बिहू
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अनुयायी | हिन्दू धर्मावलम्बी |
उद्देश्य | असम के हरे–भरे व वर्षा से तृप्त मैदानी भागों में वस्तुतः तीन बिहू मनाए जाते हैं, जो कि तीन ऋतुओं के प्रतीक हैं। |
धार्मिक मान्यता | हिन्दू धर्म |
संबंधित लेख | माघबिहू, बिहू नृत्य |
अन्य जानकारी | बिहू वर्ष में तीन बार मनाया जाता है। |
अद्यतन | 17:54, 14 जनवरी 2013 (IST)
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बिहू असम में मनाया जाने वाला एक पर्व है। असम के सभी लोग जाति-पांति, ऊँच–नीच एवं सम्प्रदाय आदि के भेदभावों को भूलकर बड़े उत्साह से बिहू पर्व को मनाते हैं। असम के हरे–भरे व वर्षा से तृप्त मैदानी भागों में वस्तुतः तीन बिहू मनाए जाते हैं, जो कि तीन ऋतुओं के प्रतीक हैं। इस त्यौहार के मनाने से हमें अपने प्राचीन धर्म की महानता के दर्शन करने की एक नयी दृष्टि मिलती है। यह पर्व नृत्य–संगीत के माध्यम से मानव मन, विशेषकर युवा, युवतियों के लिए तो बहुत ही खुशी का पर्व होता है। यह पर्व असम की प्राकृतिक छटा को तो दर्शाता ही है, साथ ही यह भी संदेश देता है कि जीवन एक कला है, जो इस कला को जानकर जीते हैं, खुशियाँ उनके क़दम चूमती है।
असम में मनाये जाने वाले बिहू के तीन रूप निम्नांकित हैं:
- प्रथम बिहू: जिसे 'बोहागबिहू या रंगोलीबिहू' कहते हैं; अप्रैल में चैत्र या बैसाख के संक्रमण काल में मनाया जाता है। यह असम का मुख्य पर्व है।
- द्वितीय बिहू: इस दिन को 'कातीबिहू या कंगलीबिहू' कहते हैं। यह कार्तिक मास (अक्टूबर) में होता है।
- तृतीय बिहू: इसे 'माघबिहू' भी कहते हैं तथा यह मकर संक्रान्ति (14 जनवरी) को मनाया जाता है।
बोहाग बिहू
बोहाग बिहू या रंगोली बिहू असम का मुख्य पर्व है। बसन्त ऋतु इस समय अपने चरम पर होती है। खेत, पेड़-पौधे तथा बेलें सभी हरे-भरे होते हैं। पेड़ों पर नये-नये पत्ते आ जाते हैं और हवा में फूलों की महक भी तैरने लगती है। पूरा वातावरण खुशबूमय हो जाता है। पक्षी प्रसन्न होकर चहचहाने लगते हैं। वातावरण में चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली छा जाती है। तब मनुष्य भी नाचने-गाने को मचल उठता है। यही वैशाखी का पावन दिन है, जब असमिया नववर्ष का शुभारम्भ हो जाता है। 'बिहू' को प्रकृति का अनुपम उपहार भी कहा जाता है।
बोहाग बिहू के लिए कहा गया है-
"बोहाग नोहोये माथो एटी ऋतु, नहय बोहाग एटि माह।
असमिया जातिर इ आयुष रेखा गण जीवनोर इ साह।।"
अर्थात् वैशाख केवल एक ऋतु ही नहीं, न ही यह एक मास है, बल्कि यह असमिया जाति की आयुरेख और जनगण का साहस है। चैत्र मास की संक्रान्ति के दिन से ही बिहू उत्सव प्रारम्भ हो जाता है। इसे 'उरूरा' कहते हैं। इस दिन भोर से ही चरवाहे लौकी, बैंगन, हल्दी, दीघलती, माखियति आदि सामग्री बनाने में जुट जाते हैं। शाम को सभी गायों को गुहाली (गोशाला) में लाकर बाँध देते हैं। विश्वास किया जाता है कि उरूरा के दिन गायों को खुला नहीं रखा जाता है। गाय के चरवाहे एक डलिया में लौकी, बैंगन आदि सजाते हैं। प्रत्येक गाय के लिए एक नयी रस्सी तैयार की जाती है। इस पर्व को अप्रैल मास में तीन दिन- 13, 14 और 15 अप्रैल तक मनाया जाता है। इन तीनों दिनों को विभिन्न नामों से जाना जाता है- गोरूबिहू (इसे "उरका" भी कहते हैं), मनुहोरबिहू एवं गम्बोरीबिहू।
गोरूबिहू
