"द्रव्य (जैन धर्म)": अवतरणों में अंतर
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'''द्रव्य''' एक [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] शब्द है जिसका अर्थ '[[पदार्थ]]' होता है। [[जैन दर्शन]] में मूल अवधारणा है। [[जैन]] पांच अस्तिकायों या अस्तित्व की शाश्वत श्रेणीयों के अस्तित्व में विश्वास करते है, जो मिल कर अस्तित्व के [[द्रव्य]] या [[तत्व]] बनाते हैं। ये पांच है- [[धर्म]], अधर्म,[[आकाश]], पुद्गल और जीव। | '''द्रव्य''' एक [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] शब्द है जिसका अर्थ '[[पदार्थ]]' होता है। [[जैन दर्शन]] में मूल अवधारणा है। [[जैन]] पांच अस्तिकायों या अस्तित्व की शाश्वत श्रेणीयों के अस्तित्व में विश्वास करते है, जो मिल कर अस्तित्व के [[द्रव्य]] या [[तत्व]] बनाते हैं। ये पांच है- [[धर्म]], अधर्म,[[आकाश]], पुद्गल और जीव। | ||
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14:03, 28 अगस्त 2014 के समय का अवतरण
द्रव्य एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ 'पदार्थ' होता है। जैन दर्शन में मूल अवधारणा है। जैन पांच अस्तिकायों या अस्तित्व की शाश्वत श्रेणीयों के अस्तित्व में विश्वास करते है, जो मिल कर अस्तित्व के द्रव्य या तत्व बनाते हैं। ये पांच है- धर्म, अधर्म,आकाश, पुद्गल और जीव। जैन धर्म में धर्म का विशिष्ट अर्थ आगे बढ़ने का माध्यम और अधर्म का अर्थ विश्राम है, जो प्राणियों के चलने और रुकने में सहायक है। आकाश वह स्थान है, जहां हर वस्तु का अस्तित्व है। ये तीनों श्रेणियां अनूठी और निष्क्रय है। पुद्गल (पदार्थ) और जीव (आत्मा) सक्रिय, असीमित, परंतु संख्या में स्थिर हैं। इनमें से केवल पुद्गल प्रत्यक्ष है और जीव चेतन है। दिगंबर मत ने बाद में द्रव्य की छठी श्रेणी को सम्मिलित किया। यह था काल, जो शाश्वत है, परंतु सार्वभौमिक नहीं, क्योंकि यह विश्व की बाह्मतम परतों में नहीं होता। जड़ वस्तु और आत्मा को पूरी तरह अलग करने वाला जैन धर्म भारतीय दर्शन शाखा में सबसे पुराना है।
नोट: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से द्रव्यमान से संबंधित द्रव्य शब्द इससे भिन्न है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख