"साँचा:नरोत्तमदास की रचनाएँ": अवतरणों में अंतर
('{| class="bharattable-purple" |+ नरोत्तमदास सुदामा चरित |- valign="top" | style="background:#fb...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{| class="bharattable-purple" | {| class="bharattable-purple" | ||
|+ | |+ सुदामा चरित -नरोत्तमदास (संक्षिप्त) | ||
|- valign="top" | |- valign="top" | ||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem>विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। | <poem>विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। | ||
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि- | भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥3॥ | ||
</poem> | |||
| style="background:#fbe7f4;" | | |||
<poem> | |||
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति। | ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति। | ||
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं | सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥4॥ | ||
</poem> | |||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem>कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र। | |||
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥5॥ | |||
</poem> | |||
|- | |||
| | |||
<poem>(सुदामा की पत्नी) | <poem>(सुदामा की पत्नी) | ||
लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल, | लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल, स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं। | ||
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं। | ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल, संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं। | ||
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल, | विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास, तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं। | ||
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं। | द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय, द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥8॥ | ||
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास, | </poem> | ||
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं। | | | ||
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय, | |||
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ | |||
<poem>(सुदामा) | <poem>(सुदामा) | ||
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा। | सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा। | ||
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥ | जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥ | ||
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा। | मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा। | ||
औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल | औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥9॥ | ||
</poem> | |||
| | | | ||
<poem>(सुदामा की पत्नी) | <poem>(सुदामा की पत्नी) | ||
पंक्ति 33: | पंक्ति 35: | ||
सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥ | सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥ | ||
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती। | जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती। | ||
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी | या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥10॥ | ||
| | </poem> | ||
|- | |||
| style="background:#fbe7f4;" | | |||
<poem>(सुदामा) | <poem>(सुदामा) | ||
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी। | छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी। | ||
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥ | जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥ | ||
पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी। | पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी। | ||
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात | जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात अयानी॥13॥ | ||
| | </poem> | ||
| style="background:#fbe7f4;" | | |||
<poem>(सुदामा की पत्नी) | <poem>(सुदामा की पत्नी) | ||
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु, | विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु, लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं। | ||
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं। | पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार, लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं। | ||
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार, | एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु, तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं। | ||
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं। | नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो, देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥20॥ | ||
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु, | </poem> | ||
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं। | |style="background:#fbe7f4;" | | ||
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो, | <poem> | ||
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि | (सुदामा) | ||
| style="background:#fbe7f4;" | | |||
<poem>(सुदामा) | |||
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे। | द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे। | ||
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥ | जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥ | ||
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे। | द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे। | ||
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर | पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥23॥ | ||
</poem> | </poem> | ||
|- | |- | ||
| | | | ||
<poem> | <poem> | ||
यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास। | यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास। | ||
पाव सेर चाउर लिये, आई सहित | पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥24॥ | ||
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट। | |||
माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥25॥ | |||
</poem> | </poem> | ||
| | | | ||
<poem> | <poem> | ||
दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई, | |||
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं। | |||
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात, | |||
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं। | |||
</poem> | </poem> | ||
| | | | ||
<poem> | <poem> | ||
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय, | |||
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं। | |||
धीरज अधीर के हरन पर पीर के, | |||
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?॥30॥ | |||
</poem> | |||
|- | |- | ||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem> | <poem> | ||
(श्रीकृष्ण का द्वारपाल) | |||
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा। | |||
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥ | |||
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा। | |||
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥II35II | |||
</poem> | |||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem> | <poem> | ||
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि, छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को? | |||
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय, भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को? | |||
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि, बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को? | |||
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु, ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?II 36II | |||
</poem> | |||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem> | <poem> | ||
ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये। | ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये। | ||
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥ | हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥ | ||
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये। | देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये। | ||
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥ | पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥ II42II | ||
</poem> | |||
|- | |||
| | |||
<poem> | |||
(श्री कृष्ण) | |||
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत। | |||
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥II 46II | |||
</poem> | |||
| | | | ||
<poem> | <poem> | ||
पंक्ति 128: | पंक्ति 118: | ||
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥ | श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥ | ||
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने। | पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने। | ||
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ | पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ II47II | ||
</poem> | |||
| | |||
<poem> | |||
देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ। | |||
चलती बेर गोपाल जू, कछू न दीन्हौं हाथ॥II 60II | |||
</poem> | |||
|- | |- | ||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem> | <poem> | ||
वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति। | |||
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जाति॥II61II | |||
</poem> | |||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem> | <poem> | ||
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज। | |||
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥II62II | |||
</poem> | |||
| style="background:#fbe7f4;" | | | style="background:#fbe7f4;" | | ||
<poem> | <poem> | ||
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि। | हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि। | ||
कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ | कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥II63II | ||
</poem> | |||
|- | |- | ||
| | | | ||
<poem>वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ। | <poem> | ||
वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ। | |||
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ। | वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ। | ||
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ। | भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ। | ||
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न | पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥II70II | ||
कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार। | |||
जाय दिखायौ सबनि लैं, या है महल तुम्हार॥II73I | |||
</poem> | |||
| | | | ||
<poem>टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर, | <poem>टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर, | ||
पंक्ति 156: | पंक्ति 161: | ||
सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी। | सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी। | ||
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै, | मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै, | ||
विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी? | विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?II80II</poem> | ||
| | | | ||
<poem>कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत। | <poem>कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत। | ||
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥ | कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥ | ||
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत। | भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत। | ||
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥ | कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥ II119II</poem> | ||
|} | |} | ||
<noinclude>[[Category:नरोत्तमदास]]</noinclude> | <noinclude>[[Category:नरोत्तमदास]]</noinclude> |
04:35, 8 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण
विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। |
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति। |
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र। |
(सुदामा की पत्नी) |
(सुदामा) |
(सुदामा की पत्नी) |
(सुदामा) |
(सुदामा की पत्नी) |
(सुदामा) |
यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास। |
दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई, |
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय, |
(श्रीकृष्ण का द्वारपाल) |
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि, छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को? |
ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये। |
(श्री कृष्ण) |
आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने। |
|
वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति। |
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज। |
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि। |
वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ। |
टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर, |
कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत। |