आलम आरा
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निर्देशक | अर्देशिर ईरानी |
निर्माता | इंपीरियल मूविटोन |
लेखक | जोसफ़ डेविड |
कलाकार | मास्टर विट्ठल, ज़ुबेदा, वज़ीर मोहम्मद ख़ान, पृथ्वीराज कपूर |
प्रसिद्ध चरित्र | आलम आरा |
संगीत | फ़िरोज़शाह एम मिस्त्री और बी. ईरानी |
गायक | फ़िरोज़शाह एम. मिस्त्री, अलकनंदा |
प्रसिद्ध गीत | "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त हो अगर देने की", "बलमा कहीं होंगे" |
संपादन | इज़रा मीर |
प्रदर्शन तिथि | 14 मार्च 1931 |
अवधि | 2 घंटे 4 मिनट |
भाषा | हिन्दी, उर्दू |
बजट | चालीस हज़ार रुपए (40,000 रुपये) |
अन्य जानकारी | यह भारत की पहली बोलती फ़िल्म थी जिसने मूक फ़िल्मों के दौर का समापन किया। दादा साहब फाल्के की फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के 18 वर्ष बाद आने वाली फ़िल्म 'आलम आरा' ने हिट फ़िल्मों के लिए एक मापदंड स्थापित किया, क्योंकि यह भारतीय सिनेमा में इस संदर्भ में पहला क़दम था। |
आलम आरा (अंग्रेज़ी: Alam Ara) भारत की पहली बोलती फ़िल्म है जिसका निर्देशन 'अर्देशिर ईरानी' ने किया था। आलम आरा का प्रदर्शन वर्ष 1931 में हुआ था। हिन्दी फ़िल्मों में चरित्र अभिनेता के तौर पर अपनी अलग जगह बनाने वाले वरिष्ठ अभिनेता ए. के. हंगल ने एक समाचार एजेंसी से कहा था, "आज की तुलना में उस फ़िल्म की आवाज़ और एडिटिंग बहुत ख़राब थी लेकिन फिर भी उस ज़माने में हम लोग इस फ़िल्म को देख कर दंग रह गए थे।"[1]
कथावस्तु
आलम आरा का प्रदर्शन (रिलीज) 14 मार्च 1931 को हुआ। इसका निर्देशन किया था अर्देशिर ईरानी ने, फ़िल्म के नायक की भूमिका निभाई मास्टर विट्ठल ने और नायिका थीं ज़ुबैदा। फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। राजकुमार और बंजारिन की प्रेम कहानी पर आधारित यह फ़िल्म एक पारसी नाटक से प्रेरित थी। आलम आरा में काम करने के लिए मास्टर विट्ठल ने शारदा स्टूडियोज के साथ अपना क़रार भी तोड़ दिया था। स्टूडियो ने बाद में अभिनेता को अदालत में भी घसीटा और जिस शख़्स ने मास्टर विट्ठल की पैरोकारी की वो कोई और नहीं खुद मुहम्मद अली जिन्ना थे।[2] वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने इस फ़िल्म में फ़क़ीर की भूमिका की थी। फ़िल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार है। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फ़कीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। ग़ुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार की गुहार करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। ग़ुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलम आरा को देशनिकाला दे देती है। आलम आरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलम आरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सज़ा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है और आदिल की रिहाई।
मुख्य कलाकार
- मास्टर विट्ठल- राजकुमार
- ज़ुबेदा- आलम आरा
- वज़ीर मोहम्मद ख़ान- फक़ीर
- पृथ्वीराज कपूर
निर्माण
पहली सवाक फ़िल्म होने के कारण सामने आने वाली तमाम समस्याओं के बावजूद अर्देशिर ईरानी ने साढ़े दस हज़ार फ़ीट लंबी इस फ़िल्म का निर्माण चार महीने में ही पूरा किया। इस पर कुल मिलाकर चालीस हज़ार रुपए की लागत आई थी। आख़िरकार 14 मार्च 1931 को इसे मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित किया गया, तो वह दिन सिने इतिहास का एक सुनहरा पन्ना बन गया। यह भारत की पहली बोलती फ़िल्म थी जिसने मूक फ़िल्मों के दौर की समाप्ति का एलान किया था। दादा साहेब फालके की फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के 18 वर्ष बाद आने वाली फ़िल्म 'आलम आरा' ने हिट फ़िल्मों के लिए एक मापदंड स्थापित किया, क्योंकि यह भारतीय सिनेमा में इस संदर्भ में पहला क़दम था।
निर्माता
