"किष्किन्धा काण्ड वा. रा.": अवतरणों में अंतर
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श्रुत्वा पठित्वा कैष्किन्ध्यं काण्डं तत्तत्फलं लभेत्॥ | |चित्र=Ramayana.jpg | ||
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'''किष्किन्धा काण्ड''' [[वाल्मीकि]] द्वारा रचित प्रसिद्ध [[हिन्दू]] ग्रंथ '[[रामायण]]' और [[तुलसीदास|गोस्वामी तुलसीदास]] कृत '[[रामचरितमानस|श्रीरामचरितमानस]]' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। | |||
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किष्किन्धा काण्ड में पम्पासरोवर पर स्थित [[राम]] से [[हनुमान]] का मिलन, [[सुग्रीव]] से मित्रता, सुग्रीव द्वारा [[बालि]] का वृत्तान्त-कथन, [[सीता]] की खोज के लिए सुग्रीव की प्रतिज्ञा, बालि-सुग्रीव युद्ध, राम के द्वारा बालि का वध, सुग्रीव का राज्याभिषेक तथा बालिपुत्र [[अंगद]] को युवराज पद, वर्षा ऋतु वर्णन, शरद ऋतु वर्णन, सुग्रीव तथा हनुमान के द्वारा वानर सेना का संगठन, सीतान्वेषण हेतु चारों दिशाओं में वानरों का गमन, हनुमान का [[लंका]] गमन, [[सम्पाति]] वृत्तान्त, [[जामवन्त]] का हनुमान को समुद्र-लंघन हेतु प्रेरित करना तथा हनुमान जी का [[महेन्द्र पर्वत]] पर आरोहण आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। किष्किन्धाकाण्ड में 67 सर्ग तथा 2,455 [[श्लोक]] हैं। धार्मिक दृष्टि से इस काण्ड का पाठ मित्रलाभ तथा नष्टद्रव्य की खोज हेतु करना उचित है- | |||
<blockquote><poem>मित्रलाभे तथा नष्टद्रव्यस्य च गवेषणे। | |||
श्रुत्वा पठित्वा कैष्किन्ध्यं काण्डं तत्तत्फलं लभेत्॥<ref>बृहद्धर्मपुराण-पूर्वखण्ड 36…12</ref></poem></blockquote> | |||
==संक्षिप्त कथा== | |||
====राम-सुग्रीव मित्रता==== | |||
[[नारद|नारद जी]] कहते हैं- [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] पम्पा सरोवर पर जाकर [[सीता]] के लिये शोक करने लगे। वहाँ वे [[शबरी]] से मिले। फिर [[हनुमान]] से उनकी भेंट हुई। हनुमान उन्हें [[सुग्रीव]] के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी। श्रीरामचन्द्र ने सबके देखते-देखते ताड़ के सात वृक्षों को एक ही [[बाण अस्त्र|बाण]] से बींध डाला और [[दुन्दुभी दैत्य|दुन्दुभि]] नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस [[योजन]] दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीव के शत्रु [[बाली]] को, जो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता था, मार डाला और [[किष्किन्धा|किष्किन्धापुरी]], वानरों का साम्राज्य, [[रूमा]] एवं [[तारा (बालि की पत्नी)|तारा]], इन सबको [[ऋष्यमूक पर्वत]] पर वानर राज सुग्रीव के अधीन कर दिया। | |||
सुग्रीव ने कहा- "श्रीराम! आपको [[सीता|सीता जी]] की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।" यह सुनने के बाद श्रीरामचन्द्र ने माल्यवान पर्वत के शिखर पर [[वर्षा]] के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव [[किष्किन्धा]] में रहने लगे। | |||
====सीता की खोज हेतु सुग्रीव का वानरों का भेजना==== | |||
चौमासे के बाद भी जब [[सुग्रीव]] दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्र की आज्ञा से [[लक्ष्मण]] ने किष्किन्धा में जाकर कहा- "सुग्रीव! तुम श्रीरामचन्द्र के पास चलो। अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहो, नहीं तो [[बाली]] मर-कर जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है। अतएव वाली के पथ का अनुसरण न करो।" | |||
[[सुग्रीव]] ने कहा- "सुमित्रानन्दन! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहा, अत: मेरे अपराध को क्षमा कीजिये।" | |||
ऐसा कहकर वानर राज सुग्रीव श्रीरामचन्द्र के पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले- "भगवान! मैंने सब वानरों को बुला लिया है। अब आपकी इच्छा के अनुसार सीता जी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने तक सीता जी की खोज करें। जो एक महीने के बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा।" | |||
