जहाँआरा

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जहाँआरा
जहाँआरा
जहाँआरा
पूरा नाम जहाँआरा बेगम
अन्य नाम पादशाह बेगम, बेगम साहब
जन्म 23 मार्च, 1614 ई.[1]
जन्म भूमि अजमेर, राजस्थान
मृत्यु तिथि 16 सितम्बर, 1681 ई.[1]
पिता/माता शाहजहाँ और अर्जुमन्द बानो (मुमताज़ महल)
धार्मिक मान्यता इस्लाम
वंश मुग़ल
अन्य जानकारी औरंगज़ेब ने जब शाहजहाँ को आगरा के क़िले में क़ैद कर लिया तो उसकी मृत्यु तक जहाँआरा ने पिता के साथ रहकर उसकी सेवा की।

जहाँआरा (अंग्रेज़ी: Jahanara, जन्म: 23 मार्च, 1614 ई। - मृत्यु: 16 सितम्बर, 1681 ई।) मुग़ल बादशाह शाहजहाँ और मुमताज़ महल की सबसे बड़ी पुत्री थी।

परिचय

जहाँआरा का जन्म अजमेर में 23 मार्च, 1614 ई। में हुआ था। जब यह चौदह वर्ष की थी, तभी से अपने पिता के राजकार्यों में उसका हाथ बंटाती थी। जहाँआरा 'पादशाह बेगम' या 'बेगम साहब' के नाम से भी प्रसिद्ध रही। जहाँआरा फ़ारसी के पद्य और गद्य की अच्छी ज्ञाता थी और साथ ही इसे वैद्यक का भी ज्ञान था। इसे शेरों-शायरी की भी शौक़ था, उसके लिखे हुए बहुत-से शेर मिलते हैं। अपनी माँ मुमताज़ महल की मृत्यु के बाद शाहजहाँ के जीवनभर जहाँआरा उसकी सबसे विश्वासपात्र रही। एक बार बुरी तरह जल जाने के कारण इसे चार महीने तक जीवन-मरण के बीच संघर्ष करना पड़ा था। सबकी सम्मान-भाजन होने के कारण सभी जहाँआरा से परामर्श लिया करते थे।

भाइयों में सत्ता संघर्ष को टालने की जहाँआरा ने बहुत कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। इसकी सहानुभूति दारा शिकोह के प्रति थी, फिर भी इसने विजयी औरंगज़ेब और मुराद से भेंट की और प्रस्ताव रखा कि चारों भाई साम्राज्य को परस्पर बांटकर शांतिपूर्वक रहें। लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाया। औरंगज़ेब ने जब शाहजहाँ को आगरा के क़िले में क़ैद कर लिया तो उसकी मृत्यु (जनवरी, 1666 ई।) तक जहाँआरा ने पिता के साथ रहकर उसकी सेवा की। अपने अंतिम दिनों में यह लाहौर के संत मियाँ पीर की शिष्या बन गई थी। 16 सितम्बर, 1681 ई। को जहाँआरा की मृत्यु हुई।[1]

विश्व की अमीर शहज़ादी

मुग़ल शासन के दौर में महिलाओं के बहुत कम नाम सामने आए हैं, जिनमें गुलबदन बेगम, नूरजहां, मुमताज महल, जहाँआरा, रोशनआरा और ज़ेबुन्निसा का नाम लिया जा सकता है। उनमें भी दो, यानी नूरजहां और मुमताज महल तो मल्लिका रहीं और बाक़ियों की हैसियत जहाँआरा के बराबर नहीं पहुंचती है क्योंकि रोशनआरा, किसी हरम की प्रमुख यानी बेगम साहिबा या पादशाह बेगम न बन सकीं। जब जहाँआरा की माँ की मृत्यु हुई तो वो उस समय सिर्फ़ 17 वर्ष की थी, और उसी समय से उनके कंधों पर मुग़ल साम्राज्य के हरम का भार आ गया। बादशाह शाहजहाँ अपनी पत्नी की मौत से इतने दुखी हुए कि उन्होंने एक तरह से एकांत का जीवन गुज़ारना शुरू कर दिया।[2]

महबूब-उर-रहमान कलीम अपनी किताब 'जहाँआरा' में लिखते हैं कि 'मुमताज महल की मौत के बाद बादशाह ने शोक वाला काला लिबास पहन लिया था'। लेकिन कुछ अन्य इतिहासकारों का कहना है कि उन्होंने बहुत ही सादगी को अपना लिया था और सिर्फ़ सफ़ेद लिबास में ही नज़र आते थे। हालांकि, उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद, उनकी दाढ़ी के बाल भी सफ़ेद हो गए थे। शाहजहाँ ने ऐसी स्थिति में अपनी किसी दूसरी मल्लिका को महल के मामलों की ज़िम्मेदारी सौंपने के बजाय,अपनी बेटी जहाँआरा को पादशाह बेगम बनाया और उनके वार्षिक वजीफ़े में चार लाख रूपये और बढ़ा दिए जिससे उनका वार्षिक वजीफ़ा दस लाख हो गया।

मशहूर इतिहासकार 'डॉटर ऑफ़ द सन' की लेखिका, एरा मख़ोती बताती हैं- "जब पश्चिमी पर्यटक भारत आते तो उन्हें ये देखकर आश्चर्य होता कि मुग़ल महिलाऐं कितनी प्रभावशाली हैं। इसके विपरीत, उस समय में ब्रिटिश महिलाओं के पास ऐसे अधिकार नहीं थे। वो इस बात पर हैरान थे कि महिलाएं व्यापार कर रही हैं और वो उन्हें निर्देश दे रही हैं कि किस चीज़ का व्यापार करना है और किस चीज़ का नहीं करना है। जहाँआरा की दौलत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके पास बहुत सी जागीरें थीं, जिस दिन उनके पिता की ताजपोशी हुई थी, उस दिन उन्हें एक लाख अशर्फियां और चार लाख रुपये दिए गए थे, जबकि छह लाख वार्षिक वजीफ़े का एलान किया गया था और उनकी माँ की मौत के बाद उनकी सारी संपत्ति का आधा हिस्सा जहाँआरा को दे दिया गया और बाकी का आधा हिस्सा दूसरे बच्चों में बांट दिया गया।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर एम. वसीम राजा जहाँआरा की दौलत के बारे में बताते हैं- "जब उन्हें पादशाह बेगम बनाया गया था तो उस दिन उन्हें एक लाख अशर्फियां, चार लाख रुपये और इसके अलावा चार लाख रुपये वार्षिक की ग्रांट दी गई। उन्हें जो बाग़ दिए गए उनमे बाग़ जहाँआरा, बाग़ नूर और बाग़ सफा अहम हैं। उनकी जागीर में अछल, फरजहरा और बाछोल, सफापुर, दोहारा की सरकारें और पानीपत का परगना दिया गया था। उन्हें सूरत का शहर भी दिया गया था जहां उनके जहाज़ चलते थे और अंग्रेजों के साथ उनका व्यापार होता था।"

पंजाब हिस्टॉरिकल सोसाइटी के सामने 12 अप्रैल, 1913 को पढ़े जाने वाले अपने शोधपत्र में निज़ाम हैदराबाद की सल्तनत में पुरातत्व के निदेशक जी. यज़दानी ने लिखा है कि "इसी साल नवरोज़ के अवसर पर जहाँआरा को 20 लाख के आभूषण और जवाहरात तोहफ़े में दिए गए।" उन्होंने आगे लिखा है कि "जहाँआरा सदन के समारोहों की भी ज़िम्मेदार होती थी, जैसे कि बादशाह के जन्मदिन और नवरोज़ आदि के अवसर पर वही मुख्य कार्यवाहक होती। वसंत ऋतु में ईद-ए-गुलाबी मनाई जाती थी। इस अवसर पर शहज़ादे और पदाधिकारी उत्तम जवाहरात वाली सुराही में बादशाह को अर्क़-ए-गुलाब पेश करते थे। एतदाल शबो रोज़ (यानी जब दिन और रात बराबर होते हैं) का जश्न शुक्रवार को मनाया जाता था। उस अवसर पर जहाँआरा ने 19 मार्च 1637 को बादशाह को ढाई लाख का एक अष्टकोणीय सिंहासन दिया था।"[2]

आग से जलना

जहाँआरा के जीवन में एक बड़ी घटना उस समय घटी, जब वो जल गयी और लगभग आठ महीने तक बिस्तर में रहने के बाद, जब स्वस्थ हुईं तो बादशाह ने ख़ुशी से सल्तनत के ख़ज़ाने के मुँह खोल दिए। 6 अप्रैल 1644 को जब जहाँआरा आग की चपेट में आई थी तो उनके ठीक होने के लिए एक सार्वजनिक उद्घोषणा की गई। ग़रीबों को प्रतिदिन पैसे बांटे जाते और बड़ी संख्या में कैदियों को रिहा किया गया। शोधकर्ता ज़िया-उद-दीन अहमद अपनी किताब 'जहांआरा' में मोहम्मद सालेह के हवाले से लिखते हैं कि "बादशाह ने तीन दिनों में 15 हज़ार अशर्फियां और लगभग इतने ही रुपये ग़रीबों में बांट दिए। रोज़ाना एक हजार रुपये इस तरह से दान किए जाते थे कि रात में एक हजार रुपये जहाँआरा के तकिये के नीचे रख दिए जाते थे और सुबह को ग़रीबों में बांट दिए जाते थे। वरिष्ठ अधिकारी जो घोटालों के आरोप में क़ैद थे उनको रिहा कर दिया गया और उनके 7 लाख रुपये तक के क़र्ज़ माफ़ कर दिए गए।"

जी. यज़दानी लिखते हैं कि "जहाँआरा के स्वस्थ होने पर आठ दिनों का जश्न मनाया गया था, उन्हें सोने में तोला गया और वो सोना ग़रीबों में बांटा गया। पहले दिन, शाहजहां ने शहज़ादी को 130 मोती और पांच लाख रुपये के कंगन तोहफ़े में दिए। दूसरे दिन सरपेच दिया गया जिसमें हीरे और मोती जड़े हुए थे। सूरत का बंदरगाह भी इसी अवसर पर दिया गया, जिसकी वार्षिक आमदनी पांच लाख रुपये थी। न सिर्फ़ जहाँआरा को बल्कि उनका इलाज करने वाले हकीम को भी माल और दौलत से भर दिया गया। हकीम मोहम्मद दाउद को दो हज़ार पैदल और दो सौ घोड़ों की सरदारी मिली, पोशाक और हाथी के अलावा, एक सोने की काठी वाला घोड़ा, 500 तोले की सोने की मुहर और उसी वज़न का उस अवसर पर विशेष रूप से बनाया गया सिक्का भी दिया गया। एक ग़ुलाम आरिफ़ को उसके वज़न के बराबर सोना और पोशाक,घोड़े,हाथी और सात हज़ार रुपये दिए गए।"[2]

ताक़तवर महिला नूरजहां

महबूब-उर-रहमान कलीम, बेगम साहिबा की सुंदरता के बारे में लिखते हैं कि- "जहाँआरा बेगम मुग़लिया वंश में रूप और चरित्र के लिहाज़ से एक बेमिसाल बेगम थीं। वो बहुत ही खूबसूरत थीं।" कुछ इतिहासकारों का कहना है कि रोशनआरा बेगम उस समय अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थीं, लेकिन डॉक्टर बर्नियर ने लिखा है कि "हालांकि रोशनआरा बेगम, उनकी छोटी बहन बहुत ही सुंदर है, लेकिन जहाँआरा बेगम की सुंदरता इससे कहीं ज्यादा है।" जहाँआरा का वो स्थान था कि उनका अपना अलग एक महल था जहां वो रहती थी।

अनुवादक और इतिहासकार मौलवी ज़काउल्लाह देहलवी ने 'शाहजहाँनामा' में लिखा है कि "जहाँआरा बेगम का महल शहंशाह शाहजहाँ के महल से सटाकर बनाया गया था। बेगम साहिबा का आकर्षक और आलीशान मकान आरामगाह से जुड़ा हुआ था और बहुत ही आकर्षक चित्रों से सजा हुआ था। इसके दरवाज़ों और दीवार पर उच्च कोटि की कारीगरी की गई थी। और जगह जगह कीमती जवाहरात ख़ूबसूरती से जड़े हुए थे। उसके आंगन के बंगले में जो यमुना के तट पर स्थित था दो कक्ष थे,और उन्हें बहुत अच्छी तरह नक़्शो निगार से सजाया गया था। ये इमारत तीन मंजिला ऊंची थी और उस पर सोने का काम किया हुआ था।

सूफ़ीवाद की ओर झुकाव

डॉक्टर रोहमा के अनुसार- जहाँआरा अपनी जवानी में ही सूफ़ीवाद के प्रति आकर्षित हो गई थी, लेकिन जलने की घटना के बाद उनका जीवन और अधिक फ़क़ीराना हो गया था"। लेकिन उससे पहले, महबूब-उर-रहमान ने लिखा है कि पहले उनका जीवन जीने का तरीक़ा बहुत शाही था। डॉक्टर बर्नियर के हवाले से लिखते हैं कि "उनकी सवारी बहुत ही शानदार तरीक़े से निकलती थी। वो अक्सर जूडोल पर निकलती थी, जो सिंहासन से मिलता जुलता था, और इसे कहार उठाते थे। इसके चारों तरफ़ चित्रकारी का काम किया गया था। और इस पर रेशमी परदे पड़े होते थे,और उनमे ज़री की झालरें और सुंदर फुंदने टंगे होते थे, जिससे इसकी ख़ूबसूरती दोगुना बढ़ जाती थी।"

"कभी-कभी जहाँआरा बेगम एक लंबे और सुंदर हाथी पर सवार होकर निकलती थी। लेकिन परदे की सख़्त पाबंद थी तो वो अक्सर मनोरंजन के लिए बहुत धूमधाम के साथ सैर बाग जाती थी। इसके अलावा उन्होंने शाहजहाँ के साथ कई बार दक्कन, पंजाब, कश्मीर और काबुल की सैर की। लेकिन हर परिस्थिति और हर मौके पर उन्होंने परदे का पूरा ध्यान रखा। ये सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं किया बल्कि मुग़ल वंश की सभी बेगम बहुत ही परदे वाली होती थीं।"

विविध व्यक्तित्व

पर्यटक और इतिहासकार बर्नियर ने लिखा है कि- "किसी के लिए भी इन बेगमों के पास जाना संभव नहीं था और ये लगभग असंभव है कि वो किसी इंसान को नज़र आ सकें, सिवाय उस सवार को छोड़कर जो ग़लती से इन बेगमों की सवारी के पास चला जाये। क्योंकि वो व्यक्ति कितने भी ऊंचे पद पर क्यों न हो, किन्नरों के हाथों से पिटे बिना नहीं रह सकता।"

डॉक्टर रोहमा का कहना है कि "इतिहास की किताबों में जहाँआरा के जलने की घटना का विवरण तो मिलता है, लेकिन उनकी अन्य सेवाओं के बारे में खुलकर व्यक्त नहीं किया जाता है, जबकि वो मुग़ल साम्राज्य की बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली शख्सियत थीं। उनकी ज्ञान मित्रता, सूफ़ियों के प्रति उनका समर्पण, उनकी उदारता, दरबार में उनकी रणनीति और बागानों और वास्तुकला के प्रति उनका लगाव उनके विविध व्यक्तित्व की पहचान है।"

जहाँआरा ने दो किताबें लिखी थीं और दोनों ही फ़ारसी भाषा में हैं। उन्होंने 12वीं और 13वीं सदी के सूफ़ी हज़रत मोइनुद्दीन चिश्ती पर 'मोनिस अल-अरवाह' के नाम से एक किताब लिखी है। सूफ़ियों और संतों की बातों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। वो अपने शुरुआती दिनों में ही उन्हें समझ रही थी। वो शुरू में दारा और बाद में अपने पिता के साथ इससे विषय पर बहस करती थीं। उन्होंने लिखा है कि एक बार जब वो दारा के साथ किताब वापस करने के बहाने हिंदुस्तान की मल्लिका नूरजहां से मिलने गई, तो वो ये जानकर हैरान रह गई कि नूरजहां ने उन्हें जो किताबें पढ़ने के लिए दी थी उनका नाम उन्हें याद था। नूरजहां ने पूछा कि उन्हें फ़ैज़ी की किताब पसंद आई या हारून रशीद की कहानियां। जहाँआरा ने जवाब दिया हारून रशीद की कहानियां। नूरजहां ने कहा कि वो उम्र के साथ शायरी का आनंद लेना शुरू कर देगी।

जहाँआरा की शिक्षा घर में ही हुई थी और उनकी माँ की सहेली सती अल-निसा बेगम[3] ने उन्हें शिक्षा दी। सती अल-निसा बेगम एक शिक्षित परिवार से थी और उनके भाई तालिब आमली जहांगीर के समय में मलिकुश्शुअरा (राष्ट्रकवि) की उपाधि से सम्मानित किये गए थे। जब जहाँआरा कुछ दिनों के लिए दक्कन में थी तो उन्हें एक और महिला शिक्षक पढ़ाने के लिए आती थी। उनकी दूसरी किताब 16वीं और 17वीं सदी के कश्मीर के सूफ़ी मुल्ला शाह बदख्शी पर 'रिसाला साहिबिया' है।

डॉक्टर रोहमा के अनुसार- "जहाँआरा से मुल्ला शाह बदख्शी इतने प्रभावित थे कि वो कहते थे कि अगर जहाँआरा एक महिला न होती तो वो उन्हें अपने ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) के रूप में नामित कर देते।" जहाँआरा को औपचारिक रूप से मुरीद (शिष्य) बनने और अपने पीर (गुरु) के अनुसार जीवन जीने वाली पहली मुग़ल महिला होने पर गर्व था। जहाँआरा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पूरे शाहजहांनाबाद यानी दिल्ली का नक़्शा अपनी देखरेख में बनवाया था। कुछ इतिहासकारों का इस पर मतभेद है, लेकिन चांदनी चौक के बारे में किसी को आपत्ति नहीं है। यह बाज़ार उनके अच्छे शौक़ और शहर की ज़रूरतों की पहचान की निशानी है।

नूरजहां और मुमताह महल की तुलना

जहाँआरा एक जगह नूरजहां और अपनी माँ की सुंदरता की तुलना करते हुए लिखती है कि- "नूरजहां अपनी ऊँचाई और चेहरे की लंबाई के कारण माँ से अधिक आकर्षक और सुंदर दिखती थी"। लेकिन वो कहती है कि "उनकी माँ भी बहुत खूबसूरत थी और फूल की तरह खिलती थी जिसे हर कोई चाहे"। जहाँआरा की डायरी से पता चलता है कि उनसे बड़ी एक सौतेली बहन थी, लेकिन दूसरे सभी बच्चे शाहजहाँ को अर्जुमंद आरा यानी मुमताज महल के गर्भ से हुए। महल का जिक्र करते हुए जहाँआरा लिखती है- "महल के अंदर महिलाओं की दुनिया है। शहजादियां, रानियां ,दासियां, प्रशिक्षु, नौकरानियां, बावर्चिन, धोबिन, गायिकाएं, नर्तकियां, चित्रकार और दासियां स्थितियों पर नज़र रखती हैं और बादशाह को वहां की स्थिति से अवगत कराती रहती हैं। कुछ महिलाऐं शाही परिवार से शादी करके आई हैं। कुछ को उनकी सुंदरता के कारण शहज़ादों की पसंद पर हरम में लाया गया है, कई का जन्म हरम की चार दीवारों के भीतर हुआ है। कुछ महिलाओं का कहना है कि एक बार जब आप हरम में प्रवेश करते हैं, तो कोई भी आपका चेहरा नहीं देख सकता है। आप एक जिन्न की तरह गायब हो जाते हैं और कुछ दिनों के बाद आपके घर वाले भी आपकी सूरत भूल जाते हैं।"

मुख्य कार्य

उपरोक्त के अलावा जहाँआरा ने कई मस्जिदें बनवाईं और अजमेर में हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर एक बारादरी का भी निर्माण कराया। डॉक्टर रोहमा बताती हैं कि जब वो दरगाह पर आई, तब उन्हें ये बारादरी[4] बनाने का ख्याल आया था और उसी समय उन्होंने सेवा भाव से इस बारादरी के निर्माण का संकल्प लिया। उन्होंने बहुत से बाग़ों का भी निर्माण कराया।

आगरा की जामा मस्जिद के बारे में डॉक्टर रोहमा का कहना है कि- "इसके बारे में विशेष बात यह है कि इसमें इबादत के लिए महिलाओं के लिए एक कमरा है।" दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुख्य दरवाज़े पर फारसी में एक शिलालेख है, जिसमें किसी मुग़ल बादशाह की तरह जहाँआरा की, उनकी आध्यात्मिकता और उनकी पवित्रता की प्रशंसा की गई है। यह एक तरह का क़सीदा पढ़ना है।" जहाँआरा महिलाओं के लिए एक सार्वजनिक स्थान बनाने वाली पहली मुग़ल शहज़ादी थी। उन्होंने दिल्ली से सटे यमुना पार साहिबाबाद में बेगम का बाग़ बनावाया था। इसमें महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित था बल्कि दिन भी आरक्षित थे ताकि वो आज़ादी के साथ बाग़ की सैर कर सकें और वहां की ख़ूबसूरती का आनंद ले सकें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 317 |
  2. 2.0 2.1 2.2 शाहजहाँ की बेटी जो थी दुनिया की 'सबसे अमीर' शहज़ादी (हिंदी) bbc.com। अभिगमन तिथि: 02 सितम्बर, 2020।
  3. जिन्हें सदर अल-निसा के नाम से भी जाना जाता है।
  4. बारह द्वारों वाला महल।

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