यह दिन गऊ के महत्व का प्रतीक है। गाय सर्वप्रिय पशु है, इसका दूध बच्चों के लिए पुष्टिकारक होता है। गाय गोमाता है। इन्हें प्रातः काल ही नदी या पोखरों में ले जाकर स्नान कराया जाता है। इसके बाद त्रिशूल के आकार के बाँस से बने 'चांट' से लौकी, बैंगन, दीघलती[1] आदि गौ पर फेंकते हैं व उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। लोक विश्वास है कि त्रिशूल के प्रयोग से सदाशिव प्रसन्न होते हैं। मूंग की दाल व हल्दी[2] के मिश्रण को इसके सींगों व खुरों पर लगाया जाता है। बैल, जो कि किसान के बहुत ही काम आते हैं, को भी इस गौ–सम्मान की प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाता है।
बैंगल, हल्दी व लौकी के टुकड़ों को पशुओं की ओर फेंका जाता है तथा सभी समवेत स्वर में 'लौ खा, बैंगन खा, बचारे, बचारे बरही जा" कहते हैं। पशुओं का नयी रस्सियों से बाँधा जाता है तथा भिन्न–भिन्न पत्रों की मालाएँ उन्हें पहनायी जाती हैं।
एक अनूठे कार्यक्रम के अन्तर्गत सभी पशुओं को बाहर बड़े स्थान पर एकत्रित किया जाता है तथा पुरुष इन्हें नागफली व बैंगन खिलाते हैं। लोकसंगीत की धुनों के बीच इन पर पंखा भी झला जाता है। इनके माथे पर सिन्दूर लगाने के बाद इन्हें वापस इनके स्थान पर ले जाया जाता है।
यद्यपि यह सब धार्मिक महोत्सव के रूप में किया जाता है। लेकिन सच यह है कि यह भारतीय जन–जीवन और किसान के पशु-प्रेम विशेषकर गौवंश के प्रति प्रेम को प्रकट करता है। अंततः पशु ही किसान के साथ में कड़ी मेहनत करते हैं। ताकि हम सबको भोजन उपलब्ध हो सके।
घरों में लोग विशेष प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाते हैं। सादे चावल के स्थान पर कुटे-भुने चावल के भिन्न-भिन्न प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। सभी उपस्थित लोगों व बच्चों को मिठाइयाँ बाँटी जाती हैं।
मानुहोर बिहू
यह दिन अर्थात् 14 अप्रैल का दिन असम में नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। इस दिन के महाभोज को बिहू कबोलोई कहते हैं।
इस दिन नये वस्त्रों के साथ गमछा भी पहना जाता है। यह विशेष प्रकार का गमछा एक सुन्दर तौलिए के रूप में होता है। जिसमें अनेक आकृतियाँ बनी होती हैं। इस गमछे को सिर या कमर पर बाँधा जाता है। स्त्रियाँ मेखली चादर व मूंगा रेशम के आकर्षक वस्त्र धारण करती हैं। ये परिधान असम के विशेष परिधान हैं।
बिहू मनाने को अनेक दल गीत गाते और संगीत की धुन पर नृत्य करते हुए टोलियों में निकलते हैं। गाय जाने वाले भक्तिगीतों को हुसरी विधि के द्वारा गाया जाता है। इस विधि में श्रीकृष्ण की प्रशंसा व उनके आशीर्वाद की कामना की जाती है। सड़क व अन्य मार्गों से होते हुए ये दल एक खुले स्थान में एकत्रित होते हैं। इस स्थान को 'बिहू टोली' कहा जाता है। नृत्य व सौंदर्य प्रतियोगिताएँ सभी के मन को प्रसन्न करती हैं। विजेताओं के नाम समाचार-पत्रों में एक सप्ताह तक छपते हैं।
गंबोरी बिहू
यह दिन स्त्रियों के लिए एक विशेष स्थान रखता है। पुरुषों को इस दिन सम्मिलित नहीं किया जाता है। स्त्रियाँ रात भर बरगद के वृक्ष के नीचे लयबद्ध तालियाँ बजाकर गीत गाती हैं। बरगद का वृक्ष धार्मिक रूप से अत्यन्त ही शुभ माना जाता है। यह विशाल वृक्ष धूप व वर्षा में सभी प्राणियों की रक्षा करता है।
कंगलीबिहू