====वानरों की सम्पाति से भेंट==== | |||
वानरराज सुग्रीव की बात सुनकर बहुत-से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्ग पर चल पड़े तथा वहाँ [[सीता|जनक कुमारी सीता]] को न पाकर नियत समय के भीतर [[राम|श्रीराम]] और सुग्रीव के पास लौट आये। [[हनुमान]] श्रीरामचन्द्र की दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकी की खोज कर रहे थे। वे लोग सुप्रभा की गुफ़ा के निकट [[विन्ध्याचल पर्वत|विन्ध्यपर्वत]] पर ही एक मास से अधिक काल तक ढूँढ़ते फिरे; किंतु उन्हें सीता जी का दर्शन नहीं हुआ। अन्त में निराश होकर आपस में कहने लगे- "हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है वह [[जटायु]], जिसने सीता के लिये [[रावण]] के द्वारा मारा जाकर युद्ध में प्राण त्याग दिया था।" | |||
उनकी ये बातें [[सम्पाति]] नामक गृध्र के कानों में पड़ीं। वह वानरों के (प्राण त्याग की चर्चा से उनके) खाने की ताक में लगा था। किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रूक गया और बोला- "वानरो! जटायु मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्य मण्डल की ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर [[सूर्य]] की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया। अत: वह तो सकुशल बच गया; किंन्तु मेरी पाँखें चल गयीं, इसलिये मैं यहीं गिर पड़ा। आज श्रीरामचन्द्र की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये। अब मैं जानकी को देखता हूँ; वे [[लंका]] में [[अशोक वाटिका]] के भीतर हैं। लवण समुद्र के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। यहाँ से वहाँ तक का [[समुद्र]] सौ योजन विस्तृत है। यह जान कर सब वानर [[राम|श्रीराम]] और [[सुग्रीव]] के पास जायें और उन्हें सब समाचार बता दें।" | |||
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11:54, 24 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण
किष्किन्धा काण्ड वा. रा.
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विवरण | 'रामायण' लगभग चौबीस हज़ार श्लोकों का एक अनुपम महाकाव्य है, जिसके माध्यम से रघु वंश के राजा राम की गाथा कही गयी है। |
रचनाकार | महर्षि वाल्मीकि |
रचनाकाल | त्रेता युग |
भाषा | संस्कृत |
मुख्य पात्र | राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, मेघनाद, विभीषण, कुम्भकर्ण और रावण। |
सात काण्ड | बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड), उत्तराकाण्ड। |
संबंधित लेख | रामचरितमानस, रामलीला, पउम चरिउ, रामायण सामान्य ज्ञान, भरत मिलाप। |
अन्य जानकारी | रामायण के सात काण्डों में कथित सर्गों की गणना करने पर सम्पूर्ण रामायण में 645 सर्ग मिलते हैं। सर्गानुसार श्लोकों की संख्या 23,440 आती है, जो 24,000 से 560 श्लोक कम है। |
किष्किन्धा काण्ड वाल्मीकि द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दू ग्रंथ 'रामायण' और गोस्वामी तुलसीदास कृत 'श्रीरामचरितमानस' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।
सर्ग तथा श्लोक
किष्किन्धा काण्ड में पम्पासरोवर पर स्थित राम से हनुमान का मिलन, सुग्रीव से मित्रता, सुग्रीव द्वारा बालि का वृत्तान्त-कथन, सीता की खोज के लिए सुग्रीव की प्रतिज्ञा, बालि-सुग्रीव युद्ध, राम के द्वारा बालि का वध, सुग्रीव का राज्याभिषेक तथा बालिपुत्र अंगद को युवराज पद, वर्षा ऋतु वर्णन, शरद ऋतु वर्णन, सुग्रीव तथा हनुमान के द्वारा वानर सेना का संगठन, सीतान्वेषण हेतु चारों दिशाओं में वानरों का गमन, हनुमान का लंका गमन, सम्पाति वृत्तान्त, जामवन्त का हनुमान को समुद्र-लंघन हेतु प्रेरित करना तथा हनुमान जी का महेन्द्र पर्वत पर आरोहण आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। किष्किन्धाकाण्ड में 67 सर्ग तथा 2,455 श्लोक हैं। धार्मिक दृष्टि से इस काण्ड का पाठ मित्रलाभ तथा नष्टद्रव्य की खोज हेतु करना उचित है-
