मधु लिमये
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पूरा नाम | मधु लिमये |
जन्म | 1 मई, 1922 |
जन्म भूमि | पुणे, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 8 जनवरी, 1995 |
अभिभावक | पिता- रामचंद्र महादेव लिमये |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | राजनीतिज्ञ |
अन्य जानकारी | मधु लिमये संस्कृत भाषा और भारतीय बोलियों के वह बहुत जानकार थे। संगीत और नृत्य की बारीकियों को भी वह बख़ूबी समझते थे। |
मधु लिमये (अंग्रेज़ी: Madhu Limaye, जन्म- 1 मई, 1922; मृत्यु- 8 जनवरी, 1995) भारतीय राजनीतिज्ञ और समाजवादी आंदोलन के नेताओं में से एक थे। भारत की समाजवादी राजनीति के प्रतिनिधि नेता मधु लिमये ने चार दशक तक देश की राजनीति को कई तरीकों से प्रभावित किया। वह प्रखर वक्ता और सिद्धांतकार थे। तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ के समय ही सुनाई देने वाली 'अंतरात्मा की आवाज़' के दौर में मधु लिमये लोकतंत्र, आडंबरहीनता और साफ़ सार्वजनिक जीवन के पहरेदार बन गए थे। मधु लिमये ने दुनिया को बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है। उन्होंने सांसद होने की पेंशन कभी नहीं ली और न ही पूर्व सांसद होने की सुविधाएं।
परिचय
मधु लिमये का जन्म 1 मई, 1922 को हुआ था। स्वाधीनता संग्राम में तक़रीबन 4 साल, 1940-1945 के बीच, गोवा मुक्ति संग्राम में पुर्तग़ालियों के अधीन 19 महीने, 1955 में 12 साल की सज़ा सुना दी गई और आपात काल के दौरान 19 महीने 'मीसा' के तहत जुलाई 1975 - फ़रवरी 1977 तक मधु लिमये कई जेलों में रहे। मधु लिमये तीसरी, चौथी, पांचवी व छठी लोकसभा के सदस्य रहे, लेकिन इंदिरा गांधी द्वारा पांचवी लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाए जाने के विरोध में उन्होंने अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था।[1]
कटु लिमये
मधु लिमये ने दुनिया को बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है। वह प्रश्न काल और शून्य काल के अनन्य स्वामी हुआ करते थे। जब भी ज़ीरो आवर होता, सारा सदन सांस रोक कर एकटक देखता था कि मधु लिमये अपने पिटारे से कौन-सा नाग निकालेंगे और किस पर छोड़ देंगे। मशहूर पत्रकार और एक ज़माने में मधु लिमये के नज़दीकी रहे डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक के अनुसार- "मधु जी ग़ज़ब के इंसान थे। ज़बरदस्त प्रश्न पूछना और मंत्री के उत्तर पर पूरक सवालों की मशीनगन से सरकार को ढेर कर देना मधु लिमये के लिए बाएं हाथ का खेल था।" वह बताते हैं कि- "होता यूँ था कि डॉक्टर लोहिया प्रधान मल्ल की तरह खम ठोंकते और सारे समाजवादी भूखे शेर की तरह सत्ता पक्ष पर टूट पड़ते और सिर्फ़ आधा दर्जन सांसद बाकी पाँच सौ सदस्यों की बोलती बंद कर देते। मैं तो उनसे मज़ाक में कहा करता था कि आपका नाम मधु लिमये है लेकिन आप बड़े कटु लिमये हैं।"[2]
संसदीय नियमों के ज्ञान का चैंपियन
मधु लिमये को अगर "संसदीय नियमों के ज्ञान का चैंपियन" कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके एक साथी और मशहूर समाजवादी नेता लाडलीमोहन निगम ने एक बार एक लेख में एक घटना का ज़िक्र किया था। एक बार इंदिरा गांधी ने लोकसभा में बजट पेश किया जो आर्थिक लेखानुदान था। भाषण समाप्त होते ही मधु लिमये ने व्यवस्था का प्रश्न उठाना चाहा, लेकिन स्पीकर ने सदन को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दिया। मधु लिमये झल्लाते हुए उनके चैंबर में गए और बोले, 'आज बहुत बड़ा गुनाह हो गया है। आप सारे रिकॉर्ड्स मंगवा कर देखिए। मनी बिल तो पेश ही नहीं किया गया। अगर ऐसा हुआ है तो आज 12 बजे के बाद सरकार का सारा काम रुक जाएगा और सरकार का कोई भी महकमा एक भी पैसा नहीं ख़र्च कर पाएगा।
जब स्पीकर ने सारी प्रोसीडिंग्स मंगवा कर देखी तो पता चला कि धन विधेयक तो वाकई पेश ही नहीं हुआ था। वह घबरा गए, क्योंकि सदन तो स्थगित हो चुका था। तब मधु लिमये ने कहा- 'ये अब भी पेश हो सकता है। आप तत्काल विरोधी पक्ष के नेताओं को बुलवाएं।' उसी समय रेडियो पर घोषणा करवाई गई कि संसद की तुरंत एक बैठक बुलवाई गई है, जो जहां भी है तुरंत संसद पहुंच जाए। संसद रात में बैठी और इस तरह धन विधेयक पास हुआ।
राजनीतिक क्रियाकलाप
मधु लिमये सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1949-1952) रहे, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1953 के इलाहाबाद सम्मेलन में निर्वाचित) रहे, सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष (1958-1959) रहे, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष (1967-1968), चौथी लोकसभा में सोशलिस्ट ग्रुप के नेता (1967) रहे, जनता पार्टी के महासचिव (1 मई 1977-1979), जनता पार्टी (एस) एवं लोकदल के महासचिव (1979-1982) रहे। लोकदल (के) के गठन के बाद सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया।
मधु लिमये दो बार बंबई से चुनाव हारने के बाद लोगों के आग्रह पर 1964 के उपचुनाव में मुंगेर से लड़े व अपने मज़दूर नेता की सच्ची छवि के बल पर जीते। दोबारा 1967 के आमचुनाव में प्रचार के दौरान उन्हें पीट-पीट कर बुरी तरह से घायल कर दिया गया, वह सदर अस्पताल में भर्ती हुए, जहां भेंट करने वालों का तांता लगा हुआ था। सहानुभूति की लहर व अपने व्यक्तित्व के बूते वे फिर जीते। पर, तीसरी बार वे कांग्रेस प्रत्याशी डी.पी. यादव से त्रिकोणीय मुक़ाबले में हार गये। यह भी चकित करने वाला ही है कि तमाम प्रमुख नाम मोरारजी देसाई की कैबिनेट 1977 में थे, पर मधु लिमये का नाम नदारद था। मोरार जी चाहते थे कि आला दर्जे के तीनों बहसबाज जॉर्ज फ़र्नांडिस, मधु लिमये व राज नारायण कैबिनेट में शामिल हों। वह अपने वित्तमंत्री के कार्यकाल में लिमये के सवालों से छलनी होने का दर्द भोग चुके थे। मधु लिमये ने रायपुर से सांसद पुरुषोत्तम कौशिक को मंत्री बनवाया।
जब मधु लिमये बिहार के बांका से चुनाव लड़ रहे थे, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री व कांग्रेसी नेता दारोगा राय ने क्षेत्रवाद का विचित्र स्वरूप पेश करते हुए विरोध करना शुरू किया। वे अपनी सभाओं में बोलते थे- ‘मधु लिमैया, बम्बइया’। इस पर लिमये जी के मित्र जॉर्ज साहब ने धारदार भाषण दिया था और चुटकी ली थी- "ग़नीमत है कि दारोगा जी चम्पारण आंदोलन के वक़्त परिदृश्य में नहीं थे, नहीं तो ये गांधीजी को तो बिहार की सीमा में घुसने ही नहीं देते। अच्छा हुआ कि श्रीमान त्रेता युग में पैदा नहीं हुए, नहीं तो ये अयोध्या के राम की शादी जनकपुर (नेपाल) की सीता से कभी होने ही नहीं देते। मुझे तो कभी-कभी चिंता होती है कि दारोगा जी का यही रवैया रहा तो लोग दूसरे गांव जाकर विवाह ही नहीं कर पाएंगे और आधे युवक-युवती कुंवारे रह जाएंगे। यह क्षेत्रवाद का ज़हर हमें रसातल में पहुंचा देगा।’ बस, मधु लिमये के पक्ष में ग़ज़ब के जनसमर्थन का माहौल बना और उन्होंने दो बार (1971 का उपचुनाव और 1977 का आमचुनाव) इस संसदीय क्षेत्र की नुमाइंदगी की।[1]
संगीत प्रेमी
मधु लिमये की रुचियों की रेंज बहुत विस्तृत हुआ करती थी। 'महाभारत' पर तो उनको अधिकार-सा था। संस्कृत भाषा और भारतीय बोलियों के वह बहुत जानकार थे। संगीत और नृत्य की बारीकियों को भी वह बख़ूबी समझते थे। जानी-मानी नृत्यांगना सोनल मानसिंह उनकी नज़दीकी दोस्त हुआ करती थीं। सोनल के अनुसार- "उस ज़माने में राजनीतिज्ञ इतने नीरस और ग़ैर कलात्मक नहीं होते थे। पहली मुलाकात के बाद मधुजी ने इच्छा ज़ाहिर की कि मैं लोधी गार्डन में टहलने के बाद सुबह नाश्ते के लिए उनके घर आऊं। मैं जब पहुंची तो घाघरा और टी शर्ट पहने हुए थी। मुझे देखते ही उन्होंने 'शाकुंतलम' से श्लोक पढ़ना शुरू कर दिया और बोले कि तुम एकदम शकुंतला जैसी लग रही हो। जब भी मैं उन्हें फ़ोन करती तो उनकी पत्नी चंपा फ़ोन उठातीं और हंसते हुए उनसे कहतीं, 'लो तुम्हारी गर्लफ़्रेंड का फ़ोन है।'[2]
फ़िज़ूलखर्ची विरोधी
डॉक्टर वैदिक बताते हैं कि उन्होंने मधु लिमये को कभी फ़िज़ूलखर्ची करते नहीं देखा। उनके साथ घर की खिचड़ी और नॉर्थ एवेन्यू की कैंटीन का ढाई रुपए वाला खाना उन्होंने कई बार खाया था। वह कहते हैं कि उनकी पत्नी पहले हमेशा साधारण तृतीय श्रेणी में और जब तृतीय श्रेणी ख़त्म हुई तो द्वितीय श्रेणी में यात्रा करती थीं। उनके पंडारा रोड के छोटे-से फ़्लैट की छोटी-सी बैठक में अनेक राज्यपाल, अनेक मुख्यमंत्री, अनेक केंद्रीय मंत्री और विख्यात संपादक, पत्रकार और बुद्धिजीवी उन्हें घेरे रहते थे।
ईमानदार व्यक्ति
मधु लिमये कभी-कभी स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ कर जाया करते थे। इतनी नैतिकता उनमें थी कि जब उनका संसद में पांच साल का समय ख़त्म हो गया तो उन्होंने जेल से ही अपनी पत्नी को पत्र लिखा कि तुरंत दिल्ली जाओ और सरकारी घर खाली कर दो। चंपाजी की भी उनमें कितनी निष्ठा थी कि वह मुंबई से दिल्ली पहुंची और वहाँ उन्होंने मकान से सामान निकाल कर सड़क पर रख दिया। उनको ये नहीं पता था कि अब कहाँ जाएं। एक पत्रकार मित्र जो समाजवादी आंदोलन से जुड़े हुए थे, वहाँ से गुज़र रहे थे। उन्होंने उनसे पूछा कि आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? जब उन्होंने सारी बात बताई तो वह उन्हें अपने घर ले गए। बहुत ही पारदर्शी व्यक्तित्व था मधु लिमये का। ईमानदारी उनमें इस हद तक भरी हुई थी, जिसकी आज के युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 संसदीय राजनीति और समाजवाद का बड़ा पहरुआ (हिंदी) theprint.in। अभिगमन तिथि: 13 अप्रॅल, 2020।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 मधु लिमये को देखकर कांप उठता था सत्ता पक्ष (हिंदी) bbc.com। अभिगमन तिथि: 13 अप्रॅल, 2020।