"सिंह, चूहा और बिलाव की कहानी": अवतरणों में अंतर

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'''सिंह, चूहा और बिलाव की कहानी''' [[हितोपदेश]] की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता [[नारायण पंडित]] हैं।
===3. सिंह, चूहा और बिलाव की कहानी===
==कहानी==
 
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उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --
उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --
 
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क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।  
क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।  
तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।
तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।
 
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अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।
अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।


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उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदारंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --
उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदारंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --
 
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क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।  
क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।  
तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।
तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।
 
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अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।
अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।


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फिर एक दिन भूख के मारे बाहर घूमते हुए उस चूहे को बिलाव ने पकड़ लिया और मार डाला। बाद में उस सिंह ने बहुत समय तक जब चूहे को ने देखा और उसका शब्द भी न सुना, तब उसके उपयोगी न होने से बिलाव के भोजन देने में भी कम आदर करने लगा। फिर दधिकर्ण आहारबिहार से दुर्बल हो कर मर गया।
फिर एक दिन भूख के मारे बाहर घूमते हुए उस चूहे को बिलाव ने पकड़ लिया और मार डाला। बाद में उस सिंह ने बहुत समय तक जब चूहे को ने देखा और उसका शब्द भी न सुना, तब उसके उपयोगी न होने से बिलाव के भोजन देने में भी कम आदर करने लगा। फिर दधिकर्ण आहारबिहार से दुर्बल हो कर मर गया।


 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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14:36, 9 अक्टूबर 2014 के समय का अवतरण

सिंह, चूहा और बिलाव की कहानी हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता नारायण पंडित हैं।

कहानी

उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --

क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।
तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।

अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।

यह सोचकर उसने गाँव में जा कर भरोसा दे कर दधिकर्ण नामक बिलाव को यत्न से ला कर माँस का आहार दे कर अपनी गुफा में रख लिया। बाद में उसके भय से चूहा भी बिल से नहीं निकलने लगा -- जिससे यह सिंह बालों के नहीं कटने के कारण सुख से सोने लगा। जब चूहे का शब्द सुनता था तब तब माँस के आहार से उस बिलाव को तृप्त करता था।

फिर एक दिन भूख के मारे बाहर घूमते हुए उस चूहे को बिलाव ने पकड़ लिया और मार डाला। बाद में उस सिंह ने बहुत समय तक जब चूहे को ने देखा और उसका शब्द भी न सुना, तब उसके उपयोगी न होने से बिलाव के भोजन देने में भी कम आदर करने लगा। फिर दधिकर्ण आहारबिहार से दुर्बल हो कर मर गया।

उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदारंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --

क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।
तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।

अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।

यह सोचकर उसने गाँव में जा कर भरोसा दे कर दधिकर्ण नामक बिलाव को यत्न से ला कर माँस का आहार दे कर अपनी गुफा में रख लिया। बाद में उसके भय से चूहा भी बिल से नहीं निकलने लगा -- जिससे यह सिंह बालों के नहीं कटने के कारण सुख से सोने लगा। जब चूहे का शब्द सुनता था तब तब माँस के आहार से उस बिलाव को तृप्त करता था।

फिर एक दिन भूख के मारे बाहर घूमते हुए उस चूहे को बिलाव ने पकड़ लिया और मार डाला। बाद में उस सिंह ने बहुत समय तक जब चूहे को ने देखा और उसका शब्द भी न सुना, तब उसके उपयोगी न होने से बिलाव के भोजन देने में भी कम आदर करने लगा। फिर दधिकर्ण आहारबिहार से दुर्बल हो कर मर गया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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