"प्रेत्यभाव -न्याय दर्शन": अवतरणों में अंतर

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[[न्याय दर्शन]] में नवम प्रमेय है प्रेत्यभाव। इसका अर्थ होता है मरण के बाद जन्म।<ref>न्यायसूत्र 1/1/19</ref> जीव के धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति का फल होता है उसका पुनर्जन्म होना। धर्माधर्म दोषमूलक है, अत: पुनर्जन्म भी परम्परा संबन्ध से दोषमूलक ही होता है। जीवात्मा नित्य है। अतएव उसकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है। अनादिकाल से ही जीव बारम्बार स्थूल शरीर को धारण करता आ रहा है, जिसे यहाँ पुनरुत्पत्ति या प्रेत्यभाव कहते हैं। जीवात्मा के नित्य होने से ही उसका पुनर्जन्म रूप प्रेत्यभाव सिद्ध होता है।  
*[[न्याय दर्शन]] में नवम [[प्रमेय -न्याय दर्शन|प्रमेय]] है प्रेत्यभाव। इसका अर्थ होता है मरण के बाद जन्म।<ref>न्यायसूत्र 1/1/19</ref> जीव के धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति का फल होता है उसका पुनर्जन्म होना। धर्माधर्म दोषमूलक है, अत: पुनर्जन्म भी परम्परा संबन्ध से दोषमूलक ही होता है। जीवात्मा नित्य है। अतएव उसकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है।  
*अनादिकाल से ही जीव बारम्बार स्थूल शरीर को धारण करता आ रहा है, जिसे यहाँ पुनरुत्पत्ति या प्रेत्यभाव कहते हैं। जीवात्मा के नित्य होने से ही उसका पुनर्जन्म रूप प्रेत्यभाव सिद्ध होता है।  





12:43, 22 अगस्त 2011 के समय का अवतरण

  • न्याय दर्शन में नवम प्रमेय है प्रेत्यभाव। इसका अर्थ होता है मरण के बाद जन्म।[1] जीव के धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति का फल होता है उसका पुनर्जन्म होना। धर्माधर्म दोषमूलक है, अत: पुनर्जन्म भी परम्परा संबन्ध से दोषमूलक ही होता है। जीवात्मा नित्य है। अतएव उसकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है।
  • अनादिकाल से ही जीव बारम्बार स्थूल शरीर को धारण करता आ रहा है, जिसे यहाँ पुनरुत्पत्ति या प्रेत्यभाव कहते हैं। जीवात्मा के नित्य होने से ही उसका पुनर्जन्म रूप प्रेत्यभाव सिद्ध होता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 1/1/19

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