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==सन्न्यासी को गाड़ने की प्रथा==


==ऋग्वेद के सूक्त==
यति (सन्न्यासी) को प्राचीन काल में भी गाड़ा जाता था। ऊपर ऋतु का मत प्रकाशित किया गया है कि ब्रह्मचारी एवं यति का शव उत्तपन अग्नि से जलाया जाता है। इस विषय में शुद्धिप्रकाश<ref>शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 166</ref> ने व्याख्या उपस्थित की है कि यहाँ पर यति कुटीचक श्रेणी का सन्न्यासी है और उसने यह भी बताया है कि चार प्रकार के सन्न्यासी लोगों (कुटीचक, बहूदक, हंस एवं परमहंस) की अन्त्येष्टि किस प्रकार से की जाती है। बौधायनपितृमेधसूत्र<ref>बौधायनपितृमेधसूत्र 3.11</ref> ने संक्षेप में लिखा है, जिसे स्मृत्यर्थसार<ref>स्मृत्यर्थसार, पृष्ठ 98</ref> ने कुछ अन्तरों के साथ ग्रहण कर लिया है और परिव्राजक की अन्त्येष्टि क्रिया का वर्णन उपस्थित किया है-किसी को ग्राम के पूर्व या दक्षिण में जाकर पलाश वृक्ष के नीचे या नदी तट पर या किसी अन्य स्वच्छ स्थल पर व्याहृतियों के साथ यति के दण्ड के बराबर गहरा गड्ढा खोदना चाहिए; इसके उपरान्त प्रत्येक बार सात व्याहृतियों के साथ उस पर तीन बार जल छिड़कना चाहिए, गड्ढे में दर्भ बिछा देना चाहिए, माला, चन्दनलेप आदि से शव को सजा देना चाहिए और मन्त्रों<ref>तैत्तिरीय संहिता 1.1.3.1</ref> के साथ शव को गड्ढे में रख देना चाहिए। परिव्राजक के दाहिने हाथ में दण्ड तीन खण्डों में करके थमा देना चाहिए, और ऐसा करते समय ऋग्वेद;<ref>ऋग्वेद 1.22.17</ref> वाजसनेयी संहिता<ref>वाजसनेयी संहिता 5.15</ref> एवं तैत्तिरीय संहिता<ref>तैत्तिरीय संहिता 1.2.13.1</ref> का मन्त्रपाठ करना चाहिए। शिक्य को बायें हाथ में मन्त्रों<ref>तैत्तिरीय संहिता 4.2.5.2</ref> के साथ रखा जाता है और फिर क्रम से पानी छानने वाला वस्त्र मुख पर<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.4.8.6 के मन्त्र के साथ</ref>, गायत्री मन्त्र<ref>ऋग्वेद 3.62.10; वाजसनेयी संहिता 3.35; तैत्तिरीय संहिता 1.5.6.4</ref> के साथ पात्र को पेट पर और जलपात्र को गुप्तांगों के पास रखा जाता है। इसके उपरान्त 'चतुर्होतार:' मन्त्रों का पाठ किया जाता है। अन्य कृत्य नहीं किये जाते, न तो शवदाह होता है, न अशौच मनाया जाता है और न जल-तर्पण ही किया जाता है, क्योंकि यति संसार की विषयवासना से मुक्त होता है।  
श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों एवं पश्चात्कालीन ग्रन्थों में उल्लिखित अन्त्य कर्मों को उपस्थित करने के पूर्व ऋग्वेद के पाँच सूक्तों<ref>ऋग्वेद 10|14-18</ref> का अनुवाद इस प्रकार है। इन सूक्तों की ऋचाएँ (मन्त्र) बहुधा सभी सूत्रों द्वारा प्रयुक्त हुई हैं और उनका प्रयोग आज भी अन्त्येष्टि के समय होता है और उनमें अधिकांश वैदिक संहिताओं में भी पायी जाती हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य टीकाकारों ने इन मन्त्रों की टीका एवं व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है।<ref>श्री बेर्ट्रम एस. पकिल (Bertrum S. Puckle) ने अपनी पुस्तक ‘फ़्यूनरल कस्टम्स’ (Funeral Customs : London 1926) में अन्त्य कर्मों आदि के विषय में बड़ी मनोरंजक बातें दी हैं। उन्होंने [[इंग्लैण्ड]], [[फ़्राँस]] आदि यूरोपीय देशों, [[यहूदी|यहूदियों]] तथा विश्व के अन्य भागों के अन्त्य कर्मों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन किया है। उनके द्वारा उपस्थापित वर्णन प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय विश्वासों एवं आचारों से बहुत मेल खाते हैं, यथा-जहाँ व्यक्ति रोगग्रस्त पड़ा रहता है, वहाँ काक (काले कौआ) या काले पंख वाले पक्षी का उड़ते हुए बैठ जाना मृत्यु की सूचना है (पृष्ठ 17), कब्र में गाड़ने के पूर्व शव को स्नान कराना या उस पर लेप करना (पृष्ठ 34 एवं 36), मृत व्यक्ति के लिए रोने एवं शोक प्रकट करने के लिए पेशेवर स्त्रियों को भाड़े पर बुलाना (पृष्ठ 67), रात्रि में शव को न गाड़ना (पृष्ठ 77), सूतक के कारण क्षौरकर्म करना (पृष्ठ 91), मृत के लिए कब्र पर मांस एवं मद्य रखना (पृष्ठ 99-100), कब्रगाह में बपतिस्मा-रहित बच्चों, आत्महन्ताओं, पागलों एवं जातिच्युतों को न गाड़ने देना (पृष्ठ 143)।</ref>
====प्रथम सूक्त====
ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 10|14</ref> में प्रथम सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
#"(यजमान!) उस यम की पूजा करो, जो (पितरों का) राजा है, विवस्वान् का पुत्र है, (मृत) पुरुषों को एकत्र करने वाला है, जिसने (शुभ कर्म करने वाले) बहुतों के लिए मार्ग खोज डाला है और जिसने महान (अपार्थिव) ऊँचाइयाँ पार कर ली हैं।
#हम लोगों के मार्ग का ज्ञान सर्वप्रथम यम को हुआ; वह ऐसा चारागाह (निवास) है, जिसे कोई नहीं छीन सकता, वह वही निवास-स्थान है, जहाँ हमारे प्राचीन पूर्वज अपने-अपने मार्ग को जानते हुए गये।
#मातलि (इन्द्र के सारथि या स्वयं इन्द्र) 'काव्य' नामक (पितरों) के साथ, यम [[अंगिरस|अंगिरसों]] के साथ एवं [[बृहस्पति]] ऋक्वनों के साथ समृद्धिशाली होते हैं (शक्ति में वृद्धि पाते हैं); जिन्हें (अर्थात् पितरों को) देवगण आश्रय देते हैं और जो देवगण को आश्रय देते हैं; उनमें कुछ लोग (देवगण, इन्द्र तथा अन्य) स्वाहा से प्रसन्न होते हैं और अन्य लोग (पितर) स्वधा से प्रसन्न होते हैं।<ref>काव्य, अंगिरस एवं ऋक्वन् लोग पितरों की विभिन्न कोटियों के द्योतक हैं। ऋग्वेद 7|10|4</ref> में ऋक्वन (गायक) लोग बृहस्पति से सम्बन्धित हैं। अन्य स्थानों पर वे विष्णु, अज-एकपाद एवं सोम से भी सम्बन्धित माने गये हैं। स्वाहा का उच्चारण देवगण को आहुति देते समय तथा स्वधा का उच्चारण पितरों को आहुति देते समय किया जाता है।</ref>  
#हे यम! अंगिरस् नामक पितरों के साथ एकमत होकर इस [[यज्ञ]] में जाओ और (कुशों के) आसन पर बैठो। विज्ञ लोगों (पुरोहितों) द्वारा कहे जाने वाले मन्त्र तुम्हें (यहाँ) लायें। (राजन्!) इस आहुति से प्रसन्न होओ।
#हे यम! अंगिरसों एवं वैरूपों (के साथ जाओ) और आनन्दित होओ। मैं तुम्हारे पिता विवस्वान का आह्वान करता हूँ; यज्ञ में बिछे हुए कुशासन पर बैठकर (वे स्वयं आनन्दित हों)।<ref>वैरूप लोग अंगिरसों की उपकोटि में आते हैं।</ref>  
#अंगिरस, नवग्व, अथर्व एवं भृगु लोग हमारे पितर हैं और सोम से प्रीति रखते हैं। हमें उन श्रद्धास्पदों की सदिच्छा प्राप्त हो! हमें उनका कल्याणप्रद अनुग्रह भी प्राप्त हो!
#जिन मार्गों से हमारे पूर्वज गये, उन्हीं प्राचीन मार्गों से शीघ्रता करके जाओ। तुम लोग (अर्थात् मृत लोग) यम एवं वरुण नामक दो राजाओं को स्वेच्छापूर्वक आनन्द मनाते हुए देखो।<ref>यह और आगे आने वाले तीन मन्त्र मृत लोगों को सम्बोधित हैं।</ref>
#हे मृत! उच्चतम स्वर्ग में पितरों, यम एवं अपने इष्टापूर्त के साथ जा मिलो।<ref>देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 35, जहाँ इष्टापूर्त की व्याख्या उपस्थित की गई है। इष्टापूर्त का अर्थ है, यज्ञकर्मों (इष्ट) एवं दान-कर्मों (पूर्त) से उत्पन्न समन्वित आध्यात्मिक अथवा पारलौकिक फलोत्पत्ति।</ref> अपने पापों को वहीं छोड़कर अपने घर को लौट जाओ! दिव्य ज्योति से परिपूर्ण हो (नवीन) शरीर से जा मिलो!<ref>पितृलोक के आनन्दों की उपलब्धि के लिए मृतात्मा के वायव्य शरीर की कल्पना की गयी है। यह ऋग्वेदीय कल्पना अपूर्व है।</ref>
#हे दुष्टात्माओं! दूर हटो, प्रस्थान करो, इस स्थान (श्मशान) से अलग हट जाओ; पितरों ने उसके (मृत) के लिए यह स्थान (निवास) निर्धारित किया है। यम ने उसको यह विश्रामस्थान दिया है, जो जलों, दिवसों एवं रातों से भरा-पूरा है।
#हे मृतात्मा! शीघ्रता करो, अच्छे मार्ग से बढ़ते हुए सरमा की संतान (यम के) दो कुत्तों से, जिन्हें चार आंखें प्राप्त हैं, बचकर बढ़ो। इस प्रकार अपने पितरों के साथ पहुँचो, जो तुम्हें पहचान लेंगे और जो स्वयम् यम के साथ आनन्दोपभोग करते हैं।
#हे राजा यम! इसे (मृतात्मा को) उन अपने दो कुत्तों से, जो रक्षक हैं, चार-चार आंख वाले हैं, जो पितृलोक के मार्ग की रक्षा करते हैं और मनुष्यों पर दृष्टि रखते हैं, सुरक्षा दो। तुम इसको आनन्द और स्वास्थ्य दो।
#यम के दो दूत, जिनके नथुने चौड़े होते हैं, जो अति शक्तिशाली हैं और जिन्हें कठिनाई से संतुष्ट किया जा सकता है, मनुष्यों के बीच में विचरण करते हैं। वे दोनों (दूत) हमें आज वह शुभ जीवन फिर से प्रदान करें, जिससे कि हम सूर्य को देख सकें।
#हे पुरोहितों! यम के लिए सोमरस निकालो, यम को आहुति दो। वह यज्ञ, जिससे अग्नि देवों तक ले जाने वाला दूत कहा गया है और जो पूर्णरूपेण संन्नद्ध है, यम के पास पहुँचता है।
#पुरोहितों! घी-मिश्रित आहुतियों यम को दो और तब प्रारम्भ करो। वह हमें देवपूजा में लगे रहने दे, जिससे हमें लम्बी आयु प्राप्त हो।
#यमराज को अत्यन्त मधुर आहुति दो, यह प्रणाम उन ऋषियों को है, जो हमसे बहुत पहले उत्पन्न हुए थे और जिन्होंने हमारे लिए मार्ग बनाया। वह बृहत् (बृहत्साम) तीन यज्ञों में और छ: बृहत् विस्तारों में विचरता है। त्रिष्टुप्, गायत्री आदि छन्द-सभी यम में केन्द्रित हैं।"
====द्वितीय सूक्त====
ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 10|15</ref> में द्वितीय सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
#"सोम-निम्न, मध्यम या उत्तरतर श्रेणियों के स्नेही [[पितर]] लोग आगे आंयें, और वे पितर लोग भी जिन्होंने शाश्वत जीवन या मृतात्मा का रूप धारण किया है, कृपालु हों और आगे आयें, क्योंकि वे दयापूर्ण एवं ऋतु के ज्ञाता हैं। वे पितर लोग, जिनका हम आह्वान करें, हमारी रक्षा करें।
#आज हमारा प्रणाम उन पितरों को है जो (इस मृत के जन्म के पूर्व ही) चले गये या (इस मृत के जन्मोपरान्त) बाद को गये, और (हम उन्हें भी प्रणाम करते हैं) जो इस विश्व में विराजमान हैं या जो शक्तिशाली लोगों के बीच स्थान ग्रहण करते हैं।
#मैं उन पितरों को जान गया हूँ जो मुझे (अपना वंशज) पहचानेंगे और मैं विष्णु के पादन्यास एवं उनके बच्चे (अर्थात् अग्नि) को जान गया हूँ। वे पितर, जो कुशों पर बैठते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार हवि एवं सोम ग्रहण करते हैं, बारम्बार यहाँ आयें।
#हे कुशासन पर बैठने वाले पितर लोगों, (नीचे) अपनी रक्षा लेकर हमारी ओर आओ; हमने आपके लिए हवि तैयार कर रखी है; इन्हें ग्रहण करो। कल्याणकारी रक्षा के साथ आओ और ऐसा आनन्द दो जो दु:ख से रहित हो।
#कुश पर रखी हुई प्रिय निधियों (हव्यों) को ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित सोमप्रिय पितर लोग आयें। वे हमारी स्तुतियाँ (यहाँ) सुने। वे हमारे पक्ष में बोलें और हमारी रक्षा करें।
#हे पितर लोगों, आप सभी, घुटने मोड़कर एवं हव्य की दायीं ओर बैठकर यज्ञ की प्रशंसा करें; मनुष्य होने के नाते हम आपके प्रति जो ग़लती करें, उसके लिए आप हमें पीड़ा न दें।
#पितर लोग अग्नि की दिव्य ज्वाला के सामने (उसकी गोद में) बैठकर मुझ मर्त्य यजमान को धन दें। आप मृत व्यक्ति के पुत्रों को धन दें और उन्हें शक्ति दें।
#यम हमारे जिन पुराने एवं समृद्ध पितरों संगीत का आनन्द उठाते हैं, वे सोमपान के लिए एक-एक करके आयें, जो यशस्वी थे और जिनकी संगति में (पितरों के राजा) यम को आनन्द मिलता है, वह (हमारे द्वारा दिये गये) हव्य स्वेच्छापूर्वक ग्रहण करें।
#हे अग्नि, उन पितरों के साथ जाओ, जो तृषा से व्याकुल थे और (देवों के लोकों में पहुँचने में) पीछे रह जाते थे, जो यज्ञ के विषय में जानते थे और जो स्तुतियों के रूप में स्तोमों के प्रणेता थे, जो हमें भली-भाँति जानते थे, वे (हमारी पुकार) अवश्य सुनते हैं। जो काव्य नामक हवि ग्रहण करते हैं और जो गर्म दूध के चतुर्दिक बैठते हैं।
#हे अग्नि, उन अवश्य आने वाले पितरों के साथ पहले और समय से कालान्तर में जाओ और जो (दिये हुए) हव्य ग्रहण करते हैं, जो हव्य का पान करते हैं, जो उसी रथ में बैठते हैं, जिसमें इन्द्र एवं अन्य देव विराजमान हैं, जो सहस्रों की संख्या में देवों को प्रणाम करते हैं और जो गर्म दूध के चतुर्दिक बैठते हैं।
#हे अग्निष्वात्त नामक पितर लोगों, जो अच्छे पथप्रदर्शक कहे जाते हैं, (इस यज्ञ में) आओ और अपने प्रत्येक उचित आसन पर विराजमान होओ। (दिये हुए) पवित्र हव्य को, जो कुश पर रखा हुआ है, ग्रहण करो और शूर पुत्रों के साथ समृद्धि दो।
#हे जातवेदा अग्नि, (हम लोगों द्वारा) प्रशंसित होने पर, हव्यों को स्वादयुक्त बना लेने पर और उन्हें लाकर (पितरों को) दे देने पर वे उन्हें अभ्यासवश ग्रहण करें। हे देव, आप पूत हव्यों को खायें।
#हे जातवेदा, आप जानते हैं कि कितने पितर हैं, यथा-वे जो यहाँ (पास) हैं, जो यहाँ नहीं हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम नहीं जानते हैं (क्योंकि वे हमारे ऊपर दूर के पूर्वज हैं)। आप इस भली प्रकार बने हुए हव्य को अपने आचरण के अनुसार कृपा कर ग्रहण करें।
#हे अग्नि, उनके (पितरों के) साथ जो (जिनके शरीर) अग्नि से जला दिये गए थे, जो नहीं जलाये गए थे और जो स्वधा के साथ आनन्दित होते हैं, आप मृत की इच्छा के अनुसार शरीर की व्यवस्था करें, जिससे नये जीवन (स्वर्ग) में उसे प्रेरणा मिले।"
====तृतीय सूक्त====
ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 10|16</ref> में तृतीय सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
#"हे अग्नि! इस (मृत व्यक्ति ?) को न जलाओ, चतुर्दिक इसे न झुलाओ, इसके चर्म (के भागों को) इतस्तत: न फेंको; हे जातवेदा (अग्नि)! जब तुम इसे भली प्रकार जला लो तो इसे (मृत को) पितरों के यहाँ भेज दो।
#हे जातवेदा! जब तुम इसे पूर्णरूपेण जला लो तो इसे पितरों के अधीन कर दो। जब यह (मृत व्यक्ति) उस मार्ग का अनुसरण करता है, जो इसे (नव) जीवन की ओर ले जाता है, तो यह वह हो जाये जो देवों की अभिलाषाओं को होता है।
#तुम्हारी आंखें सूर्य की ओर जायें, तुम्हारी साँस हवा की ओर जाये और तुम अपने गुणों के कारण स्वर्ग या पृथिवी को जाओ या तुम जल में जाओ, यदि तुम्हें वहाँ आनन्द प्राप्त हो (या यदि यहीं तुम्हारा भाग्य हो तो), अपने सारे अंगों के साथ तुम ओषधियों (जड़ी-बूटियों) में विराजमान होओ।
#हे जातवेदा, तुम उस बकरी को जला डालो, जो तुम्हारा भाग है, तुम्हारी ज्वाला, तुम्हारा दिव्य प्रकाश उस बकरी को जला डाले;<ref>ऋग्वेद (10।16।4)......अजो भाग:-इससे उस बकरी की ओर संकेत है, जो शव के साथ ले जायी जाती थी। और देखिए ऋग्वेद (10|6|7), जहाँ शव के साथ गाय के जलाने की बात कही गयी है।</ref> तुम इसे (मृत को) उन लोगों के लोक में ले जाओ, जो तुम्हारे कल्याणकारी शरीरों (ज्वालाओं) के द्वारा अच्छे कर्म करते हैं।
#हे अग्नि, (इस मृत को) पितरों की ओर छोड़ दो, यह जो तुम्हें अर्पित है, चारों ओर धूम रहा है। हे जातवेदा, यह (नव) जीवन ग्रहण करे और अपने हव्यों को बढ़ाये तथा एक नवीन (वायव्य) शरीर से युक्त हो जाए।
#हे मृत व्यक्ति! वह अग्नि जो सब कुछ जला डालता है, तुम्हारे उस शरीरांग को दोषमुक्त कर दे, जो काले पक्षी (कौआ) द्वारा काट लिया गया है, या जिसे चींटी या सर्प या जंगली पशु ने काटा है, और ब्राह्मणों में प्रविष्ट सोम भी यही करे।
#हे मृत व्यक्ति! तुम गायों के साथ अग्नि का कवच धारण करो (अर्थात् अग्नि की ज्वालाओं से बचने के लिए गाय का चर्म धारण करो) और अपने को मोटे मांस से छिपा लो, जिससे (वह अग्नि) जो अपनी ज्वाला से घेर लेता है, जो (वस्तुओं को नष्ट करने में) आनन्दित होता है, जो तीक्ष्ण है और पूर्णतया भस्म कर देता है, (तुम्हारे भागों को) इधर-उधर बिखेर न दे।
#हे अग्नि, इस प्याले को, जो देवों को एवं सोमप्रिय (पितरों) को प्रिय है, नष्ट न करो। इस चमस (चम्मच या प्याले) में, जिससे देव पीते हैं, अमर देव लोग आनन्द लेते हैं।
#जो अग्नि कच्चे मांस का भक्षण करता है, मैं उसे बहुत दूर भेज देता हूँ, वह अग्नि जो दुष्कर्मों (पापों) को ढोता है, यम लोक को जाए! दूसरा अग्नि (जातवेदा), जो सब कुछ जानता है, देवों को अर्पित हव्य ग्रहण करे।
#मैं, पितरों को हव्य देने के हेतु (जातवेदा) अग्नि को निरीक्षित करता हुआ, कच्चा मांस खाने वाले अग्नि को पृथक करता हूँ, जो तुम्हारे घर में प्रविष्ट हुआ था; वह (दूसरा अग्नि) धर्म (गर्म दूध या हव्य) को उच्चतम लोक की ओर प्रेरित करे।<ref>यह मन्त्र कुछ जटिल है। यदि इस मन्त्र के शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दें तो प्रकट होता है कि 'क्रव्याद्' अग्नि पितृयज्ञ में प्रयुक्त होती है। ऐसा कहना सम्भव है कि 'क्रव्याद्' अग्नि को अपवित्र माना जाता था और वह साधारण या यज्ञिय अग्नि से पृथक थी।</ref>  
#वह अग्नि जो हव्यों को ले जाता है, ऋत के अनुसार समृद्धि पाने वाले पितरों को उसे दे। वह देवों एवं पितरों को हव्य दे।
#हे अग्नि! हमने, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तुम्हें प्रतिष्ठापित किया है और जलाया है। तुम प्यारे पितरों को यहाँ ले आओ, जो हमें प्यार करते हैं और वे हव्य ग्रहण करें।
#हे अग्नि! तुम उस स्थल को, जिसे तुमने शवदाह में जलाया, (जल से) बुझा दो। कियाम्बु (पौधा) यहाँ उगे और दूर्वा घास अपने अंकुरों को फैलाती हुई यहाँ उगे।
#हे शीतिका (शीतल पौधे), हे शीतलाप्रद औषधि, हे ह्लादिका (तरोताजा करने वाली बूटी) आनन्द बिखेरती हुई मेढकी के साथ पूर्णरूपेण घुल-मिल जाओ। तुम इस अग्नि का आनन्दित करो।"
====चतुर्थ सूक्त====
ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 10|17</ref> में चतुर्थ सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
इस सूक्त के तीन से लेकर छ: तक के मन्त्रों को छोड़कर अन्य मन्त्र अन्त्येष्टि पर प्रकाश नहीं डालते, अत: हम केवल चार मन्त्रों को ही अनूदित करेंगे।
1,2. प्रथम दो मन्त्र त्वष्टा की कन्या एवं विवस्वान् के विवार एवं विवस्वान् से उत्पन्न यम एवं यमी के जन्म की ओर संकेत करते हैं। निरुक्त<ref>निरुक्त 12|10-11</ref> में दोनों की व्याख्या विस्तार से दी हुई है। सरस्वती की स्तुति वाले मन्त्र (7-9) [[अथर्ववेद]]<ref>[[अथर्ववेद]] 18|1|41-43</ref> में भी पाये जाते हैं। और कौशिकसूत्र<ref>कौशिकसूत्र  81-39</ref> में उन्हें अथर्ववेद<ref>अथर्ववेद 7|68|1-2 एवं 18|3|25</ref> के साथ अन्त्येष्टि कृत्य के लिए प्रयुक्त किया गया है।  


3."सर्वविज्ञ पूषा, जो पशुओं को नष्ट नहीं होने देता और विश्व की रक्षा करता है, तुम्हें इस लोक से (दूसरे लोक में) भेजे। वह तुम्हें इन पितरों के अधीन कर दे और अग्नि तुम्हें जानने वाले देवों के अधीन कर दे।
स्मृत्यर्थसार ने इतना जोड़ दिया है कि न तो एकोद्दिष्ट श्राद्ध और न सपिण्डीकरण ही किया जाता है, केवल ग्यारहवें दिन पार्वण श्राद्ध होता है। किन्तु कुटिचक जलाया जाता है, बहूदक गाड़ा जाता है, हंस को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है और परमहंस को भली-भाँति गाड़ा जाता है।<ref>निर्णयसिन्धु, पृष्ठ 634-635</ref> गाड़ने के उपरान्त गड्ढे को भली-भाँति बालू से ढँक दिया जाता है, जिससे कुत्ते, श्रृगाल आदि शव को (पंजों से गड्ढा खोदकर) निकाल न डालें। धर्मसिंधु<ref>धर्मसिंधु, पृष्ठ 497</ref> ने लिखा है कि मस्तक को शंख या कुल्हाड़ी से छेद देना चाहिए, यदि ऐसा करने में असमर्थता प्रदर्शित हो तो मस्तक पर गुड़ की भेली रखकर उसे ही तोड़ देना चाहिए। इसने भी यही कहा है कि कुटीचक को छोड़कर कोई यति नहीं जलाया जाता। आजकल सभी यति गाड़े जाते हैं, क्योंकि बहूदक एवं कुटीचक आजकल पाये नहीं जाते, केवल परमहंस ही देखने में आते हैं। यतियों को क्यों गाड़ा जाता है? सम्भवत: उत्तर यही हो सकता है कि वे गृहस्थों की भाँति श्रौताग्नियाँ या स्मार्ताग्नियाँ नहीं रखते और वे लोग भोजन के लिए साधारण अग्नि भी नहीं जलाते। गृहस्थ लोग अपनी श्रौत या स्मार्त अग्नियों के साथ जलाये जाते हैं, किन्तु यति लोग बिना अग्नि के होते हैं, अत: गाड़े जाते हैं।<ref>गाड़ने की विधि के लिए देखिए वैखानसस्मार्तसूत्र (10.8</ref>
==गर्भिणी नारी के शवदाह के नियम==
जो स्त्रियाँ बच्चा जनते समय या जनने के तुरन्त उपरान्त ही या मासिक धर्म की अवधि में मर जाती हैं, उनके शवदाह के विषय में विशिष्ट नियम हैं। मिताक्षरा द्वारा उद्धृत एक स्मृति एवं स्मृतिचंद्रिका<ref>स्मृति एवं स्मृतिचंद्रिका (1, पृष्ठ 121)</ref> ने सूतिका के विषय में लिखा है कि एक पात्र में जल एवं पंचगव्य लेकर मन्त्रोचारण<ref>ऋग्वेद 10.9.1-9, 'आपो हि ष्ठा'</ref> करना चाहिए और उससे सूतिका को स्नान कराकर जलाना चाहिए। मासिक धर्म वाली मृत नारी को भी इसी प्रकार जलाना चाहिए, किन्तु उसे दूसरा वस्त्र पहनाकर जलाना चाहिए।<ref>देखिए गरुड़पुराण (2.4.171) एवं निर्णयसिंधु (पृष्ठ 621)</ref> इसी प्रकार गर्भिणी नारी के शव के विषय में भी नियम हैं<ref>बौधायनपितृमेधसूत्र 3.9; निर्णयसिंधु, पृष्ठ 622</ref>
==विभिन्न कालों में शव-क्रिया==
विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में शव-क्रिया (अन्त्येष्टि क्रिया) विभिन्न ढंगों से की जाती रही है। अन्त्येष्टि क्रिया के विभिन्न प्रकार ये हैं-जलाना (शवदाह), भूमि में गाड़ना, जल में बहा देना, शव को खुला छोड़ देना, जिससे चील, गिद्ध, कोए या पशु आदि उसे खा लें (यथा पारसियों में)<ref>पारसियों के शास्त्रों के अनुसार शव को गाड़ देना महान अपराध माना जाता है। यदि शव क़ब्र से बाहर नहीं निकाला गया तो मज्द के क़ानून के प्राध्यापक (शिक्षक) के विषय में कोई प्रायश्चित नहीं है, या उसके लिए भी कोई प्रायश्चित नहीं है, जिसने मज्द के क़ानून को पढ़ा है, और जब वे छ: मास या एक वर्ष के भीतर शव को क़ब्र से बाहर नहीं निकालते तो उन्हें क्रम से 500 या 1000 कोड़े खाने पड़ते हैं। देखिए वेंडिडाड, फ़र्गार्ड 3 (सैक्रेड बुक आफ़ दि ईस्ट, जिल्द 4, पृष्ठ 31-32)। पर्वतों के शिखरों पर शव रख दिये जाते हैं और उन्हें पक्षीगण एवं कुत्ते खा डालते हैं। शव को खुला छोड़ देना मज्द रीति की अत्यन्त विचित्र बात है।</ref>, गुफ़ाओं में सुरक्षित रख छोड़ना या ममी रूप में (यथा मिस्र में) सुरक्षित रख छोड़ना।<ref>पियाज्ज़ा बर्बेरिनी के पास रोम के कपूचिन चर्च के भूगर्भ क़ब्रगाहों की दीवारों में 4000 पादरियों की हड्डियाँ सुरक्षित हैं। देखिए पक्ल की पुस्तक 'फ़्यूनरल कस्टम्स (पृष्ठ 136)'।</ref> जहाँ तक हमें साहित्यिक प्रमाण मिलता है, भारत में सामान्य नियम शव को जला देना ही था, किन्तु अपवाद भी थे, यथा-शिशुओं, सन्न्यासियों आदि के विषय में। प्राचीन भारतीयों ने शवदाह की वैज्ञानिक किन्तु कठोर हृदय वाली विधि किस प्रकार निकाली, यह बतलाना कठिन है। प्राचीन भारत में शव को गाड़ देने की बात अज्ञात नहीं थी।<ref>अथर्ववेद 5.30.14 'मा नु भूमिगृहो भुवत' एवं 18.2.34</ref> अन्तिम मन्त्र का रूप यों है-"हे अग्नि, उन सभी पितरों को यहाँ ले आओ, जिससे कि वे हवि ग्रहण करें, उन्हें भी बुलाओ, जिनके शरीर गाड़े गये थे या खुले रूप में छोड़ दिये गये थे या ऊपर (पेड़ों पर या गुहाओं में?) रख दिये गये थे।<ref>ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिता:। सर्वास्तानग्न आ वह पितृन् हविषे अत्तवे।। अथर्ववेद (18.2.14)।</ref> किन्तु सम्भव है कि शव के गाड़ने की ओर संकेत न भी हो। कुछ पूर्वज बहुत दूर लड़ाई में मारे गये हों, या शत्रुओं द्वारा पकड़ लिये गये हों, मार डाले गये हों और उनके शव यों ही छोड़ दिये गये हों, अर्थात् न तो उन्हें जलाया गया, न गाड़ दिया गया। छान्दोग्योपनिषद<ref>छान्दोग्योपनिषद 8.8.5</ref> में आये हुए एक कथन से कुछ विद्वान गाड़ने की बात निकालते हैं-'अत: वे उन भी मनुष्यों को असुर नाम देते हैं, जो दान नहीं देते, जो विश्वास नहीं रखते (धर्म नहीं मानते) और न ही यज्ञ करते हैं; क्योंकि यह असुरों का गूढ़ सिद्धान्त है। वे मृत के शरीर को भिक्षा (धूप-गंध या पुष्प?) एवं वस्त्र से सँवारते हैं और सोचते हैं कि वे इस प्रकार दूसरे लोक को जीत लेंगे।' यद्यपि यह वचन स्पष्ट नहीं है किन्तु असुरों, उनके शव श्रृंगार और परलोक प्राप्ति की ओर जो संकेत हैं, उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि असुरों में शव को गाड़ने की प्रथा सम्भवत: थी। ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 7.89.1</ref> में ऋषि ने प्रार्थना की है कि 'हे वरुण, मैं मिट्टी के घर में न जाऊँ।' सम्भवत: यह गाड़ने की प्रथा की ओर संकेत है। इसके अतिरिक्त अस्थियों को इकट्ठा करके पात्र में रखकर भूमि में गाड़ने और बहुत दिनों उपरान्त उस पर श्मशान बना देने आदि की प्रथा भी प्रचलित थी। अथर्ववेद<ref>अथर्ववेद 18.2.25</ref> में ऐसा आया है-'उन्हें वृक्ष कष्ट न दे और पृथिवी माता ही (ऐसा करे)।' इससे शवाधार (ताबूत) एवं शव को गाड़ने की ओर सम्भवत: संकेत मिलता है।


4. वह पूषा जो इस विश्व का जीवन है, जो स्वयं जीवन है, तुम्हारी रक्षा करे। वे लोग जो तुमसे आगे गये हैं (स्वर्ग के) मार्ग में तुम्हारी रक्षा करें। सविता देव तुम्हें वहाँ प्रतिष्ठापित करे, जहाँ सुन्दर कर्म करने वाले जाकर निवास करते हैं।
*यह कुछ विचित्र सा है कि प्रगतिशील राष्ट्र बाइबिल के कथन की शाब्दिक व्याख्या में विश्वास करते हुए कि 'मृत का भौतिक शरीरोत्थान होता है', केवल शव को गाड़ने की प्रथा से ही चिपके रहे और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक ईसाई लोक शवदाह के लिए कभी तत्पर नहीं हुए। सन 1906 में क्रेमेशन एक्ट (इंग्लैण्ड में) पारित हुआ जिसके अनुसार स्वास्थ्यमंत्री-समर्थित समतल भूमि पर शवदाह करने की अनुमति अन्त्येष्टि क्रिया के अध्यक्ष को प्राप्त होने लगी। कैथोलिक चर्च वाले अब भी शवदाह नहीं करते। आदिकालीन रोम के लोग शवदाह को सम्मान्य समझते थे और शव गाड़ने की रीति केवल उन लोगों के लिए बरती जाती थी, जो आत्महन्ता या हत्यारे होते थे।


5. पूषा इन सभी दिशाओं को क्रम से जानता है। वह हमें उस मार्ग से ले चले, जो भय से रहित है। वह समृद्धिदाता है, प्रकाशमान है, उसके साथ सभी शूरवीर हैं; वह विज्ञ हमारे आगे बिना किसी त्रुटि के बढ़े।
*कुछ समय तक शव को विकृत होने से बचाने के लिए तेल आदि में रख छोड़ना भारत में अज्ञात नहीं था। शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण 29.4.29</ref> एवं वैखानसश्रौतसूत्र<ref>वैखानसश्रौतसूत्र 31.32</ref> ने व्यवस्था दी है कि आहिताग्नि अपने लोगों से सुदूर मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो उसके शव को तिल-तेल से पूर्ण द्रोण (नाद) में रखकर गाड़ी द्वारा घर लाना चाहिए। रामायण में कई बार यही कहा गया है कि [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] के आने के बहुत दिन पूर्व ही राजा [[दशरथ]] का शव तेलपूर्ण लम्बे द्रोण या नाद में रख दिया गया था।<ref>अयोध्याकाण्ड, 66.14-16, 76.4</ref> विष्णु पुराण में आया है कि [[निमि]] का शव तेल तथा अन्य सुगंधित पदार्थों से इस प्रकार सुरक्षित रखा हुआ था कि वह सड़ा नहीं और लगता था कि मृत्यु मानो अभी हुई हो।


6. पूषा (पितृलोक में जाने वाले) मार्गों के सम्मुख स्थित है, वह स्वर्ग को जाने वाले मार्गों और पृथिवी के मार्गों पर खड़ा है। हमको प्रिय लगने वाला वह दोनों लोकों के सम्मुख खड़ा है और वह विज्ञ दोनों लोकों में आता-जाता रहता है।"
*ऋग्वेद के प्रणयन के पूर्व की स्थिति के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद तथा [[सिंधु घाटी]] के [[मोहनजोदड़ो]] एवं [[हड़प्पा]] अवशेषों के काल के निर्णय के विषय में अभी कोई सामान्य निश्चय नहीं हो सका है। सर जॉन मार्शल<ref>मोहनजोदड़ो, जिल्द 1, पृष्ठ 86</ref> ने पूर्ण रूप से गाड़ने, आंशिक रूप से गाड़ने एवं शवदाह के उपरान्त गाड़ने के रीतियों की ओर संकेत किया है। लौरिया नन्दनगढ़ की खुदाई से कुछ ऐसी श्मशान भूमियों का पता चला है, जो वैदिक काल की कही जाती हैं और उनमें एक छोटी स्वर्णिम वस्तु पायी गयी है, जो नंगी स्त्री, सम्भवत: पृथिवी माता की हैं। ये सब बातें पुरातत्ववेत्ताओं से सम्बन्ध रखती हैं।
====पंचम सूक्त====
ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 10|18</ref> में पंचम सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
#"हे मृत्यु! उस मार्ग की ओर हो जाओ, जो तुम्हारा है और देवयान से पृथक है। मैं तुम्हें, जो आंखों एवं कानों से युक्त हो, सम्बोधित करता हूँ। हमारी सन्तानों को पीड़ा न दो, हमारे वीर पुत्रों को हानि न पहुँचाओ।


#हे यज्ञ करने वाले (याज्ञिक) हमारे सम्बन्धीगण! क्योंकि तुम मृत्यु के पदचिह्नों को मिटाते हुए आये हो और अपने लिए दीर्घ जीवन प्रतिष्ठापित कर चुके हो तथा समृद्धि एवं सन्तानों से युक्त हो, तुम पवित्र एवं शुद्ध बनो। (3) ये जीवित (सम्बन्धी) मृत से पृथक हो पीछे घूम गये हैं; आज के दिन देवों के प्रति हमारा आह्वान कल्याणकारी हो गया। तब हम नाचने के लिए, (बच्चों के साथ) हँसने के लिए और दीर्घ जीवन को दृढ़ता से स्थापित करते हुए आगे गये। (4) मैं जीवित (सम्बन्धियों, पुत्र आदि) की रक्षा के लिए यह बाधा (अवरोध) रख रहा हूँ, जिससे कि अन्य लोक (इस मृत व्यक्ति के) लक्ष्य को न पहुँचे। वे सौ शरदों तक जीवित रहें। वे इस पर्वत (पत्थर) के द्वारा मृत्यु को दूर रखें। (5) हे धाता! बचे हुए लोगों को उसी प्रकार सम्भाल रखो, जिस प्रकार दिन के उपरान्त दिन एक-एक क्रम में आते रहते हैं, जिस प्रकार अनुक्रम से ऋतुएँ आती हैं, जिससे कि छोटे लोग अपने बड़े (सम्बन्धी) को न छोड़ें। (6) हे बचे हुए लोगों, बुढ़ापा स्वीकार कर दीर्घ आयु पाओ, क्रम से जो भी तुम्हारी संख्याएँ हो (वैसा ही प्रयत्न करो कि तुम्हें लम्बी आयु मिले); भद्र जन्म वाला एवं कृपालु त्वष्टा तुम्हें यहाँ (इस विश्व में) दीर्ध जीवन दे। (7) ये नारियाँ, जिनके पति योग्य एवं जीवित हैं, आंखों में अंजन के समान घृत लगाकर घर में प्रवेश करें। ये पत्नियाँ प्रथमत: सुसज्जित, अश्रुहीन एवं पीड़ाहीन हो घर में प्रवेश करे। (8) हे (मृत की) पत्नी! तुम अपने को जीवित (पुत्रों एवं अन्य सम्बन्धी) लोगों के लोक की ओर उठाओ; तुम उस (अपने पति) के निकट सोयी हुई हो, जो मृत है; आओ, तुम पत्नीत्व के प्रति सत्य रही हो और उस पति के प्रति, जिसने पहले (विवाह के समय) तुम्हारा हाथ पकड़ा था और जिसने तुम्हें भली-भाँति प्यार किया, सत्य रही हो। (9) (मैं) मृत (क्षत्रिय) के हाथ से प्रण करता हूँ, जिससे कि हममें सैनिक वीरता, दिव्यता एवं शक्ति आये। तुम (मृत) वहाँ और हम यहाँ शूर पुत्र पायें और यहाँ सभी आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय पायें। (10) हे मृत! इस विशाल एवं सुन्दर माता पृथिवी के पास आओ। यह नयी (पृथिवी), जिसने तुम्हें भेंट दी और तुम्हें मृत्यु की गोद से सुरक्षित रखा, तुम्हारे लिए ऊन के समान मृदु लगे। (11) हे पृथिवी! ऊपर उठ जाओ, इसे न दबाओ, इसके लिए सरल पहुँच एवं आश्रय बनो, और इस (हड्डियों के रूप में मृत व्यक्ति) को उसी प्रकार ढँको, जिस प्रकार माता अपने आँचल से पुत्र को ढँकती है। (12) पृथिवी ऊपर उठे और अटल रहे। सहस्रों स्तम्भ इस घर को सम्भाले हुए खड़े रहें। ये घर (मिट्टी के खण्ड) उसे भोजन दें। वे यहाँ सभी दिनों के लिए उसके हेतु (हड्डियों के रूप में मृत के लिए) आश्रय बनें। (13) मैं तुम्हारे चारों ओर तुम्हारे लिए मिट्टी का आश्रय बना दे रहा हूँ। मिट्टी का यह खण्ड रखते समय मेरी कोई हानि न हो। पितर लोग इस स्तम्भ को अटल रखें। यम तुम्हारे लिए यहाँ आसनों की व्यवस्था कर दें। (14) (देवगण) ने मुझे दिन में रखा है, जो पुन: तीर के पंख के समान (कल के रूप में) लौट आयेगा; (अत:) मैं अपनी वाणी उसी प्रकार रोक रहा हूँ, जिस प्रकार कोई लगाम से घोड़ा रोकता है।"
*हारलता<ref>हारलता पृष्ठ 126</ref> ने [[आदि पुराण|आदिपुराण]] का एक वचन उद्धृत करते हुए लिखा है कि मग के लोग गाड़े जाते थे और दरद लोग एवं लुप्त्रक लोग अपने सम्बन्धियों के शवों को पेड़ पर लटकाकर चल देते थे।
====बौद्धों में अन्त्येष्टि क्रिया====
ऐसा प्रतीत होता है कि आरम्भिक बौद्धों में अन्त्येष्टि क्रिया की कोई अलग विधि प्रचलित नहीं थी, चाहे मरने वाला भिक्षु हो या उपासक। महापरिनिब्बान सुत्तगें बौद्धधर्म के महान प्रस्थापक की अन्त्येष्टि क्रियाओं का वर्णन पाया जाता है।<ref>4.14</ref> इस ग्रन्थ से इस विषय में जो कुछ एकत्र किया जा सकता है, वह यह है-'बुद्ध के अत्यन्त प्रिय शिष्य आनन्द ने कोई पद्य नहीं कहा, कुछ ऐसे शिष्य जो विषयभोग से रहित नहीं थे, रो पड़े और पृथिवी पर धड़ाम से गिर पड़े, और अन्य लोग (अर्हत्) किसी प्रकार दु:ख को सम्भाल सके। दूसरे दिन आनन्द कुशीनारा के मल्लों के पास गये, मल्लों ने धूप, मालाएँ, वाद्ययंत्र तथा पाँच सौ प्रकार के वस्त्र आदि एकत्र किये; मल्लों ने शाल वृक्षों की कुंज में पड़े बुद्ध के शव की प्रार्थना सात दिनों तक की और नाच, स्तुतियों, गायन, मालाओं एवं गंधों से पूजा-अर्चनाएँ कीं और वस्त्रों से शव को ढँकते रहे। सातवें दिन वे भगवान के शव को दक्षिण की ओर ले चले, किन्तु एक चमत्कार<ref>6.29-32 में वर्णित</ref> के कारण वे उत्तरी द्वार से नगर के बीच से होकर शव को लेकर चले और पूर्व दिशा में उसे रख दिया।<ref>सामान्य नियम यह था कि शव को गाँव के मध्य से लेकर नहीं जाया जाता और उसे दक्षिण की और ले जाया जाता था, किन्तु बुद्ध इतने असाधारण एवं पवित्र थे कि उपर्युक्त प्रथाविरुद्ध ढंग उनके लिए मान्य हो गया।</ref> बुद्ध का शव नये वस्त्रों से ढँका गया और ऊपर से रूई एवं ऊन के चोगे बाँधे गये और फिर उनके ऊपर एक नया वस्त्र बाँधा गया। इस प्रकार वस्त्रों एवं सूत्रों के पाँच सौ स्तरों से शरीर ढँक दिया गया। इसके उपरान्त एक ऐसे लोहे के तैलपात्र में रखा गया, जो स्वयं एक तैलपात्र में रखा हुआ था। इसके पश्चात् सभी प्रकार के गंधों से युक्त चिता बनायी गई और उस पर शव रख दिया गया। तब महाकस्सप एवं पाँच सौ अन्य बौद्धों ने, जो साथ में आये थे, अपने परिधानों को कंधों पर सजाया<ref>उसी प्रकार जिस प्रकार ब्राह्मण लोग अपने [[यज्ञोपवीत]] को धारण करते हैं|उसी प्रकार जिस प्रकार ब्राह्मण लोग अपने यज्ञोपवीत को धारण करते हैं</ref>, उन्होंने बद्धबाहु होकर सिर झुकाया और श्रद्धापूर्वक शव की तीन बार प्रदक्षिणा की। इसके उपरान्त शव का दाह किया गया। केवल अस्थियाँ बच गयीं। इसके उपरान्त मगधराज, [[अजातशत्रु]], [[वैशाली]] के [[लिच्छवी|लिच्छवियों]] आदि ने [[बुद्ध]] के अवशेषों पर अपना-अपना अधिकार जताना आरम्भ कर दिया। बुद्ध के [[अवशेष]] आठ भागों में बाँटे गये। जिन्हें ये भाग प्राप्त हुए, उन्होंने उन पर स्तूप (धूप) बनवाये, मोरिय लोगों ने जिन्हें केवल राख मात्र प्राप्त हुई थी, उस पर स्तूप बनवाया और एक ब्राह्मण द्रोण (दोन) ने उसे घड़े पर, जिसमें अस्थियाँ एकत्र कर रखी गयी थीं, एक स्तूप बनवाया।' श्री राइस डेविड्स ने कहा है कि यद्यपि ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं जन्म गाथाओं में अन्त्येष्टियों का वर्णन मिलता है, किन्तु कहीं भी प्रचलित धार्मिक क्रिया आदि की ओर संकेत नहीं मिलता। ऐसा कहा जा सकता है कि बौद्ध अन्त्येष्टि क्रिया, यद्यपि सरल है, तथापि वह आश्वलायनगृह्यसूत्र के कुछ नियमों से बहुत कुछ मिलती है।<ref>देखिए जे.आर.ए.एस. (1906, पृष्ठ 655-671 एवं 881-913) में प्रकाशित फ़्लीट के लेख, जो महापरिनिब्बान-सुत्त, दिव्यावदान, फाहियान के ग्रन्थ, सुमंगलविलासिनी एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर लिखे गये ऐसे लेख हैं, जो बुद्ध की अस्थियों एवं भस्म के बँटवारे अथवा उन पर बने स्तूपों पर प्रकाश डालते हैं। फ़्लीट का कहना है कि पिप्रहवा अवशेष-कुंभ में, जिस पर एक अभिलेख अंकित है, जो अब तक पाये गये [[अभिलेख|अभिलेखों]] में सबसे पुराना है (लगभग ईसापूर्व सन 375) और जिसमें सात सौ वस्तुएँ पायी गई हैं, भगवान बुद्ध के अवशेष चिह्न नहीं हैं, प्रत्युत उनके सम्बन्धियों के हैं। फ़्लीट ने एक परम्परा की ओर संकेत किया है जो बतलाती है कि सम्राट [[अशोक]] ने बुद्ध के अवशेष चिह्नों पर बने 8 स्तूपों में 7 को खोदकर उनमें पाये गये अवशेषों को 84000 सोने और चाँदी के पात्रों में परिवर्तित कर दिया और उन्हें सम्पूरण भारत में वितरित कर दिया। इस प्रकार 84000 स्तूपों का निर्माण उन पर किया गया। राइस डेविड्स ने अपने ग्रन्थ 'बुद्धिस्ट इंडिया' (पृष्ठ 78-80) में यह कहते हुए कि जन या धन से विशिष्ट मृत लोगों का राजकर्मचारियों या शिक्षकों के शव जलाये जाते और अवशिष्ट भस्मांश स्तूपों (पालि में थूप या टोप) के अन्दर गाड़ दिये जाते थे। निर्देश किया है कि साधारण लोगों के शव अजीव ढंग से रखे जाते थे। वे खुले स्थल में रख दिये जाते थे। नियमानुकूल वे शव या चितावशेष गाड़े नहीं जाते थे, प्रत्युत पक्षियों या पशुओं द्वारा नष्ट किये जाने के लिए छोड़ दिये जाते थे अथवा वे स्वयं प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाया करते थे।</ref>
====शीर्षक====
जब मृत के सम्बन्धीगण (पुत्र आदि) जल-तर्पण एवं स्नान करके जल (नदी, जलाशय आदि) से बाहर निकल कर हरी घास के किसी स्थल पर बैठ गये हों, तो गुरुजनों (वृद्ध आदि) को उनके दु:ख कम करने के लिए प्राचीन गाथाएँ कहनी चाहिए।<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.7 एवं गौतमपितृमेधसूत्र 1.4.2


यह अवलोकनीय है कि 'पितृ-यज्ञ' शब्द ऋग्वेद (10।16।10) में आया है। इसका क्या तात्पर्य है? हमें यह स्मरण रखना है कि ऋग्वेद (10।15-18) की ऋचाएँ किसी एक व्यक्ति के मरने के उपरान्त के कृत्यों की ओर संकेत करती है। उनका सम्बन्ध पूर्वपुरुषों की श्राद्ध-क्रियाओं से नहीं है। पूर्वपुरुषों से, जिन्हें बर्हिषद: एवं अग्निष्वात्तात् (ऋग्वेद 10।15।3-4, 11) कहा गया है, तुरन्त के मृतात्मा के प्रति स्नेह प्रदर्शित करने के लिए उत्सुकता अवश्य प्रकट की गयी है। पूर्वपुरुषों को 'हवि:' दिया गया है और वे उसे ग्रहण करते हैं, ऐसा प्रदर्शित किया गया है (ऋग्वेद 10।15।11-12)। तैत्तिरीय संहिता (1।8।5) में दिये गये मन्त्रों के उद्देश्य (जो साकमेघ में सम्पादित पितृयज्ञ की ओर संकेत करता है) से उपर्युक्त ऋग्वेदीय मन्त्रों का उद्देश्य पृथक है। यह बात ठीक है कि तैत्तिरीय संहिता (1।8।5) के तीन मन्त्र ऋग्वेद (10।57।3-5) के हैं और वे पिण्ड-पितृयज्ञ में प्रयुक्त होते हैं। किन्तु यह कहने के लिए कोई तर्क नहीं है कि ऋग्वेद (10।15।10) का 'पितृयज्ञ', पिण्ड-पितृयज्ञ से अधिक प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों विभिन्न बातों की ओर संकेत करते हुए समकालिक प्रचलन के ही द्योतक हों।
शोकमुत्सृज्य कल्याणीभिर्वाग्भि: सात्त्विकाभि: कथाभि: पुराणै: सुकृतिभि: श्रुत्वाधोमुखा व्रजन्ति।


अब हम श्रौत एवं गृह्य सूत्रों में वर्णित आहिताग्नि की मृत्यु से सम्बन्धित कृत्यों का वर्णन करेंगे। सोमयज्ञ या सत्र के लिए दीक्षित व्यक्ति के (यज्ञ-समाप्ति के पूर्व ही) मर जाने पर जो कृत्य होते थे, उनका वर्णन आश्वलायन श्रौतसूत्र (6।10) में हुआ है। इसमें आया है-"जब दीक्षित मर जाता है, तो उसके शरीर को वे तीर्थ से ले जाते हैं, उसे उस स्थान पर रखते हैं, जहाँ अवभृथ (सोमयज्ञ या सत्र-यज्ञ की परिसमाप्ति पर स्नान) होने वाला था और उसे उन अलंकरणों से सजाते हैं, जो बहुधा शव पर रखे जाते हैं। वे शव के सिर, चेहरे एवं शरीर के बाल और नख काटते हैं। वे नलद (जटामांसी) का लेप लगाते हैं और शव पर नलदों का हार चढ़ाते हैं। कुछ लोग अँतड़ियों को काटकर उनसे मल निकाल देते हैं और उनमें पृषदाज्य (मिश्रित घृत एवं दही) भर देते हैं। वे शव के पाँव के बराबर नवीन वस्त्र का एक टुकड़ा काट लेते हैं और उससे शव को इस प्रकार ढँक देते हैं कि अंचल पश्चिम दिशा में पड़ जाता है (शव पूर्व में रखा रहता है) और शव के पाँव खुले रहते हैं। कपड़े के टुकड़ का भाव पुत्र आदि ले लेते हैं। मृत की श्रौत अग्नियाँ अरणियों पर रखी रहती हैं, शव को वेदि से बाहर लाया जाता है और दक्षिण की ओर ले जाते हैं, घर्षण से अग्नि उत्पन्न की जाती है और उसी में शव जला दिया जाता है। श्मशान से लौटने पर उन्हें दिन का कार्य समाप्त करना चाहिए। दूसरे दिन प्रात: शस्त्रों का पाठ, स्तोत्रों का गायन एवं सस्तवों (समवेत रूप में मन्त्रपाठ) का गायन बिना दुहराये एवं बिना 'हिम्' स्वर उच्चारित किये होता है। उसी दिन पुरोहित लोग ग्रहों (प्यालों) को लेने के पूर्व तीर्थों से आते हैं, दाहिने हाथ को ऊँचा करके श्मशान की परिक्रमा करते हैं और निम्न प्रकार से उसके चतुर्दिक बैठ जाते हैं; होता श्मशान के पश्चिम में, अध्वर्यु उत्तर में, अद्गाता अध्वर्यु के पश्चिम और ब्रह्मा दक्षिण में। इसके उपरान्त धीमे स्वर में 'आयं गौ: पृश्निरक्रमीत्' से आरम्भ होने वाला मन्त्र गाते हैं। गायन समाप्त होने के उपरान्त होता अपने बायें हाथ को श्मशान की ओर करके श्मशान की तीन परिक्रमा करता है और बिना 'ओम' का उच्चारण किये उद्गाता के गायन तुरंत पश्चात् धीमें स्वर में स्तोत्रिय का पाठ करता है और निम्न मन्त्रों को, जो यम एवं याम्यायनों (ऋषियों या प्रणेताओं) के मन्त्र हैं, कहता है; यथा-ऋग्वेद (10।14।7-8, 10-11; 10।16।1-6; 10।17-3-6; 10।18।10-13; 10।154।1-5)। उन्हें ऋग्वेद (10।14।10) के साथ समाप्त करना चाहिए और इसके उपरान्त किसी घड़े में अस्थियाँ एकत्र करनी चाहिए, घड़े को तीर्थ की तरफ़ से ले जाना चाहिए और उस आसन पर रखना चाहिए, जहाँ मृत यजमान बैठता था।<ref>चात्वाल एवं उत्कर के मध्य वाले यज्ञ-स्थान को जाने वाला मार्ग तीर्थ कहा जाता है। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 29। स्तोत्रिय के लिए देखिए खण्ड 2, अध्याय 33। शतपथब्राह्मण (12।5।2।5) ने मृत व्यक्ति के शरीर से सभी गन्दे पदार्थों के निकाल देने की परम्परा की ओर संकेत किया है, किन्तु इसे अकरणीय ठहराया है। उसका इतना ही कथन है-'उसके भीतर को स्वच्छ कर लेने के उपरान्त वह उस पर घृत का लेप करता है और इस प्रकार शरीर को यज्ञिय रूप में पवित्र कर देता है।'</ref>
गौतमपितृमेधसूत्र (1.4.2)।</ref> विष्णुधर्मसूत्र<ref>विष्णुधर्मसूत्र 20.22-53</ref> में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है कि किस प्रकार काल (समय, मृत्यु) सभी को, यहाँ तक इन्द्र, देवों, दैत्यों, महान राजाओं एवं ऋषियों को धर दबोचता है, कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म लेकर एक दिन मरण को प्राप्त होता ही है (मृत्यु अवश्यंभावी है), कि (पत्नी को छोड़कर) कोई भी मृत व्यक्ति के साथ यमलोक को नहीं जाता है, कि किस प्रकार सदसत् कर्म मृतात्मा के पास आते हैं, कि किस प्रकार श्राद्ध मृतात्मा के लिए कल्याणकर है। इसने निष्कर्ष निकाला है कि इसीलिए जीवित सम्बन्धियों को श्राद्ध करना चाहिए और रुदन छोड़ देना चाहिए, क्योंकि उससे लाभ नहीं और केवल धर्म ही ऐसा है, जो मृतात्मा के साथ जाता है।<ref>यह अवलोकनीय है कि विष्णु धर्मसूत्र के कुछ पद्य (20.29, 48-49 एवं 51-53) भगवदगीता के पद्यों (2.22-28, 13.23-25) के समान ही हैं। विष्णु धर्मसूत्र (20.47 यथा धेनुसहस्रेषु आदि) शान्तिपर्व (181.16, 187.27 एवं 323.16) एवं विष्णुधर्मोत्तर (2.78.27) के समान ही है। इसी प्रकार देखिए विष्णुधर्मसूत्र (20.41) एवं शान्तिपर्व (175.15 एवं 322.73)। देखिए लक्ष्मीधर का कृत्यकल्पतरु (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 91-97), याज्ञवल्क्यस्मृति (3.7, 11), विष्णुधर्मसूत्र (20.22-53) एवं भगवदगीता (2.13, 18)।</ref> ऐसी ही बातें याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>3.8-11=गरुड़पुराण 2.4.8184</ref> में भी पायी जाती है; जो व्यक्ति मानव जीवन में, जो केले के पौधे के समान सारहीन है, और जो पानी के बुलबुले के समान अस्थिर है, अमरता खोजता है, वह भ्रम में पड़ा हुआ है। रुदन से क्या लाभ है जब कि शरीर पूर्व जन्म के कर्मों के कारण पंचतत्त्वों से निर्मित हो पुन: उन्हीं तत्त्वों में समा जाता है। पृथिवी, सागर और देवता नाश को प्राप्त होने वाले हैं (भविष्य में जब कि प्रलय होता है)। यह कैसे सम्भव है कि वह मृत्युलोक, जो फेन के समान क्षणभंगुर है, नाश को प्राप्त नहीं होगा? मृतात्मा को असहाय होकर अपने सम्बन्धियों के आँसू एवं नासिकारंध्रों से निकले द्रव पदार्थ को पीना पड़ता है, अत: उन सम्बन्धियों को रोना नहीं चाहिए, बल्कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्धकर्म आदि करना चाहिए। गोभिलस्मृति<ref>गोभिलस्मृति 3.39</ref> ने बलपूर्वक कहा है कि 'जो नाशवान है और जो सभी प्राणियो की विशेषता (नियति) है, उसके लिए रोना-कलपना क्या? केवल शुभ कर्मों के सम्पादन में, जो तुम्हारे साथ जाने वाले हैं, लगे रहो।' गोभिल ने याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.8-10</ref> एवं [[महाभारत]] को उद्धृत किया है-'सभी संग्रह क्षय को प्राप्त होते हैं, सभी उदय पतन को, सभी संयोग वियोग और जीवन मरण को।'<ref>सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छया:। संयोग विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।। और देखिए शान्तिपर्व (331.20)।</ref> अपरार्क ने रामायण एवं महाभारत से उदाहरण दिये हैं, यथा [[दुर्योधन]] की मृत्यु पर [[वासुदेव (कृष्ण)|वासुदेव]] द्वारा [[धृतराष्ट्र]] के प्रति कहे गये वचन। पराशरमाधवीय<ref>पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 292-293</ref>, शुद्धिप्रकाश<ref>शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 205-206 </ref> एवं अन्य ग्रन्थों ने विष्णुधर्मसूत्र, याज्ञवल्क्यस्मृति एवं गोभिलस्मृति के वचन उद्धृत किये हैं।
==सती प्रथा==
गरुड़पुराण<ref>गरुड़पुराण 2.4.91-100</ref> ने पति की मृत्यु पर पत्नी के (पति चिता पर) बलिदान अर्थात् मर जाने एवं पतिव्रता की चमत्कारिक शक्ति के विषय में बहुत कुछ लिखा है और कहा है कि ब्राह्मण स्त्री को अपने पति से पृथक नहीं चलना चाहिए (अर्थात् साथ ही जल जाना चाहिए), किन्तु क्षत्रिय एवं अन्य नारियाँ ऐसा नहीं भी कर सकतीं। उसमें यह भी लिखा है कि सती प्रथा सभी नारियों, यहाँ तक की चाण्डाल नारियों के लिए भी, समान ही है, केवल गर्भवती नारियों को या उन्हें जिनके बच्चे अभी छोटे हों, ऐसा नहीं करना चाहिए। उसमें यह भी लिखा है कि जब तक पत्नी सती नहीं हो जाती, तब तक वह पुनर्जन्म से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकती।