मित्रलाभे तथा नष्टद्रव्यस्य च गवेषणे।
श्रुत्वा पठित्वा कैष्किन्ध्यं काण्डं तत्तत्फलं लभेत्॥[1]
संक्षिप्त कथा
राम-सुग्रीव मित्रता
नारद जी कहते हैं- श्रीरामचन्द्र जी पम्पा सरोवर पर जाकर सीता के लिये शोक करने लगे। वहाँ वे शबरी से मिले। फिर हनुमान से उनकी भेंट हुई। हनुमान उन्हें सुग्रीव के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी। श्रीरामचन्द्र ने सबके देखते-देखते ताड़ के सात वृक्षों को एक ही बाण से बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस योजन दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीव के शत्रु बाली को, जो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापुरी, वानरों का साम्राज्य, रूमा एवं तारा, इन सबको ऋष्यमूक पर्वत पर वानर राज सुग्रीव के अधीन कर दिया।
सुग्रीव ने कहा- "श्रीराम! आपको सीता जी की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।" यह सुनने के बाद श्रीरामचन्द्र ने माल्यवान पर्वत के शिखर पर वर्षा के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धा में रहने लगे।
सीता की खोज हेतु सुग्रीव का वानरों का भेजना
चौमासे के बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्र की आज्ञा से लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर कहा- "सुग्रीव! तुम श्रीरामचन्द्र के पास चलो। अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहो, नहीं तो बाली मर-कर जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है। अतएव वाली के पथ का अनुसरण न करो।"
सुग्रीव ने कहा- "सुमित्रानन्दन! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहा, अत: मेरे अपराध को क्षमा कीजिये।"
ऐसा कहकर वानर राज सुग्रीव श्रीरामचन्द्र के पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले- "भगवान! मैंने सब वानरों को बुला लिया है। अब आपकी इच्छा के अनुसार सीता जी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने तक सीता जी की खोज करें। जो एक महीने के बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा।"
वानरों की सम्पाति से भेंट
वानरराज सुग्रीव की बात सुनकर बहुत-से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्ग पर चल पड़े तथा वहाँ जनक कुमारी सीता को न पाकर नियत समय के भीतर श्रीराम और सुग्रीव के पास लौट आये। हनुमान श्रीरामचन्द्र की दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकी की खोज कर रहे थे। वे लोग सुप्रभा की गुफ़ा के निकट विन्ध्यपर्वत पर ही एक मास से अधिक काल तक ढूँढ़ते फिरे; किंतु उन्हें सीता जी का दर्शन नहीं हुआ। अन्त में निराश होकर आपस में कहने लगे- "हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है वह जटायु, जिसने सीता के लिये रावण के द्वारा मारा जाकर युद्ध में प्राण त्याग दिया था।"
उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृध्र के कानों में पड़ीं। वह वानरों के (प्राण त्याग की चर्चा से उनके) खाने की ताक में लगा था। किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रूक गया और बोला- "वानरो! जटायु मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्य मण्डल की ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर सूर्य की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया। अत: वह तो सकुशल बच गया; किंन्तु मेरी पाँखें चल गयीं, इसलिये मैं यहीं गिर पड़ा। आज श्रीरामचन्द्र की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये। अब मैं जानकी को देखता हूँ; वे लंका में अशोक वाटिका के भीतर हैं। लवण समुद्र के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। यहाँ से वहाँ तक का समुद्र सौ योजन विस्तृत है। यह जान कर सब वानर श्रीराम और सुग्रीव के पास जायें और उन्हें सब समाचार बता दें।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहद्धर्मपुराण-पूर्वखण्ड 36…12