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[[चित्र:kanishk.jpg|कनिष्क|300px|right|thumb|कुषाण सम्राट महाराज राजतिराज देवपुत्र कनिष्क<br /> प्राप्ति स्थान-[[माँट]], [[मथुरा]]<br />उपलब्ध-[[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
{{कनिष्क धर्म विषय सूची}}
विम के बाद कुषाण साम्राज्य का अधिपति कौन बना, इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में बहुत मतभेद है। वैसे तो सभी कुषाण राजाओं के तिथिक्रम का विषय विवादग्रस्त है, और अनेक इतिहासकार [[कुजुल कडफ़ाइसिस|राजा कुजुल]] और [[विम कडफ़ाइसिस|विम]] तक को कनिष्क का पूर्ववर्ती न मानकर परवर्ती मानते हैं, पर अब बहुसंख्यक इतिहासकारों का यही मत है, कि कनिष्क ने कुजुल और विम के बाद ही शासन किया, पहले नहीं। विम और कनिष्क के बीच में किसी अन्य कुषाण राजा ने भी शासन किया या नहीं, यह बात भी विवादग्रस्त है। पर यदि इन दो के बीच में कोई अन्य राजा रहा हो, तो उसके इतिहास की कोई घटना इस समय तक ज्ञान नहीं है। विम के राज्य काल का अन्त 65 ई. के लगभग हुआ था, और कनिष्क 78 ई. के लगभग [[कुषाण साम्राज्य|कुषाण राज्य]] का स्वामी बना। इस बीच के कुषाण इतिहास को अज्ञात ही समझना चाहिए।
{{सूचना बक्सा ऐतिहासिक शासक
 
|चित्र=Kanishka-Coin.jpg
कनिष्क का इतिहास जानने के लिए ऐतिहासिक सामग्री की कमी नहीं है। उसके बहुत से सिक्के उपलब्ध हैं, और ऐसे अनेक उत्कीर्ण लेख भी मिले हैं, जिनका कनिष्क के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। [[बौद्ध धर्म]] में उसका स्थान [[अशोक]] से कुछ ही कम है। जिस प्रकार अशोक के संरक्षण में बौद्ध धर्म की बहुत उन्नति हुई, वैसे ही कनिष्क के समय में भी हुई।  
|चित्र का नाम=कनिष्क का सिक्का
 
|पूरा नाम=कनिष्क प्रथम
[[कुषाण वंश]] का प्रमुख सम्राट कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। कुमारलात की कल्पनामंड टीका के अनुसार इसने [[भारत]] विजय के पश्चात मध्य [[एशिया]] में खोतान जीता और वहीं पर राज्य करने लगा । इसके लेख [[पेशावर]], माणिक्याल (रावलपिंडी), सुयीविहार (बहावलपुर),जेदा (रावलपिंडी), [[मथुरा]], [[कौशांबी]] तथा [[सारनाथ]] में मिले हैं, और इसके सिक्के सिंध से लेकर [[बंगाल]] तक पाए गए हैं । [[कल्हण]] ने भी अपनी '[[राजतरंगिणी]]' में कनिष्क, झुष्क और हुष्क द्वारा [[कश्मीर]] पर राज्य तथा वहाँ अपने नाम पर नगर बसाने का उल्लेख किया है । इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट कनिष्क का राज्य कश्मीर से उत्तरी सिंध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था ।
|अन्य नाम=
 
|जन्म=ज्ञात नहीं
==कनिष्क और बौद्ध धर्म==
|जन्म भूमि=
{{tocright}}
|मृत्यु तिथि=151 ई. लगभग
किंवदंतियों के अनुसार कनिष्क [[पाटलिपुत्र]] पर आक्रमण कर [[अश्वघोष]] नामक कवि तथा [[बौद्ध]] दार्शनिक को अपने साथ ले गया था और उसी के प्रभाव में आकर सम्राट की बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्ति हुई । इसके समय में कश्मीर में कुण्डलवन विहार अथवा जालंधर में चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में हुई । [[हुएनसांग]] के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और [[त्रिपिटक]] का पुन: संकलन संस्करण हुआ । इसके समय से बैद्ध ग्रंथों के लिए [[संस्कृत]] भाषा का प्रयोग हुआ और [[महायान]] बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ । कुछ विद्वानों के मतानुसार [[गांधार]] कला का स्वर्णयुग भी इसी समय था, पर अन्य विद्वानों के अनुसार इस सम्राट के समय उपर्युक्त कला उतार पर थी । स्वयं बौद्ध होते हुए भी सम्राट के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी मुद्राओं पर [[यूनानी]], ईरानी, हिन्दू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है । 'एकंसद् विप्रा बहुधा वदंति' की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक स्वरूप दिया।
|मृत्यु स्थान=
 
|पिता/माता=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|उपाधि=
|राज्य सीमा=
|शासन काल=127 ई. से 140-51 ई. लगभग
|शासन अवधि=13-24 वर्ष
|राज्याभिषेक=
|धार्मिक मान्यता=[[पारसी धर्म|पारसी]], [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]]
|युद्ध=
|प्रसिद्धि=
|निर्माण=[[भारत]] में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना [[मुल्तान]] में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता [[कनिंघम]] का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था और उसका यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा।
|सुधार-परिवर्तन=
|राजधानी=
|पूर्वाधिकारी=[[विम कडफ़ाइसिस]]
|उत्तराधिकारी=[[हुविष्क]]
|राजघराना=
|वंश=[[कुषाण वंश]]
|स्मारक=
|मक़बरा=
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=विशेष
|पाठ 1=कनिष्क ने [[भारत]] में [[कार्तिकेय]] की पूजा को आरम्भ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और [[स्कन्द]] का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया।
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=कनिष्क को कुषाण वंश का तीसरा शासक माना जाता था किन्तु [[राबाटक लेख|राबाटक शिलालेख]] के बाद यह चौथा शासक साबित होता है।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''कनिष्क''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Kanishka'', शासनकाल- 127 ई. से 140-51 ई. लगभग) [[कुषाण वंश]] का प्रमुख सम्राट् था। कनिष्क [[भारत का इतिहास|भारतीय इतिहास]] में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। [[यूची क़बीला|यूची क़बीले]] से निकली यूची जाति ने [[भारत]] में [[कुषाण वंश]] की स्थापना की और भारत को कनिष्क जैसा महान् शासक दिया। [[विम कडफ़ाइसिस]] के बाद कुषाण साम्राज्य का अधिपति कौन बना, इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में बहुत मतभेद था '''लेकिन [[राबाटक लेख|राबाटक शिलालेख]]''' <ref>अफ़ग़ानिस्तान के राबाटक स्थान के [[उत्खनन]] में 1993 में मिला था। यह यूनानी लिपि और बॅक्ट्रियन भाषा में है।</ref> '''के मिलने के बाद कनिष्क का वंश वृक्ष स्पष्ट हो जाता है'''। वैसे तो सभी कुषाण राजाओं के तिथिक्रम का विषय विवादग्रस्त है, और अनेक इतिहासकार [[कुजुल कडफ़ाइसिस|राजा कुजुल]] और [[विम कडफ़ाइसिस|विम]] तक को कनिष्क का पूर्ववर्ती न मानकर परवर्ती मानते थे, पर अब बहुसंख्यक इतिहासकारों का यही मत है, कि कनिष्क ने कुजुल और विम के बाद ही शासन किया, पहले नहीं। विम कडफ़ाइसिस के राज्य काल का अन्त लगभग 100 ई. के लगभग हुआ था, और कनिष्क 127 ई. के लगभग [[कुषाण साम्राज्य|कुषाण राज्य]] का स्वामी बनने का अन्दाज़ा लगता है। इस बीच के कुषाण इतिहास को अज्ञात ही समझना चाहिए।
==इतिहास==
कनिष्क का इतिहास जानने के लिए ऐतिहासिक सामग्री की कमी नहीं है। उसके बहुत से सिक्के उपलब्ध हैं, और ऐसे अनेक उत्कीर्ण लेख भी मिले हैं, जिनका कनिष्क के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। [[बौद्ध धर्म]] में उसका स्थान [[अशोक]] से कुछ ही कम है। जिस प्रकार अशोक के संरक्षण में बौद्ध धर्म की बहुत उन्नति हुई, वैसे ही कनिष्क के समय में भी हुई।  
==राज्यारोहण==
कनिष्क को कुषाण वंश का तीसरा शासक माना जाता था किन्तु [[राबाटक लेख|राबाटक शिलालेख]] के बाद '''यह चौथा शासक साबित होता है'''। संदेह नहीं कि कनिष्क [[कुषाण वंश]] का महानतम शासक था। उसके ही कारण कुषाण वंश का [[भारत]] के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसका राज्यारोहण काल संदिग्ध है। 100 ई. से 127 ई. तक इसे कहीं पर भी रखा जा सकता है, किन्तु सम्भावना यह भी मानी गई थी कि तथाकथित शक संवत, जो 78 ई. में आरम्भ हुआ माना जाता है, कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि हो सकती है। कनिष्क के राज्यारोहण के समय [[कुषाण साम्राज्य]] में [[अफ़ग़ानिस्तान]], सिंध का भाग, [[बैक्ट्रिया]] एवं [[पार्थिया]] के प्रदेश सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य [[मगध]] तक विस्तृत कर दिया। वहाँ से वह प्रसिद्ध विद्वान् [[अश्वघोष]] को अपनी राजधानी [[पुरुषपुर]] ले गया। [[तिब्बत]] और [[चीन]] के कुछ लेखकों ने लिखा है कि उसका [[साकेत]] और [[पाटलिपुत्र]] के राजाओं से युद्ध हुआ था। [[कश्मीर]] को अपने राज्य में मिलाकर उसने वहाँ एक नगर बसाया जिसे '[[कनिष्कपुर]]' कहते हैं। शायद कनिष्क ने [[उज्जैन]] के [[क्षत्रप]] को हराया था और [[मालवा]] का प्रान्त प्राप्त किया था। कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध [[चीन]] के शासक के साथ हुआ था, जहाँ एक बार पराजित होकर वह दुबारा विजयी हुआ। कनिष्क ने [[मध्य एशिया]] में काशगर, यारकंद, ख़ोतान, आदि प्रदेशों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित किया। इस प्रकार [[मौर्य साम्राज्य]] के पश्चात् पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसमें [[गंगा नदी|गंगा]], [[सिंधु नदी|सिंधु]] और आक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं। [[चित्र:kanishk.jpg|कनिष्क|250px|left|thumb|कुषाण सम्राट महाराज राजतिराज देवपुत्र कनिष्क<br /> प्राप्ति स्थान-[[माँट]], [[मथुरा]]<br />उपलब्ध-[[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
====विजित राज्य====
[[कुषाण वंश]] का प्रमुख सम्राट कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। कुमारलात की कल्पनामंड टीका के अनुसार इसने [[भारत]] विजय के पश्चात् मध्य [[एशिया]] में ख़ोतान जीता और वहीं पर राज्य करने लगा। इसके लेख [[पेशावर]], माणिक्याल (रावलपिंडी), सुयीविहार (बहावलपुर),जेदा (रावलपिंडी), [[मथुरा]], [[कौशांबी]] तथा [[सारनाथ]] में मिले हैं, और इसके सिक्के सिंध से लेकर [[बंगाल]] तक पाए गए हैं । [[कल्हण]] ने भी अपनी '[[राजतरंगिणी]]' में कनिष्क, झुष्क और हुष्क द्वारा [[कश्मीर]] पर राज्य तथा वहाँ अपने नाम पर नगर बसाने का उल्लेख किया है । इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट कनिष्क का राज्य कश्मीर से उत्तरी सिंध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था। '''कुषाण राजा कनिष्क के निर्माण कार्यों का निरीक्षक अभियन्ता एक यवन अधिकारी [[अगेसिलोस]] था।'''
==राज्य विस्तार==
==राज्य विस्तार==
कनिष्क ने [[कुषाण वंश]] की शक्ति का पुनरुद्धार किया। सातवाहन राजा [[कुन्तल सातकर्णि]] (विक्रमादित्य द्वितीय) के प्रयत्न से कुषाणों की शक्ति क्षीण हो गई थी। अब कनिष्क के नेतृत्व में कुषाण राज्य का पुनः उत्कर्ष हुआ। उसने उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम चारों दिशाओं में अपने राज्य का विस्तार किया। सातवाहनों को परास्त करके उसने न केवल [[पंजाब]] पर अपना आधिपत्य स्थापित किया, अपितु [[भारत]] के मध्यदेश को जीतकर [[मगध]] से भी [[सातवाहन वंश]] के शासन का अन्त किया। कुमारलात नामक एक बौद्ध पंडित ने '''कल्पना मंडीतिका''' नाम की एक पुस्तक लिखी थी, जिसका चीनी अनुवाद इस समय भी उपलब्ध है। इस पुस्तक में कनिष्क के द्वारा की गई पूर्वी भारत की विजय का उल्लेख है। '''श्रीधर्मपिटक निदान सूत्र''' नामक एक अन्य बौद्ध ग्रंथ में (इसका भी अब केवल चीनी अनुवाद ही प्राप्त होता है) लिखा है, कि कनिष्क ने [[पाटलिपुत्र]] को जीतकर उसे अपने अधीन किया और वहाँ से प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान [[अश्वघोष]] और भगवान [[बुद्ध]] के कमण्डलु को प्राप्त किया। [[तिब्बत]] की बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क के [[साकेत]] ([[अयोध्या]]) विजय का उल्लेख है। इस प्रकार साहित्यिक आधार पर यह बात ज्ञात होती है कि कनिष्क एक महान विजेता था, और उसने उत्तरी भारत के बड़े भाग को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। [[सातवाहन वंश]] का शासन जो पाटलिपुत्र से उठ गया, वह कनिष्क की विजयों का ही परिणाम था।
कनिष्क ने [[कुषाण वंश]] की शक्ति का पुनरुद्धार किया। [[सातवाहन राजवंश|सातवाहन]] राजा [[कुन्तल सातकर्णि]] के प्रयत्न से कुषाणों की शक्ति क्षीण हो गई थी। अब कनिष्क के नेतृत्व में कुषाण राज्य का पुनः उत्कर्ष हुआ। उसने उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम चारों दिशाओं में अपने राज्य का विस्तार किया। सातवाहनों को परास्त करके उसने न केवल [[पंजाब]] पर अपना आधिपत्य स्थापित किया, अपितु [[भारत]] के मध्यदेश को जीतकर [[मगध]] से भी [[सातवाहन वंश]] के शासन का अन्त किया। कुमारलात नामक एक बौद्ध पंडित ने '''कल्पना मंडीतिका''' नाम की एक पुस्तक लिखी थी, जिसका चीनी अनुवाद इस समय भी उपलब्ध है। इस पुस्तक में कनिष्क के द्वारा की गई पूर्वी भारत की विजय का उल्लेख है। '''श्रीधर्मपिटक निदान सूत्र''' नामक एक अन्य बौद्ध ग्रंथ में <ref>इसका भी अब केवल चीनी अनुवाद ही प्राप्त होता है</ref> लिखा है, कि कनिष्क ने [[पाटलिपुत्र]] को जीतकर उसे अपने अधीन किया और वहाँ से प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् [[अश्वघोष]] और भगवान [[बुद्ध]] के कमण्डलु को प्राप्त किया। [[तिब्बत]] की बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क के [[साकेत]] ([[अयोध्या]]) विजय का उल्लेख है। इस प्रकार साहित्यिक आधार पर यह बात ज्ञात होती है कि कनिष्क एक महान् विजेता था, और उसने उत्तरी भारत के बड़े भाग को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। [[सातवाहन वंश]] का शासन जो पाटलिपुत्र से उठ गया, वह कनिष्क की विजयों का ही परिणाम था।


बौद्ध अनुश्रुति की यह बात कनिष्क के सिक्कों और उत्कीर्ण लेखों द्वारा भी पुष्ट होती है। कनिष्क के सिक्के उत्तरी भारत में दूर-दूर तक उपलब्ध हुए हैं। पूर्व में [[रांची]] तक से उसके सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार उसके लेख पश्चिम में [[पेशावर]] से लेकर पूर्व में [[मथुरा]] और [[सारनाथ]] तक प्राप्त हुए हैं। उसके राज्य के विस्तार के विषय में ये पुष्ट प्रमाण हैं। सारनाथ में कनिष्क का जो शिलालेख मिला है, उसमें '''महाक्षत्रप ख़रपल्लान''' और '''क्षत्रप विनस्पर''' के नाम आए हैं। [[पुराण|पुराणों]] में सातवाहन या [[आन्ध्र वंश]] के बाद [[मगध]] का शासक वनस्पर को ही लिखा गया है। यह वनस्पर कनिष्क द्वारा नियुक्त मगध का क्षत्रप था। महाक्षत्रप ख़रपल्लान की नियुक्ति मथुरा के प्रदेश पर शासन करने के लिए की गई थी।
बौद्ध अनुश्रुति की यह बात कनिष्क के सिक्कों और उत्कीर्ण लेखों द्वारा भी पुष्ट होती है। कनिष्क के सिक्के उत्तरी भारत में दूर-दूर तक उपलब्ध हुए हैं। पूर्व में [[रांची]] तक से उसके सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार उसके लेख पश्चिम में [[पेशावर]] से लेकर पूर्व में [[मथुरा]] और [[सारनाथ]] तक प्राप्त हुए हैं। उसके राज्य के विस्तार के विषय में ये पुष्ट प्रमाण हैं। सारनाथ में कनिष्क का जो शिलालेख मिला है, उसमें '''महाक्षत्रप ख़रपल्लान''' और '''क्षत्रप विनस्पर''' के नाम आए हैं। [[पुराण|पुराणों]] में सातवाहन या [[आन्ध्र वंश]] के बाद [[मगध]] का शासक वनस्पर को ही लिखा गया है। यह वनस्पर कनिष्क द्वारा नियुक्त मगध का क्षत्रप था। महाक्षत्रप ख़रपल्लान की नियुक्ति [[मथुरा]] के प्रदेश पर शासन करने के लिए की गई थी।


उत्तरी भारत की यह विजय कनिष्क केवल अपनी शक्ति द्वारा नहीं कर सका था। तिब्बति अनुश्रुति के अनुसार ख़ोतन के राजा विजयसिंह के पुत्र विजयकीर्ति ने 'गुज़ान' राजा तथा राजा 'कनिष्क' के साथ मिलकर भारत पर आक्रमण किया था, और सोकेत (साकेत) नगर जीत लिया था। 'गुज़ान' का अभिप्राय कुषाण से है, और कनिक का कनिष्क से। सातवाहन वंश की शक्ति को नष्ट करने के लिए कनिष्क को सुदूरवर्ती ख़ोतन राज्य के राजा से भी सहायता लेनी पड़ी थी। यह बात [[सातवाहन साम्राज्य]] की शक्ति को सूचित करती है।
उत्तरी भारत की यह विजय कनिष्क केवल अपनी शक्ति द्वारा नहीं कर सका था। तिब्बति अनुश्रुति के अनुसार ख़ोतन के राजा विजयसिंह के पुत्र विजयकीर्ति ने 'गुज़ान' राजा तथा राजा 'कनिष्क' के साथ मिलकर भारत पर आक्रमण किया था, और सोकेत (साकेत) नगर जीत लिया था। 'गुज़ान' का अभिप्राय कुषाण से है, और कनिक का कनिष्क से। सातवाहन वंश की शक्ति को नष्ट करने के लिए कनिष्क को सुदूरवर्ती ख़ोतन राज्य के राजा से भी सहायता लेनी पड़ी थी। यह बात [[सातवाहन साम्राज्य]] की शक्ति को सूचित करती है।


==नया पुष्पपुर==
====नया पुष्पपुर====
[[पाटलिपुत्र]] को जीतकर कनिष्क ने उसे अपने अधीन कर लिया था। अपने प्राचीन गौरव के कारण इसी नगरी को कनिष्क के साम्राज्य की राजधानी होना चाहिए था। पर कनिष्क का साम्राज्य बहुत विस्तृत था। उसकी उत्तरी सीमा [[चीन]] के साथ छूती थी। चीन की सीमा तक विस्तृत विशाल कुषाण साम्राज्य के लिए पाटलिपुत्र नगरी उपयुक्त राजधानी नहीं हो सकती थी। अतः कनिष्क ने एक '''नए कुसुमपुर''' (पाटलिपुत्र) की स्थापना की, और उसे '''पुष्पपुर''' नाम दिया। यही आजकल का पेशावर है।
{{tocright}}
[[पाटलिपुत्र]] को जीतकर कनिष्क ने उसे अपने अधीन कर लिया था। अपने प्राचीन गौरव के कारण इसी नगरी को कनिष्क के साम्राज्य की राजधानी होना चाहिए था। पर कनिष्क का साम्राज्य बहुत विस्तृत था। उसकी उत्तरी सीमा [[चीन]] के साथ छूती थी। चीन की सीमा तक विस्तृत विशाल कुषाण साम्राज्य के लिए पाटलिपुत्र नगरी उपयुक्त राजधानी नहीं हो सकती थी। अतः कनिष्क ने एक नए [[कुसुमपुर]] (पाटलिपुत्र) की स्थापना की, और उसे 'पुष्पपुर' नाम दिया। यही आजकल का [[पेशावर]] है।


पुष्पपुर में कनिष्क ने बहुत सी नई इमारतें बनवाईं। इनमें प्रमुख एक [[स्तूप]] था, जो चार सौ फीट ऊँचा था। इसमें तेरह मंज़िलें थीं। जब प्रसिद्ध चीनी यात्री [[ह्वेनसांग|ह्यू-एन-त्सांग]] महाराज [[हर्षवर्धन]] के शासन काल (सातवीं सदी) में भारत भ्रमण करने के लिए आया था, तो कनिष्क द्वारा निर्मित इस विशाल स्तूप को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था। कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के मुक़ाबले में कनिष्क ने पुष्पपुर को विद्या, धर्म और संस्कृति का केन्द्र बनाया। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ समय के लिए पुष्पपुर के सम्मुख प्राचीन कुसुमपुर का वैभव मन्द पड़ गया था।
पुष्पपुर में कनिष्क ने बहुत सी नई इमारतें बनवाईं। इनमें प्रमुख एक [[स्तूप]] था, जो चार सौ फीट ऊँचा था। इसमें तेरह मंज़िलें थीं। जब प्रसिद्ध चीनी यात्री [[ह्वेनसांग|ह्यू-एन-त्सांग]] महाराज [[हर्षवर्धन]] के शासन काल (सातवीं सदी) में भारत भ्रमण करने के लिए आया था, तो कनिष्क द्वारा निर्मित इस विशाल स्तूप को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था। कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के मुक़ाबले में कनिष्क ने पुष्पपुर को विद्या, धर्म और संस्कृति का केन्द्र बनाया। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ समय के लिए पुष्पपुर के सम्मुख प्राचीन कुसुमपुर का वैभव मन्द पड़ गया था।
==चीन से संघर्ष==
कनिष्क केवल उत्तरी भारत की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने मध्य एशिया के क्षेत्र में भी अपनी शक्ति के विस्तार का प्रयत्न किया। मध्य एशिया के ख़ोतन राज्य की सहायता से कनिष्क उत्तरी भारत की विजय कर सका था। इस युग में चीन के सम्राट इस बात के लिए प्रयत्नशील थे, कि अपने साम्राज्य का विस्तार करें। चीन के सुप्रसिद्ध सेनापति पान-चाऊ ने 73 ई. के लगभग साम्राज्य विस्तार के लिए दिग्विजय प्रारम्भ की, और मध्य एशिया पर अपना अधिकार कर लिया। पान-चाऊ की विजयों के कारण चीनी साम्राज्य की पश्चिमी सीमा कैस्पियन सागर तक जा पहुँची। इस दशा में यह स्वाभाविक था कि कनिष्क का कुषाण राज्य भी चीन के निकट सम्पर्क में आए। पान-चाऊ की इच्छा थी, कि कनिष्क के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित करे। इसलिए उसने विविध बहुमूल्य उपहारों के साथ अपने राजदूत कुषाण राजा के पास भेजे। कनिष्क ने इन दूतों का यथोचित स्वागत किया, पर चीन के साथ अपनी मैत्री को स्थिर रखने के लिए यह इच्छा प्रगट की कि चीनी सम्राट अपनी कन्या का विवाह उसके साथ कर दें। कुषाणराज की इस माँग को पान-चाऊ ने अपने सम्राट के सम्मान के विरुद्ध समझा। परिणाम यह हुआ कि दोनों पक्षों में युद्ध प्रारम्भ हो गया और कनिष्क ने एक बड़ी सेना पान-चाऊ के विरुद्ध लड़ाई के लिए भेजी। पर इस युद्ध में युइशि सेना की पराजय हुई।


पर कनिष्क इस पराजय से निराश नहीं हुआ। चीनी सेनापति पान-चाऊ की मृत्यु के बाद कनिष्क ने अपनी पहली पराजय का प्रतिशोध करने के लिए एक बार फिर चीन पर आक्रमण किया। इस बार वह सफल रहा, और मध्य एशिया के अनेक प्रदेशों पर उसका आधिपत्य स्थापित हो गया। ख़ोतन और यारकन्द के प्रदेश इसी युद्ध में विजय होने के कारण कुषाणों के साम्राज्य में सम्मिलित हुए।
====चीन से संघर्ष====
==क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति==  
कनिष्क केवल उत्तरी भारत की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने [[मध्य एशिया]] के क्षेत्र में भी अपनी शक्ति के विस्तार का प्रयत्न किया। मध्य एशिया के ख़ोतन राज्य की सहायता से कनिष्क उत्तरी भारत की विजय कर सका था। इस युग में चीन के सम्राट इस बात के लिए प्रयत्नशील थे, कि अपने साम्राज्य का विस्तार करें। चीन के सुप्रसिद्ध सेनापति पान-चाऊ ने 73-78 ई. के लगभग साम्राज्य विस्तार के लिए दिग्विजय प्रारम्भ की, और मध्य एशिया पर अपना अधिकार कर लिया। पान-चाऊ की विजयों के कारण चीनी साम्राज्य की पश्चिमी सीमा [[कैस्पियन सागर]] तक जा पहुँची। इस दशा में यह स्वाभाविक था कि कुषाण राज्य भी चीन के निकट सम्पर्क में आए। पान-चाऊ की इच्छा थी, कि कुषाणों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित करे। इसलिए उसने विविध बहुमूल्य उपहारों के साथ अपने राजदूत कुषाण राजा के पास भेजे। कुषाण राजा ने इन दूतों का यथोचित स्वागत किया, पर चीन के साथ अपनी मैत्री को स्थिर रखने के लिए यह इच्छा प्रगट की कि चीनी सम्राट अपनी कन्या का विवाह उसके साथ कर दें। कुषाण राजा की इस माँग को पान-चाऊ ने अपने सम्राट के सम्मान के विरुद्ध समझा। परिणाम यह हुआ कि दोनों पक्षों में युद्ध प्रारम्भ हो गया और कुषाणों ने एक बड़ी सेना पान-चाऊ के विरुद्ध लड़ाई के लिए भेजी। पर इस युद्ध में यूची (युइशि) सेना की पराजय हुई।
इतने विस्तृत साम्राज्य के शासन के लिए सम्राट् ने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति की जिनका उल्लेख उसके लेखों में है । स्थानीय शासन संबंधी 'ग्रामिक' तथा 'ग्राम कूट्टक' और 'ग्रामवृद्ध पुरुष' और 'सेना संबंधी', 'दंडनायक' तथा 'महादंडनायक' इत्यादि अधिकारियों का भी उसके लेखों में उल्लेख है ।
 