सवाक फ़िल्मों का श्रीगणेश अर्देशिर ईरानी ने 1930-31 में प्रथम बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ बनाकर किया। पुणे में जन्मे ख़ान बहादुर अर्देशिर एम. ईरानी अध्यापक से मिट्टी तेल इंस्पेक्टर, फिर पुलिस इंस्पेक्टर की नौकरी के बाद संगीत न फ़ोटाग्राफी उपकरण के विक्रेता बने। छात्र-जीवन से ही फोटोग्राफी के प्रति दीवानगी ने उन्हें सिनेमा की तरफ प्रेरित किया। पहले वे हॉलीवुड की प्रख्यात निर्माण संस्था ‘यूनीवर्सल पिक्चर्स’ के भारत में (मुंबई) प्रतिनिधि बने, फिर मुंबई में ही मैजेस्टिक सिनेमाघर का निर्माण किया और एलैक्जैंडर सिनेमाघर में भागीदारी भी की। 1926 में उन्होंने इंपीरियल सिनेमा की स्थापना की और इस बैनर के अंतर्गत प्रथम सवाक फ़िल्म में गानों का भी फ़िल्मांकन किया। 1939 में उन्होंने ज्योति स्टूडियो का निर्माण किया जहाँ 20वीं शती तक फ़िल्मों की शूटिंग होती रही।[3]
गीत-संगीत
इसका संगीत फ़िरोज़शाह मिस्त्री ने दिया था। इसमें आवाज़ देने के लिए उस समय तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। इस फ़िल्म के गीतों के बारे में कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव ईरानी ने किया था। गीतों के चुनाव के बाद समस्या रही होगी उनके फ़िल्मांकन की। उसका कोई आदर्श ईरानी के सामने नहीं था और ना ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था। सारे गाने "टैनार सिंगल सिस्टम" कैमरे की मदद से सीधे फ़िल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफ़ी मुश्किल था। जरा सी खाँसी आ जाए या उच्चारण में कोई कमी आ जाए तो पूरा गाना नए सिरे से करो।
यह बात हैरत की है कि पहली सवाक फ़िल्म में संगीतकार, गीतकार या गायकों के नामों का उल्लेख नहीं है। इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि आलम आरा पूरे एशिया में मशहूर हुई। अकेले मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह लगातार आठ हफ़्ते तक चली थी। लोगों ने सिर्फ़ गाने सुनने के लिए इस फ़िल्म को देखा। दुर्भाग्य से इस फ़िल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके। बताते हैं कि फ़िल्म में कुल सात गाने थे। जिनमें से एक फ़क़ीर की भूमिका करने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था। उसके बोल थे- "दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे, ताक़त है ग़र देने की।" एक और गाने के बारे में एल वी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था- बलमा कहीं होंगे। बाक़ी पाँच गानों के बोल क्या थे और किसने गाया, पता नहीं। फ़िल्म के संगीत में केवल तीन साज़ों का इस्तेमाल किया गया था- तबला, हारमोनियम और वायलिन।
'आलम आरा' के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम आयात किया गया। उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे। अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे एक महीने में ही बारीकियाँ सीखीं और पूरी फ़िल्म की रिकॉर्डिंग ख़ुद की।[4]
पार्श्व संगीत
हिन्दी-उर्दू भाषा में बनी इस फ़िल्म के प्रदर्शन के साथ ही शुरू हुआ भारतीय फ़िल्म जगत में पार्श्व गायिकी और पार्श्व संगीत का एक ऐसा दौर जो आज तक भारतीय फ़िल्म की जान और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बना हुआ है।
प्रसिद्ध गीत
इसका गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त हो अगर देने की, कुछ चाहे अगर तो मांग ले मुझसे हिम्मत हो अगर लेने की", भारतीय फ़िल्म जगत् का पहला गीत था और आज भी देश भर में गाँवों, शहरों से लेकर मंदिरों और रेल गाड़ियों में भीख मांगने वाले भिखारियों का यह पसंदीदा गीत है। इस गीत को हारमोनियम और तबले पर तैयार किया गया था।
पटकथा और संवाद
यह जोसफ़ डेविड द्वारा लिखित एक पारसी नाटक पर आधारित है। जोसफ़ डेविड ने बाद में ईरानी की फ़िल्म कम्पनी में लेखक का काम किया। फ़िल्म की कहानी एक काल्पनिक, ऐतिहासिक कुमारपुर नगर के शाही परिवार पर आधारित है।
"आज की तुलना में उस फ़िल्म की आवाज़ और एडिटिंग बहुत ख़राब थी लेकिन फिर भी उस ज़माने में हम लोग इस फ़िल्म को देख कर दंग रह गए थे."
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कठिनाईयाँ
फ़िल्म आलम आरा के निर्माता और निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने इस फ़िल्म के बनाने में आई कठिनाईयों का उल्लेख करते हुए एक बार कहा था कि उस ज़माने में कोई साउंड-प्रूफ़ स्टेज नहीं था। उन्होंने कहा हमारा स्टूडियो एक रेलवे लाईन के पास था इस लिए अधिकतर शूटिंग रात में करनी पड़ी थी, जब रेल की आवा-जाही कम होती थी। तब उनके पास एक ही रिकार्डिंग उपकरण 'तनर रिकॉर्डिंग सिस्टम' (तनर सिंगल सिस्टम) था जिससे इस फ़िल्म की रिकार्डिंग की गई थी। उनके पास कोई बूम माइक भी नहीं था, इसलिए माइक्रोफ़ोन को कैमरे के रेंज से अलग अजीब-अजीब जगह छुपा कर रखा गया था। इन सारी कठिनाईयों के बीच बनी आलम आरा ने आने वाले ज़माने के लिए एक नए युग का द्वार खोल दिया और फिर भारतीय सिनेमा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।[1]
क़ामयाबी
'आलम आरा' की कामयाबी को देखते हुए तीसरे ही सप्ताह में उर्दू फ़िल्म 'शीरी-फ़रहाद' आई। इस फ़िल्म में आलम आरा के मुक़ाबले तीन गुना गीत थे जो जहाँआरा कज्जन और मास्टर निसार की आवाज़ों में गाए गए थे। इसके बाद और भी भाषाओं में बोलती फ़िल्में आईं। 1931 में ही बंगाली फ़िल्म 'जमाई षष्ठी', तमिल में 'कालीदास' और तेलुगु में 'भक्त प्रह्लाद' प्रदर्शित हुई। पूना स्थित राष्ट्रीय फ़िल्म संग्रहालय के एक अधिकारी के अनुसार आलम आरा के बाद से अभी तक 30 से 35 हज़ार बोलती फ़िल्में बन चुकी हैं।[1]
आलम आरा की दास्तां
पारसी थिएटर के मशहूर लेखक जोसेफ़ डेविड का नाटक आलम आरा रंगमंच पर काफ़ी लोकप्रिय हो चुका था। इसलिए अमेरिकी निर्माता यूनिवर्सल की फ़िल्म 'शो बोट' देखने के बाद जब अर्देशिर इरानी के सिर पर पूरी तरह सवाक फ़िल्म बनाने की धुन सवार हुई तो बरबस उनका ध्यान इस नाटक की ओर गया। उन्हें लगा कि इस रचना को एक संपूर्ण बोलती फ़िल्म में रुपांतरित करने की संभावना है। हालांकि उस समय मंच प्रस्तुतियों के अंश फ़िल्मांकित करने की शुरुआत हो चुकी थी। इसलिए यह स्वाभाविक होता कि अर्देशिर भी आलम आरा की नाट्य प्रस्तुति का फ़िल्मांकन कर देते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।[4]
कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता
'आलम आरा' में कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता अधिक नहीं थी, लेकिन पहली सवाक फ़िल्म होने के कारण उसके महत्त्व को किसी तरह कम करके नहीं आंका जा सकता। 'द बांबे क्रोनिकल' के 2 अप्रैल 1931 के अंक में 'आलम आरा' को लेकर कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किए गए थे। किसी ख़ास व्यक्तिगत भारतीय फ़िल्म के दोषों पर बात करने का मतलब ज़्यादातर मामलों में ऐसे दोषों पर बात करना है जो सभी फ़िल्म में समान रूप से पाए जाते हैं। इन दोषों से आलम आरा भी पूरी तरह मुक्त नहीं है। लेकिन एक सांगोपांग कहानी पर फ़िल्म बनाने में ध्वनि का अपेक्षित उतार-चढ़ाव और वैविध्य मौजूद है। इसने दिखा दिया कि यथोचित संयम और गंभीर निर्देशन हो तो विट्ठल, पृथ्वीराज और ज़ुबेदा सरीखे कलाकार अपनी प्रभावशाली अभिनय क्षमता और वाणी से ऐसे नाटकीय प्रभाव पैदा कर सकते हैं, जिनकी मूक चित्रपट पर कल्पना भी नहीं की जा सकती।
