"साँचा:नरोत्तमदास की रचनाएँ": अवतरणों में अंतर

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|+ नरोत्तमदास सुदामा चरित  
|+ सुदामा चरित -नरोत्तमदास (संक्षिप्त)
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<poem>विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
<poem>विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥३॥
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥3॥
 
</poem>
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<poem>
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥४॥
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥4॥
 
</poem>
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥५॥ </poem>
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<poem>कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥5॥
</poem>
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<poem>(सुदामा की पत्नी)
<poem>(सुदामा की पत्नी)
लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल,
लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल, स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल, संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास, तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय, द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥8॥
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास,
</poem>
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
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द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय,
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥८॥ </poem>
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<poem>(सुदामा)
<poem>(सुदामा)
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥९॥ </poem>
औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥9॥
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<poem>(सुदामा की पत्नी)
<poem>(सुदामा की पत्नी)
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सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥१०॥ </poem>
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥10॥
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</poem>
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<poem>(सुदामा)
<poem>(सुदामा)
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी।
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी।
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात अयानी॥१३॥ </poem>
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात अयानी॥13॥
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</poem>
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<poem>(सुदामा की पत्नी)
<poem>(सुदामा की पत्नी)
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु, लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार, लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु, तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो, देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥20॥
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
</poem>  
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
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नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
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देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥२०॥ </poem>
(सुदामा)
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<poem>(सुदामा)
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे।
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥२३॥
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥23॥
 
</poem>
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<poem>(श्रीकृष्ण का द्वारपाल)
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥II३५II
 
</poem>
</poem>
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<poem>(श्री कृष्ण)
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥II ४६II
</poem>
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<poem>
<poem>
यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास।
यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास।
पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥२४॥
पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥24॥
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट।
माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥25॥
</poem>
</poem>
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<poem>
<poem>
कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार।
दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
जाय दिखायौ सबनि लैं, या है महल तुम्हार॥II७३II
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
 
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
</poem>
</poem>
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<poem>कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
<poem>
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥ II११९II</poem>
धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?॥30॥
</poem>
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<poem>
<poem>
यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास।
(श्रीकृष्ण का द्वारपाल)
पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥२४॥ </poem>
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥II35II
</poem>
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<poem>
<poem>
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट।
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि, छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥२५॥ </poem>
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय, भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि, बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु, ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?II 36II
</poem>
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<poem>दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?॥३०॥  </poem>
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<poem>बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि,
छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु,
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?II ३६II </poem>
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ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥ II४२II </poem>
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥ II42II
</poem>
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(श्री कृष्ण)
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥II 46II
 
</poem>
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<poem>
<poem>
पंक्ति 128: पंक्ति 118:
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ II४७II </poem>
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ II47II
</poem>
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<poem>
 
देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गोपाल जू, कछू न दीन्हौं हाथ॥II 60II
</poem>
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<poem>देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ।
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चलती बेर गोपाल जू, कछू न दीन्हौं हाथ॥II ६०II </poem>  
वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति।
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जाति॥II61II
</poem>  
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<poem>वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति।
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यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जाति॥II६१II</poem>  
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥II62II
</poem>  
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<poem>घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
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कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥II६२II
 
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।
कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥II६३II</poem>
कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥II63II
</poem>
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<poem>वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
<poem>
वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥II७०II</poem>  
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥II70II
 
कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लैं, या है महल तुम्हार॥II73I
</poem>  
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<poem>टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,
<poem>टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,
पंक्ति 156: पंक्ति 161:
सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै,
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै,
विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?II८०II</poem>  
विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?II80II</poem>  
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<poem>कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
<poem>कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥ II११९II</poem>
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥ II119II</poem>
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<noinclude>[[Category:नरोत्तमदास]]</noinclude>
<noinclude>[[Category:नरोत्तमदास]]</noinclude>

04:35, 8 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण

सुदामा चरित -नरोत्तमदास (संक्षिप्त)

विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥3॥

ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥4॥

कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥5॥

(सुदामा की पत्नी)
लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल, स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल, संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास, तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय, द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥8॥

(सुदामा)
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥9॥

(सुदामा की पत्नी)
कोदों, सवाँ जुरितो भरि पेट, तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥10॥

(सुदामा)
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी।
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात अयानी॥13॥

(सुदामा की पत्नी)
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु, लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार, लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु, तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो, देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥20॥

(सुदामा)
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥23॥

यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास।
पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥24॥
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट।
माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥25॥

दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।

देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?॥30॥

(श्रीकृष्ण का द्वारपाल)
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥II35II

बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि, छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय, भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि, बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु, ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?II 36II

ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥ II42II

(श्री कृष्ण)
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥II 46II

आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ II47II


देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गोपाल जू, कछू न दीन्हौं हाथ॥II 60II

वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति।
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जाति॥II61II

घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥II62II

हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।
कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥II63II

वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥II70II

कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लैं, या है महल तुम्हार॥II73I

टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,
तामैं परो दुख काटौं कहाँ हेम-धाम री।
जेवर-जराऊ तुम साजे प्रति अंग-अंग,
सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
तुम तो पटंबर री ओढ़े किनारीदार,
सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै,
विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?II80II

कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥ II119II