==धर्म==
पर कुषाण राजा इस पराजय से निराश नहीं हुआ। चीनी सेनापति पान-चाऊ की मृत्यु के बाद कनिष्क ने अपनी पहली पराजय का प्रतिशोध करने के लिए एक बार फिर चीन पर आक्रमण किया। इस बार वह सफल रहा और मध्य एशिया के अनेक प्रदेशों पर उसका आधिपत्य स्थापित हो गया। ख़ोतान और यारकन्द के प्रदेश इसी युद्ध में विजय होने के कारण कुषाणों के साम्राज्य में सम्मिलित हुए।
कनिष्क के बहुत से सिक्के वर्तमान समय में उपलब्ध होते हैं। इन पर यवन (ग्रीक), जरथुस्त्री (ईरानी) और भारतीय सभी तरह के देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ अंकित हैं। ईरान के अग्नि (आतश), चन्द्र (माह) और सूर्य (मिहिर), ग्रीक देवता हेलिय, प्राचीन एलम की देवी नाना, भारत के [[शिव]], स्कन्द वायु और [[बुद्ध]] - ये सब देवता उसके सिक्कों पर नाम या चित्र के द्वारा विद्यमान हैं। इससे यह सूचित है, कि कनिष्क सब धर्मों का समान आदर करता था, और सबके देवी-देवताओं को सम्मान की दृष्टि से देखता था। इसका यह कारण भी हो सकता है, कि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। पर इस बात में कोई सन्देह नहीं कि कनिष्क [[बौद्ध धर्म]] का अनुयायी था, और बौद्ध इतिहास में उसका नाम [[अशोक]] के समान ही महत्व रखता है। आचार्य [[अश्वघोष]] ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह पाटलिपुत्र से अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।  
====क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति====  
इतने विस्तृत साम्राज्य के शासन के लिए सम्राट् ने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति की जिनका उल्लेख उसके लेखों में है। स्थानीय शासन संबंधी 'ग्रामिक' तथा 'ग्राम कूट्टक' और 'ग्रामवृद्ध पुरुष' और 'सेना संबंधी', 'दंडनायक' तथा 'महादंडनायक' इत्यादि अधिकारियों का भी उसके लेखों में उल्लेख है।
==कनिष्क और बौद्ध धर्म==
किंवदंतियों के अनुसार कनिष्क [[पाटलिपुत्र]] पर आक्रमण कर [[अश्वघोष]] नामक कवि तथा [[बौद्ध]] दार्शनिक को अपने साथ ले गया था और उसी के प्रभाव में आकर सम्राट की बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्ति हुई । इसके समय में कश्मीर में [[कुण्डलवन]] विहार अथवा [[जालंधर]] में चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् [[वसुमित्र]] की अध्यक्षता में हुई । [[हुएनसांग]] के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और [[त्रिपिटक]] का पुन: संकलन संस्करण हुआ । इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए [[संस्कृत]] भाषा का प्रयोग हुआ और [[महायान]] बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ । कुछ विद्वानों के मतानुसार [[गांधार]] कला का स्वर्णयुग भी इसी समय था, पर अन्य विद्वानों के अनुसार इस सम्राट के समय उपर्युक्त कला उतार पर थी । स्वयं बौद्ध होते हुए भी सम्राट के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी मुद्राओं पर [[यूनानी]], ईरानी, हिन्दू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है । 'एकंसद् विप्रा बहुधा वदंति' की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक स्वरूप दिया। कनिष्क के बहुत से सिक्के वर्तमान समय में उपलब्ध होते हैं। इन पर यवन (ग्रीक), जरथुस्त्री (ईरानी) और भारतीय सभी तरह के देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ अंकित हैं। ईरान के अग्नि (आतश), चन्द्र (माह) और सूर्य (मिहिर), ग्रीक देवता हेलिय, प्राचीन एलम की देवी नाना, [[भारत]] के [[शिव]], स्कन्द वायु और [[बुद्ध]] - ये सब देवता उसके सिक्कों पर नाम या चित्र के द्वारा विद्यमान हैं। इससे यह सूचित है, कि कनिष्क सब धर्मों का समान आदर करता था, और सबके देवी-देवताओं को सम्मान की दृष्टि से देखता था। इसका यह कारण भी हो सकता है, कि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। पर इस बात में कोई सन्देह नहीं कि कनिष्क [[बौद्ध धर्म]] का अनुयायी था, और बौद्ध इतिहास में उसका नाम [[अशोक]] के समान ही महत्त्व रखता है। आचार्य [[अश्वघोष]] ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह पाटलिपुत्र से अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।  
==सूर्य उपासक सम्राट 'कनिष्क'==
[[चित्र:Kanishka-Coin-2.jpg|thumb|250px|कनिष्क का सिक्का]]
[[भारत]] में ‘[[शक संवत]]’ (78 ई.) का प्रारम्भ करने वाले कुषाण सम्राट कनिष्ट की गणना भारत ही नहीं [[एशिया]] के महानतम शासकों में की जाती है। इसका साम्राज्य मध्य एशिया के आधुनिक [[उज़्बेकिस्तान]] तजाकिस्तान, [[चीन]] के आधुनिक सिक्यांग एवं कांसू प्रान्त से लेकर [[अफ़ग़ानिस्तान]], [[पाकिस्तान]] और समस्त [[उत्तर भारत]] में [[बिहार]] एवं [[ओडिशा|उड़ीसा]] तक फैला था।  कनिष्क ने देवपुत्र शाहने शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘[[बैक्ट्रिया]]’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान एवं दक्षिणी उज़्बेकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी संस्कृति का एक केन्द्र था। कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य रूप से मिहिर ([[सूर्य]]) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है।
====कनिष्क के सिक्के====
कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर, यूनानी भाषा और लिपि में मीरों (मिहिर) को उत्टंकित कराया था, जो इस बात का प्रतीक है कि [[ईरान]] का सौर सम्प्रदाय भारत में प्रवेश कर गया था। ईरान में मिथ्र या मिहिर पूजा अत्यन्त लोकप्रिय थी। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा पहली बार हुआ था। सम्राट कनिष्क के सिक्के में [[सूर्य देवता|सूर्यदेव]] बायीं और खड़े हैं। बांए हाथ में दण्ड है जो रश्ना सें बंधा है। कमर के चारों ओर तलवार लटकी है। सूर्य ईरानी राजसी वेशभूषा में है।  [[पेशावर]] के पास शाह जी की ढेरी नामक स्थान पर कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के [[अवशेष|अवशेषों]] से एक बक्सा प्राप्त हुआ जिसे ‘कनिष्कास कास्केट’ कहते हैं, इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। इस ‘कास्केट’ पर कनिष्क के संवत का प्रथम वर्ष अंकित है।
====मथुरा संग्रहालय====
[[मथुरा]] के [[संग्रहालय मथुरा|संग्रहालय ]] में लाल पत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी है, जो [[कुषाण काल]] (पहली से तीसरी शताब्बी ईसवीं) की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनके दोनों हाथों में [[कमल]] की एक-एक कली है और उनके दोनों कन्धों पर सूर्य-पक्षी [[गरुड़]] जैसे दो छीटे-2 पंख लगे हुए हैं। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् ईरानी ढंग की पगड़ी, कामदानी के चोगें (लम्बा कोट) और सलवार से ढका है और वे ऊंचे ईरानी जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त, सम्राट कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है। कुषाणों से पहली सूर्य की कोई प्रतिमा नहीं मिली है, भारत में उन्होंने ही सूर्य प्रतिमा की उपासना का चलन आरम्भ किया और उन्होंने ही सूर्य की वेशभूषा भी वैसी दी थी जैसी वो स्वयं धारण करते थे।
====पहला सूर्य मंदिर====
[[भारत]] में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना [[मुल्तान]] में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता [[कनिंघम]] का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था और उसका यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा। [[भविष्य पुराण|भविष्य]], साम्व एवं [[वराह पुराण]] में वर्णन आता है कि भगवान [[कृष्ण]] के पुत्र साम्ब ने मुल्तान में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना की थी। किन्तु भारतीय [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] ने वहाँ [[पुरोहित]] का कार्य करने से मना कर दिया, तब [[नारद|नारद मुनि]] की सलाह पर साम्ब ने संकलदीप ([[सिन्ध]]) से मग ब्राह्मणों को बुलवाया, जिन्होंने वहाँ पुरोहित का कार्य किया। भविष्य पुराण के अनुसार मग ब्राह्मण जरसस्त के वंशज है, जिसके पिता स्वयं सूर्य थे और माता नक्षुभा ‘मिहिर’ गौत्र की थी। मग ब्राह्मणों के आदि पूर्वज जरसस्त का नाम, छठी शताब्दी ई. पू. में, ईरान में [[पारसी धर्म]] की स्थापना करने वाले [[ज़रथुष्ट्र|जुरथुस्त]] से साम्य रखता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी. आर. भण्डारकर (1911 ई.) के अनुसार मग ब्राह्मणों ने सम्राट कनिष्क के समय में ही, सूर्य एवं अग्नि के उपासक पुरोहितों के रूप में, भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर (मुल्तान) में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार कनिष्क ढीले-ढाले रूप के ज़र्थुस्थ धर्म को मानता था, वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतिरिक्त अन्य भारतीय एवं यूनानी देवताओं का उपासक था। अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में [[बौद्ध धर्म]] में कथित धर्मान्तरण के बाद भी वह अपने पुराने देवताओं का सम्मान करता रहा। [[चित्र:Kanishka-Coin-3.jpg|thumb|left|कनिष्क का सिक्का]]
====जगस्वामी मन्दिर का निर्माण====
दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन [[भिन्नमाल|भिनमाल नगर]] में [[सूर्य देवता]] के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण [[काश्मीर]] के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। [[मारवाड़]] एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक के साथ ही काश्मीर से आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा। सातवीं शताब्दी में यही भिनमाल नगर गुर्जर देश (आधुनिक [[राजस्थान]] में विस्तृत) की राजधानी बना। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि एक [[कनिंघम]] ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है और उसने माना है कि [[गुर्जर|गुर्जरों]] के कसाना गौत्र के लोग कुषाणों के वर्तमान प्रतिनिधि है। उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र [[अफ़ग़ानिस्तान]] से [[महाराष्ट्र]] तक फैला है और [[भारत]] में केवल गुर्जर जाति में मिलता है।
====कार्तिकेय की पूजा====
कनिष्क ने [[भारत]] में [[कार्तिकेय]] की पूजा को आरम्भ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और [[स्कन्द]] का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया। कनिष्क के बेटे सम्राट [[हुविष्क]] का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया है। आधुनिक [[पंचांग]] में [[सूर्य षष्ठी]] एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है, कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है- वह है सम्राट कनिष्क की आस्था।<ref>{{cite web |url=http://janitihas.blogspot.in/2012/10/surya-upasak-samrat-kanishka.html |title= सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क|accessmonthday= 13 नवम्बर|accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=JANITIHAS |language=हिंदी }}</ref>
==बौद्ध साहित्य==
कनिष्क निश्चय ही एक महान् योद्धा था जिसने [[पार्थिया]] से [[मगध]] तक अपना राज्य फैलाया, किन्तु उसका यश उसके [[बौद्ध धर्म]] के संरक्षक होने के कारण कहीं अधिक है। उसका निजी बौद्ध धर्म था। उसके प्रचार और संगठन के लिए उसने बहुत से कार्य किए। उसने पार्श्व के कहने से कश्मीर अथवा जलंधर में बौद्ध की चौथी महासंगीति (महासभा) का आयोजन किया जिसमें बहुत से विद्वानों ने भाग लिया। इसका उद्देश्य उन सिद्धांतों पर विचार करना था जिनके विषय में बौद्ध विद्वानों में मतभेद था। इस सभा में विद्वानों ने समस्त [[बौद्ध साहित्य]] पर टीकाएँ लिखवाईं। इस सभा का प्रधान [[वसुमित्र]] था और [[अश्वघोष]] ने इसमें भाग लिया था। कनिष्क यद्यपि स्वयं बौद्ध धर्मावलंबी था किन्तु वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। यह बात उसके सिक्कों से स्पष्ट है। उन पर कई पार्थियन, यूनानी तथा भारतीय देवी देवताओं की आकृतियाँ हैं। कुछ सिक्कों पर यूनानी ढंग से खड़े और कुछ पर भारतीय ढंग से बैठे [[बुद्ध]] की आकृतियाँ हैं। सम्भवतः ये सिक्के इस बात को प्रकट करते हैं कि उसके राज्य में इन सब धर्मों के रहने वाले थे और सम्राट इन सब धर्मों के प्रति सहिष्णु था। [[मथुरा]] में एक मूर्ति मिली है जिसमें कनिष्क को सैनिक पोशाक पहने खड़ा दिखाया गया है।
कनिष्क के सिक्के दो प्रकार के हैं -
#एक प्रकार के सिक्कों में यूनानी भाषा में उसका नाम आदि अंकित है।
#दूसरे में ईरानी भाषा में।
उसके ताँबे के सिक्कों में उसे एक वेदी पर बलिदान करते दिखाया गया है। उसके सोने के सिक्के [[रोम]] के सम्राटों के सिक्कों से मिलते जुलते हैं। जिनमें एक ओर उसकी अपनी आकृति है और दूसरी ओर किसी देवी या देवता की। [[पेशावर]] के निकट कनिष्क ने एक बड़ा स्तूप और मठ बनवाया, जिसमें [[बुद्ध]] के अवशेष रखे गए। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस [[स्तूप]] का निर्माण एक यूनानी इंजीनियर ने कराया था।
====समकालीन विद्वान====
कनिष्क के संरक्षण में न केवल बौद्ध धर्म की उन्नति हुई, अपितु अनेक प्रसिद्ध विद्वानों ने भी उसके राजदरबार में आश्रय ग्रहण किया। [[वसुमित्र]], पार्श्व और [[अश्वघोष]] के अतिरिक्त प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] भी उसका समकालीन था। नागार्जुन [[बौद्ध धर्म]] का प्रसिद्ध दार्शनिक हुआ है, और [[महायान]] सम्प्रदाय का प्रवर्तक उसी को माना जाता है। उसे भी कनिष्क का संरक्षण प्राप्त था। [[आयुर्वेद]] का प्रसिद्ध आचार्य [[चरक]] भी उसके आश्रय में पुष्पपुर में निवास करता था।
==बौद्धों की चौथी संगीति==
==बौद्धों की चौथी संगीति==
कनिष्क के संरक्षण में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति (महासभा) उसके शासन काल में हुई। कनिष्क ने जब बौद्ध धर्म का अध्ययन शुरू किया, तो उसने अनुभव किया कि उसके विविध सम्प्रदायों में बहुत मतभेद है। धर्म के सिद्धांतों के स्पष्टीकरण के लिए यह आवश्यक है, कि प्रमुख विद्वान एक स्थान पर एकत्र हों, और सत्य सिद्धांतों का निर्णय करें। इसलिए कनिष्क ने काश्मीर के कुण्डल वन विहार में एक महासभा का आयोजन किया, जिसमें 500 प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान सम्मिलित हुए। अश्वघोष के गुरु आचार्य वसुमित्र और पार्श्व इनके प्रधान थे। वसुमित्र को महासभा का अध्यक्ष नियत किया गया। महासभा में एकत्र विद्वानों ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को स्पष्ट करने और विविध सम्प्रदायों के विरोध को दूर करने के लिए 'महाविभाषा' नाम का एक विशाल ग्रंथ तैयार किया। यह ग्रंथ बौद्ध [[त्रिपिटक]] के भाष्य के रूप में था। यह ग्रंथ [[संस्कृत भाषा]] में था और इसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराया गया था। ये ताम्रपत्र एक विशाल स्तूप में सुरक्षित रूप से रख दिए गए थे। यह स्तूप कहाँ पर था, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। यदि कभी इस स्तूप का पता चल सका, और इसमें ताम्रपत्र उपलब्ध हो गए, तो निःसन्देह कनिष्क के बौद्ध धर्म सम्बन्धी कार्य पर उनसे बहुत अधिक प्रकाश पड़ेगा। 'महाविभाषा' का चीनी संस्करण इस समय उपलब्ध है।
[[चित्र:Kanishka-Coin-4.jpg|thumb|250px|कनिष्क का सिक्का]]
==समकालीन विद्वान==
कनिष्क के संरक्षण में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति (महासभा) उसके शासन काल में हुई। कनिष्क ने जब बौद्ध धर्म का अध्ययन शुरू किया, तो उसने अनुभव किया कि उसके विविध सम्प्रदायों में बहुत मतभेद है। धर्म के सिद्धांतों के स्पष्टीकरण के लिए यह आवश्यक है, कि प्रमुख विद्वान् एक स्थान पर एकत्र हों, और सत्य सिद्धांतों का निर्णय करें। इसलिए कनिष्क ने काश्मीर के कुण्डल वन विहार में एक महासभा का आयोजन किया, जिसमें 500 प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् सम्मिलित हुए। अश्वघोष के गुरु [[वसुमित्र|आचार्य वसुमित्र]] और पार्श्व इनके प्रधान थे। वसुमित्र को महासभा का अध्यक्ष नियत किया गया। महासभा में एकत्र विद्वानों ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को स्पष्ट करने और विविध सम्प्रदायों के विरोध को दूर करने के लिए 'महाविभाषा' नाम का एक विशाल ग्रंथ तैयार किया। यह ग्रंथ बौद्ध [[त्रिपिटक]] के भाष्य के रूप में था। यह ग्रंथ [[संस्कृत भाषा]] में था और इसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराया गया था। ये ताम्रपत्र एक विशाल स्तूप में सुरक्षित रूप से रख दिए गए थे। यह स्तूप कहाँ पर था, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। यदि कभी इस स्तूप का पता चल सका, और इसमें ताम्रपत्र उपलब्ध हो गए, तो निःसन्देह कनिष्क के बौद्ध धर्म सम्बन्धी कार्य पर उनसे बहुत अधिक प्रकाश पड़ेगा। 'महाविभाषा' का चीनी संस्करण इस समय उपलब्ध है।
कनिष्क के संरक्षण में न केवल बौद्ध धर्म की उन्नति हुई, अपितु अनेक प्रसिद्ध विद्वानों ने भी उसके राजदरबार में आश्रय ग्रहण किया। वसुमित्र, पार्श्व और [[अश्वघोष]] के अतिरिक्त प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] भी उसका समकालीन था। नागार्जुन बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध दार्शनिक हुआ है, और [[महायान]] साम्प्रदाय का प्रवर्तक उसी को माना जाता है। उसे भी कनिष्क का संरक्षण प्राप्त था। [[आयुर्वेद]] का प्रसिद्ध आचार्य [[चरक]] भी उसके आश्रय में पुष्पपुर में निवास करता था।
==कुषाण संस्कृति==
कनिष्क की राजसभा में बड़े बड़े विद्वान् विद्यमान थे। पार्श्व, वसुमित्र और अश्वघोष बौद्ध दार्शनिक थे। नागार्जुन जैसे प्रकांड पंडित और चरक जैसे चिकित्सक उसकी राजधानी के रत्न थे। उसके समय में 'महायान' धर्म का प्रचार होने से [[बौद्ध]] और [[बोधिसत्व|बोधिसत्वों]] की मूर्तियाँ बनने लगीं। इस प्रकार कुषाणों की यद्यपि अपनी कोई विकसित संस्कृति नहीं थी किन्तु [[भारत]] में बसने पर उन्होंने भारतीय और यूनानी संस्कृति को अपना लिया और इस समन्वित संस्कृति को ऐसा प्रोत्साहन दिया कि वह खूब विकसित हुई। उत्तरी भारत की जनता को [[यूनानी]], [[शक]], [[पहलव]], आदि आक्रमणों से अब मुक्ति मिली और [[भारत]] में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। राजनीतिक शान्ति के इस काल में धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान, व्यापार आदि सभी दिशाओं में खूब प्रगति हुई। वास्तव में गुप्त राजाओं से पूर्व कुषाण युग भारत के सांस्कृतिक विकास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। कनिष्क का नाम महायान बौद्ध धर्म के प्रश्रय एवं प्रचार प्रसार के साथ साथ '''गंधार कला''' शैली के विकास से सम्बद्ध है।
==कुषाण साम्राज्य का ह्रास==
कनिष्क के बाद [[कुषाण साम्राज्य]] का ह्रास प्रारम्भ हुआ। उसका उत्तराधिकारी [[हुविष्क]] था। वह सम्भवतः रुद्रदामा द्वारा पराजित हुआ और मालवा शकों के हाथ से चला गया। अगला शासक [[वासुदेव कुषाण|वसुदेव]] था। वह [[विष्णु]] एवं [[शिव]] का उपासक था। उसके समय में उत्तर पश्चिम का बहुत बड़ा भाग कुषाणों के हाथ से निकल गया। उसके उत्तराधिकारी कमज़ोर थे और [[ईरान]] में सासानियत वंश के तथा पूर्व में 'नाग [[भारशिव वंश]]' के उदय ने कुषाणों के पतन में बहुत योग दिया।


कनिष्क ने 100 ईसवी के लगभग तक शासन किया।
{{शासन क्रम |शीर्षक=[[कुषाण वंश|कुषाण वंश (लगभग 1 ई. से 225 तक)]] |पूर्वाधिकारी=[[विम कडफ़ाइसिस]] |उत्तराधिकारी=[[हुविष्क]]}}
 
{{लेख प्रगति
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|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.kushan.org/contents.htm कुषाण इतिहास]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{शक एवं कुषाण काल}}
{{कुषाण साम्राज्य}}{{प्राचीन विदेशी शासक}}
{{भारत के राजवंश}}
[[Category:नया पन्ना]]
[[Category:इतिहास_कोश]]
[[Category:इतिहास_कोश]]
[[Category:शक एवं कुषाण काल]]
[[Category:शक एवं कुषाण काल]]
[[Category:भारत के राजवंश]]
[[Category:कुषाण साम्राज्य]]
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14:27, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

कनिष्क विषय सूची
कनिष्क
कनिष्क का सिक्का
कनिष्क का सिक्का
पूरा नाम कनिष्क प्रथम
जन्म ज्ञात नहीं
मृत्यु तिथि 151 ई. लगभग
शासन काल 127 ई. से 140-51 ई. लगभग
शा. अवधि 13-24 वर्ष
धार्मिक मान्यता पारसी, बौद्ध
निर्माण भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता कनिंघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था और उसका यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा।
पूर्वाधिकारी विम कडफ़ाइसिस
उत्तराधिकारी हुविष्क
वंश कुषाण वंश
विशेष कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को आरम्भ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और स्कन्द का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया।
अन्य जानकारी कनिष्क को कुषाण वंश का तीसरा शासक माना जाता था किन्तु राबाटक शिलालेख के बाद यह चौथा शासक साबित होता है।

कनिष्क (अंग्रेज़ी: Kanishka, शासनकाल- 127 ई. से 140-51 ई. लगभग) कुषाण वंश का प्रमुख सम्राट् था। कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। यूची क़बीले से निकली यूची जाति ने भारत में कुषाण वंश की स्थापना की और भारत को कनिष्क जैसा महान् शासक दिया। विम कडफ़ाइसिस के बाद कुषाण साम्राज्य का अधिपति कौन बना, इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में बहुत मतभेद था लेकिन राबाटक शिलालेख [1] के मिलने के बाद कनिष्क का वंश वृक्ष स्पष्ट हो जाता है। वैसे तो सभी कुषाण राजाओं के तिथिक्रम का विषय विवादग्रस्त है, और अनेक इतिहासकार राजा कुजुल और विम तक को कनिष्क का पूर्ववर्ती न मानकर परवर्ती मानते थे, पर अब बहुसंख्यक इतिहासकारों का यही मत है, कि कनिष्क ने कुजुल और विम के बाद ही शासन किया, पहले नहीं। विम कडफ़ाइसिस के राज्य काल का अन्त लगभग 100 ई. के लगभग हुआ था, और कनिष्क 127 ई. के लगभग कुषाण राज्य का स्वामी बनने का अन्दाज़ा लगता है। इस बीच के कुषाण इतिहास को अज्ञात ही समझना चाहिए।

इतिहास

कनिष्क का इतिहास जानने के लिए ऐतिहासिक सामग्री की कमी नहीं है। उसके बहुत से सिक्के उपलब्ध हैं, और ऐसे अनेक उत्कीर्ण लेख भी मिले हैं, जिनका कनिष्क के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। बौद्ध धर्म में उसका स्थान अशोक से कुछ ही कम है। जिस प्रकार अशोक के संरक्षण में बौद्ध धर्म की बहुत उन्नति हुई, वैसे ही कनिष्क के समय में भी हुई।

राज्यारोहण

कनिष्क को कुषाण वंश का तीसरा शासक माना जाता था किन्तु राबाटक शिलालेख के बाद यह चौथा शासक साबित होता है। संदेह नहीं कि कनिष्क कुषाण वंश का महानतम शासक था। उसके ही कारण कुषाण वंश का भारत के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसका राज्यारोहण काल संदिग्ध है। 100 ई. से 127 ई. तक इसे कहीं पर भी रखा जा सकता है, किन्तु सम्भावना यह भी मानी गई थी कि तथाकथित शक संवत, जो 78 ई. में आरम्भ हुआ माना जाता है, कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि हो सकती है। कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफ़ग़ानिस्तान, सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य मगध तक विस्तृत कर दिया। वहाँ से वह प्रसिद्ध विद्वान् अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर ले गया। तिब्बत और चीन के कुछ लेखकों ने लिखा है कि उसका साकेत और पाटलिपुत्र के राजाओं से युद्ध हुआ था। कश्मीर को अपने राज्य में मिलाकर उसने वहाँ एक नगर बसाया जिसे 'कनिष्कपुर' कहते हैं। शायद कनिष्क ने उज्जैन के क्षत्रप को हराया था और मालवा का प्रान्त प्राप्त किया था। कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध चीन के शासक के साथ हुआ था, जहाँ एक बार पराजित होकर वह दुबारा विजयी हुआ। कनिष्क ने मध्य एशिया में काशगर, यारकंद, ख़ोतान, आदि प्रदेशों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात् पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसमें गंगा, सिंधु और आक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।

कुषाण सम्राट महाराज राजतिराज देवपुत्र कनिष्क
प्राप्ति स्थान-माँट, मथुरा
उपलब्ध-राजकीय संग्रहालय, मथुरा

विजित राज्य

कुषाण वंश का प्रमुख सम्राट कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। कुमारलात की कल्पनामंड टीका के अनुसार इसने भारत विजय के पश्चात् मध्य एशिया में ख़ोतान जीता और वहीं पर राज्य करने लगा। इसके लेख पेशावर, माणिक्याल (रावलपिंडी), सुयीविहार (बहावलपुर),जेदा (रावलपिंडी), मथुरा, कौशांबी तथा सारनाथ में मिले हैं, और इसके सिक्के सिंध से लेकर बंगाल तक पाए गए हैं । कल्हण ने भी अपनी 'राजतरंगिणी' में कनिष्क, झुष्क और हुष्क द्वारा कश्मीर पर राज्य तथा वहाँ अपने नाम पर नगर बसाने का उल्लेख किया है । इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट कनिष्क का राज्य कश्मीर से उत्तरी सिंध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था। कुषाण राजा कनिष्क के निर्माण कार्यों का निरीक्षक अभियन्ता एक यवन अधिकारी अगेसिलोस था।

राज्य विस्तार

कनिष्क ने कुषाण वंश की शक्ति का पुनरुद्धार किया। सातवाहन राजा कुन्तल सातकर्णि के प्रयत्न से कुषाणों की शक्ति क्षीण हो गई थी। अब कनिष्क के नेतृत्व में कुषाण राज्य का पुनः उत्कर्ष हुआ। उसने उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम चारों दिशाओं में अपने राज्य का विस्तार किया। सातवाहनों को परास्त करके उसने न केवल पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित किया, अपितु भारत के मध्यदेश को जीतकर मगध से भी सातवाहन वंश के शासन का अन्त किया। कुमारलात नामक एक बौद्ध पंडित ने कल्पना मंडीतिका नाम की एक पुस्तक लिखी थी, जिसका चीनी अनुवाद इस समय भी उपलब्ध है। इस पुस्तक में कनिष्क के द्वारा की गई पूर्वी भारत की विजय का उल्लेख है। श्रीधर्मपिटक निदान सूत्र नामक एक अन्य बौद्ध ग्रंथ में [2] लिखा है, कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र को जीतकर उसे अपने अधीन किया और वहाँ से प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् अश्वघोष और भगवान बुद्ध के कमण्डलु को प्राप्त किया। तिब्बत की बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क के साकेत (अयोध्या) विजय का उल्लेख है। इस प्रकार साहित्यिक आधार पर यह बात ज्ञात होती है कि कनिष्क एक महान् विजेता था, और उसने उत्तरी भारत के बड़े भाग को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। सातवाहन वंश का शासन जो पाटलिपुत्र से उठ गया, वह कनिष्क की विजयों का ही परिणाम था।

बौद्ध अनुश्रुति की यह बात कनिष्क के सिक्कों और उत्कीर्ण लेखों द्वारा भी पुष्ट होती है। कनिष्क के सिक्के उत्तरी भारत में दूर-दूर तक उपलब्ध हुए हैं। पूर्व में रांची तक से उसके सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार उसके लेख पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में मथुरा और सारनाथ तक प्राप्त हुए हैं। उसके राज्य के विस्तार के विषय में ये पुष्ट प्रमाण हैं। सारनाथ में कनिष्क का जो शिलालेख मिला है, उसमें महाक्षत्रप ख़रपल्लान और क्षत्रप विनस्पर के नाम आए हैं। पुराणों में सातवाहन या आन्ध्र वंश के बाद मगध का शासक वनस्पर को ही लिखा गया है। यह वनस्पर कनिष्क द्वारा नियुक्त मगध का क्षत्रप था। महाक्षत्रप ख़रपल्लान की नियुक्ति मथुरा के प्रदेश पर शासन करने के लिए की गई थी।

उत्तरी भारत की यह विजय कनिष्क केवल अपनी शक्ति द्वारा नहीं कर सका था। तिब्बति अनुश्रुति के अनुसार ख़ोतन के राजा विजयसिंह के पुत्र विजयकीर्ति ने 'गुज़ान' राजा तथा राजा 'कनिष्क' के साथ मिलकर भारत पर आक्रमण किया था, और सोकेत (साकेत) नगर जीत लिया था। 'गुज़ान' का अभिप्राय कुषाण से है, और कनिक का कनिष्क से। सातवाहन वंश की शक्ति को नष्ट करने के लिए कनिष्क को सुदूरवर्ती ख़ोतन राज्य के राजा से भी सहायता लेनी पड़ी थी। यह बात सातवाहन साम्राज्य की शक्ति को सूचित करती है।

नया पुष्पपुर

पाटलिपुत्र को जीतकर कनिष्क ने उसे अपने अधीन कर लिया था। अपने प्राचीन गौरव के कारण इसी नगरी को कनिष्क के साम्राज्य की राजधानी होना चाहिए था। पर कनिष्क का साम्राज्य बहुत विस्तृत था। उसकी उत्तरी सीमा चीन के साथ छूती थी। चीन की सीमा तक विस्तृत विशाल कुषाण साम्राज्य के लिए पाटलिपुत्र नगरी उपयुक्त राजधानी नहीं हो सकती थी। अतः कनिष्क ने एक नए कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) की स्थापना की, और उसे 'पुष्पपुर' नाम दिया। यही आजकल का पेशावर है।

पुष्पपुर में कनिष्क ने बहुत सी नई इमारतें बनवाईं। इनमें प्रमुख एक स्तूप था, जो चार सौ फीट ऊँचा था। इसमें तेरह मंज़िलें थीं। जब प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-एन-त्सांग महाराज हर्षवर्धन के शासन काल (सातवीं सदी) में भारत भ्रमण करने के लिए आया था, तो कनिष्क द्वारा निर्मित इस विशाल स्तूप को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था। कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के मुक़ाबले में कनिष्क ने पुष्पपुर को विद्या, धर्म और संस्कृति का केन्द्र बनाया। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ समय के लिए पुष्पपुर के सम्मुख प्राचीन कुसुमपुर का वैभव मन्द पड़ गया था।

चीन से संघर्ष

कनिष्क केवल उत्तरी भारत की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने मध्य एशिया के क्षेत्र में भी अपनी शक्ति के विस्तार का प्रयत्न किया। मध्य एशिया के ख़ोतन राज्य की सहायता से कनिष्क उत्तरी भारत की विजय कर सका था। इस युग में चीन के सम्राट इस बात के लिए प्रयत्नशील थे, कि अपने साम्राज्य का विस्तार करें। चीन के सुप्रसिद्ध सेनापति पान-चाऊ ने 73-78 ई. के लगभग साम्राज्य विस्तार के लिए दिग्विजय प्रारम्भ की, और मध्य एशिया पर अपना अधिकार कर लिया। पान-चाऊ की विजयों के कारण चीनी साम्राज्य की पश्चिमी सीमा कैस्पियन सागर तक जा पहुँची। इस दशा में यह स्वाभाविक था कि कुषाण राज्य भी चीन के निकट सम्पर्क में आए। पान-चाऊ की इच्छा थी, कि कुषाणों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित करे। इसलिए उसने विविध बहुमूल्य उपहारों के साथ अपने राजदूत कुषाण राजा के पास भेजे। कुषाण राजा ने इन दूतों का यथोचित स्वागत किया, पर चीन के साथ अपनी मैत्री को स्थिर रखने के लिए यह इच्छा प्रगट की कि चीनी सम्राट अपनी कन्या का विवाह उसके साथ कर दें। कुषाण राजा की इस माँग को पान-चाऊ ने अपने सम्राट के सम्मान के विरुद्ध समझा। परिणाम यह हुआ कि दोनों पक्षों में युद्ध प्रारम्भ हो गया और कुषाणों ने एक बड़ी सेना पान-चाऊ के विरुद्ध लड़ाई के लिए भेजी। पर इस युद्ध में यूची (युइशि) सेना की पराजय हुई।

पर कुषाण राजा इस पराजय से निराश नहीं हुआ। चीनी सेनापति पान-चाऊ की मृत्यु के बाद कनिष्क ने अपनी पहली पराजय का प्रतिशोध करने के लिए एक बार फिर चीन पर आक्रमण किया। इस बार वह सफल रहा और मध्य एशिया के अनेक प्रदेशों पर उसका आधिपत्य स्थापित हो गया। ख़ोतान और यारकन्द के प्रदेश इसी युद्ध में विजय होने के कारण कुषाणों के साम्राज्य में सम्मिलित हुए।

क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति

इतने विस्तृत साम्राज्य के शासन के लिए सम्राट् ने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति की जिनका उल्लेख उसके लेखों में है। स्थानीय शासन संबंधी 'ग्रामिक' तथा 'ग्राम कूट्टक' और 'ग्रामवृद्ध पुरुष' और 'सेना संबंधी', 'दंडनायक' तथा 'महादंडनायक' इत्यादि अधिकारियों का भी उसके लेखों में उल्लेख है।

कनिष्क और बौद्ध धर्म

किंवदंतियों के अनुसार कनिष्क पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर अश्वघोष नामक कवि तथा बौद्ध दार्शनिक को अपने साथ ले गया था और उसी के प्रभाव में आकर सम्राट की बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्ति हुई । इसके समय में कश्मीर में कुण्डलवन विहार अथवा जालंधर में चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुमित्र की अध्यक्षता में हुई । हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन संस्करण हुआ । इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ । कुछ विद्वानों के मतानुसार गांधार कला का स्वर्णयुग भी इसी समय था, पर अन्य विद्वानों के अनुसार इस सम्राट के समय उपर्युक्त कला उतार पर थी । स्वयं बौद्ध होते हुए भी सम्राट के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी मुद्राओं पर यूनानी, ईरानी, हिन्दू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है । 'एकंसद् विप्रा बहुधा वदंति' की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक स्वरूप दिया। कनिष्क के बहुत से सिक्के वर्तमान समय में उपलब्ध होते हैं। इन पर यवन (ग्रीक), जरथुस्त्री (ईरानी) और भारतीय सभी तरह के देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ अंकित हैं। ईरान के अग्नि (आतश), चन्द्र (माह) और सूर्य (मिहिर), ग्रीक देवता हेलिय, प्राचीन एलम की देवी नाना, भारत के शिव, स्कन्द वायु और बुद्ध - ये सब देवता उसके सिक्कों पर नाम या चित्र के द्वारा विद्यमान हैं। इससे यह सूचित है, कि कनिष्क सब धर्मों का समान आदर करता था, और सबके देवी-देवताओं को सम्मान की दृष्टि से देखता था। इसका यह कारण भी हो सकता है, कि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। पर इस बात में कोई सन्देह नहीं कि कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी था, और बौद्ध इतिहास में उसका नाम अशोक के समान ही महत्त्व रखता है। आचार्य अश्वघोष ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह पाटलिपुत्र से अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।

सूर्य उपासक सम्राट 'कनिष्क'

कनिष्क का सिक्का

भारत में ‘शक संवत’ (78 ई.) का प्रारम्भ करने वाले कुषाण सम्राट कनिष्ट की गणना भारत ही नहीं एशिया के महानतम शासकों में की जाती है। इसका साम्राज्य मध्य एशिया के आधुनिक उज़्बेकिस्तान तजाकिस्तान, चीन के आधुनिक सिक्यांग एवं कांसू प्रान्त से लेकर अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और समस्त उत्तर भारत में बिहार एवं उड़ीसा तक फैला था। कनिष्क ने देवपुत्र शाहने शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘बैक्ट्रिया’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान एवं दक्षिणी उज़्बेकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी संस्कृति का एक केन्द्र था। कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य रूप से मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है।

कनिष्क के सिक्के

कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर, यूनानी भाषा और लिपि में मीरों (मिहिर) को उत्टंकित कराया था, जो इस बात का प्रतीक है कि ईरान का सौर सम्प्रदाय भारत में प्रवेश कर गया था। ईरान में मिथ्र या मिहिर पूजा अत्यन्त लोकप्रिय थी। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा पहली बार हुआ था। सम्राट कनिष्क के सिक्के में सूर्यदेव बायीं और खड़े हैं। बांए हाथ में दण्ड है जो रश्ना सें बंधा है। कमर के चारों ओर तलवार लटकी है। सूर्य ईरानी राजसी वेशभूषा में है। पेशावर के पास शाह जी की ढेरी नामक स्थान पर कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के अवशेषों से एक बक्सा प्राप्त हुआ जिसे ‘कनिष्कास कास्केट’ कहते हैं, इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। इस ‘कास्केट’ पर कनिष्क के संवत का प्रथम वर्ष अंकित है।

मथुरा संग्रहालय

मथुरा के संग्रहालय में लाल पत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी है, जो कुषाण काल (पहली से तीसरी शताब्बी ईसवीं) की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनके दोनों हाथों में कमल की एक-एक कली है और उनके दोनों कन्धों पर सूर्य-पक्षी गरुड़ जैसे दो छीटे-2 पंख लगे हुए हैं। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् ईरानी ढंग की पगड़ी, कामदानी के चोगें (लम्बा कोट) और सलवार से ढका है और वे ऊंचे ईरानी जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त, सम्राट कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है। कुषाणों से पहली सूर्य की कोई प्रतिमा नहीं मिली है, भारत में उन्होंने ही सूर्य प्रतिमा की उपासना का चलन आरम्भ किया और उन्होंने ही सूर्य की वेशभूषा भी वैसी दी थी जैसी वो स्वयं धारण करते थे।

