"प्रियप्रवास पंचदश सर्ग": अवतरणों में अंतर
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हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ। | हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ। | ||
जो जिह्ना हूँ कथन-रहिता-पंखड़ी को बनाती। | जो जिह्ना हूँ कथन-रहिता-पंखड़ी को बनाती। | ||
तू क्यों होगा सदय | तू क्यों होगा सदय दु:ख क्यों दूर मेरा करेगा। | ||
तू काँटों से जनित यदि है काठ का जो सगा है॥7॥ | तू काँटों से जनित यदि है काठ का जो सगा है॥7॥ | ||
पंक्ति 80: | पंक्ति 80: | ||
मैं पाती हूँ अधिक तुझसे क्यों कई एक बातें। | मैं पाती हूँ अधिक तुझसे क्यों कई एक बातें। | ||
क्यों देती है व्यथित कर क्यों वेदना है बढ़ाती। | क्यों देती है व्यथित कर क्यों वेदना है बढ़ाती। | ||
क्यों होता है न | क्यों होता है न दु:ख तुझको वंचना देख मेरी। | ||
क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी॥12॥ | क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी॥12॥ | ||
पंक्ति 220: | पंक्ति 220: | ||
क्या थोड़ा भी सजनि!इसका मर्म्म तू पा सकी है। | क्या थोड़ा भी सजनि!इसका मर्म्म तू पा सकी है। | ||
क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती। | क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती। | ||
कैसा होता | कैसा होता जगत् सुख का धाम और मुग्धकारी। | ||
निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती॥40॥ | निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती॥40॥ | ||
पंक्ति 333: | पंक्ति 333: | ||
अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती। | अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती। | ||
मम | मम दु:ख सुनता है चित्त दे के नहीं तू। | ||
अति-चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है। | अति-चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है। | ||
थिर तनक न होता है किसी पुष्प में भी॥62॥ | थिर तनक न होता है किसी पुष्प में भी॥62॥ | ||
पंक्ति 343: | पंक्ति 343: | ||
अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा। | अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा। | ||
निज | निज दु:ख तुझसे मैं आज तो भी कहूँगी। | ||
कुछ कह उनसे, है चित्त में मोद होता। | कुछ कह उनसे, है चित्त में मोद होता। | ||
क्षिति पर जिनकी हूँ श्यामली-मुर्ति पाती॥64॥ | क्षिति पर जिनकी हूँ श्यामली-मुर्ति पाती॥64॥ | ||
पंक्ति 375: | पंक्ति 375: | ||
अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी। | अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी। | ||
मम-दुख यदि तेरे गात की श्यामता है। | मम-दुख यदि तेरे गात की श्यामता है। | ||
तब | तब दु:ख उसकी ही पीतता तुल्य तो है॥70॥ | ||
बहु बुध कहते हैं पुष्प के रूप द्वारा। | बहु बुध कहते हैं पुष्प के रूप द्वारा। | ||
पंक्ति 544: | पंक्ति 544: | ||
कैसे बहे न दृग से नित वारि-धारा। | कैसे बहे न दृग से नित वारि-धारा। | ||
कैसे विदग्ध | कैसे विदग्ध दु:ख से बहुधा न होऊँ। | ||
तू भी मिला न मुझको ब्रज में कहीं था। | तू भी मिला न मुझको ब्रज में कहीं था। | ||
कैसे प्रमोद अ-प्रमोदित प्राण पावे॥103॥ | कैसे प्रमोद अ-प्रमोदित प्राण पावे॥103॥ | ||
पंक्ति 558: | पंक्ति 558: | ||
तो भी विमुग्ध करती तव माधुरी है॥105॥ | तो भी विमुग्ध करती तव माधुरी है॥105॥ | ||
संयोग से | संयोग से पृथक् हो पद-कंज से तू। | ||
जैसे अचेत अवनी-तल में पड़ा है। | जैसे अचेत अवनी-तल में पड़ा है। | ||
त्योंही मुकुन्द-पद पंकज से जुदा हो। | त्योंही मुकुन्द-पद पंकज से जुदा हो। |
13:28, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
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छाई प्रात: सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवों में। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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