पुनर्निर्माण
अर्देशिर ईरानी के साझीदार अब्दुल अली यूसुफ़ अली ने फ़िल्म के प्रीमियर की चर्चा करते हुए लिखा था- 'ज़रा अंदाजा लगाइए, हमें कितनी हैरत हुई होगी यह देखकर कि फ़िल्म प्रदर्शित होने के दिन सुबह सवेरे से ही मैजेस्टिक सिनेमा के पास बेशुमार भीड़ जुटना शुरू हो गई थी और हालात यहाँ तक पहुँचे कि हमें ख़ुद को भी थिएटर में दाख़िल होने के लिए काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी। उस ज़माने के दर्शक क़तार में लगना नहीं जानते थे और धक्कम-धक्का करती बेलगाम भीड़ ने टिकट खिड़की पर सही मायनों में धावा बोल दिया था। हर कोई चाह रहा था कि जिस ज़बान को वे समझते हैं उसमें बोलने वाली फ़िल्म देखने का टिकट किसी तरह हथिया लिया जाए। चारों तरफ यातायात ठप हो गया था और भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी। बाद में नानू भाई वकील ने 1956 और 1973 में, दो बार इस फ़िल्म का पुनर्निर्माण किया।
आलम आरा इतिहास में दफ़न
भारत में बनी पहली बोलती फ़िल्म 'आलम आरा' की आवाज़ अब कहीं सुनाई नहीं देगी। चेन्नई में क्षेत्रीय सिनेमा पर आयोजित एक सेमिनार में सूचना व प्रसारण मंत्रालय के संयुक्त सचिव वी. बी. प्यारेलाल ने कहा कि 1931 में बनी आलम आरा के सभी प्रिंट नष्ट हो चुके हैं। इंपीरियल मूवी कंपनी द्वारा बनाई गई यह फ़िल्म देश भर के सिनेमा घरों में 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित की गई थी। इसकी लंबाई 2 घंटे 4 मिनट की थी। देश में कहीं भी अब इस फ़िल्म का कोई प्रिंट नहीं बचा है। आलम आरा के प्रिंट राष्ट्रीय अभिलेखागार सहित कहीं भी मौजूद नहीं हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार में अब केवल इस फ़िल्म से जुड़े फोटोग्राफ और कुछ मीडिया चित्र ही मौजूद हैं।[5]मगर अफ़सोस हिंदुस्तान की पहली बोलती फ़िल्म अब हमेशा के लिए ख़ामोश हो चुकी है। आलम आरा का अकेला प्रिंट 2003 में पुणे के नेशनल फ़िल्म आर्काइव में लगी आग में भस्म हो गया।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 भारतीय फ़िल्मों की आवाज़ के 75 बरस (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) बी बी सी हिन्दी डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 27 अगस्त, 2010।
- ↑ 2.0 2.1 भारत की पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा (हिन्दी) आई बी एन खबर। अभिगमन तिथि: 27 अगस्त, 2010।
- ↑ प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 27 अगस्त, 2010।
- ↑ 4.0 4.1 दास्तान-ए-आलम आरा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) नई दिल्ली फ़िल्म सोसायटी। अभिगमन तिथि: 27 अगस्त, 2010।
- ↑ आलम आरा इतिहास में दफ़न (हिन्दी) हिन्दी मीडिया डॉट इन। अभिगमन तिथि: 27 अगस्त, 2010।
बाहरी कड़ियाँ
- आलम आरा के बारे में देखें (यू-ट्यूब विडियो)
- भारत की पहली 'बोलती फिल्म' को गूगल का सलाम
- भारतीय सिनेमा की नींव बनी पहली बोलती फिल्म आलमआरा
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