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राजा विक्रमादित्य को जब मालूम हुआ कि उसका अंतकाल पास आ गया है तो उसने गंगाजी के किनारे एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा। उसने चारों ओर खबर करा दी कि जिसको जितना धन चाहिए, मुझसे ले ले। भिखारी आये, ब्राह्मण आये। देवता भी रुप बदलकर आये। उन्होंने प्रसन्न होकर राजा से कहा, "हे राजन्! तीनों लोकों में तुम्हारी निशानी रहेगी। जैसे सतयुग में सत्यवादी हरिश्चंद्र, त्रेता में दानी बलि और द्वापर में धर्मात्मा युधिष्ठिर हुए, वैसे ही कलियुग में तुम हो। चारों युग में तुम जैसा राजा न हुआ है, न होगा।"
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==सिंहासन बत्तीसी इकत्तीस==
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राजा विक्रमादित्य को जब मालूम हुआ कि उसका अंतकाल पास आ गया है तो उसने [[गंगा|गंगाजी]] के किनारे एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा। उसने चारों ओर खबर करा दी कि जिसको जितना धन चाहिए, मुझसे ले ले। भिखारी आये, [[ब्राह्मण]] आये। [[देवता]] भी रुप बदलकर आये। उन्होंने प्रसन्न होकर राजा से कहा, "हे राजन्! तीनों लोकों में तुम्हारी निशानी रहेगी। जैसे [[सतयुग]] में [[हरिश्चंद्र|सत्यवादी हरिश्चंद्र]], [[त्रेता युग|त्रेता]] में दानी [[बलि]] और [[द्वापर युग|द्वापर]] में [[युधिष्ठिर|धर्मात्मा युधिष्ठिर]] हुए, वैसे ही [[कलियुग]] में तुम हो। चारों [[युग]] में तुम जैसा राजा न हुआ है, न होगा।"
देवता चले गये। इतने में राजा देखता क्या है कि सामने से एक हिरन चला आ रहा है। राजा ने उसे मारने को तीर-कमान उठाई तो वह बोला, "मुझे मारो मत। मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था। मुझे यती ने शाप देकर हिरन बना दिया और कहा कि राजा विक्रमादित्य के दर्शन करके तू फिर आदमी बन जायगा।"
देवता चले गये। इतने में राजा देखता क्या है कि सामने से एक हिरन चला आ रहा है। राजा ने उसे मारने को तीर-कमान उठाई तो वह बोला, "मुझे मारो मत। मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था। मुझे यती ने शाप देकर हिरन बना दिया और कहा कि राजा विक्रमादित्य के दर्शन करके तू फिर आदमी बन जायगा।"
इतना कहते-कहते हिरन गायब हो गया और उसी जगह एक ब्राह्मण खड़ा हो गया। राजा ने उसे बहुत-सा धन देकर विदा किया।
इतना कहते-कहते हिरन गायब हो गया और उसी जगह एक ब्राह्मण खड़ा हो गया। राजा ने उसे बहुत-सा धन देकर विदा किया।
 
पुतली बोली: हे राजन्! अगर तुम अपना भला चाहते हो तो इस सिंहासन को ज्यों-का-त्यों गड़वा दो। पर राजा का मन न माना।
''पुतली बोली'': हे राजन्! अगर तुम अपना भला चाहते हो तो इस सिंहासन को ज्यों-का-त्यों गड़वा दो। पर राजा का मन न माना।
 
अगले दिन वह फिर उधर बढ़ा तो आखिरी, बत्तीसवीं पुतली ने, जिसका नाम भासमती था, उसे रोक दिया।  
अगले दिन वह फिर उधर बढ़ा तो आखिरी, बत्तीसवीं पुतली ने, जिसका नाम भासमती था, उसे रोक दिया।  
पुतली बोली: हे राजन्! पहले मेरी बात सुनो।


''पुतली बोली'': हे राजन्! पहले मेरी बात सुनो।
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11:52, 26 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।

सिंहासन बत्तीसी इकत्तीस

राजा विक्रमादित्य को जब मालूम हुआ कि उसका अंतकाल पास आ गया है तो उसने गंगाजी के किनारे एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा। उसने चारों ओर खबर करा दी कि जिसको जितना धन चाहिए, मुझसे ले ले। भिखारी आये, ब्राह्मण आये। देवता भी रुप बदलकर आये। उन्होंने प्रसन्न होकर राजा से कहा, "हे राजन्! तीनों लोकों में तुम्हारी निशानी रहेगी। जैसे सतयुग में सत्यवादी हरिश्चंद्र, त्रेता में दानी बलि और द्वापर में धर्मात्मा युधिष्ठिर हुए, वैसे ही कलियुग में तुम हो। चारों युग में तुम जैसा राजा न हुआ है, न होगा।"
देवता चले गये। इतने में राजा देखता क्या है कि सामने से एक हिरन चला आ रहा है। राजा ने उसे मारने को तीर-कमान उठाई तो वह बोला, "मुझे मारो मत। मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था। मुझे यती ने शाप देकर हिरन बना दिया और कहा कि राजा विक्रमादित्य के दर्शन करके तू फिर आदमी बन जायगा।"
इतना कहते-कहते हिरन गायब हो गया और उसी जगह एक ब्राह्मण खड़ा हो गया। राजा ने उसे बहुत-सा धन देकर विदा किया।
पुतली बोली: हे राजन्! अगर तुम अपना भला चाहते हो तो इस सिंहासन को ज्यों-का-त्यों गड़वा दो। पर राजा का मन न माना।
अगले दिन वह फिर उधर बढ़ा तो आखिरी, बत्तीसवीं पुतली ने, जिसका नाम भासमती था, उसे रोक दिया।
पुतली बोली: हे राजन्! पहले मेरी बात सुनो।

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