पहला सूर्य मंदिर

भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता कनिंघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था और उसका यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा। भविष्य, साम्व एवं वराह पुराण में वर्णन आता है कि भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब ने मुल्तान में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना की थी। किन्तु भारतीय ब्राह्मणों ने वहाँ पुरोहित का कार्य करने से मना कर दिया, तब नारद मुनि की सलाह पर साम्ब ने संकलदीप (सिन्ध) से मग ब्राह्मणों को बुलवाया, जिन्होंने वहाँ पुरोहित का कार्य किया। भविष्य पुराण के अनुसार मग ब्राह्मण जरसस्त के वंशज है, जिसके पिता स्वयं सूर्य थे और माता नक्षुभा ‘मिहिर’ गौत्र की थी। मग ब्राह्मणों के आदि पूर्वज जरसस्त का नाम, छठी शताब्दी ई. पू. में, ईरान में पारसी धर्म की स्थापना करने वाले जुरथुस्त से साम्य रखता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी. आर. भण्डारकर (1911 ई.) के अनुसार मग ब्राह्मणों ने सम्राट कनिष्क के समय में ही, सूर्य एवं अग्नि के उपासक पुरोहितों के रूप में, भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर (मुल्तान) में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार कनिष्क ढीले-ढाले रूप के ज़र्थुस्थ धर्म को मानता था, वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतिरिक्त अन्य भारतीय एवं यूनानी देवताओं का उपासक था। अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म में कथित धर्मान्तरण के बाद भी वह अपने पुराने देवताओं का सम्मान करता रहा।

कनिष्क का सिक्का

जगस्वामी मन्दिर का निर्माण

दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन भिनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक के साथ ही काश्मीर से आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा। सातवीं शताब्दी में यही भिनमाल नगर गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान में विस्तृत) की राजधानी बना। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि एक कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है और उसने माना है कि गुर्जरों के कसाना गौत्र के लोग कुषाणों के वर्तमान प्रतिनिधि है। उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफ़ग़ानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है।

कार्तिकेय की पूजा

कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को आरम्भ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और स्कन्द का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया। कनिष्क के बेटे सम्राट हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया है। आधुनिक पंचांग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है, कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है- वह है सम्राट कनिष्क की आस्था।[3]

बौद्ध साहित्य

कनिष्क निश्चय ही एक महान् योद्धा था जिसने पार्थिया से मगध तक अपना राज्य फैलाया, किन्तु उसका यश उसके बौद्ध धर्म के संरक्षक होने के कारण कहीं अधिक है। उसका निजी बौद्ध धर्म था। उसके प्रचार और संगठन के लिए उसने बहुत से कार्य किए। उसने पार्श्व के कहने से कश्मीर अथवा जलंधर में बौद्ध की चौथी महासंगीति (महासभा) का आयोजन किया जिसमें बहुत से विद्वानों ने भाग लिया। इसका उद्देश्य उन सिद्धांतों पर विचार करना था जिनके विषय में बौद्ध विद्वानों में मतभेद था। इस सभा में विद्वानों ने समस्त बौद्ध साहित्य पर टीकाएँ लिखवाईं। इस सभा का प्रधान वसुमित्र था और अश्वघोष ने इसमें भाग लिया था। कनिष्क यद्यपि स्वयं बौद्ध धर्मावलंबी था किन्तु वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। यह बात उसके सिक्कों से स्पष्ट है। उन पर कई पार्थियन, यूनानी तथा भारतीय देवी देवताओं की आकृतियाँ हैं। कुछ सिक्कों पर यूनानी ढंग से खड़े और कुछ पर भारतीय ढंग से बैठे बुद्ध की आकृतियाँ हैं। सम्भवतः ये सिक्के इस बात को प्रकट करते हैं कि उसके राज्य में इन सब धर्मों के रहने वाले थे और सम्राट इन सब धर्मों के प्रति सहिष्णु था। मथुरा में एक मूर्ति मिली है जिसमें कनिष्क को सैनिक पोशाक पहने खड़ा दिखाया गया है। कनिष्क के सिक्के दो प्रकार के हैं -

  1. एक प्रकार के सिक्कों में यूनानी भाषा में उसका नाम आदि अंकित है।
  2. दूसरे में ईरानी भाषा में।

उसके ताँबे के सिक्कों में उसे एक वेदी पर बलिदान करते दिखाया गया है। उसके सोने के सिक्के रोम के सम्राटों के सिक्कों से मिलते जुलते हैं। जिनमें एक ओर उसकी अपनी आकृति है और दूसरी ओर किसी देवी या देवता की। पेशावर के निकट कनिष्क ने एक बड़ा स्तूप और मठ बनवाया, जिसमें बुद्ध के अवशेष रखे गए। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस स्तूप का निर्माण एक यूनानी इंजीनियर ने कराया था।

समकालीन विद्वान

कनिष्क के संरक्षण में न केवल बौद्ध धर्म की उन्नति हुई, अपितु अनेक प्रसिद्ध विद्वानों ने भी उसके राजदरबार में आश्रय ग्रहण किया। वसुमित्र, पार्श्व और अश्वघोष के अतिरिक्त प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् नागार्जुन भी उसका समकालीन था। नागार्जुन बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध दार्शनिक हुआ है, और महायान सम्प्रदाय का प्रवर्तक उसी को माना जाता है। उसे भी कनिष्क का संरक्षण प्राप्त था। आयुर्वेद का प्रसिद्ध आचार्य चरक भी उसके आश्रय में पुष्पपुर में निवास करता था।

बौद्धों की चौथी संगीति

कनिष्क का सिक्का

कनिष्क के संरक्षण में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति (महासभा) उसके शासन काल में हुई। कनिष्क ने जब बौद्ध धर्म का अध्ययन शुरू किया, तो उसने अनुभव किया कि उसके विविध सम्प्रदायों में बहुत मतभेद है। धर्म के सिद्धांतों के स्पष्टीकरण के लिए यह आवश्यक है, कि प्रमुख विद्वान् एक स्थान पर एकत्र हों, और सत्य सिद्धांतों का निर्णय करें। इसलिए कनिष्क ने काश्मीर के कुण्डल वन विहार में एक महासभा का आयोजन किया, जिसमें 500 प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् सम्मिलित हुए। अश्वघोष के गुरु आचार्य वसुमित्र और पार्श्व इनके प्रधान थे। वसुमित्र को महासभा का अध्यक्ष नियत किया गया। महासभा में एकत्र विद्वानों ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को स्पष्ट करने और विविध सम्प्रदायों के विरोध को दूर करने के लिए 'महाविभाषा' नाम का एक विशाल ग्रंथ तैयार किया। यह ग्रंथ बौद्ध त्रिपिटक के भाष्य के रूप में था। यह ग्रंथ संस्कृत भाषा में था और इसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराया गया था। ये ताम्रपत्र एक विशाल स्तूप में सुरक्षित रूप से रख दिए गए थे। यह स्तूप कहाँ पर था, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। यदि कभी इस स्तूप का पता चल सका, और इसमें ताम्रपत्र उपलब्ध हो गए, तो निःसन्देह कनिष्क के बौद्ध धर्म सम्बन्धी कार्य पर उनसे बहुत अधिक प्रकाश पड़ेगा। 'महाविभाषा' का चीनी संस्करण इस समय उपलब्ध है।

कुषाण संस्कृति

कनिष्क की राजसभा में बड़े बड़े विद्वान् विद्यमान थे। पार्श्व, वसुमित्र और अश्वघोष बौद्ध दार्शनिक थे। नागार्जुन जैसे प्रकांड पंडित और चरक जैसे चिकित्सक उसकी राजधानी के रत्न थे। उसके समय में 'महायान' धर्म का प्रचार होने से बौद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियाँ बनने लगीं। इस प्रकार कुषाणों की यद्यपि अपनी कोई विकसित संस्कृति नहीं थी किन्तु भारत में बसने पर उन्होंने भारतीय और यूनानी संस्कृति को अपना लिया और इस समन्वित संस्कृति को ऐसा प्रोत्साहन दिया कि वह खूब विकसित हुई। उत्तरी भारत की जनता को यूनानी, शक, पहलव, आदि आक्रमणों से अब मुक्ति मिली और भारत में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। राजनीतिक शान्ति के इस काल में धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान, व्यापार आदि सभी दिशाओं में खूब प्रगति हुई। वास्तव में गुप्त राजाओं से पूर्व कुषाण युग भारत के सांस्कृतिक विकास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। कनिष्क का नाम महायान बौद्ध धर्म के प्रश्रय एवं प्रचार प्रसार के साथ साथ गंधार कला शैली के विकास से सम्बद्ध है।

कुषाण साम्राज्य का ह्रास

कनिष्क के बाद कुषाण साम्राज्य का ह्रास प्रारम्भ हुआ। उसका उत्तराधिकारी हुविष्क था। वह सम्भवतः रुद्रदामा द्वारा पराजित हुआ और मालवा शकों के हाथ से चला गया। अगला शासक वसुदेव था। वह विष्णु एवं शिव का उपासक था। उसके समय में उत्तर पश्चिम का बहुत बड़ा भाग कुषाणों के हाथ से निकल गया। उसके उत्तराधिकारी कमज़ोर थे और ईरान में सासानियत वंश के तथा पूर्व में 'नाग भारशिव वंश' के उदय ने कुषाणों के पतन में बहुत योग दिया।



कुषाण वंश (लगभग 1 ई. से 225 तक)
पूर्वाधिकारी
विम कडफ़ाइसिस
कनिष्क उत्तराधिकारी
हुविष्क


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अफ़ग़ानिस्तान के राबाटक स्थान के उत्खनन में 1993 में मिला था। यह यूनानी लिपि और बॅक्ट्रियन भाषा में है।
  2. इसका भी अब केवल चीनी अनुवाद ही प्राप्त होता है
  3. सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क (हिंदी) JANITIHAS। अभिगमन तिथि: 13 नवम्बर, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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