शांखायनश्रौतसूत्र (4।14-15) ने आहिताग्नि की अन्त्येष्टि-क्रिया के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। कात्यायनश्रौतसूत्र (25।7) ने यही बातें संक्षेप में कही है। कात्यायनश्रौतसूत्र (25।7।18) ने केश एवं नख काटने एवं मल पदार्थ निकाल देने की चर्चा की है। कौशिकसूत्र (80।13-16) एवं शांखायनश्रौतसूत्र (4।14।4-5) ने भी इन सब बातों की ओर संकेत किया है और इतना जोड़ दिया है कि यदि वे दाहिनी ओर से अँतड़ियाँ काटकर निकालते हैं, तो उन्हें पुन: दर्भ से सी देते हैं या वे केवल शरीर को स्नान करा देते हैं (बिना मल स्वच्छ किये), उसे वस्त्र से ढँक देते हैं, सँवारते हैं, आसन्दी पर, जिस पर काला मृगचर्म (जिसका मुख वाला भाग दक्षिण की ओर रहता है) बिछा रहता है, रख देते हैं, उस पर नलद की माला रख देते हैं, <ref>प्रयोगरत्न के सम्पादक ने नलद को उशीर कहा है। कुछ ग्रन्थों में नलद के स्थान पर जपा पुष्प की बात कही गयी है।</ref> और उसे नवीन वस्त्र से ढँक देते हैं (जैसा कि ऊपर आश्वलायनश्रौतसूत्र के अनुसार लिखा गया है)। सत्याषाढश्रौतसूत्र (28।1।22) एवं गौतमपितृमेधसूत्र (1।10-14) में भी ऐसी बातें दी हुई हैं और यह भी है कि शव के हाथ एवं पैर के अँगूठे श्वेत सूत्रों या वस्त्र के अंचल भाग भाग से बाँध दिये जाते हैं और आसन्दी (वह छोटा सा पंलग या कुर्सी जिस पर शव रखकर ढोया जाता है) उदुम्बर लकड़ी की बनी होती है। कौशिकसूत्र (80।3।3।45) ने अथर्ववेद के बहुत-से मन्त्रों का उल्लेख किया है, जो चिता जलाने पर एवं हवि देते समय कहे जाते हैं, यथा 18।2।4 एवं 36; 18।3।4; 18।1।49-50 एवं 58; 18।1।41-43; 7।68।1-2; 18।3।25; 18।2।4-18; (18।2।10 को छोड़कर); 18।4।1-15 आदि।
गुरुजनों का दार्शनिक उपदेश सुनने के उपरान्त सम्बन्धीगण अपने घर लौटते हैं। बच्चों को आगे करके द्वार पर खड़े होकर और मन को नियंत्रित कर नीम की पत्तियाँ दाँतों से चबाते हैं। आचमन करते हैं, अग्नि, जल, गोबर एवं श्वेत सरसों छूते हैं। इसके उपरान्त किसी पत्थर पर धीरे से, किन्तु दृढ़ता से पाँव रखकर घर में प्रवेश करते हैं। शंख के अनुसार सम्बन्धियों द्वारा दूर्वाप्रवाल (दूब की शाखा), अग्नि, बैल को छूना चाहिए, मृत को घर के द्वार पर पिण्ड देना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए।<ref>दूर्वाप्रवालमग्निं वृषभं चालभ्य गृहद्वारे प्रेताय पिण्डं दत्त्वा पश्चात्प्रविशेयु:। शंख (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।13, पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 293)।</ref> बैजवाप<ref>बैजवाप शुद्धितत्त्व, पृष्ठ 319</ref>; निर्णयसिन्धु<ref>निर्णयसिन्धु 3, पृष्ठ 580</ref> ने शमी, अश्मा (पत्थर), अग्नि को स्पर्श करते समय मन्त्रों के उच्चारण की व्यवस्था दी है और कहा है कि अपने एवं पशुओं (गाय एवं बकरी) के बीच में अग्नि रखकर उन्हें छूना चाहिए। एक ही प्रकार का भोजन ख़रीदना या दूसरे के घर से लेना चाहिए, उसमें नमक नहीं होना चाहिए, उसे केवल एक दिन और वह भी केवल एक बार खाना चाहिए तथा सारे कर्म तीन दिनों तक स्थगित रखने चाहिए। याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.14</ref> ने व्यवस्था दी है कि उसके बतलाये हुए कर्मया<ref>ज्ञवल्क्यस्मृति 3.12</ref>, यथा-नीम की पत्तियों को कुतरने से लेकर गृह प्रवेश तक के कार्य उन लोगों द्वारा भी सम्पादित होने चाहिए, जो सम्बन्धी नहीं हैं, किन्तु शव ढोने, उसे सँवारने, जलाने आदि में सम्मिलित थे।
==शवदाह के पश्चात नियम===
[[शांखायन श्रौतसूत्र]]<ref>शांखायन श्रौतसूत्र 4.15.10</ref>, आश्वलाय गृह्यसूत्र<ref>आश्वलाय गृह्यसूत्र 4.4.17-27</ref>, बौधायन पितृमेधसूत्र<ref>बौधायन पितृमेधसूत्र 1.12.10</ref>, कौशिकसूत्र<ref>कौशिकसूत्र 82.33-35 एवं 42-47</ref>, पारस्कर गृह्यसूत्र<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र 3.10</ref>, [[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]]<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1.3.10.4-10</ref>, [[गौतम धर्मसूत्र]]<ref>गौतम धर्मसूत्र 14.15-36</ref>, [[मनुस्मृति]]<ref>मनुस्मृति 5.73</ref>, वसिष्ठ.<ref>वसिष्ठ. 4.14-15</ref>, याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.16-17</ref>, [[विष्णु धर्मसूत्र]]<ref>विष्णु धर्मसूत्र 19.14.17</ref>, संवर्त<ref>संवर्त 39-43</ref>, शंख<ref>शंख 15-25</ref>, गरुड़ पुराण<ref>गरुड़ पुराण (प्रेतखंड, 5.1-5)</ref> एवं अन्य ग्रन्थों ने उन लोगों (पुरुषों एवं स्त्रियों) के लिए कतिपय नियम दिये हैं, जिनके सपिण्ड मर जाते हैं और लिखा है कि श्मशान से लौटने के उपरान्त तीन दिनों तक क्या करना चाहिए। शांखायन श्रौतसूत्र ने व्यवस्था दी है कि उन्हें ख़ाली (बिस्तरहीन) भूमि पर सोना चाहिए, केवल याज्ञिक भोजन करना चाहिए, वैदिक अग्नियों से सम्बन्धित कर्मों को करते रहना चाहिए, किन्तु अन्य धार्मिक कृत्य नहीं करने चाहिए, और ऐसा एक रात के लिए या नौ रातों के लिए या अस्थि संचय करने तक करना चाहिए। आश्वलाय गृह्यसूत्र<ref>आश्वलाय गृह्यसूत्र 4.4.17-24</ref> ने निम्न बातें दी हैं-उस रात उन्हें भोजन नहीं बनाना चाहिए। ख़रीदकर या अन्य के घर से प्राप्त भोजन करना चाहिए, तीन रातों तक निर्मित या खान से प्राप्त नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि मुख्य गुरुओं<ref>पिता, माता या वह जिसने [[उपनयन संस्कार]] कराया हो या जिसने [[वेद]] पढ़ाया हो</ref> में किसी की मृत्यु हो गयी हो, तो विकल्प 12 रातों तक दान देना तथा वेदाध्ययन स्थगित कर देना चाहिए। पारस्करगृह्यसूत्र<ref>पारस्करगृह्यसूत्र 3.10</ref> का कथन है कि ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिए, दिन में केवल एक बार खाना चाहिए। उस दिन वेदपाठ स्थगित रखना चाहिए तथा वेदाग्नियों के कृत्यों को छोड़कर अन्य धार्मिक कृत्य भी स्थगित कर देने चाहिए।


आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।1 एवं 2) ने आहिताग्नि की मृत्यु से सम्बन्धित सामान्य कृत्यों का वर्णन किया है, किन्तु आश्वलायनश्रौतसूत्र (जिसका ऊपर वर्णन किया गया है) ने उस आहिताग्नि की अन्त्येष्टि का वर्णन किया है, जो सोमयज्ञ या अन्य यज्ञों में लगे रहते समय मर जाता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र का कहना है-"जब आहिताग्नि मर जाता है तो किसी को (पुत्र या कोई अन्य सम्बन्धी को) चाहिए कि वह दक्षिण-पूर्व या दक्षिण-पश्चिम में ऐसे स्थान पर भूमि-खण्ड खुदवाये, जो दक्षिण या दक्षिण-पूर्व की ओर ढालू हो, या कुछ लोगों के मत से वह भूमि-खण्ड दक्षिण-पश्चिम की ओर ढालू हो सकता है। गड्डा एक उठे हुए हाथों वाले पुरुष की लम्बाई का, एक व्यास (पूरी बाँह तक लम्बाई) के बराबर चौड़ा एवं एक वितस्ति (बारह अंगुल) गहरा होना चाहिए। श्मशान चतुर्दिक खुला रहना चाहिए। इसमें जड़ी-बूटियों का समूह होना चाहिए, किन्तु कँटीले एवं दुग्धयुक्त पौधे निकाल बाहर कर देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 2।7।5, वास्तु-परीक्षा)उस स्थान से पानी चारों ओर जाता हो, अर्थात् श्मशान कुछ ऊँची भूमि पर होना चाहिए। यह सब उस श्मशान के लिए है, जहाँ पर शव जलाया जाता है। उन्हें शव के सिर के केश एवं नख काट देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 6।10।2) यज्ञिय घास एवं घृत का प्रबन्ध करना चाहिए। इसमें (अन्त्येष्टि क्रिया में) वे घृत को दही में डालते हैं। यही पृषदाज्य है, जो पितरों के कृत्यों में प्रयुक्त होता है। (मृत के सम्बन्धी) उसकी पूताग्नियों एवं उसके पवित्र पात्रों को उस दिशा में जहाँ चिता के लिए गड्डा खोदा गया है, ले जाते हैं। इसके उपरान्त संख्या में बूढ़े (पुरुष और स्त्रियाँ साथ नहीं चलतीं) लोग शव को ढोते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि शव बैलगाड़ी में ढोया जाता है। कुछ लोगों ने व्यवस्था दी है कि (श्मशान में) एक रंग की काली गाय या बकरी ले जानी चाहिए। (मृत के सम्बन्धी) बायें पैर में (एक रस्सी) बाँधते हैं और उसे शव के पीछे-पीछे लेकर चलते हैं। उसके उपरान्त (मृत के) अन्य सम्बन्धी यज्ञोपवीत नीचा करके (शरीर के चारों ओर करके) एवं शिखा खोलकर चलते हैं; वृद्ध लोग आगे-आगे और छोटी अवस्था वाले पीछे-पीछे चलते हैं। श्मशान के पास पहुँच जाने पर अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला अपने शरीर के वामांग को उसकी ओर करके चिता-स्थल की तीर बार परिक्रमा करते हुए उस पर शमी की टहनी से जल छिड़कता है और 'अपेत वीता वि च सर्पतात:' (ऋग्वेद 10।14।9) का पाठ करता है। (श्मशान के) दक्षिण-पूर्व कुछ उठे हुए एक कोण पर वह (पुत्र या कोई अन्य व्यक्ति) आहवनीय अग्नि, उत्तर-पश्चिम दिशा में गार्हपत्य अग्नि और दक्षिण-पश्चिम में दक्षिण अग्नि रखता है। इसके उपरान्त चिता-निर्माण में कोई निपुण व्यक्ति चितास्थल पर चिता के लिए लकड़ियाँ एकत्र करता है। तब कृत्यों को सम्पादित करने वाला लकड़ी के ढूह पर (कुश) बिछाता है और उस पर कृष्ण हरिण का चर्म, जिसका केश वाला भाग ऊपर रहता है, रखता है और सम्बन्धी लोग गार्हपत्य अग्नि के उत्तर से और आहवनीय अग्नि की ओर सिर करके शव को चिता पर रखते हैं। वे तीन उच्च वर्णों में किसी भी एक वर्ण की मृत व्यक्ति की पत्नी को शव के उत्तर चिता पर सो जाने को कहते हैं और यदि मृत क्षत्रिय रहता है तो उसका धनुष उत्तर में रख दिया जाता है। देवर, पति का कोई प्रतिनिधि या कोई शिष्य या पुराना नौकर या दास 'उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकम्' (ऋग्वेद 10।18।8) मन्त्र के साथ-साथ उस स्त्री को उठ जाने को कहता है।<ref>बहुत-से सूत्र पत्नि को शव के उत्तर में चिता पर सो जाने और पुन: उठ जाने की बात कहते हैं। देखिए कौशिकसूत्र (80।40-45) 'इयं नारीति पत्नीमुपसंवेशयति। उदीर्ष्वेत्युत्थापयति।' ये दोनों मन्त्र अथर्ववेद (18।3।1-2) के हैं। सत्याषाढश्रौतसूत्र (28।2।14-16) का कथन है कि शव को चिता पर रखने के पूर्व पत्नी 'इयं नारी' उच्चारण के साथ उसके पास बुलायी जाती है और उसके उपरान्त देवर या कोई ब्राह्मण 'उदीर्ष्व नारी' के साथ उसे उठाता है। वही सूत्र (28।2।22) यह भी कहता है कि शव को चिता पर रखे जाने पर या उसके पूर्व पत्नी को उसके पास सुलाना चाहिए।</ref> यदि शूद्र उठने को कहता है तो मन्त्रपाठ अन्त्येष्टि-क्रिया करने वाली ही करता है, और 'धनुर्हस्तादाददानो' (ऋग्वेद 10।18।9) के साथ धनुष उठा लेता है। प्रत्यंचा को तानकर (चिता बनाने के पूर्व, जिसका वर्णन नीचे होगा) उसे टुकड़े-टुकड़े करके लकड़ियों के समूह पर फेंक देता है।<ref>यहाँ पर शतपथ ब्राह्मण (12।5।2।6) एवं कुछ सूत्र (यथा-कात्यायनश्रौतसूत्र 25।7।19; शांखायनश्रौतसूत्र 4।14।16-35; सत्याषाढश्रौतसूत्र 24।2।23-50; कौशिकसूत्र 81।1-19; बौधायनपितृमेधसूत्र 1।8-9) तथा गोभिल (3।34) जैसी कुछ स्मृतियाँ इतना और जोड़ देती हैं कि सात मार्मिक वायु-स्थानों, यथा मुख, दोनों नासारंध्रों, दोनों आंखों एवं दोनों कर्णों पर वे सोने के टुकड़े रखते हैं। कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि घृत मिश्रित तिल भी शव पर छिड़के जाते हैं। गौतमपितृमेधसूत्र (2।7।12) का कथन है कि अध्वर्य मृत शरीर के सिर पर कपालों (गोल पात्रों) को रखता है।</ref> इसके उपरान्त उसे शव पर निम्नलिखित यज्ञिय वस्तुएँ रखनी चाहिए; दाहिने हाथ में जुहू नामक चमस, बायें हाथ में उपभृत चमस, दाहिनी ओर स्फय (काठ की तलवार), बायीं ओर अग्निहोत्रहवणी (वह दर्वी या चमस जिससे अग्नि में हवि डाली जाती है), छाती, सिर, दाँतों पर क्रम से स्रुव (बड़ी यज्ञिय दर्वी), पात्र (या कपाल अर्थात् गोल पात्र) एवं रस निकालने वाले प्रस्तर खण्ड (पत्थर के वे टुकड़े जिनसे सोमरस निकाला जाता है), दोनों नासिकारंध्रों पर दो छोटे-छोटे स्रुव, कानों पर दो प्राशित्र-हरण<ref>प्राशित्रहरण वह पात्र है, जिसमें ब्रह्मा पुरोहित के लिए पुरोडाश का एक भाग रखा जाता है। शम्या हल के जुए की काँटी को कहा जाता है।</ref> (यदि एक ही हो तो दो टुकड़े करके), पेट पर पात्री (जिसमें हवि देने के पूर्व हव्य एकत्र किये जाते हैं) एवं चमस (जिसमें इडा भाग काटकर रखा जाता है), गुप्तांगों पर शम्या, जाँघों पर दो अरणियाँ (जिनके घर्षण से अग्नि प्रज्वलित की जाती है), पैरों पर उखल (ओखली) एवं मुसल (मूसल), पाँवों पर शूर्प (सूप) या यदि एक ही हो तो दो भागों में करके। वे वस्तुएँ जिनमें गड्ढे होते हैं (अर्थात् जिनमें तरल पदार्थ रखे जा सकते हैं), उनमें पृषदाज्य (घृत एवं दही का मिश्रण) भर दिया जाता है। मृत के पुत्र को स्वयं चक्की के ऊपरी एवं निचले पाट ग्रहण करने चाहिए, उसे वे वस्तुएँ भी ग्रहण करनी चाहिए, जो ताम्र, लोहे या मिट्टी की बनी होती हैं। किस वस्तु को कहाँ रखा जाए, इस विषय में मतैक्य नहीं है। जैमिनि (11।3।34) का कथन है कि यजमान के साथ उसकी यज्ञिय वस्तुएँ (वे उपकरण या वस्तुएँ, जो यज्ञ सम्पादन के काम आती हैं) जला दी जाती हैं और उसे प्रतिपत्ति कर्म नामक प्रमेय (सिद्धान्त) की संज्ञा दी जाती है अर्थात् इसे यज्ञपात्रों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है।
वसिष्ठसूत्र<ref>वसिष्ठसूत्र 4.14-15</ref> का कथन है कि सम्बन्धियों को चटाई पर तीन दिन बैठकर उपवास करना चाहिए। यदि उपवास न किया जा सके तो बाज़ार से मँगाकर या बिना माँगे प्राप्त भोजन सामग्री का आहार करना चाहिए। याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17</ref> एवं पारस्करगृह्यसूत्र<ref>पारस्करगृह्यसूत्र 3.10</ref> ने व्यवस्था दी है कि उस रात उन्हें एक मिट्टी के पात्र में दूध एवं जल डालकर उसे खुले स्थान में शिक्य (सिकहर) पर रखकर यह कहना चाहिए-'हे मृतात्मा, यहाँ (जल में) स्नान करो और इस दूध को पीओ।' याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17</ref>, पैठिनसि, मनुस्मृति<ref>मनुस्मृति 5.84</ref>, पारस्करगृह्यसूत्र<ref>पारस्करगृह्यसूत्र 3.10</ref> आदि का कथन है कि मृतात्मा के सम्बन्धियों को श्रौत अग्नियों से सम्बन्धित आह्निककृत्य (अग्निहोत्र, दर्श-पूर्णमास आदि) तथा स्मार्त अग्नियों वाले कृत्य (यथा, प्रात: एवं सायं के होम आदि) करते रहना चाहिए, क्योंकि वेद के ऐसे ही आदेश हैं (यथा, व्यक्ति को आमरण अग्निहोत्र करते जाना चाहिए)टीकाकारों ने कई एक सीमाएँ एवं नियंत्रण घोषित किए हैं। मिताक्षरा<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17</ref> का कथन है कि मनुस्मृति<ref>मनुस्मृति 5.84</ref> ने केवल श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों के कृत्यों का अपवाद, किया है, अत: पंच महायज्ञ-जैसे धार्मिक कर्म नहीं करने चाहिए। वैश्वदेव, जिसका सम्पादन अग्नि में होता है, छोड़ दिया जाता है, क्योंकि संवर्त ने स्पष्ट रूप से कहा है कि (सपिण्ड की मृत्यु पर) ब्राह्मण को 10 दिनों तक वैश्वदेव रहित रहना चाहिए। श्रौत एवं स्मार्त कृत्य दूसरों के द्वारा करा देने चाहिए, जैसा कि पारस्करगृह्यसूत्र<ref>पारस्करगृह्यसूत्र (3.10 'अन्य एतानि कृर्यु:')</ref> ने स्पष्ट रूप से आज्ञापित किया है। केवल नित्य एवं नैमित्तक कृत्यों को, जो श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों में किये जाते हैं, करने की आज्ञा दी गयी है, अत: काम्य कर्म नहीं किये जा सकते।
 
