तानाजी मालुसरे (अंग्रेज़ी: Tanaji Malusare) शिवाजी महाराज के सेनापति थे, जो अपनी वीरता के कारण सिंह के नाम से प्रसिद्ध थे। शिवाजी उनको सिंह ही कहा करते थे। 1670 ई. में कोढाणा क़िले (सिंहगढ़) को जीतने में तानाजी ने वीरगति पायी थी। जब शिवाजी सिंहगढ़ को जीतने निकले थे, तब तानाजी अपने पुत्र के विवाह में व्यस्त थे, किन्तु शिवाजी महाराज का समाचार मिलते ही वह विवाह आदि छोड़ कर युद्ध में चले गये थे।
वीर निष्ठावान सरदार
तानाजी मालुसरे शिवाजी महाराज के घनिष्ठ मित्र और वीर निष्ठावान सरदार थे। उनके पुत्र के विवाह की तैयारी हो रही थी। चारों ओर उल्लास का वातावरण था। तभी शिवाजी महाराज का संदेश उन्हें मिला- "माता जीजाबाई ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोण्डाणा दुर्ग पर मुसलमानों के हरे झंडे को हटा कर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी। तुम्हें सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है।"
स्वामी का संदेश पाकर तानाजी ने सबको आदेश दिया- विवाह के बाजे बजाना बन्द करो, युद्ध के बाजे बजाओ।" अनेक लोगों ने तानाजी से कहा- "अरे, पुत्र का विवाह तो हो जाने दो, फिर शिवाजी महाराज के आदेश का पालन कर लेना।" परन्तु, तानाजी ने ऊँची आवाज में कहा- "नहीं, पहले कोण्डाणा दुर्ग का विवाह होगा, बाद में पुत्र का विवाह। यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूँगा। यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे।" बस, युद्ध निश्चित हो गया।
वीरगति
सेना लेकर तानाजी शिवाजी के पास पुणे चल दिये। उनके साथ उनका भाई तथा अस्सी वर्षीय शेलार मामा भी गए। पुणे में शिवाजी ने तानाजी से परामर्श किया और अपनी सेना उनके साथ कर दी। दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग पर तानाजी के नेतृत्व में हिन्दू वीरों ने रात में आक्रमण कर दिया। तानाजी के पास एक गोह थी, जिसका नाम यशवंती था। इसकी कमर में रस्सी बाँध कर तानाजी क़िले की दीवार पर ऊपर की ओर फेंकते थे और यह गोह छिपकली की तरह दीवार से चिपक जाती थी। इस रस्सी को पकड़ कर वे क़िले की दीवार चढ़ जाते थे। लेकिन इस रात पहली बार में यशवंती सही ढंग से दीवार पर पकड़ नहीं बना पायी और वापस नीचे गिर गयी। सभी ने इसे अपशकुन माना और तानाजी से वापस लौटने के लिए कहा; लेकिन तानाजी ने इस बात को अन्धविश्वास कहकर ठुकरा दिया। दोबारा गोह फेंकी गयी और वह चिपक गयी। इस प्रकार क़िले के द्वार खोल दिए गये।
भीषण युद्ध हुआ। कोण्डाणा का दुर्गपाल उदयभानु नाम का एक हिन्दू था, जो स्वार्थवश मुस्लिम हो गया था। इसके साथ लड़ते हुए तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए। थोड़ी ही देर में शेलार मामा के हाथों उदयभानु भी मारा गया। सूर्योदय होते-होते कोण्डाणा दुर्ग पर भगवा ध्वज फहर गया। शिवाजी यह देखकर प्रसन्न हो उठे। परन्तु, जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके आदेश का पालन करने में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए है, तब उनके मुख से निकल पड़ा- गढ़ आला पण सिंह गेला अर्थात् "गढ़ तो हाथ में आया, परन्तु मेरा सिंह ( तानाजी ) चला गया।" उसी दिन से कोण्डाणा दुर्ग का नाम सिंहगढ़ हो गया।
3 अगस्त, 1984 को भारत के क़िले शीर्षक से निकले 4 विशेष डाक टिकटों में 150 पैसे वाला डाक टिकट सिंहगढ़ को ही समर्पित है।
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