चित्रकूट उत्तर प्रदेश राज्य में 38.2 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत है। यह एक मनोरम, शांत और सुन्दर प्राकृतिक स्थान है। चित्रकूट चारों ओर से विन्ध्य पर्वतमाला और अरण्यों से घिरा हुआ है। यहाँ मंदाकिनी नदी के किनारे बने अनेक घाट और मंदिरों में वर्ष भर श्रद्धालुओं का आवागमन होता रहता है। यह मान्यता है कि श्रीराम ने सीता और अपने अनुज लक्ष्मण के साथ वनवास के 14 वर्ष यहीं व्यतीत किए थे। यहीं पर ऋषि अत्रि और सती अनुसूया ने ध्यान लगाया था। चित्रकूट ही वह स्थान था, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अनुसूया के यहाँ जन्म लिया।
पौराणिक उल्लेख
‘पश्येयमचलं भद्रे नाना द्विजगणायुतम् शिखरै: खमिवोद्विद्धैर्धातुमद्भिर्विभूषितम्।
केचिद् रजतसंकाशा: केचित् क्षतज संनिभा:, पीतमांजिष्ठ वर्णाश्च केचिन् मणिवरप्रभा:।
पुष्पार्क केतकाभाश्च केचिज्ज्योतिरस प्रभा:, विराजन्तेऽचलेन्द्रस्य देशा धातुविभूषिता:’।
- निम्न वर्णन से यह स्पष्ट है कि चित्रकूट रामायण काल में प्रयागस्थ भारद्वाज के आश्रम से केवल दस कोस पर स्थित था-
‘दशकोशइतस्तात गिरिर्यस्मिन्निवत्स्यसि, महर्षि सेवित: पुण्य: पर्वत: शुभदर्शन:’[1]
- चित्रकूट एक प्रसिद्ध पर्वत है, जिस पर वनवास के समय राम और सीता बहुत दिनों तक रहे थे। यह प्रयाग से 27 कोस दक्षिण में है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह भारद्वाज के आश्रम से 3।। योजन दक्षिण में है। प्रयाग या इलाहाबाद दोनों ही ई.आई.आर. के स्टेशन हैं। भारद्वाज आश्रम प्रयाग में ही पंडित जवाहरलाल नेहरू के निवास स्थान के समीप है। यहां हर साल रामनवमी को मेला सा लगता है। भरत के चले जाने के पश्चात रामचंद्र जी यहां से पंचवटी चले गए थे, जो गोदावरी के किनारे नासिक के समीप है।[2]
दर्शनीय स्थल
आजकल प्रयाग से चित्रकूट लगभग चौगुनी दूरी पर स्थित है। इस समस्या का समाधान यह मानने से हो सकता है कि वाल्मीकि के समय का प्रयाग अथवा गंगा-यमुना का संगम स्थान आज के संगम से बहुत दक्षिण में था। उस समय प्रयाग में केवल मुनियों के आश्रम थे और इस स्थान ने तब तक जनाकीर्ण नगर का रूप धारण नहीं किया था। चित्रकूट की पहाड़ी के अतिरिक्त इस क्षेत्र के अन्तर्गत कई ग्राम हैं, जिनमें सीतापुरी प्रमुख है। पहाड़ी पर बाँके सिद्ध, देवांगना, हनुमानधारा, सीता रसोई और अनुसूया आदि पुण्य स्थान हैं। दक्षिण पश्चिम में गुप्त गोदावरी नामक सरिता एक गहरी गुहा से निस्सृत होती है। सीतापुरी पयोष्णी नदी के तट पर सुन्दर स्थान है और वहीं स्थित है, जहाँ राम-सीता की पर्ण कुटी थी। इसे पुरी भी कहते हैं। पहले इनका नाम 'जयसिंहपुर' था और यहाँ कोलों का निवास था।
पन्ना के राजा अमानसिंह ने जयसिंहपुर को महंत चरणदास को दान में दे दिया था। इन्होंने ही इसका सीतापुरी नाम रखा था। राघवप्रयाग, सीतापुरी का बड़ा तीर्थ है। इसके सामने मंदाकिनी नदी का घाट है। चित्रकूट के पास ही कामदगिरि है। इसकी परिक्रमा 3 मील की है। परिक्रमा-पथ को 1725 ई. में छत्रसाल की रानी चाँदकुंवरि ने पक्का करवया था। कामता से 6 मील पश्चिमोत्तर में भरत कूप नामक विशाल कूप है। तुलसी-रामायण के अनुसार इस कूप में भरत ने सब तीर्थों का वह जल डाल दिया था, जो वह श्रीराम के अभिषेक के लिए चित्रकूट लाए थे।
अन्य तथ्य
महाभारत[3] में चित्रकूट और मंदाकिनी का तीर्थ रूप में वर्णन किया गया है-
‘चित्रकूट जनस्थाने तथा मंदाकिनी जले, विगाह्य वै निराहारो राजलक्ष्म्या निषेव्यते,।
‘चित्रकूटवनस्थं च कथित स्वर्गतिर्गुरो: लक्ष्म्या निमन्त्रयां चके तमनुच्छिष्ट संपदा’।
‘धारास्वनोद्गारिदरी मुखाऽसौ श्रृंगाग्रलग्नाम्बुदवप्रपंक:, बध्नाति मे बंधुरगात्रि चक्षुदृप्त: ककुद्मानिवचित्रकूट:’।
- श्रीमद्भागवत[5] में भी इसका उल्लेख है-
‘पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतक:’।
- अध्यात्मरामायण[6] में चित्रकूट में राम के निवास करने का उल्लेख इस प्रकार है-
‘नागराश्च सदा यान्ति रामदर्शनलालसा:, चित्रकूटस्थितं ज्ञात्वा सीतया लक्ष्मणेन च'।
तुलसीदास का वर्णन
महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड) में चित्रकूट का बड़ा मनोहारी वर्णन किया है। तुलसीदास चित्रकूट में बहुत समय तक रहे थे और उन्होंने जिस प्रेम और तादात्म्य की भावना से चित्रकूट के शब्द-चित्र खींचे हैं, वे रामायण के सुन्दरतम स्थलों में हैं-
‘रघुवर कहऊ लखन भल घाटू, करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू।
लखन दीख पय उतरकरारा, चहुँ दिशि फिरेउ धनुष जिमिनारा।
नदीपनच सर सम दम दाना, सकल कलुष कलि साउज नाना।
चित्रकूट जिम अचल अहेरी, चुकई न घात मार मुठभेरी’।
- जैन साहित्य में भी चित्रकूट का वर्णन है।
- भगवती टीका[7] में चित्रकूट को 'चित्रकुड़' कहा गया है।
- बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर[8] में भी चित्रकूट की पहाड़ी का उल्लेख है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अयोध्या काण्ड 54, 28।
- ↑ पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 557, परिशिष्ट 'क' |
- ↑ अनुशासन पर्व 25, 29
- ↑ रघुवंश 12, 15 और 13, 47
- ↑ श्रीमद्भागवत 5, 19, 16
- ↑ अयोध्या काण्ड 9, 77
- ↑ भगवती टीका 7,6
- ↑ ललितविस्तर पृ.391