====अग्निहोत्री====
शतपथ ब्राह्मण (12।5।2।14) का कथन है कि पत्थर एवं मिट्टी के बने यज्ञ-पात्र किसी ब्राह्मण को दान दे देने चाहिए, किन्तु लोग मिट्टी के पात्रों को शववाहन समझते हैं, अत: उन्हें जल में फेंक देना चाहिए। अनुस्तरणी (बकरी या गाय) की वपा निकालकर उससे (अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले द्वारा) मृत के मुख एवं सिर को ढँक देना चाहिए और ऐसा करते समय 'अग्नेर्वर्म' (ऋग्वेद 10।16।7) का पाठ करना चाहिए। पशु के दोनों वृक्क निकालकर मृत के हाथों में रख देने चाहिए-दाहिना वृक्क दाहिने हाथ में और बायाँ बायें हाथ में-और 'अतिद्रव' (ऋग्वेद 10।14।10) का केवल एक बार पाठ करना चाहिए। वह पशु के हृदय को शव के हृदय पर रखता है, कुछ लोगों के मत से भात या जौ के आटे के दो पिण्ड भी रखता है।<ref>कात्यायनश्रौतसूत्र के अनुसार अनुस्तरणी पशु को कान के पास घायल करके मारा जाता है। जातूकर्ण्य के मत से शव के विभिन्न भागों पर पशु के उन्हीं भागों के अंग रखे जाते हैं। किन्तु कात्यायन इसे नहीं मानते, क्योंकि ऐसा करने पर जलाने के पश्चात् अस्थियों को एकत्र करते समय पशु की अस्थियाँ भी एकत्र हो जायेंगी, अत: उनके मत से केवल मांस भाग ही शव के अंगों में लगाना चाहिए। मिलाइए शतपथ ब्राह्मण (12।5।9-12) आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।2।4) ने (जैसी कि नारायण ने व्याख्या की है) कहा है कि पशु का प्रयोग विकल्प से होता है, अर्थात् या तो पशु काटा जा सकता है या छोड़ दिया जा सकता है या किसी ब्राह्मण को दे दिया जा सकता है(देखिए बौधायनपितृमेधसूत्र 1।10।2 भी)। शांखायनश्रौतसूत्र (4।14।14-15) का कथन है कि मारे गये या जीवित पशु के दोनों वृक्क पीछे से निकालकर दक्षिण अग्नि में थोड़ा गर्म करके मृत के दोनों हाथों में रख देने चाहिए और 'अतिद्रव' (ऋग्वेद 10।14।10-11) का पाठ करना चाहिए।</ref> शव के अंगों पर पशु के वही अंग काट-काटकर रख देता है और पुन: उसकी खाल से शव को ढँककर प्रणीता के जल को आगे ले जाते समय वह (अन्त्येष्टि कर्म करने वाला) 'इमम् अग्ने' (ऋग्वेद 10।16।8) का आह्वान के रूप में पाठ करता है। अपना बायाँ घुटना मोड़कर वह दक्षिण-अग्नि में घृत की चार आहुति यह कहकर डालता है-'अग्नि को स्वाहा! सोम को स्वाहा! लोक को स्वाहा! अनुमति को स्वाहा!' पाँचवीं आहुति शव की छाती पर यह कहकर दी जाती है, 'जहाँ से तू उत्पन्न हुआ है! वह तुझसे उत्पन्न हो, न न। स्वर्गलोक को स्वाहा' (वाजसनेयी संहिता 25।22)। इसके उपरान्त आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।4।2-5) यह बताता है कि यदि आहवनीय अग्नि या गार्हपत्य या दक्षिण अग्नि शव के पास प्रथम पहुँचती है या सभी अग्नियाँ एक साथ ही शव के पास पहुँचती हैं, तो क्या समझना चाहिए; और जब शव जलता रहता है तो वह उस पर मन्त्रपाठ करता है (ऋग्वेद 10।14।7 आदि)। जो व्यक्ति यह सब जानता है, उसके द्वारा जलाये जाने पर धूम के साथ मृत व्यक्ति स्वर्गलोक जाता है, ऐसा ही (श्रुति से) ज्ञात है। 'इमे जीवा:' (ऋग्वेद 10।18।3) के पाठ के उपरान्त सभी (सम्बन्धी) लोग दाहिने से बायें घूमकर बिना पीछे देखे चल देते हैं। वे किसी स्थिर जल के स्थल पर जाते हैं और उसमें एक बार डुबकी लेकर और दोनों हाथों को ऊपर करके मृत का गौत्र, नाम उच्चारित करते हैं, बाहर आते हैं, दूसरा वस्त्र पहनते हैं, एक बार पहने हुए वस्त्र को निचोड़ते हैं और अपने कुरतों के साथ उन्हें उत्तर की ओर दूर रखकर वे तारों के उदय होने तक बैठे रहते हैं या सूर्यास्त का एक अंश दिखाई देता है तो वे घर लौट आते हैं, छोटे लोग पहले और बूढे लोग अन्त में प्रवेश करते हैं। घर लौटने पर वे पत्थर, अग्नि, गोबर, भुने जौ, तिल एवं जल स्पर्श करते हैं। और देखिए शतपथ ब्राह्मण (13।8।4।5) एवं वाजसनेयी संहिता (35-14, ऋग्वेद 1।50।10) जहाँ अन्य कृत्य भी दिये गये हैं, यथा स्नान करना, जल-तर्पण करना, बैल को छूना, आंख में अंजन लगाना तथा शरीर में अंगराग लगाना।
आजकल भी अग्निहोत्री लोग स्वयं श्रौत नित्य होम अशौच के दिनों में करते हैं, यद्यपि कुछ लोग ऐसा अन्य लोगों से कराते हैं।<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17 एवं मनुस्मृति 5.84</ref> यद्यपि गोभिलस्मृति<ref>गोभिलस्मृति 3.60</ref> ने संध्या का निषेध किया है, किन्तु पैठानसि का हवाला देकर मिताक्षरा ने कहा है कि सूर्य को जल दिया जा सकता है। कुछ अन्य लोगों का कथन है कि संध्या के मन्त्रों को मन में कहा जा सकता है, केवल प्राणायाम के मन्त्र नहीं कहे जाते।<ref>स्मृतिमुक्ताफल पृष्ठ 478</ref> आजकल [[भारत]] के बहुत से भागों में ऐसा ही किया जाता है। विष्णु धर्मसूत्र<ref>विष्णु धर्मसूत्र 22.6</ref> ने व्यवस्था दी है कि जन्म एवं मरण के अशौच में होम (वैश्वदेव), दान देना एवं ग्रहण करना तथा वेदाध्ययन रुक जाता है। वैखानसस्मार्तसूत्र<ref>वैखानसस्मार्तसूत्र 6.4</ref> के मत से संध्या पूजन, देवों एवं पितरों के कृत्य, दान देना एवं लेना तथा वेदाध्ययन अशौच की अवधि में छोड़ देना चाहिए। गौतम धर्मसूत्र<ref>गौतम धर्मसूत्र 14.44</ref> का कथन है कि वेदाध्ययन के लिए जन्म-मरण के समय ब्राह्मण पर अशौच का प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरी ओर संवर्त<ref>संवर्त 43</ref> का कथन है कि जन्म-मरण के अशौच में पंच महायज्ञ एवं वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए। नित्याचारपद्धति<ref>नित्याचारपद्धति पृष्ठ 544</ref> का कथन है कि अशौच में भी [[विष्णु]] के सहस्र नामों का पाठ किया जा सकता है।
 
==अस्थिसञ्चयन या सञ्चयन==
गृह्यसूत्रों में वर्णित अन्य बातें स्थानाभाव से यहाँ नहीं दी जा सकतीं। कुछ मनोरंजक बातें दी जा रही हैं। शतपथ ब्राह्मण (13।8।4।11) एवं पारस्करगृह्यसूत्र (3।10।10) ने स्पष्ट लिखा है कि जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसी प्रकार की जाती है, जिस प्रकार श्रौत अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति की, अन्तर केवल इतना होता है कि आहिताग्नि तीनों वैदिक अग्नियों के साथ जला दिया जाता है, जिसके पास केवल स्मार्त अग्नि या औपासन अग्नि होती है, वह उसके साथ जला दिया जाता है और साधारण लोगों का शव केवल साधारण अग्नि से जलाया जाता है। देवल का कथन है कि साधारण अग्नि के प्रयोग में चाण्डाल की अग्नि या अशुद्ध अग्नि या सूतकगृह-अग्नि या पतित के घर की अग्नि या चिता की अग्नि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पितदयिता के मत से जिसने अग्निहोत्र न किया हो, उसके लिए 'अस्मात् त्वम् आदि' मन्त्र का पाठ नहीं करना चाहिए। पारस्करगृह्यसूत्र ने व्यवस्था दी है कि एक ही गाँव के रहने वाले सम्बन्धी एक ही प्रकार का कृत्य करते हैं, वे एक ही वस्त्र धारण करते हैं, यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे से लटकाते हैं और बायें हाथ की चौथी अँगुली से वाजसनेयी संहिता (35।6) के साथ जल तर्पण करते हैं तथा दक्षिणाभिमुख होकर जल में डुबकी लेते हैं और अंजलि से एक बार जल तर्पण करते हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (2।6।15।2-7) का कथन है कि जब किसी व्यक्ति की माता या पिता की सातवीं पीढ़ी के सम्बन्धी या जहाँ तक वंशावली ज्ञात हो, वहाँ तक के व्यक्ति मरते हैं, तो एक वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर सभी लोगों को स्नान करना चाहिए। जब एक वर्ष से कम अवस्था वाला बच्चा मरता है तो माता-पिता एवं उनको जो बच्चे का शव ढोते हैं, स्नान करना चाहिए। उपर्युक्त सभी लोगों को बाल नहीं सँवारने चाहिए, बालों से धूल हटा देनी चाहिए, एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, पानी में डुबकी लगानी चाहिए, मृत को तीन बार जल तर्पण करना चाहिए और नदी या जलाशय के पास बैठ जाना चाहिए। इसके पश्चात् गाँव को लौट जाना चाहिए तथा स्त्रियाँ जो कुछ कहें उसे करना चाहिए (अग्नि, पत्थर, बैल आदि स्पर्श करना चाहिए)। याज्ञवल्क्यस्मृति (3।2) ने भी ऐसे नियम दिये हैं और 'अप न: शोशुचद् अघम्' (ऋग्वेद 1।97।1; अथर्ववेद 4।33।1 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6।10।1) के पाठ की व्यवस्था दी है। गौतमपितृमेधसूत्र (2।23) के मत से चिता का निर्माण यज्ञिय वृक्ष की लकड़ी से करना चाहिए और सपिण्ड लोग जिनमें स्त्रियाँ और विशेषत: कम अवस्था वाली सबसे आगे रहती हैं। चिता पर रखे गये शव पर अपने वस्त्र के अन्तभाग (आँचल) से हवा करते हैं, अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला एक जलपूर्ण घड़ा लेता है और अपने सिर पर दर्भेण्डु (?) रखता है और तीन बार शव की परिक्रमा करता है। पुरोहित घड़े पर एक पत्थर (अश्म) या कुल्हाड़ी से धीमी चोट करता है और 'इमा आप: आदि' का पाठ करता है। जब टूटे घड़े से जल की धार बाहर निकलने लगती है तो मन्त्र के शब्दों में कुछ परिवर्तन हो जाता है, यथा 'अस्मिन् लोके' के स्थान पर 'अन्तरिक्षे आदि'। अन्त्येष्टिकर्ता खड़े रूप में जलपूर्ण घड़े को पीछे फेंक देता है। इसके उपरान्त 'तस्मात् त्वमधिजातोसि......असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा' के पाठ के साथ शव को जलाने के लिए चिता में अग्नि प्रज्वलित करता है (गौतमपितृमेधसूत्र 1।3।1-13)। शतपथ ब्राह्मण (28।1।38) का कथन है कि घर के लोग अपनी दाहिनी जाँघों को पीटते हैं, आँचल से शव पर हवा करते हैं और तीन बार शव की बायें ओर होकर परिक्रमा करते हैं तथा 'अप न: शोशुचदघम्' (ऋग्वेद 1।47।1 तथा तैत्तिरीयारण्यक 6।10।1) पढ़ते हैं। इसने आगे कहा है (28।1।37-46) कि शव किसी गाड़ी में या चार पुरुषों के द्वारा ढोया जाता है, और ढोते समय चार स्थानों पर रोका जाता है और उन चारों स्थानों पर पृथ्वी खोद दी जाती है और उसमें भात का पिण्ड 'पूषा त्वेत:' (ऋग्वेद 10173 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6।10।1) एवं 'आयुर्विश्वायु:' (ऋग्वेद 10।17।4 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6।10।2) मन्त्रों के साथ आहुति के रूप में रख दिया जाता है। वराहपुराण के अनुसार पौराणिक मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए, अन्त्येष्टिकर्ता को चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके उस भाग में अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए जहाँ पर सिर रखा रहता है।
अस्थिसञ्चयन या सञ्चयन वह कृत्य है, जिसमें शवदाह के उपरान्त जली हुई, अस्थियाँ एकत्र की जाती हैं। यह कृत्य बहुत से सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित है, यथा-शांखायन श्रौतसूत्र<ref>शांखायन श्रौतसूत्र 4.15.12-18</ref>, सत्याषाढ श्रौतसूत्र<ref>सत्याषाढ श्रौतसूत्र 28.3</ref>, आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र 4.5.1-18</ref>, गौतम पितृमेधसूत्र<ref>गौतम पितृमेधसूत्र 1.5</ref>, विष्णु धर्मसूत्र<ref>विष्णु धर्मसूत्र 19.10-12</ref>, बौधायन पितृमेधसूत्र<ref>बौधायन पितृमेधसूत्र 5.7</ref>, यम<ref>यम 87-88</ref>, संवर्त<ref>संवर्त 38</ref>, गोभिलस्मृति<ref>गोभिलस्मृति 3.54-59</ref>, हारलता।<ref>हारलता पृष्ठ 183</ref> यह कृत्य किस दिन किया जाए, इस विषय में मतैक्य नहीं है। उदाहरणार्थ, सत्याषाढ श्रौतसूत्र<ref>सत्याषाढ श्रौतसूत्र 28.3.1</ref> के मत से अस्थि संचयन शवदाह के एक दिन उपरान्त या तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन होना चाहिए; संवर्त<ref>संवर्त 38</ref> एवं गरुड़ पुराण<ref>गरुड़ पुराण प्रेतखंड, 5.15</ref> के मत से पहले, तीसरे सातवें या नवें दिन और विशेषत: द्विजों के लिए चौथे दिन अस्थि संचयन होना चाहिए। वामन पुराण<ref>वामन पुराण 14.97-98</ref> ने पहले, चौथे या सातवें दिन की अनुमति दी है। यम<ref>यम 87</ref> ने सम्बन्धियों को शवदाह के उपरान्त प्रथम दिन से लेकर चौथे दिन तक अस्थियाँ एकत्र कर लेने को कहा है और पुन:<ref>यम, 88</ref> कहा है कि चारों वर्णों में संचयन क्रम से चौथे, पाँचवें, सातवें एवं नवें दिन होना चाहिए। आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र 4.5.1</ref> के मत से शवदाह के उपरान्त दसवें दिन (कृष्ण पक्ष में) संचयन होना चाहिए, किन्तु विषम तिथियों (प्रथमा, तृतीया, एकादशी, त्रयोदशी एवं अमावस्या के दिन) में तथा उस नक्षत्र में, जिसका नाम दो या दो से अधिक नक्षत्रों के साथ प्रयुक्त नहीं होता है (अर्थात् दो आषाढ़ाओं, दो फाल्गुनियों एवं दो भाद्रपदाओं को छोड़कर)। विष्णुधर्मसूत्र (19।10), वैखानसस्मार्त (5।7), कूर्मपुराण (उत्तर, 23), कौशिकसूत्र (82।29), विष्णुपुराण (3।13।14) आदि ने कहा है कि संचयन दाह के चौथे दिन अवश्य होना चाहिए। विस्तार के विषय में भी मतैक्य नहीं है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।5) में निम्न बातें पायी जाती हैं-पुरुष की अस्थियाँ अचिह्नित पात्र (ऐसे पात्र जिसमें कहीं गंड या शोथ आदि न उभरा हो) में एकत्र करनी चाहिए और स्त्री की अस्थियाँ गण्डयुक्त पात्र में एकत्र करनी चाहिए। विषम संख्या में बूढ़ों द्वारा (इसमें स्त्रियाँ नहीं रहतीं) अस्थियाँ एकत्र की जाती हैं। कर्ता चितास्थल की परिक्रमा अपने वामांग को उस ओर करके तीन बार करता है और उस पर जलयुक्त दूध शमी की टहनी से छिड़कता है और ऋग्वेद (10।16।14) के 'शीतिके' का पाठ करता है। अँगूठे और अनामिका अँगुली से अस्थियाँ उठाकर एक-एक संख्या में पात्र में बिना स्वर उत्पन्न किये रखी जाती हैं। सर्वप्रथम पाँव की अस्थियाँ उठायी जाती हैं और अन्त में सिर की। अस्थियों को भली-भाँति एकत्र करके और उन्हें पछोड़ने वाले पात्र से स्वच्छ करके एवं पात्र में एकत्र करके ऐसे स्थान में रखा जाता है, जहाँ चारों पानी आकर एकत्र नहीं होता और 'उपसर्प' (ऋग्वेद 10।18।10) का पाठ किया जाता है। इसके उपरान्त चिता के गड्ढे में मिट्टी भर दी जाती है और ऋग्वेद (10।18।11) का मन्त्रोच्चारण किया जाता है। फिर ऋग्वेद (10।18।12) का पाठ किया जाता है। अस्थिपात्र को ढक्कन से बन्द करते समय (ऋग्वेद 10।18।13) का पाठ (उत् ते स्तभ्निम) किया जाता है। इसके उपरान्त बिना पीछे घूमे घर लौट आया जाता है, स्नान किया जाता है और कर्ता द्वारा अकेले मृत के लिए श्राद्ध किया जाता है। कौशिकसूत्र (82।29-32) ने अस्थिसंचयन की विधि कुछ दूसरे ही प्रकार से दी है।
 
आधुनिक काल में अन्त्येष्टिक्रिया की विधि सामान्यत: उपर्युक्त आश्वलायनगृह्यसूत्र के नियमों के अनुसार या गरुड़पुराण (2।4।41) में वर्णित व्यवस्था पर आधारित है। स्थानाभाव से हम इसका वर्णन यहाँ उपस्थित नहीं कर सकेंगे। एक बात और है, विभिन्न स्थानों में विभिन्न विधियाँ परम्परा से प्रयुक्त होती आयी हैं। एक स्थान की विधि दूसरे स्थान में ज्यों कि त्यों नहीं पाई जाती। इस प्रकार की विभिन्नता के मूल में विभिन्न शाखाएँ आदि हैं।
 
