"आयुर्विज्ञान": अवतरणों में अंतर
(''''आयुर्विज्ञान''' विज्ञान की वह शाखा है, जिसका संबंध [...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "पृथक " to "पृथक् ") |
||
(3 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
'''आयुर्विज्ञान''' [[विज्ञान]] की वह शाखा है, जिसका संबंध [[मानव शरीर]] को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका निदान करने तथा आयु बढ़ाने से है। [[भारत]] आयुर्विज्ञान का जन्मदाता है। अपने प्रारम्भिक समय में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा के समान ही किया गया था। बाद में 'शरीर रचना' तथा 'शरीर क्रिया विज्ञान' आदि को इसका आधार बनाया गया। | '''आयुर्विज्ञान''' [[विज्ञान]] की वह शाखा है, जिसका संबंध [[मानव शरीर]] को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका निदान करने तथा आयु बढ़ाने से है। [[भारत]] आयुर्विज्ञान का जन्मदाता है। अपने प्रारम्भिक समय में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा के समान ही किया गया था। बाद में 'शरीर रचना' तथा 'शरीर क्रिया विज्ञान' आदि को इसका आधार बनाया गया। | ||
==जन्म== | ==जन्म== | ||
आयुर्विज्ञान का जन्म भारत में कई हज़ार वर्ष ई.पू. में हुआ था, परंतु पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि वैज्ञानिक आयुर्विज्ञान का जन्म ई.पू. चौथी शताब्दी में [[यूनान]] में हुआ था और लगभग 600 वर्ष बाद उसकी मृत्यु [[रोम]] में हुई। इसके लगभग 1500 वर्ष | आयुर्विज्ञान का जन्म भारत में कई हज़ार वर्ष ई.पू. में हुआ था, परंतु पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि वैज्ञानिक आयुर्विज्ञान का जन्म ई.पू. चौथी शताब्दी में [[यूनान]] में हुआ था और लगभग 600 वर्ष बाद उसकी मृत्यु [[रोम]] में हुई। इसके लगभग 1500 वर्ष पश्चात् विज्ञान के विकास के साथ उसका पुनर्जन्म हुआ। यूनानी आयुर्वेद का जन्मदाता 'हिप्पोक्रेटीज़' था, जिसने उसको आधिदैविक [[रहस्यवाद]] के अंधकूप से निकालकर अपने उपयुक्त स्थान पर स्थापित किया। उसने बताया कि रोग की रोकथाम तथा उससे मुक्ति दिलाने में देवी-[[देवता|देवताओं]] का हाथ नहीं होता है। उसने तांत्रिक विश्वासों और वैसी चिकित्सा का अंत कर दिया। उसके पश्चात् गत शताब्दियों में समय-समय पर अनेक खोजकर्ताओं ने नवीन खोजें करके इस विज्ञान को और भी उन्नत किया। | ||
==प्रारम्भिक अध्य्यन तथा खोजें== | ==प्रारम्भिक अध्य्यन तथा खोजें== | ||
शुरुआत में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा की भाँति किया गया और 'शरीर रचना विज्ञान'<ref>अनैटोमी</ref> तथा 'शरीर क्रिया विज्ञान'<ref>फ़िज़िऑलॉजी</ref> को इसका आधार बनाया गया। शरीर में होने वाली क्रियाओं के ज्ञान से पता लगा कि उनका रूप बहुत कुछ रासायनिक है और ये घटनाएँ रासानिक क्रियाओं के फल हैं। जैसे-जैसे खोजें होती गईं, वैसे-वैसे ही शरीर की घटनाओं का रासायनिक रूप सामने आता गया। इस प्रकार [[रसायन विज्ञान]] का इतना महत्व बढ़ा कि वह आयुर्विज्ञान की एक | शुरुआत में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा की भाँति किया गया