अगला बिहू, जिसे "काती–बिहू" या "कंगलीबिहू" कहते हैं, सामान्यतः अक्टूबर[3] में मनाया जाता है। असमिया लोग आषाढ़—श्रावण मास में धान की खेती करते हैं। आश्विन के अन्त में यह धान पककर सुनहला स्वरूप ले लेता है। प्रकृति पर निर्भर किसान खेत की लक्ष्मी 'उपज' को सादर घर पर लाने के लिए तैयार होता है और आश्विन-कार्तिक की संक्रान्ति के दिन उपज की मंगलकामना से खलिहान एवं तुलसी के वृक्ष के नीचे दीप प्रज्ज्वलित करके अनेक नियमों का पालन करता है। इसे ही "काती बिहू" कहते हैं। बिहू के दिन किसान के खलिहान ख़ाली रहते हैं। इसीलिए यह महाभोज या उल्लास का पर्व न होकर प्रार्थना व ध्यान का दिन होता है। चूंकि कोई फ़सल काटने का यह समय नहीं होता। इसलिए किसान के पास धन नहीं होता, परन्तु इसका प्रयोग ध्यानादि कार्यक्रम में किया जाता है। इसलिए इसे "कंगाली–बिहू" भी कहते हैं। युवक और युवतियाँ मितव्यय करना भी इस पर्व के माध्यम से ही सीखते हैं। धान के खेतों में माँ लक्ष्मी की प्रतिमा पर एक माह तक प्रत्येक रात दीपक जलाया जाता है। तुलसी के पवित्र पौधे को घर के आँगन में लगाकर उसे जल अर्पित किया जाता है।
माघबिहू
मकर संक्रान्ति के दिन जनवरी के मध्य में, माघबिहू मनाया जाता है। इस अवसर पर प्रचुर मात्रा में हुई फ़सल किसान को आनन्दित करती है। यह त्यौहार जाड़े में तब मनाया जाता है, जब फ़सल कट जाने के बाद किसानों के आराम का समय होता है। माघबिहू पर मुख्य रूप से भोज देने की प्रथा है। इस कारण इसे "भोगासी बिहू" अथवा "भोग–उपभोग का बिहू" भी कहते हैं। स्त्रियाँ चिवड़ा, चावल की टिकिया, तरह–तरह के लारु (लड्डू) तथा कराई अर्थात् तरह–तरह के भुने हुए अनाज का मिश्रण तैयार करती हैं। ये सब चीज़ें दोपहर के समय गुड़ और दही के साथ खाई जाती हैं। मित्रों तथा सगे सम्बन्धियों को आमंत्रित कर आदर दिया जाता है।
बिहू और लोक नृत्य
बिहू दो लोकनृत्यों से जुड़ा है—पहला "हुसारी नृत्य" और दूसरा "बिहू नृत्य"।
हुसारी नृत्य
समूहों में प्रार्थना गीत व नृत्य, केवल प्रौढ़ पुरुषों के नेतृत्व में प्रस्तुत किए जाते हैं। एक समूह गाँव के हर घर में दोपहर से पहले पहुँचकर आरती, गीत व नृत्य करता है। हुसारी गीत उल्लासपूर्ण कम व धार्मिक अधिक होते हैं। घर के सदस्य समूह का सम्मान पान के बीड़ों, सुपारी, मिठाई व धन से करते हैं। ये वस्तुएँ एक पीतल की पदयुक्त कटोरी में रखकर दक्षिणा के रूप में दी जाती हैं। इस प्रकार से एकत्रित धन गाँव के सामुदायिक प्रार्थना भवन (नाम घर), रखरखाव या सामुदायिक भोज में प्रयोग किया जाता है।
बिहूनृत्य
अविवाहित युवक-युवतियाँ, खुली वृक्ष-वाटिका या बाग़ों में एक अन्य नृत्य करते हैं, जो कि संगीत सहित रातभर किया जाता है। युवतियाँ अपनी सर्वोत्तम वेशभूषा पहनती हैं। इन वस्त्रों में लाल पुष्प, मेखला तथा लाल बॉर्डर[4] तथा ब्लाउज़ होते हैं। नवयुवक धोती व कुर्ता पहनते हैं तथा कमर और सिर पर गमछा बाँधते हैं।
द्रुत गति से नाचते-लुभाते, नवयुवक-नवयुवतियाँ शरीर के विभिन्न अंगों को नाटकीय व आकर्षक भाव से प्रदर्शित कर मनुष्य की सनातन प्रवृत्ति-प्रजनन, पोषण, जीवंतता व विकास को प्रतिबिम्बत करते हैं। यद्यपि कालान्तर में इन महोत्सवों में कई प्रकार के परिवर्तन आए हैं, तो भी मौलिकता व भाव आज भी जीवंत हैं। ब्रह्मपुत्र घाटी का बिहू महोत्सव लोगों को असम की गौरवपूर्ण परम्परा का पुनर्स्मरण तो कराता ही है, साथ ही मनुष्य की कृषि व ग्रामीण जीवन पर निर्मित शाश्वत व्यवस्था की कथा को भी कहता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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