शव को ले जाने के विषय में कई प्रकार के नियमों की व्यवस्था है। हमने ऊपर देख लिया है कि शव गाड़ी में ले जाया जाता था या सम्बन्धियों या नौकरों (दासों) द्वारा विशिष्ट प्रकार से बने पलंग या कुर्सी या अरथी द्वारा ले जाया जाता था। इस विषय में कुछ सूत्रों, स्मृतियो, टीकाओं एवं अन्य ग्रन्थों ने बहुत-से नियम प्रतिपादित किये हैं। रामायण (अयोध्या. 76।13) में आया है कि दशरथ की मृत्यु पर उनके पुरोहितों द्वारा शव के आगे वैदिक अग्नियाँ ले जायी जा रही थीं, शव एक पालकी (शिबिका) में रखा हुआ था, नौकर ढो रहे थे, सोने के सिक्के एवं वस्त्र अरथी के आगे दरिद्रों के लिए फेंके जा रहे थे। सामान्य नियम यह था कि तीन उच्च वर्णों में शव को मृत व्यक्ति के वर्ण वाले ही ढोते थे और शूद्र उच्च वर्ण का शव तब तक नहीं ढो सकते थे, जब तक उस वर्ण के लोग नहीं पाये जाते थे। उच्च वर्ण के लोग शूद्र के शव को नहीं ढोते थे और इस नियम का पालन करने पर तत्सम्बन्धी अशौच मृत व्यक्ति की जाति से निर्णीत होता था। देखिए विष्णुधर्मसूत्र (9।1-4), गौतमधर्मसूत्र (14।29), मनुस्मृति (5।10।4), याज्ञवल्क्यस्मृति (3।26) एवं पराशरमाधवीय (3।43-45)। ब्रह्मचारी को किसी व्यक्ति या अपनी जाति के किसी व्यक्ति के शव को ढोने की आज्ञा नहीं थी, किन्तु वह अपने माता-पिता, गुरु, आचार्य एवं उपाध्याय के शव को ढो सकता था और ऐसा करने पर उसे कोई कल्मष नहीं लगता था। देखिए वसिष्ठ (23।7), मनुस्मृति (5।91), याज्ञवल्क्यस्मृति (3।15), लघु हारीत (92-93), ब्रह्मपुराण (पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 278)। गुरु, आचार्य और उपाध्याय की परिभाषा याज्ञवल्क्यस्मृति (1।34-35) ने दी है। यदि कोई ब्रह्मचारी उपर्युक्त पाँच व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य का शव ढोता था, तो उसका ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित माना जाता था और उसे व्रतलोप का प्रायश्चित करना पड़ता था। मनुस्मृति (5।103 एवं याज्ञवल्क्यस्मृति 3।13-14) का कथन है कि जो लोग स्वजातीय व्यक्ति का शव ढोते हैं, उन्हें वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए; नीम की पत्तियाँ दाँत से चबानी चाहिए; आचमन करना चाहिए; अग्नि, जल, गोबर, श्वेत सरसों का स्पर्श करना चाहिए; धीरे से किसी पत्थर पर पैर रखना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए। सपिण्डों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्बन्धी का शव ढोएँ, ऐसा करने के उपरान्त उन्हें केवल स्नान करना होता है, अग्नि को छूना होता है और पवित्र होने के लिए घृत पीना पड़ता है (गौतमधर्मसूत्र 14।29; याज्ञवल्क्यस्मृति 3।26; मनुस्मृति 4।103; पराशरमाधवीय 3।42; देवल, पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 277 एवं हारीत, अपरार्क पृष्ठ 871)।
 
सपिण्डरहित ब्राह्मण के मृत शरीर को ढोने वाले की पराशरमाधवीय (3।3।41) ने बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि जो व्यक्ति मृत ब्राह्मण के शरीर को ढोता है, वह प्रत्येक पग पर एक-एक यज्ञ के सम्पादन का फल पाता है और केवल पानी में डुबकी लेने और प्राणायाम करने से ही पवित्र हो जाता है। मनुस्मृति (5।101-102) का कथन है कि जो व्यक्ति किसी सपिण्डरहित व्यक्ति के शव को प्रेमवश ढोता है, वह तीन दिनों के उपरान्त ही अशौचरहित हो जाता है। आदिपुराण को उद्धृत करते हुए हारलता (पृष्ठ 121) ने लिखा है कि यदि कोई क्षत्रिय या वैश्य किसी दरिद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय (जिसने सब कुछ खो दिया हो) के या दरिद्र वैश्य के शव को ढोता है, वह बड़ा यश एवं पुण्य पाता है और स्नान के उपरान्त ही पवित्र हो जाता है। सामान्यत: आज भी (विशेषत: ग्रामों में) एक ही जाति के लोग शव को ढोते हैं या साथ जाते हैं और वस्त्रसहित स्नान करने के पश्चात् पवित्र मान लिये जाते हैं। कुछ मध्यकाल की टीकाओं, यथा मिताक्षरा ने जाति-संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर व्यवस्था दी है कि "यदि कोई व्यक्ति प्रेमवश शव ढोता है, मृत के परिवार में भोजन करता है और वहीं रह जाता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है। यह नियम तभी लागू होता है, जब कि शव को ढोने वाला मृत की जाति का रहता है। यदि ब्राह्मण किसी मृत शूद्र के शव को ढोता है, तो वह एक मास तक अपवित्र रहता है, किन्तु यदि कोई शूद्र किसी मृत ब्राह्मण के शव को ढोता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है।" कूर्मपुराण ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी मृत ब्राह्मण के शव को शुल्क लेकर ढोता है या किसी अन्य स्वार्थ के लिए ऐसा करता है तो वह दस दिनों तक अपवित्र (अशौच) में रहता है, और इसी प्रकार कोई क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसा करता है तो क्रम से 12, 15 एवं 30 दिनों तक अपवित्र रहता है।
 
विष्णुपुराण का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति शुल्क लेकर शव ढोता है तो वह मृत व्यक्ति की जाति के लिए व्यवस्थित अवधि तक अपवित्र रहता है। हारीत (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।2; मदनपारिजात पृष्ठ 395) के मत से शव को मार्ग के गाँवों में होकर नहीं ले जाना चाहिए। मनुस्मृति (5।92) एवं वृद्ध-हारीत (9।100-101) का कथन है कि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण का मृत शरीर क्रम से ग्राम या बस्ती के दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी मार्ग से ले जाना चाहिए। यम एवं गरुड़पुराण (2।4।56-58) का कथन है कि चिता के लिए अग्नि, काष्ठ (लकड़ी), तृण, हवि आदि उच्च वर्णों की अन्त्येष्टि के लिए शूद्र द्वारा नहीं ले जाना चाहिए, नहीं तो मृत व्यक्ति सदा प्रेतावस्था में ही रह जायेगा। हारलता (पृष्ठ 121) का कथन है कि यदि शूद्रों द्वारा लकड़ी ले जायी जाये तो ब्राह्मण के शव के चिता-निर्माण के लिए ब्राह्मण ही प्रयुक्त होना चाहिए। स्मृतियों एवं पुराणों ने व्यवस्था दी है कि शव को नहलाकर जलाना चाहिए, शव को नग्न रूप में कभी नहीं जलाना चाहिए। उसे वस्त्र से ढँका रहना चाहिए, उस पर पुष्प रखने चाहिए और चन्दन लेप करना चाहिए; अग्नि को शव के मुख की ओर ले जाना चाहिए। किसी व्यक्ति को कच्ची मिट्टी के पात्र में पका हुआ भोजन ले जाना चाहिए, किसी अन्य व्यक्ति को उस भोजन का कुछ अंश मार्ग में रख देना चाहिए और चाण्डाल आदि (जो श्मशान में रहते हैं) के लिए वस्त्र आदि दान करना चाहिए।
 
ब्रह्मपुराण (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 159) का कथन है कि शव को श्मशान ले जाते समय वाद्ययंत्रों द्वारा पर्याप्त निनाद किया जाता है।<ref>भरत ने चार प्रकार के वाद्यों की चर्चा यों की है-'ततं चैवावनद्धं घनं सुषिरमेव च।' अमरकोश ने उन्हें निम्न प्रकार से समझाया है-'ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम्। वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं घनम्।'</ref>
 
शव को जलाने के उपरान्त, अन्त्येष्टि क्रिया के अंग के रूप में कर्ता को वपन (मुंडन) करवाना पड़ता है और उसके उपरान्त स्नान करना होता है, किन्तु वपन के विषय में कई नियम हैं। स्मृति-वचन यों है-'दाढ़ी-मूँछ बनवाना सात बातों में घोषित है, यथा-गंगातट पर, भास्कर क्षेत्र में, माता, पिता या गुरु की मृत्यु पर, श्रौताग्नियों की स्थापना पर एवं सोमयज्ञ में।'<ref>गंगायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रोर्गृरोम् तौ। आधानकाले सोमे च वपनं सप्तसु स्मृतम्।। देखिए मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17), पराशरमाधवीय (1।2, पृष्ठ 296), शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 161), प्रायश्चितत्ततत्त्व (पृष्ठ 496)। भास्कर क्षेत्र प्रयाग का नाम है।</ref> अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 19) का कथन है कि अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले पुत्र या किसी अन्य कर्ता को सबसे पहले वपन कराकर स्नान करना चाहिए और तब शव को किसी पवित्र स्थल पर ले जाना चाहिए तथा वहाँ स्नान कराना चाहिए, या यदि ऐसा स्थान वहाँ न हो तो शव को स्नान कराने वाले जल में गंगा, गया या अन्य तीर्थों का आवाहन करना चाहिए। इसके उपरान्त शव पर घी या तिल के तेल का लेप करके पुन: उसे नहलाना चाहिए, नया वस्त्र पहनाना चाहिए, यज्ञोपवीत, गोपीचन्दन, तुलसी की माला से सजाना चाहिए और सम्पूर्ण शरीर में चन्दन, कपूर, कुंकुम, कस्तूरी आदि सुंगधित पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। यदि अन्त्येष्टि क्रिया रात्रि में हो तो वपन रात्रि में नहीं होना चाहिए, बल्कि दूसरे दिन होना चाहिए।<ref>रात्रौ दग्ध्वा तु पिण्डान्त कृत्वा वपनवर्जितम्। वपनं नेष्यते रात्रौ श्वस्तनी वपनक्रिया।। संग्रह संग्रह (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 161)।</ref> अन्य स्मृतियों ने दूसरे, तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन या ग्यारहवें दिन के श्राद्धकर्म के पूर्व किसी दिन भी वपन की व्यवस्था दी है।<ref>अलुप्तकेशो य: पूर्व सोऽत्र केशान् प्रवापचेत्। द्वितीये तृतीयेऽह्नि पंचमे स्पतमेऽपि वा।। यावच्छाद्धं प्रदीयेत तावदित्यपरं मतम्।। बौधायन (पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 2); वपनं दशमेऽहनि कार्यम्। तदाह देवल:। दशमेऽहनि संप्राप्ते स्नानं ग्रामाद बहिर्भवेत्। तत्र त्याज्यानि वासांसि केशश्मश्रुनखानि च।। (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17); मदनपारिजात (पृष्ठ 416) ने देवल आदि को उद्धृत करते हुए लिखा है-'पंचमादिदिनेषु कृतक्षौरस्यापि शुद्धयर्थ दशमदिनेपि वपनं कर्तव्यम्।'</ref> आपस्तम्बधर्मसूत्र (1।3।10।6) के मत से मृत व्यक्ति से छोटे सभी सपिण्ड लोगों को वपन कराना चाहिए। मदनपारिजात का कथन है कि अन्त्येष्टि कर्ता को वपन-कर्म प्रथम दिन तथा अशौच की समाप्ति पर कराना चाहिए, किन्तु शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 162) ने मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17) के मत का समर्थन करते हुए कहा है कि वपन-कर्म का दिन स्थान-विशेष की परम्परा पर निर्भर है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से कर्ता अन्त्येष्टि कर्म के समय वपन कराता है, किन्तु मिथिला सम्प्रदाय के मत से अन्त्येष्टि के समय वपन नहीं होता।
 
गरुड़पुराण (2।4।67-69) के मत से घोर रुदन शवदाह के समय किया जाना चाहिए, किन्तु दाह-कर्म एवं जल-तर्पण के उपरान्त रुदन-कार्य नहीं होना चाहिए।


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मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि में समर्पित कर अंत्येष्टि-संस्कार करने का विधान हमारे ऋषियों ने इसलिए बनाया, ताकि सभी स्वजन, संबधी, मित्र, परिचित अपनी विदाई देने आएं और इससे उन्हें जीवन का उद्देश्य समझने का मौक़ा मिले, साथ ही यह भी अनुभव हो कि भविष्य में उन्हें भी शरीर छोड़ना है।<ref name="pjv">{{cite web |url=http://www.poojavidhi.com/vidhi.aspx?pid=101 |title=अंत्येष्टि-संस्कार |accessmonthday=17 फ़रवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=ए.एस.पी |publisher=पूजा विधि |language=[[हिन्दी]]}}</ref> हिन्दू धर्म में मृतक को जलाने की परंपरा है, जबकि अन्य धर्मों में प्रायः ज़मीन में गाड‌ने की। जलाने की परंपरा वैज्ञानिक है। शव को जला देने पर मात्र राख बचती है, शेष अंश जलकर समाप्त हो जाते हैं। राख को नदी आदि में प्रवाहित कर दिया जाता है। इससे प्रदूषण नहीं फैलता, जबकि शव को ज़मीन में गाड़ने से पृथ्वी में प्रदूषण फैलता है, दुर्गन्ध फैलती है तथा भूमि अनावश्यक रुप से फंसी रहती है। चूडा‌मण्युपनिषद् में कहा गया है की ब्रह्म से स्वयं प्रकाशरुप [[आत्मा]] की उत्पत्ति हुई। आत्मा से [[आकाश तत्व|आकाश]], आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, [[जल]] से [[पृथ्वी ग्रह|पृथ्वी]] की उत्पत्ति हुई। इन पाँच तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य शरीर की रचना हुई है। [[हिन्दू]] अंत्येष्टि-संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके आकाश, वायु, जल, अग्नि और मिट्टी इन्हीं [[पंचतत्त्व|पंचतत्त्वों]] में पुनः मिला दिया जाता है।
मृतक देह को जलाने यानी शवदाय करने के सबंध में [[अथर्ववेद]] में लिखा है -
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
इमौ युनिज्मि ते वहनी असुनीताय वोढवे।
ताभ्यां यमस्य सादनं समितीश्चाव गाच्छ्तात्।।<ref name="pjv"></ref>
</poem></span></blockquote>
अर्थात है जीव! तेरे प्राणविहिन मृतदेह को सदगाति के लिए मैं इन दो अग्नियों को संयुक्त करता हूं। अर्थात तेरी मृतक देह में लगाता हूँ। इन दोनों अग्नियों के द्धारा तू सर्वनियंता यम परमात्मा के समीप परलोक को श्रेष्ठ गातियों के साथ प्राप्त हो।
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
आ रभस्व जातवेदस्तेजस्वदधरो अस्तु ते।
शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामु लोके।।<ref name="pjv"></ref>
</poem></span></blockquote>
अर्थात हे अग्नि! इस शव को तू प्राप्त हो। इसे अपनी शरण में ले। तेरा सामर्थ्य तेजयुक्त होवे। इस शव को तू जला दे और है अग्निरुप प्रभो, इस जीवात्मा को तू सुकृतलोक में धारण करा।
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम् ।
ओद्दम् क्रतो स्मर। क्लिवे स्मर। कृतं स्मर।।<ref name="pjv"></ref>
</poem></span></blockquote>
अर्थात हे कर्मशील जीव, तू शरीर छूटते समय परमात्मा के श्रेष्ठ और मुख्य नाम ओम् का स्मरण कर। प्रभु को याद कर। किए हुए अपने कर्मों को याद कर। शरीर में आने जाने वाली वायु अमृत है, परंतु यह भौतिक शरीर भस्मपर्यन्त है। भस्मांत होने वाला है। यह शव भस्म करने योग्य है।
====कपाल-क्रिया====
हिंदुओं में यह मान्यता भी है की मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूलशरीर के आस-पास मंडराती रहती है, इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबध न रहे।<ref name="pjv"></ref> अंत्येष्टि-संस्कार में कपाल-क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख [[गरुड़पुराण]] में मिलता है। जब शवदाह के समय मृतक की खोपडी को [[घी]] की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है, तो उस समय प्रक्रिया को कपालक्रिया के नाम से जाना जाता है। चूंकि खोपडी की हड्डी इतनी मज़बूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। वह टूटकर [[मस्तिष्क]] में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्त्व में पूर्ण रुप से विलीन हो जाएं, इसलिए उसे तोड़ना जरुरी होता है। इसके अलावा अलग-अलग मान्यताएं भी प्रचलित है। मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते है और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढते हैं। दूसरी मान्यता यह है की खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है। ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न [[देवता|देवताओं]] का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्धचंद्रिका में मिलता है। चूँकि सिर में [[ब्रह्मा]] का वास माना जाता है इसलिए शरीर को पूर्णरुप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपालक्रिया द्धारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। पुत्र के द्वारा पिता को अग्नि देना व कपालक्रिया इसलिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर-परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।<ref name="pjv"></ref>
==टीका टिप्पणी==
==टीका टिप्पणी==


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13:54, 2 मई 2015 के समय का अवतरण

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सन्न्यासी को गाड़ने की प्रथा

यति (सन्न्यासी) को प्राचीन काल में भी गाड़ा जाता था। ऊपर ऋतु का मत प्रकाशित किया गया है कि ब्रह्मचारी एवं यति का शव उत्तपन अग्नि से जलाया जाता है। इस विषय में शुद्धिप्रकाश[1] ने व्याख्या उपस्थित की है कि यहाँ पर यति कुटीचक श्रेणी का सन्न्यासी है और उसने यह भी बताया है कि चार प्रकार के सन्न्यासी लोगों (कुटीचक, बहूदक, हंस एवं परमहंस) की अन्त्येष्टि किस प्रकार से की जाती है। बौधायनपितृमेधसूत्र[2] ने संक्षेप में लिखा है, जिसे स्मृत्यर्थसार[3] ने कुछ अन्तरों के साथ ग्रहण कर लिया है और परिव्राजक की अन्त्येष्टि क्रिया का वर्णन उपस्थित किया है-किसी को ग्राम के पूर्व या दक्षिण में जाकर पलाश वृक्ष के नीचे या नदी तट पर या किसी अन्य स्वच्छ स्थल पर व्याहृतियों के साथ यति के दण्ड के बराबर गहरा गड्ढा खोदना चाहिए; इसके उपरान्त प्रत्येक बार सात व्याहृतियों के साथ उस पर तीन बार जल छिड़कना चाहिए, गड्ढे में दर्भ बिछा देना चाहिए, माला, चन्दनलेप आदि से शव को सजा देना चाहिए और मन्त्रों[4] के साथ शव को गड्ढे में रख देना चाहिए। परिव्राजक के दाहिने हाथ में दण्ड तीन खण्डों में करके थमा देना चाहिए, और ऐसा करते समय ऋग्वेद;[5] वाजसनेयी संहिता[6] एवं तैत्तिरीय संहिता[7] का मन्त्रपाठ करना चाहिए। शिक्य को बायें हाथ में मन्त्रों[8] के साथ रखा जाता है और फिर क्रम से पानी छानने वाला वस्त्र मुख पर[9], गायत्री मन्त्र[10] के साथ पात्र को पेट पर और जलपात्र को गुप्तांगों के पास रखा जाता है। इसके उपरान्त 'चतुर्होतार:' मन्त्रों का पाठ किया जाता है। अन्य कृत्य नहीं किये जाते, न तो शवदाह होता है, न अशौच मनाया जाता है और न जल-तर्पण ही किया जाता है, क्योंकि यति संसार की विषयवासना से मुक्त होता है।