और 'शरीर रचना विज्ञान'<ref>अनैटोमी</ref> तथा 'शरीर क्रिया विज्ञान'<ref>फ़िज़िऑलॉजी</ref> को इसका आधार बनाया गया। शरीर में होने वाली क्रियाओं के ज्ञान से पता लगा कि उनका रूप बहुत कुछ रासायनिक है और ये घटनाएँ रासानिक क्रियाओं के फल हैं। जैसे-जैसे खोजें होती गईं, वैसे-वैसे ही शरीर की घटनाओं का रासायनिक रूप सामने आता गया। इस प्रकार [[रसायन विज्ञान]] का इतना महत्व बढ़ा कि वह आयुर्विज्ञान की एक पृथक् शाखा बन गया, जिसका नाम 'जीव रसायन'<ref>बायोकेमिस्ट्री</ref> रखा गया। इसके द्वारा न केवल शारीरिक घटनाओं का रूप स्पष्ट हुआ, अपितु रोगों की उत्पत्ति तथा उनके प्रतिरोध की विधियाँ भी निकल आईं। साथ ही [[भौतिक विज्ञान]] ने भी शारीरिक घटनाओं को भली-भाँति समझने में बहुत सहायता दी। यह ज्ञात हुआ कि अनेक घटनाएँ भौतिक नियमों के अनुसार ही होती हैं। अब जीव रसायन की भाँति जीव भौतिकी<ref>बायोफ़िज़िक्स</ref> भी आयुर्विज्ञान का एक अंग बन गई और उससे भी रोगों की उत्पत्ति को समझने में तथा उनका प्रतिरोध करने में बहुत सहायता मिली। [[विज्ञान]] की अन्य शाखाओं से भी रोगरोधन तथा चिकित्सा में बहुत सहायता मिली है, और इन सबके सहयोग से मनुष्य के कल्याण में बहुत प्रगति हुई है, जिसके फलस्वरूप मानव का जीवनकाल बढ़ गया है। | ||
====विभाजन==== | ====विभाजन==== | ||
शरीर, शारीरिक घटनाओं और रोग संबंधी आंतरिक क्रियाओं का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने में अनेक प्रकार की प्रायोगिक विधियों और यंत्रों से, जो समय-समय पर बनते रहे, उनसे बहुत सहायता मिली है। किंतु इस गहन अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि आयुर्विज्ञान अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और प्रत्येक शाखा में इतनी खोज हुई है, नवीन उपकरण बने हैं तथा प्रायोगिक विधियाँ ज्ञात की गई हैं कि कोई भी | शरीर, शारीरिक घटनाओं और रोग संबंधी आंतरिक क्रियाओं का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने में अनेक प्रकार की प्रायोगिक विधियों और यंत्रों से, जो समय-समय पर बनते रहे, उनसे बहुत सहायता मिली है। किंतु इस गहन अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि आयुर्विज्ञान अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और प्रत्येक शाखा में इतनी खोज हुई है, नवीन उपकरण बने हैं तथा प्रायोगिक विधियाँ ज्ञात की गई हैं कि कोई भी विद्वान् या विद्यार्थी उन सब से पूर्णतया परिचित नहीं हो सकता है। दिन-प्रतिदिन चिकित्सक को प्रयोगशालाओं तथा यंत्रों पर निर्भर रहना पड़ता है और यह निर्भरता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। | ||
==उद्देश्य== | ==उद्देश्य== | ||
प्रत्येक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य का मानसिक विकास होता है, जिससे उसमें तर्क करके समझने और तदनुसार अपने भावों को प्रकट करने तथा कार्यान्वित करने की शक्ति उत्पन्न हो सके। आयुर्विज्ञान की शिक्षा का भी यही उद्देश्य है। इसके लिए सब आयुर्विज्ञान के विद्यार्थियों में विद्यार्थी को उप-स्नातक के रूप में पाँच वर्ष बिताने पड़ते हैं। आयुर्विज्ञान विद्यालयों में विद्यार्थियों का आधार विज्ञानों का अध्ययन करके उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने पर भरती किया जाता है। इसके बाद प्रथम दो वर्ष विद्यार्थी शरीर रचना तथा शरीर क्रिया नामक आधार विज्ञानों का अध्ययन करता है, जिससे उसको शरीर की स्वाभाविक दशा का ज्ञान हो जाता है। | प्रत्येक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य का मानसिक विकास होता है, जिससे उसमें तर्क करके समझने और तदनुसार अपने भावों को प्रकट करने तथा कार्यान्वित करने की शक्ति उत्पन्न हो सके। आयुर्विज्ञान की शिक्षा का भी यही उद्देश्य है। इसके लिए सब आयुर्विज्ञान के विद्यार्थियों में विद्यार्थी को उप-स्नातक के रूप में पाँच वर्ष बिताने पड़ते हैं। आयुर्विज्ञान विद्यालयों में विद्यार्थियों का आधार विज्ञानों का अध्ययन करके उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने पर भरती किया जाता है। इसके बाद प्रथम दो वर्ष विद्यार्थी शरीर रचना तथा शरीर क्रिया नामक आधार विज्ञानों का अध्ययन करता है, जिससे उसको शरीर की स्वाभाविक दशा का ज्ञान हो जाता है। | ||
इसके | इसके पश्चात् तीन वर्ष रोगों के कारण इन स्वाभाविक दशाओं की विकृतियाँ का ज्ञान पाने तथा उनकी चिकित्सा की रीति सीखने में व्यतीत होते हैं। रोगों को रोकने के उपाय तथा भेषजवैधिक का भी, जो इस विज्ञान की नीति संबंधी शाखा है, वह इसी काल में अध्ययन करता है। इन पाँच वर्षों के अध्ययन के पश्चात् वह स्नातक बनता है। इसके पश्चात् वह एक वर्ष तक अपनी रुचि के अनुसार किसी विभाग में काम करता है और उस विषय का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करता है। तत्पश्चात् वह स्नातकोत्तर शिक्षण में डिप्लोमा या डिग्री लेने के लिए किसी विभाग में भरती हो सकता है। | ||
====विश्वविद्यालय से सम्बद्धता==== | ====विश्वविद्यालय से सम्बद्धता==== | ||
सब आयुर्विज्ञान विद्यालय (मेडिकल कॉलेज) किसी न किसी विश्वविद्यालय से संबंधित होते हैं, जो उनकी परीक्षाओं तथा शिक्षण क्रम का संचालन करता है और जिसका उद्देश्य विज्ञान के विद्यार्थियों में तर्क की शक्ति उत्पन्न करना और विज्ञान के नए रहस्यों का उद्घाटन करना होता है। आयुर्विज्ञान विद्यालयों के प्रत्येक शिक्षक तथा विद्यार्थी का भी उद्देश्य यही होना चाहिए कि उसे रोग-निवारक नई वस्तुओं की खोज करके इस आर्तिनाशक कला की उन्नति करने की चेष्टा करनी चाहिए। इतना ही नहीं, शिक्षकों का जीवन लक्ष्य यह भी होना चाहिए कि वह ऐसे अन्वेषक उत्पन्न करें। | सब आयुर्विज्ञान विद्यालय (मेडिकल कॉलेज) किसी न किसी विश्वविद्यालय से संबंधित होते हैं, जो उनकी परीक्षाओं तथा शिक्षण क्रम का संचालन करता है और जिसका उद्देश्य विज्ञान के विद्यार्थियों में तर्क की शक्ति उत्पन्न करना और विज्ञान के नए रहस्यों का उद्घाटन करना होता है। आयुर्विज्ञान विद्यालयों के प्रत्येक शिक्षक तथा विद्यार्थी का भी उद्देश्य यही होना चाहिए कि उसे रोग-निवारक नई वस्तुओं की खोज करके इस आर्तिनाशक कला की उन्नति करने की चेष्टा करनी चाहिए। इतना ही नहीं, शिक्षकों का जीवन लक्ष्य यह भी होना चाहिए कि वह ऐसे अन्वेषक उत्पन्न करें। | ||
पंक्ति 31: | पंक्ति 31: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{विज्ञान}} | |||
[[Category:चिकित्सा विज्ञान]][[Category:विज्ञान कोश]] | [[Category:चिकित्सा विज्ञान]][[Category:विज्ञान कोश]] | ||
[[Category:विज्ञान]] | |||
[[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
13:30, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
आयुर्विज्ञान विज्ञान की वह शाखा है, जिसका संबंध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका निदान करने तथा आयु बढ़ाने से है। भारत आयुर्विज्ञान का जन्मदाता है। अपने प्रारम्भिक समय में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा के समान ही किया गया था। बाद में 'शरीर रचना' तथा 'शरीर क्रिया विज्ञान' आदि को इसका आधार बनाया गया।
जन्म
आयुर्विज्ञान का जन्म भारत में कई हज़ार वर्ष ई.पू. में हुआ था, परंतु पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि वैज्ञानिक आयुर्विज्ञान का जन्म ई.पू. चौथी शताब्दी में यूनान में हुआ था और लगभग 600 वर्ष बाद उसकी मृत्यु रोम में हुई। इसके लगभग 1500 वर्ष पश्चात् विज्ञान के विकास के साथ उसका पुनर्जन्म हुआ। यूनानी आयुर्वेद का जन्मदाता 'हिप्पोक्रेटीज़' था, जिसने उसको आधिदैविक रहस्यवाद के अंधकूप से निकालकर अपने उपयुक्त स्थान पर स्थापित किया। उसने बताया कि रोग की रोकथाम तथा उससे मुक्ति दिलाने में देवी-देवताओं का हाथ नहीं होता है। उसने तांत्रिक विश्वासों और वैसी चिकित्सा का अंत कर दिया। उसके पश्चात् गत शताब्दियों में समय-समय पर अनेक खोजकर्ताओं ने नवीन खोजें करके इस विज्ञान को और भी उन्नत किया।
प्रारम्भिक अध्य्यन तथा खोजें
शुरुआत में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा की भाँति किया गया और 'शरीर रचना विज्ञान'[1] तथा 'शरीर क्रिया विज्ञान'[2] को इसका आधार बनाया गया। शरीर में होने वाली क्रियाओं के ज्ञान से पता लगा कि उनका रूप बहुत कुछ रासायनिक है और ये घटनाएँ रासानिक क्रियाओं के फल हैं। जैसे-जैसे खोजें होती गईं, वैसे-वैसे ही शरीर की घटनाओं का रासायनिक रूप सामने आता गया। इस प्रकार रसायन विज्ञान का इतना महत्व बढ़ा कि वह आयुर्विज्ञान की एक पृथक् शाखा बन गया, जिसका नाम 'जीव रसायन'[3] रखा गया। इसके द्वारा न केवल शारीरिक घटनाओं का रूप स्पष्ट हुआ, अपितु रोगों की उत्पत्ति तथा उनके प्रतिरोध की विधियाँ भी निकल आईं। साथ ही भौतिक विज्ञान ने भी शारीरिक घटनाओं को भली-भाँति समझने में बहुत सहायता दी। यह ज्ञात हुआ कि अनेक घटनाएँ भौतिक नियमों के अनुसार ही होती हैं। अब जीव रसायन की भाँति जीव भौतिकी[4] भी आयुर्विज्ञान का एक अंग बन गई और उससे भी रोगों की उत्पत्ति को समझने में तथा उनका प्रतिरोध करने में बहुत सहायता मिली। विज्ञान की अन्य शाखाओं से भी रोगरोधन तथा चिकित्सा में बहुत सहायता मिली है, और इन सबके सहयोग से मनुष्य के कल्याण में बहुत प्रगति हुई है, जिसके फलस्वरूप मानव का जीवनकाल बढ़ गया है।
विभाजन
