कि हैदराबाद भारत में शामिल हो जाए। निज़ाम ने ब्रिटेन के राजा जॉर्ज VI के समक्ष गुहार की। 13 सितंबर, 1948 को भारत ने हैदराबाद पर आक्रमण कर दिया और चार दिन के अंदर इस राज्य ने स्वतंत्र भारत में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। कुछ समय के लिए सैनिक व अस्थाई नागरिक सरकारों के बाद राज्य में मार्च, 1952 में एक लोकप्रिय सरकार व विधानसभा का गठन किया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 1028 |
  2. जो पुरानी हवेली के पास था
  3. जो दक्कन के सूबेदार इब्राहीम ख़ाँ के समय में जलकर भस्म हो गया।
  4. जिसका पता अब नहीं मिलता
  5. बाद में हशमतजंग बहादुर के नाम से प्रसिद्ध

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