स्मृत्यर्थसार ने इतना जोड़ दिया है कि न तो एकोद्दिष्ट श्राद्ध और न सपिण्डीकरण ही किया जाता है, केवल ग्यारहवें दिन पार्वण श्राद्ध होता है। किन्तु कुटिचक जलाया जाता है, बहूदक गाड़ा जाता है, हंस को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है और परमहंस को भली-भाँति गाड़ा जाता है।[11] गाड़ने के उपरान्त गड्ढे को भली-भाँति बालू से ढँक दिया जाता है, जिससे कुत्ते, श्रृगाल आदि शव को (पंजों से गड्ढा खोदकर) निकाल न डालें। धर्मसिंधु[12] ने लिखा है कि मस्तक को शंख या कुल्हाड़ी से छेद देना चाहिए, यदि ऐसा करने में असमर्थता प्रदर्शित हो तो मस्तक पर गुड़ की भेली रखकर उसे ही तोड़ देना चाहिए। इसने भी यही कहा है कि कुटीचक को छोड़कर कोई यति नहीं जलाया जाता। आजकल सभी यति गाड़े जाते हैं, क्योंकि बहूदक एवं कुटीचक आजकल पाये नहीं जाते, केवल परमहंस ही देखने में आते हैं। यतियों को क्यों गाड़ा जाता है? सम्भवत: उत्तर यही हो सकता है कि वे गृहस्थों की भाँति श्रौताग्नियाँ या स्मार्ताग्नियाँ नहीं रखते और वे लोग भोजन के लिए साधारण अग्नि भी नहीं जलाते। गृहस्थ लोग अपनी श्रौत या स्मार्त अग्नियों के साथ जलाये जाते हैं, किन्तु यति लोग बिना अग्नि के होते हैं, अत: गाड़े जाते हैं।[13]

गर्भिणी नारी के शवदाह के नियम

जो स्त्रियाँ बच्चा जनते समय या जनने के तुरन्त उपरान्त ही या मासिक धर्म की अवधि में मर जाती हैं, उनके शवदाह के विषय में विशिष्ट नियम हैं। मिताक्षरा द्वारा उद्धृत एक स्मृति एवं स्मृतिचंद्रिका[14] ने सूतिका के विषय में लिखा है कि एक पात्र में जल एवं पंचगव्य लेकर मन्त्रोचारण[15] करना चाहिए और उससे सूतिका को स्नान कराकर जलाना चाहिए। मासिक धर्म वाली मृत नारी को भी इसी प्रकार जलाना चाहिए, किन्तु उसे दूसरा वस्त्र पहनाकर जलाना चाहिए।[16] इसी प्रकार गर्भिणी नारी के शव के विषय में भी नियम हैं[17]

विभिन्न कालों में शव-क्रिया

विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में शव-क्रिया (अन्त्येष्टि क्रिया) विभिन्न ढंगों से की जाती रही है। अन्त्येष्टि क्रिया के विभिन्न प्रकार ये हैं-जलाना (शवदाह), भूमि में गाड़ना, जल में बहा देना, शव को खुला छोड़ देना, जिससे चील, गिद्ध, कोए या पशु आदि उसे खा लें (यथा पारसियों में)[18], गुफ़ाओं में सुरक्षित रख छोड़ना या ममी रूप में (यथा मिस्र में) सुरक्षित रख छोड़ना।[19] जहाँ तक हमें साहित्यिक प्रमाण मिलता है, भारत में सामान्य नियम शव को जला देना ही था, किन्तु अपवाद भी थे, यथा-शिशुओं, सन्न्यासियों आदि के विषय में। प्राचीन भारतीयों ने शवदाह की वैज्ञानिक किन्तु कठोर हृदय वाली विधि किस प्रकार निकाली, यह बतलाना कठिन है। प्राचीन भारत में शव को गाड़ देने की बात अज्ञात नहीं थी।[20] अन्तिम मन्त्र का रूप यों है-"हे अग्नि, उन सभी पितरों को यहाँ ले आओ, जिससे कि वे हवि ग्रहण करें, उन्हें भी बुलाओ, जिनके शरीर गाड़े गये थे या खुले रूप में छोड़ दिये गये थे या ऊपर (पेड़ों पर या गुहाओं में?) रख दिये गये थे।[21] किन्तु सम्भव है कि शव के गाड़ने की ओर संकेत न भी हो। कुछ पूर्वज बहुत दूर लड़ाई में मारे गये हों, या शत्रुओं द्वारा पकड़ लिये गये हों, मार डाले गये हों और उनके शव यों ही छोड़ दिये गये हों, अर्थात् न तो उन्हें जलाया गया, न गाड़ दिया गया। छान्दोग्योपनिषद[22] में आये हुए एक कथन से कुछ विद्वान गाड़ने की बात निकालते हैं-'अत: वे उन भी मनुष्यों को असुर नाम देते हैं, जो दान नहीं देते, जो विश्वास नहीं रखते (धर्म नहीं मानते) और न ही यज्ञ करते हैं; क्योंकि यह असुरों का गूढ़ सिद्धान्त है। वे मृत के शरीर को भिक्षा (धूप-गंध या पुष्प?) एवं वस्त्र से सँवारते हैं और सोचते हैं कि वे इस प्रकार दूसरे लोक को जीत लेंगे।' यद्यपि यह वचन स्पष्ट नहीं है किन्तु असुरों, उनके शव श्रृंगार और परलोक प्राप्ति की ओर जो संकेत हैं, उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि असुरों में शव को गाड़ने की प्रथा सम्भवत: थी। ऋग्वेद[23] में ऋषि ने प्रार्थना की है कि 'हे वरुण, मैं मिट्टी के घर में न जाऊँ।' सम्भवत: यह गाड़ने की प्रथा की ओर संकेत है। इसके अतिरिक्त अस्थियों को इकट्ठा करके पात्र में रखकर भूमि में गाड़ने और बहुत दिनों उपरान्त उस पर श्मशान बना देने आदि की प्रथा भी प्रचलित थी। अथर्ववेद[24] में ऐसा आया है-'उन्हें वृक्ष कष्ट न दे और पृथिवी माता ही (ऐसा करे)।' इससे शवाधार (ताबूत) एवं शव को गाड़ने की ओर सम्भवत: संकेत मिलता है।

  • यह कुछ विचित्र सा है कि प्रगतिशील राष्ट्र बाइबिल के कथन की शाब्दिक व्याख्या में विश्वास करते हुए कि 'मृत का भौतिक शरीरोत्थान होता है', केवल शव को गाड़ने की प्रथा से ही चिपके रहे और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक ईसाई लोक शवदाह के लिए कभी तत्पर नहीं हुए। सन 1906 में क्रेमेशन एक्ट (इंग्लैण्ड में) पारित हुआ जिसके अनुसार स्वास्थ्यमंत्री-समर्थित समतल भूमि पर शवदाह करने की अनुमति अन्त्येष्टि क्रिया के अध्यक्ष को प्राप्त होने लगी। कैथोलिक चर्च वाले अब भी शवदाह नहीं करते। आदिकालीन रोम के लोग शवदाह को सम्मान्य समझते थे और शव गाड़ने की रीति केवल उन लोगों के लिए बरती जाती थी, जो आत्महन्ता या हत्यारे होते थे।
  • कुछ समय तक शव को विकृत होने से बचाने के लिए तेल आदि में रख छोड़ना भारत में अज्ञात नहीं था। शतपथ ब्राह्मण[25] एवं वैखानसश्रौतसूत्र[26] ने व्यवस्था दी है कि आहिताग्नि अपने लोगों से सुदूर मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो उसके शव को तिल-तेल से पूर्ण द्रोण (नाद) में रखकर गाड़ी द्वारा घर लाना चाहिए। रामायण में कई बार यही कहा गया है कि भरत के आने के बहुत दिन पूर्व ही राजा दशरथ का शव तेलपूर्ण लम्बे द्रोण या नाद में रख दिया गया था।[27] विष्णु पुराण में आया है कि निमि का शव तेल तथा अन्य सुगंधित पदार्थों से इस प्रकार सुरक्षित रखा हुआ था कि वह सड़ा नहीं और लगता था कि मृत्यु मानो अभी हुई हो।
  • ऋग्वेद के प्रणयन के पूर्व की स्थिति के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद तथा सिंधु घाटी के मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा अवशेषों के काल के निर्णय के विषय में अभी कोई सामान्य निश्चय नहीं हो सका है। सर जॉन मार्शल[28] ने पूर्ण रूप से गाड़ने, आंशिक रूप से गाड़ने एवं शवदाह के उपरान्त गाड़ने के रीतियों की ओर संकेत किया है। लौरिया नन्दनगढ़ की खुदाई से कुछ ऐसी श्मशान भूमियों का पता चला है, जो वैदिक काल की कही जाती हैं और उनमें एक छोटी स्वर्णिम वस्तु पायी गयी है, जो नंगी स्त्री, सम्भवत: पृथिवी माता की हैं। ये सब बातें पुरातत्ववेत्ताओं से सम्बन्ध रखती हैं।
  • हारलता[29] ने आदिपुराण का एक वचन उद्धृत करते हुए लिखा है कि मग के लोग गाड़े जाते थे और दरद लोग एवं लुप्त्रक लोग अपने सम्बन्धियों के शवों को पेड़ पर लटकाकर चल देते थे।

बौद्धों में अन्त्येष्टि क्रिया

ऐसा प्रतीत होता है कि आरम्भिक बौद्धों में अन्त्येष्टि क्रिया की कोई अलग विधि प्रचलित नहीं थी, चाहे मरने वाला भिक्षु हो या उपासक। महापरिनिब्बान सुत्तगें बौद्धधर्म के महान प्रस्थापक की अन्त्येष्टि क्रियाओं का वर्णन पाया जाता है।[30] इस ग्रन्थ से इस विषय में जो कुछ एकत्र किया जा सकता है, वह यह है-'बुद्ध के अत्यन्त प्रिय शिष्य आनन्द ने कोई पद्य नहीं कहा, कुछ ऐसे शिष्य जो विषयभोग से रहित नहीं थे, रो पड़े और पृथिवी पर धड़ाम से गिर पड़े, और अन्य लोग (अर्हत्) किसी प्रकार दु:ख को सम्भाल सके। दूसरे दिन आनन्द कुशीनारा के मल्लों के पास गये, मल्लों ने धूप, मालाएँ, वाद्ययंत्र तथा पाँच सौ प्रकार के वस्त्र आदि एकत्र किये; मल्लों ने शाल वृक्षों की कुंज में पड़े बुद्ध के शव की प्रार्थना सात दिनों तक की और नाच, स्तुतियों, गायन, मालाओं एवं गंधों से पूजा-अर्चनाएँ कीं और वस्त्रों से शव को ढँकते रहे। सातवें दिन वे भगवान के शव को दक्षिण की ओर ले चले, किन्तु एक चमत्कार[31] के कारण वे उत्तरी द्वार से नगर के बीच से होकर शव को लेकर चले और पूर्व दिशा में उसे रख दिया।[32] बुद्ध का शव नये वस्त्रों से ढँका गया और ऊपर से रूई एवं ऊन के चोगे बाँधे गये और फिर उनके ऊपर एक नया वस्त्र बाँधा गया। इस प्रकार वस्त्रों एवं सूत्रों के पाँच सौ स्तरों से शरीर ढँक दिया गया। इसके उपरान्त एक ऐसे लोहे के तैलपात्र में रखा गया, जो स्वयं एक तैलपात्र में रखा हुआ था। इसके पश्चात् सभी प्रकार के गंधों से युक्त चिता बनायी गई और उस पर शव रख दिया गया। तब महाकस्सप एवं पाँच सौ अन्य बौद्धों ने, जो साथ में आये थे, अपने परिधानों को कंधों पर सजाया[33], उन्होंने बद्धबाहु होकर सिर झुकाया और श्रद्धापूर्वक शव की तीन बार प्रदक्षिणा की। इसके उपरान्त शव का दाह किया गया। केवल अस्थियाँ बच गयीं। इसके उपरान्त मगधराज, अजातशत्रु, वैशाली के लिच्छवियों आदि ने बुद्ध के अवशेषों पर अपना-अपना अधिकार जताना आरम्भ कर दिया। बुद्ध के अवशेष आठ भागों में बाँटे गये। जिन्हें ये भाग प्राप्त हुए, उन्होंने उन पर स्तूप (धूप) बनवाये, मोरिय लोगों ने जिन्हें केवल राख मात्र प्राप्त हुई थी, उस पर स्तूप बनवाया और एक ब्राह्मण द्रोण (दोन) ने उसे घड़े पर, जिसमें अस्थियाँ एकत्र कर रखी गयी थीं, एक स्तूप बनवाया।' श्री राइस डेविड्स ने कहा है कि यद्यपि ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं जन्म गाथाओं में अन्त्येष्टियों का वर्णन मिलता है, किन्तु कहीं भी प्रचलित धार्मिक क्रिया आदि की ओर संकेत नहीं मिलता। ऐसा कहा जा सकता है कि बौद्ध अन्त्येष्टि क्रिया, यद्यपि सरल है, तथापि वह आश्वलायनगृह्यसूत्र के कुछ नियमों से बहुत कुछ मिलती है।[34]

शीर्षक

जब मृत के सम्बन्धीगण (पुत्र आदि) जल-तर्पण एवं स्नान करके जल (नदी, जलाशय आदि) से बाहर निकल कर हरी घास के किसी स्थल पर बैठ गये हों, तो गुरुजनों (वृद्ध आदि) को उनके दु:ख कम करने के लिए प्राचीन गाथाएँ कहनी चाहिए।[35] विष्णुधर्मसूत्र[36] में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है कि किस प्रकार काल (समय, मृत्यु) सभी को, यहाँ तक इन्द्र, देवों, दैत्यों, महान राजाओं एवं ऋषियों को धर दबोचता है, कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म लेकर एक दिन मरण को प्राप्त होता ही है (मृत्यु अवश्यंभावी है), कि (पत्नी को छोड़कर) कोई भी मृत व्यक्ति के साथ यमलोक को नहीं जाता है, कि किस प्रकार सदसत् कर्म मृतात्मा के पास आते हैं, कि किस प्रकार श्राद्ध मृतात्मा के लिए कल्याणकर है। इसने निष्कर्ष निकाला है कि इसीलिए जीवित सम्बन्धियों को श्राद्ध करना चाहिए और रुदन छोड़ देना चाहिए, क्योंकि उससे लाभ नहीं और केवल धर्म ही ऐसा है, जो मृतात्मा के साथ जाता है।[37] ऐसी ही बातें याज्ञवल्क्यस्मृति[38] में भी पायी जाती है; जो व्यक्ति मानव जीवन में, जो केले के पौधे के समान सारहीन है, और जो पानी के बुलबुले के समान अस्थिर है, अमरता खोजता है, वह भ्रम में पड़ा हुआ है। रुदन से क्या लाभ है जब कि शरीर पूर्व जन्म के कर्मों के कारण पंचतत्त्वों से निर्मित हो पुन: उन्हीं तत्त्वों में समा जाता है। पृथिवी, सागर और देवता नाश को प्राप्त होने वाले हैं (भविष्य में जब कि प्रलय होता है)। यह कैसे सम्भव है कि वह मृत्युलोक, जो फेन के समान क्षणभंगुर है, नाश को प्राप्त नहीं होगा? मृतात्मा को असहाय होकर अपने सम्बन्धियों के आँसू एवं नासिकारंध्रों से निकले द्रव पदार्थ को पीना पड़ता है, अत: उन सम्बन्धियों को रोना नहीं चाहिए, बल्कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्धकर्म आदि करना चाहिए। गोभिलस्मृति[39] ने बलपूर्वक कहा है कि 'जो नाशवान है और जो सभी प्राणियो की विशेषता (नियति) है, उसके लिए रोना-कलपना क्या? केवल शुभ कर्मों के सम्पादन में, जो तुम्हारे साथ जाने वाले हैं, लगे रहो।' गोभिल ने याज्ञवल्क्यस्मृति[40] एवं महाभारत को उद्धृत किया है-'सभी संग्रह क्षय को प्राप्त होते हैं, सभी उदय पतन को, सभी संयोग वियोग और जीवन मरण को।'[41] अपरार्क ने रामायण एवं महाभारत से उदाहरण दिये हैं, यथा दुर्योधन की मृत्यु पर वासुदेव द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति कहे गये वचन। पराशरमाधवीय[42], शुद्धिप्रकाश[43] एवं अन्य ग्रन्थों ने विष्णुधर्मसूत्र, याज्ञवल्क्यस्मृति एवं गोभिलस्मृति के वचन उद्धृत किये हैं।

सती प्रथा

गरुड़पुराण[44] ने पति की मृत्यु पर पत्नी के (पति चिता पर) बलिदान अर्थात् मर जाने एवं पतिव्रता की चमत्कारिक शक्ति के विषय में बहुत कुछ लिखा है और कहा है कि ब्राह्मण स्त्री को अपने पति से पृथक नहीं चलना चाहिए (अर्थात् साथ ही जल जाना चाहिए), किन्तु क्षत्रिय एवं अन्य नारियाँ ऐसा नहीं भी कर सकतीं। उसमें यह भी लिखा है कि सती प्रथा सभी नारियों, यहाँ तक की चाण्डाल नारियों के लिए भी, समान ही है, केवल गर्भवती नारियों को या उन्हें जिनके बच्चे अभी छोटे हों, ऐसा नहीं करना चाहिए। उसमें यह भी लिखा है कि जब तक पत्नी सती नहीं हो जाती, तब तक वह पुनर्जन्म से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकती।

गुरुजनों का दार्शनिक उपदेश सुनने के उपरान्त सम्बन्धीगण अपने घर लौटते हैं। बच्चों को आगे करके द्वार पर खड़े होकर और मन को नियंत्रित कर नीम की पत्तियाँ दाँतों से चबाते हैं। आचमन करते हैं, अग्नि, जल, गोबर एवं श्वेत सरसों छूते हैं। इसके उपरान्त किसी पत्थर पर धीरे से, किन्तु दृढ़ता से पाँव रखकर घर में प्रवेश करते हैं। शंख के अनुसार सम्बन्धियों द्वारा दूर्वाप्रवाल (दूब की शाखा), अग्नि, बैल को छूना चाहिए, मृत को घर के द्वार पर पिण्ड देना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए।[45] बैजवाप[46]; निर्णयसिन्धु[47] ने शमी, अश्मा (पत्थर), अग्नि को स्पर्श करते समय मन्त्रों के उच्चारण की व्यवस्था दी है और कहा है कि अपने एवं पशुओं (गाय एवं बकरी) के बीच में अग्नि रखकर उन्हें छूना चाहिए। एक ही प्रकार का भोजन ख़रीदना या दूसरे के घर से लेना चाहिए, उसमें नमक नहीं होना चाहिए, उसे केवल एक दिन और वह भी केवल एक बार खाना चाहिए तथा सारे कर्म तीन दिनों तक स्थगित रखने चाहिए। याज्ञवल्क्यस्मृति[48] ने व्यवस्था दी है कि उसके बतलाये हुए कर्मया[49], यथा-नीम की पत्तियों को कुतरने से लेकर गृह प्रवेश तक के कार्य उन लोगों द्वारा भी सम्पादित होने चाहिए, जो सम्बन्धी नहीं हैं, किन्तु शव ढोने, उसे सँवारने, जलाने आदि में सम्मिलित थे।

शवदाह के पश्चात नियम=

शांखायन श्रौतसूत्र[50], आश्वलाय गृह्यसूत्र[51], बौधायन पितृमेधसूत्र[52], कौशिकसूत्र[53], पारस्कर गृह्यसूत्र[54], आपस्तम्ब धर्मसूत्र[55], गौतम धर्मसूत्र[56], मनुस्मृति[57], वसिष्ठ.[58], याज्ञवल्क्यस्मृति[59], विष्णु धर्मसूत्र[60], संवर्त[61], शंख[62], गरुड़ पुराण[63] एवं अन्य ग्रन्थों ने उन लोगों (पुरुषों एवं स्त्रियों) के लिए कतिपय नियम दिये हैं, जिनके सपिण्ड मर जाते हैं और लिखा है कि श्मशान से लौटने के उपरान्त तीन दिनों तक क्या करना चाहिए। शांखायन श्रौतसूत्र ने व्यवस्था दी है कि उन्हें ख़ाली (बिस्तरहीन) भूमि पर सोना चाहिए, केवल याज्ञिक भोजन करना चाहिए, वैदिक अग्नियों से सम्बन्धित कर्मों को करते रहना चाहिए, किन्तु अन्य धार्मिक कृत्य नहीं करने चाहिए, और ऐसा एक रात के लिए या नौ रातों के लिए या अस्थि संचय करने तक करना चाहिए। आश्वलाय गृह्यसूत्र[64] ने निम्न बातें दी हैं-उस रात उन्हें भोजन नहीं बनाना चाहिए। ख़रीदकर या अन्य के घर से प्राप्त भोजन करना चाहिए, तीन रातों तक निर्मित या खान से प्राप्त नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि मुख्य गुरुओं[65] में किसी की मृत्यु हो गयी हो, तो विकल्प 12 रातों तक दान देना तथा वेदाध्ययन स्थगित कर देना चाहिए। पारस्करगृह्यसूत्र[66] का कथन है कि ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिए, दिन में केवल एक बार खाना चाहिए। उस दिन वेदपाठ स्थगित रखना चाहिए तथा वेदाग्नियों के कृत्यों को छोड़कर अन्य धार्मिक कृत्य भी स्थगित कर देने चाहिए।

वसिष्ठसूत्र[67] का कथन है कि सम्बन्धियों को चटाई पर तीन दिन बैठकर उपवास करना चाहिए। यदि उपवास न किया जा सके तो बाज़ार से मँगाकर या बिना माँगे प्राप्त भोजन सामग्री का आहार करना चाहिए। याज्ञवल्क्यस्मृति[68] एवं पारस्करगृह्यसूत्र[69] ने व्यवस्था दी है कि उस रात उन्हें एक मिट्टी के पात्र में दूध एवं जल डालकर उसे खुले स्थान में शिक्य (सिकहर) पर रखकर यह कहना चाहिए-'हे मृतात्मा, यहाँ (जल में) स्नान करो और इस दूध को पीओ।' याज्ञवल्क्यस्मृति[70], पैठिनसि, मनुस्मृति[71], पारस्करगृह्यसूत्र[72] आदि का कथन है कि मृतात्मा के सम्बन्धियों को श्रौत अग्नियों से सम्बन्धित आह्निककृत्य (अग्निहोत्र, दर्श-पूर्णमास आदि) तथा स्मार्त अग्नियों वाले कृत्य (यथा, प्रात: एवं सायं के होम आदि) करते रहना चाहिए, क्योंकि वेद के ऐसे ही आदेश हैं (यथा, व्यक्ति को आमरण अग्निहोत्र करते जाना चाहिए)। टीकाकारों ने कई एक सीमाएँ एवं नियंत्रण घोषित किए हैं। मिताक्षरा[73] का कथन है कि मनुस्मृति[74] ने केवल श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों के कृत्यों का अपवाद, किया है, अत: पंच महायज्ञ-जैसे धार्मिक कर्म नहीं करने चाहिए। वैश्वदेव, जिसका सम्पादन अग्नि में होता है, छोड़ दिया जाता है, क्योंकि संवर्त ने स्पष्ट रूप से कहा है कि (सपिण्ड की मृत्यु पर) ब्राह्मण को 10 दिनों तक वैश्वदेव रहित रहना चाहिए। श्रौत एवं स्मार्त कृत्य दूसरों के द्वारा करा देने चाहिए, जैसा कि पारस्करगृह्यसूत्र[75] ने स्पष्ट रूप से आज्ञापित किया है। केवल नित्य एवं नैमित्तक कृत्यों को, जो श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों में किये जाते हैं, करने की आज्ञा दी गयी है, अत: काम्य कर्म नहीं किये जा सकते।

अग्निहोत्री

आजकल भी अग्निहोत्री लोग स्वयं श्रौत नित्य होम अशौच के दिनों में करते हैं, यद्यपि कुछ लोग ऐसा अन्य लोगों से कराते हैं।[76] यद्यपि गोभिलस्मृति[77] ने संध्या का निषेध किया है, किन्तु पैठानसि का हवाला देकर मिताक्षरा ने कहा है कि सूर्य को जल दिया जा सकता है। कुछ अन्य लोगों का कथन है कि संध्या के मन्त्रों को मन में कहा जा सकता है, केवल प्राणायाम के मन्त्र नहीं कहे जाते।[78] आजकल भारत के बहुत से भागों में ऐसा ही किया जाता है। विष्णु धर्मसूत्र[79] ने व्यवस्था दी है कि जन्म एवं मरण के अशौच में होम (वैश्वदेव), दान देना एवं ग्रहण करना तथा वेदाध्ययन रुक जाता है। वैखानसस्मार्तसूत्र[80] के मत से संध्या पूजन, देवों एवं पितरों के कृत्य, दान देना एवं लेना तथा वेदाध्ययन अशौच की अवधि में छोड़ देना चाहिए। गौतम धर्मसूत्र[81] का कथन है कि वेदाध्ययन के लिए जन्म-मरण के समय ब्राह्मण पर अशौच का प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरी ओर संवर्त[82] का कथन है कि जन्म-मरण के अशौच में पंच महायज्ञ एवं वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए। नित्याचारपद्धति[83] का कथन है कि अशौच में भी विष्णु के सहस्र नामों का पाठ किया जा सकता है।

अस्थिसञ्चयन या सञ्चयन

अस्थिसञ्चयन या सञ्चयन वह कृत्य है, जिसमें शवदाह के उपरान्त जली हुई, अस्थियाँ एकत्र की जाती हैं। यह कृत्य बहुत से सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित है, यथा-शांखायन श्रौतसूत्र[84], सत्याषाढ श्रौतसूत्र[85], आश्वलायन गृह्यसूत्र[86], गौतम पितृमेधसूत्र[87], विष्णु धर्मसूत्र[88], बौधायन पितृमेधसूत्र[89], यम[90], संवर्त[91], गोभिलस्मृति[92], हारलता।[93] यह कृत्य किस दिन किया जाए, इस विषय में मतैक्य नहीं है। उदाहरणार्थ, सत्याषाढ श्रौतसूत्र[94] के मत से अस्थि संचयन शवदाह के एक दिन उपरान्त या तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन होना चाहिए; संवर्त[95] एवं गरुड़ पुराण[96] के मत से पहले, तीसरे सातवें या नवें दिन और विशेषत: द्विजों के लिए चौथे दिन अस्थि संचयन होना चाहिए। वामन पुराण[97] ने पहले, चौथे या सातवें दिन की अनुमति दी है। यम[98] ने सम्बन्धियों को शवदाह के उपरान्त प्रथम दिन से लेकर चौथे दिन तक अस्थियाँ एकत्र कर लेने को कहा है और पुन:[99] कहा है कि चारों वर्णों में संचयन क्रम से चौथे, पाँचवें, सातवें एवं नवें दिन होना चाहिए। आश्वलायन गृह्यसूत्र[100] के मत से शवदाह के उपरान्त दसवें दिन (कृष्ण पक्ष में) संचयन होना चाहिए, किन्तु विषम तिथियों (प्रथमा, तृतीया, एकादशी, त्रयोदशी एवं अमावस्या के दिन) में तथा उस नक्षत्र में, जिसका नाम दो या दो से अधिक नक्षत्रों के साथ प्रयुक्त नहीं होता है (अर्थात् दो आषाढ़ाओं, दो फाल्गुनियों एवं दो भाद्रपदाओं को छोड़कर)। विष्णुधर्मसूत्र (19।10), वैखानसस्मार्त (5।7), कूर्मपुराण (उत्तर, 23), कौशिकसूत्र (82।29), विष्णुपुराण (3।13।14) आदि ने कहा है कि संचयन दाह के चौथे दिन अवश्य होना चाहिए। विस्तार के विषय में भी मतैक्य नहीं है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।5) में निम्न बातें पायी जाती हैं-पुरुष की अस्थियाँ अचिह्नित पात्र (ऐसे पात्र जिसमें कहीं गंड या शोथ आदि न उभरा हो) में एकत्र करनी चाहिए और स्त्री की अस्थियाँ गण्डयुक्त पात्र में एकत्र करनी चाहिए। विषम संख्या में बूढ़ों द्वारा (इसमें स्त्रियाँ नहीं रहतीं) अस्थियाँ एकत्र की जाती हैं। कर्ता चितास्थल की परिक्रमा अपने वामांग को उस ओर करके तीन बार करता है और उस पर जलयुक्त दूध शमी की टहनी से छिड़कता है और ऋग्वेद (10।16।14) के 'शीतिके' का पाठ करता है। अँगूठे और अनामिका अँगुली से अस्थियाँ उठाकर एक-एक संख्या में पात्र में बिना स्वर उत्पन्न किये रखी जाती हैं। सर्वप्रथम पाँव की अस्थियाँ उठायी जाती हैं और अन्त में सिर की। अस्थियों को भली-भाँति एकत्र करके और उन्हें पछोड़ने वाले पात्र से स्वच्छ करके एवं पात्र में एकत्र करके ऐसे स्थान में रखा जाता है, जहाँ चारों पानी आकर एकत्र नहीं होता और 'उपसर्प' (ऋग्वेद 10।18।10) का पाठ किया जाता है। इसके उपरान्त चिता के गड्ढे में मिट्टी भर दी जाती है और ऋग्वेद (10।18।11) का मन्त्रोच्चारण किया जाता है। फिर ऋग्वेद (10।18।12) का पाठ किया जाता है। अस्थिपात्र को ढक्कन से बन्द करते समय (ऋग्वेद 10।18।13) का पाठ (उत् ते स्तभ्निम) किया जाता है। इसके उपरान्त बिना पीछे घूमे घर लौट आया जाता है, स्नान किया जाता है और कर्ता द्वारा अकेले मृत के लिए श्राद्ध किया जाता है। कौशिकसूत्र (82।29-32) ने अस्थिसंचयन की विधि कुछ दूसरे ही प्रकार से दी है।

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टीका टिप्पणी

  1. शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 166
  2. बौधायनपितृमेधसूत्र 3.11
  3. स्मृत्यर्थसार, पृष्ठ 98
  4. तैत्तिरीय संहिता 1.1.3.1
  5. ऋग्वेद 1.22.17
  6. वाजसनेयी संहिता 5.15
  7. तैत्तिरीय संहिता 1.2.13.1
  8. तैत्तिरीय संहिता 4.2.5.2
  9. तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.4.8.6 के मन्त्र के साथ
  10. ऋग्वेद 3.62.10; वाजसनेयी संहिता 3.35; तैत्तिरीय संहिता 1.5.6.4
  11. निर्णयसिन्धु, पृष्ठ 634-635
  12. धर्मसिंधु, पृष्ठ 497
  13. गाड़ने की विधि के लिए देखिए वैखानसस्मार्तसूत्र (10.8
  14. स्मृति एवं स्मृतिचंद्रिका (1, पृष्ठ 121)
  15. ऋग्वेद 10.9.1-9, 'आपो हि ष्ठा'
  16. देखिए गरुड़पुराण (2.4.171) एवं निर्णयसिंधु (पृष्ठ 621)
  17. बौधायनपितृमेधसूत्र 3.9; निर्णयसिंधु, पृष्ठ 622
  18. पारसियों के शास्त्रों के अनुसार शव को गाड़ देना महान अपराध माना जाता है। यदि शव क़ब्र से बाहर नहीं निकाला गया तो मज्द के क़ानून के प्राध्यापक (शिक्षक) के विषय में कोई प्रायश्चित नहीं है, या उसके लिए भी कोई प्रायश्चित नहीं है, जिसने मज्द के क़ानून को पढ़ा है, और जब वे छ: मास या एक वर्ष के भीतर शव को क़ब्र से बाहर नहीं निकालते तो उन्हें क्रम से 500 या 1000 कोड़े खाने पड़ते हैं। देखिए वेंडिडाड, फ़र्गार्ड 3 (सैक्रेड बुक आफ़ दि ईस्ट, जिल्द 4, पृष्ठ 31-32)। पर्वतों के शिखरों पर शव रख दिये जाते हैं और उन्हें पक्षीगण एवं कुत्ते खा डालते हैं। शव को खुला छोड़ देना मज्द रीति की अत्यन्त विचित्र बात है।
  19. पियाज्ज़ा बर्बेरिनी के पास रोम के कपूचिन चर्च के भूगर्भ क़ब्रगाहों की दीवारों में 4000 पादरियों की हड्डियाँ सुरक्षित हैं। देखिए पक्ल की पुस्तक 'फ़्यूनरल कस्टम्स (पृष्ठ 136)'।
  20. अथर्ववेद 5.30.14 'मा नु भूमिगृहो भुवत' एवं 18.2.34
  21. ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिता:। सर्वास्तानग्न आ वह पितृन् हविषे अत्तवे।। अथर्ववेद (18.2.14)।
  22. छान्दोग्योपनिषद 8.8.5
  23. ऋग्वेद 7.89.1
  24. अथर्ववेद 18.2.25
  25. शतपथ ब्राह्मण 29.4.29
  26. वैखानसश्रौतसूत्र 31.32
  27. अयोध्याकाण्ड, 66.14-16, 76.4
  28. मोहनजोदड़ो, जिल्द 1, पृष्ठ 86
  29. हारलता पृष्ठ 126
  30. 4.14
  31. 6.29-32 में वर्णित
  32. सामान्य नियम यह था कि शव को गाँव के मध्य से लेकर नहीं जाया जाता और उसे दक्षिण की और ले जाया जाता था, किन्तु बुद्ध इतने असाधारण एवं पवित्र थे कि उपर्युक्त प्रथाविरुद्ध ढंग उनके लिए मान्य हो गया।
  33. उसी प्रकार जिस प्रकार ब्राह्मण लोग अपने यज्ञोपवीत को धारण करते हैं|उसी प्रकार जिस प्रकार ब्राह्मण लोग अपने यज्ञोपवीत को धारण करते हैं
  34. देखिए जे.आर.ए.एस. (1906, पृष्ठ 655-671 एवं 881-913) में प्रकाशित फ़्लीट के लेख, जो महापरिनिब्बान-सुत्त, दिव्यावदान, फाहियान के ग्रन्थ, सुमंगलविलासिनी एवं अन्य ग्रन्थों के आधार पर लिखे गये ऐसे लेख हैं, जो बुद्ध की अस्थियों एवं भस्म के बँटवारे अथवा उन पर बने स्तूपों पर प्रकाश डालते हैं। फ़्लीट का कहना है कि पिप्रहवा अवशेष-कुंभ में, जिस पर एक अभिलेख अंकित है, जो अब तक पाये गये अभिलेखों में सबसे पुराना है (लगभग ईसापूर्व सन 375) और जिसमें सात सौ वस्तुएँ पायी गई हैं, भगवान बुद्ध के अवशेष चिह्न नहीं हैं, प्रत्युत उनके सम्बन्धियों के हैं। फ़्लीट ने एक परम्परा की ओर संकेत किया है जो बतलाती है कि सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेष चिह्नों पर बने 8 स्तूपों में 7 को खोदकर उनमें पाये गये अवशेषों को 84000 सोने और चाँदी के पात्रों में परिवर्तित कर दिया और उन्हें सम्पूरण भारत में वितरित कर दिया। इस प्रकार 84000 स्तूपों का निर्माण उन पर किया गया। राइस डेविड्स ने अपने ग्रन्थ 'बुद्धिस्ट इंडिया' (पृष्ठ 78-80) में यह कहते हुए कि जन या धन से विशिष्ट मृत लोगों का राजकर्मचारियों या शिक्षकों के शव जलाये जाते और अवशिष्ट भस्मांश स्तूपों (पालि में थूप या टोप) के अन्दर गाड़ दिये जाते थे। निर्देश किया है कि साधारण लोगों के शव अजीव ढंग से रखे जाते थे। वे खुले स्थल में रख दिये जाते थे। नियमानुकूल वे शव या चितावशेष गाड़े नहीं जाते थे, प्रत्युत पक्षियों या पशुओं द्वारा नष्ट किये जाने के लिए छोड़ दिये जाते थे अथवा वे स्वयं प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाया करते थे।
  35. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.7 एवं गौतमपितृमेधसूत्र 1.4.2 शोकमुत्सृज्य कल्याणीभिर्वाग्भि: सात्त्विकाभि: कथाभि: पुराणै: सुकृतिभि: श्रुत्वाधोमुखा व्रजन्ति। गौतमपितृमेधसूत्र (1.4.2)।
  36. विष्णुधर्मसूत्र 20.22-53
  37. यह अवलोकनीय है कि विष्णु धर्मसूत्र के कुछ पद्य (20.29, 48-49 एवं 51-53) भगवदगीता के पद्यों (2.22-28, 13.23-25) के समान ही हैं। विष्णु धर्मसूत्र (20.47 यथा धेनुसहस्रेषु आदि) शान्तिपर्व (181.16, 187.27 एवं 323.16) एवं विष्णुधर्मोत्तर (2.78.27) के समान ही है। इसी प्रकार देखिए विष्णुधर्मसूत्र (20.41) एवं शान्तिपर्व (175.15 एवं 322.73)। देखिए लक्ष्मीधर का कृत्यकल्पतरु (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 91-97), याज्ञवल्क्यस्मृति (3.7, 11), विष्णुधर्मसूत्र (20.22-53) एवं भगवदगीता (2.13, 18)।
  38. 3.8-11=गरुड़पुराण 2.4.8184
  39. गोभिलस्मृति 3.39
  40. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.8-10
  41. सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छया:। संयोग विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।। और देखिए शान्तिपर्व (331.20)।
  42. पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 292-293
  43. शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 205-206
  44. गरुड़पुराण 2.4.91-100
  45. दूर्वाप्रवालमग्निं वृषभं चालभ्य गृहद्वारे प्रेताय पिण्डं दत्त्वा पश्चात्प्रविशेयु:। शंख (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।13, पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 293)।
  46. बैजवाप शुद्धितत्त्व, पृष्ठ 319
  47. निर्णयसिन्धु 3, पृष्ठ 580
  48. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.14
  49. ज्ञवल्क्यस्मृति 3.12
  50. शांखायन श्रौतसूत्र 4.15.10
  51. आश्वलाय गृह्यसूत्र 4.4.17-27
  52. बौधायन पितृमेधसूत्र 1.12.10
  53. कौशिकसूत्र 82.33-35 एवं 42-47
  54. पारस्कर गृह्यसूत्र 3.10
  55. आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1.3.10.4-10
  56. गौतम धर्मसूत्र 14.15-36
  57. मनुस्मृति 5.73
  58. वसिष्ठ. 4.14-15
  59. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.16-17
  60. विष्णु धर्मसूत्र 19.14.17
  61. संवर्त 39-43
  62. शंख 15-25
  63. गरुड़ पुराण (प्रेतखंड, 5.1-5)
  64. आश्वलाय गृह्यसूत्र 4.4.17-24
  65. पिता, माता या वह जिसने उपनयन संस्कार कराया हो या जिसने वेद पढ़ाया हो
  66. पारस्करगृह्यसूत्र 3.10
  67. वसिष्ठसूत्र 4.14-15
  68. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17
  69. पारस्करगृह्यसूत्र 3.10
  70. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17
  71. मनुस्मृति 5.84
  72. पारस्करगृह्यसूत्र 3.10
  73. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17
  74. मनुस्मृति 5.84
  75. पारस्करगृह्यसूत्र (3.10 'अन्य एतानि कृर्यु:')
  76. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.17 एवं मनुस्मृति 5.84
  77. गोभिलस्मृति 3.60
  78. स्मृतिमुक्ताफल पृष्ठ 478
  79. विष्णु धर्मसूत्र 22.6
  80. वैखानसस्मार्तसूत्र 6.4
  81. गौतम धर्मसूत्र 14.44
  82. संवर्त 43
  83. नित्याचारपद्धति पृष्ठ 544
  84. शांखायन श्रौतसूत्र 4.15.12-18
  85. सत्याषाढ श्रौतसूत्र 28.3
  86. आश्वलायन गृह्यसूत्र 4.5.1-18
  87. गौतम पितृमेधसूत्र 1.5
  88. विष्णु धर्मसूत्र 19.10-12
  89. बौधायन पितृमेधसूत्र 5.7
  90. यम 87-88
  91. संवर्त 38
  92. गोभिलस्मृति 3.54-59
  93. हारलता पृष्ठ 183
  94. सत्याषाढ श्रौतसूत्र 28.3.1
  95. संवर्त 38
  96. गरुड़ पुराण प्रेतखंड, 5.15
  97. वामन पुराण 14.97-98
  98. यम 87
  99. यम, 88
  100. आश्वलायन गृह्यसूत्र 4.5.1