शरीर, शारीरिक घटनाओं और रोग संबंधी आंतरिक क्रियाओं का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने में अनेक प्रकार की प्रायोगिक विधियों और यंत्रों से, जो समय-समय पर बनते रहे, उनसे बहुत सहायता मिली है। किंतु इस गहन अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि आयुर्विज्ञान अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और प्रत्येक शाखा में इतनी खोज हुई है, नवीन उपकरण बने हैं तथा प्रायोगिक विधियाँ ज्ञात की गई हैं कि कोई भी विद्वान् या विद्यार्थी उन सब से पूर्णतया परिचित नहीं हो सकता है। दिन-प्रतिदिन चिकित्सक को प्रयोगशालाओं तथा यंत्रों पर निर्भर रहना पड़ता है और यह निर्भरता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है।
उद्देश्य
प्रत्येक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य का मानसिक विकास होता है, जिससे उसमें तर्क करके समझने और तदनुसार अपने भावों को प्रकट करने तथा कार्यान्वित करने की शक्ति उत्पन्न हो सके। आयुर्विज्ञान की शिक्षा का भी यही उद्देश्य है। इसके लिए सब आयुर्विज्ञान के विद्यार्थियों में विद्यार्थी को उप-स्नातक के रूप में पाँच वर्ष बिताने पड़ते हैं। आयुर्विज्ञान विद्यालयों में विद्यार्थियों का आधार विज्ञानों का अध्ययन करके उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने पर भरती किया जाता है। इसके बाद प्रथम दो वर्ष विद्यार्थी शरीर रचना तथा शरीर क्रिया नामक आधार विज्ञानों का अध्ययन करता है, जिससे उसको शरीर की स्वाभाविक दशा का ज्ञान हो जाता है।
इसके पश्चात् तीन वर्ष रोगों के कारण इन स्वाभाविक दशाओं की विकृतियाँ का ज्ञान पाने तथा उनकी चिकित्सा की रीति सीखने में व्यतीत होते हैं। रोगों को रोकने के उपाय तथा भेषजवैधिक का भी, जो इस विज्ञान की नीति संबंधी शाखा है, वह इसी काल में अध्ययन करता है। इन पाँच वर्षों के अध्ययन के पश्चात् वह स्नातक बनता है। इसके पश्चात् वह एक वर्ष तक अपनी रुचि के अनुसार किसी विभाग में काम करता है और उस विषय का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करता है। तत्पश्चात् वह स्नातकोत्तर शिक्षण में डिप्लोमा या डिग्री लेने के लिए किसी विभाग में भरती हो सकता है।
विश्वविद्यालय से सम्बद्धता
सब आयुर्विज्ञान विद्यालय (मेडिकल कॉलेज) किसी न किसी विश्वविद्यालय से संबंधित होते हैं, जो उनकी परीक्षाओं तथा शिक्षण क्रम का संचालन करता है और जिसका उद्देश्य विज्ञान के विद्यार्थियों में तर्क की शक्ति उत्पन्न करना और विज्ञान के नए रहस्यों का उद्घाटन करना होता है। आयुर्विज्ञान विद्यालयों के प्रत्येक शिक्षक तथा विद्यार्थी का भी उद्देश्य यही होना चाहिए कि उसे रोग-निवारक नई वस्तुओं की खोज करके इस आर्तिनाशक कला की उन्नति करने की चेष्टा करनी चाहिए। इतना ही नहीं, शिक्षकों का जीवन लक्ष्य यह भी होना चाहिए कि वह ऐसे अन्वेषक उत्पन्न करें।
चिकित्सा प्रणाली
चिकित्सा पद्धति का केंद्र स्तंभ वह सामान्य चिकित्सक है, जो जनता या परिवारों के घनिष्ठ संपर्क में रहता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता करता है। वह अपने रोगियों का मित्र तथा परामर्शदाता होता है और समय पर उन्हें दार्शनिक सांत्वना देने का प्रयत्न करता है। वह रोग संबंधी साधारण समस्याओं से परिचित होता है तथा दूरवर्ती स्थानों, गाँवों इत्यादि, में जाकर रोगियों की सेवा करता है। यहाँ उसको सहायता के वे सब उपकरण नहीं प्राप्त होते, जो उसने शिक्षण काल में देखे थे और जिनका प्रयोग उसने सीखा था। बड़े नगरों में ये बहुत कुछ उपलब्ध हो जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उसको विशेषज्ञ से सहायता लेनी पड़ती है या रोगी को अस्पताल में भेजना होता है। आजकल इस विज्ञान की किसी एक शाखा का विशेष अध्ययन करके कुछ चिकित्सक विशेषज्ञ हो जाते हैं। इस प्रकार हृदय के रोग, मानसिक रोग, अस्थि रोग, बाल रोग आदि में विशेषज्ञों द्वारा विशिष्ट चिकित्सा उपलब्ध है।
अर्थ का व्यय
आजकल चिकित्सा का व्यय बहुत बढ़ गया है। रोग के निदान के लिए आवश्यक परीक्षाएँ, मूल्यवान् औषधियाँ, चिकित्सा की विधियाँ और उपकरण इसके मुख्य कारण हैं। आधुनिक आयुर्विज्ञान के कारण जनता का जीवनकाल भी बढ़ गया है, परंतु औषधियों पर बहुत व्यय होता है। खेद है कि वर्तमान आर्थिक दशाओं के कारण उचित उपचार साधारण मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर हो गया है।
आयुर्विज्ञान और समाज
चिकित्सा विज्ञान की शक्ति अब बहुत बढ़ गई है और निरंतर बढ़ती जा रही है। आजकल गर्भ-निरोध किया जा सकता है। गर्भ का अंत भी हो सकता है। पीड़ा का शमन, बहुत काल तक मूर्छावस्था में रखना, अनेक संक्रामक रोगों की सफल चिकित्सा, सहज प्रवृत्तियों का दमन और वृद्धि, औषधियों द्वारा भावों का परिवर्तन, शल्य क्रिया द्वारा व्यक्तित्व पर प्रभाव आदि सब संभव हो गए हैं। मनुष्य का जीवनकाल अधिक हो गया है। दिन-प्रतिदिन नवीन औषधियाँ निकल रही हैं; रोगों का कारण ज्ञात हो रहा है; उनकी चिकित्सा ज्ञात की जा रही है। समाजवाद के इस युग में इस बढ़ती हुई शक्ति का इस प्रकार प्रयोग करना उचित है कि इससे राज्य, चिकित्सक तथा रोगी तीनों को लाभ हो। सरकार के स्वास्थ्य संबंधी तीन प्रमुख कार्य हैं-
- जनता में रोगों को फैलने न देना।
- जनता की स्वास्थ्यवृद्धि, जिसके लिए उपयुक्त भोजन, शुद्ध जल, रहने के लिए उपयुक्त स्थान तथा नगर की स्वच्छता आवश्यक है।
- रोगग्रस्त होने पर चिकित्सा संबंधी उपयुक्त और उत्तम सहायता उपलब्ध करना।
इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति में चिकित्सक का बहुत बड़ा स्थान और उत्तरदायित्व होता है।
आधुनिक समय में चिकित्सा विज्ञान
आयुर्विज्ञान अंतर्देशीय स्तर पर बहुत समय पूर्व पहुँच चुका था और जान पड़ता है कि अब वह अंतर्ग्रहीय अवस्था पर पहुँचने वाला है। आकाश यात्रा का शरीर पर जो प्रभाव पड़ता है, उसका विशेष अध्ययन हो रहा है। आगे चलकर यह अत्यंत उपयोगी प्रमाणित हो सकता है। इस संबंध में अनेक प्रश्नों का अभी संतोषजनक उत्तर पाना शेष है। ब्रह्माण्ड की रश्मियों का शरीर पर प्रभाव, गुरुत्वाकर्षणरहित अवस्था का मनुष्य की प्रतिक्षेप क्रियाओं पर प्रभाव, अभारता के मंडल में बहुत समय तक निवास करने और शारीरिक क्रियाओं में संबंध आदि अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जिन पर खोज हो रही है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख