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==सिंहासन बत्तीसी अठ्ठारह==
==सिंहासन बत्तीसी अठ्ठारह==
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एक दिन दो संन्यासी झगड़ते हुए राजा विक्रमादित्य के यहां आये। एक कहता था कि सब कुछ मन के वश में है। मन की इच्छा से ही सब होता है। दूसरा कहता था कि सब कुछ ज्ञान से होता है।  
एक दिन दो सन्यासी झगड़ते हुए राजा विक्रमादित्य के यहां आये। एक कहता था कि सब कुछ मन के वश में है। मन की इच्छा से ही सब होता है। दूसरा कहता था कि सब कुछ ज्ञान से होता है।  
 
''राजा ने कहा'': अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूंगा।
''राजा ने कहा'': अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूंगा।
 
इसके बाद कई दिन तक राजा विचार करता रहा। आखिर एक दिन उसने दोनों सन्न्यासियों को बुलाकर कहा, "महराज! यह शरीर [[आग]], पानी, हवा और [[मिट्टी]] से बना है। मन इनका सरदार है। अगर ये मन के हिसाब से चलें तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाए। इसलिए मन पर अंकुश होना ज़रूरी है। जो ज्ञानी लोग है।, उनकी काया अमर होती है। सो हे सन्न्यासियो! मन का होना बड़ा ज़रूरी है, पर उतना ही ज़रूरी ज्ञान का होना भी है।"
इसके बाद कई दिन तक राजा विचार करता रहा। आखिर एक दिन उसने दोनों संन्यासियों को बुलाकर कहा, "महराज! यह शरीर आग, पानी, हवा और मिट्टी से बना है। मन इनका सरदार है। अगर ये मन के हिसाब से चलें तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाए। इसलिए मन पर अंकुश होना जरुरी है। जो ज्ञानी लोग है।, उनकी काया अमर होती है। सो हे संन्यासियो! मन का होना बड़ा जरुरी है, पर उतना ही जरुरी ज्ञान का होना भी है।"
इस उत्तर से दोनों संन्यासी बहुत प्रसन्न हुए। उसमें से एक ने राजा को [[खड़िया]] का एक ढेला दिया और कहा, "हे राजन्! इस खड़िया से दिन में जो चित्र बनाओगे, रात को वे सब शक्लें तुम्हें [[प्रत्यक्ष]] अपनी आंखों से दिखाई देंगी।"
 
इस उत्तर से दोनों संन्यासी बहुत प्रसन्न हुए। उसमें से एक ने राजा को खड़िया का एक ढेला दिया और कहा, "हे राजन्! इस खड़िया से दिन में जो चित्र बनाओगे, रात को वे सब शक्लें तुम्हें प्रत्यक्ष अपनी आंखों से दिखाई देंगी।"
 
इतना कहकर दोनों संन्यासी चले गये। उनके जाने पर राजा ने अपने महल की सफाई कराई और फिर किवाड़ बंद करके उसने कृष्ण, सरस्वती आदि की तस्वीरें बनाई। रात होने पर वे सब उसे साफ़ दीखने लगे। वे आपस में जो बात करते थे, वह भी राजा को सुनायी देती थी। सवेरा होते ही वे सब गायब हो गये और दीवार पर चित्र बने रह गये।
इतना कहकर दोनों संन्यासी चले गये। उनके जाने पर राजा ने अपने महल की सफाई कराई और फिर किवाड़ बंद करके उसने कृष्ण, सरस्वती आदि की तस्वीरें बनाई। रात होने पर वे सब उसे साफ़ दीखने लगे। वे आपस में जो बात करते थे, वह भी राजा को सुनायी देती थी। सवेरा होते ही वे सब गायब हो गये और दीवार पर चित्र बने रह गये।
 
अगले दिन राजा ने [[हाथी]], घोड़े, पालकी, रथ, फ़ौज आदि बनाये। रात को ये सब दिखाई दिये। इसी तरह तीसरे दिन उसने [[मृदंग]], [[सितार]], [[बीन]], [[बांसुरी]], [[करताल]], [[अलगोजा]] आदि एक-एक बजाने वाले साथ में बना दिये। रात भर वह गाना सुनता रहा।
अगले दिन राजा ने हाथी, घोड़े, पालकी, रथ, फ़ौज आदि बनाये। रात को ये सब दिखाई दिये। इसी तरह तीसरे दिन उसने [[मृदंग]], [[सितार]], [[बीन]], [[बांसुरी]], [[करताल]], [[अलगोजा]] आदि एक-एक बजाने वाले साथ में बना दिये। रात भर वह गाना सुनता रहा।
 
राजा रोज कुछ-न-कुछ बनाता और रात को उनका तमाशा देखता। इस तरह कई दिन निकल गये। उधर राजा जब अंदर महल में रानियों के पास नहीं गये तो उन्हें चिंता हुई। पहले उन्होंने आपस में सलाह की, फिर चार रानियां मिलकर राजा के पास आयीं। राजा ने उन्हें सब बातें बता दीं। रानियों ने कहा कि हमें बड़ा दु:ख है। हम महल में आपके ही सहारे हैं।
राजा रोज कुछ-न-कुछ बनाता और रात को उनका तमाशा देखता। इस तरह कई दिन निकल गये। उधर राजा जब अंदर महल में रानियों के पास नहीं गये तो उन्हें चिंता हुई। पहले उन्होंने आपस में सलाह की, फिर चार रानियां मिलकर राजा के पास आयीं। राजा ने उन्हें सब बातें बता दीं। रानियों ने कहा कि हमें बड़ा दु:ख है। हम महल में आपके ही सहारे हैं।
''राजा ने कहा'': मुझे बताओ, मैं क्या करुँ। जो मांगो, सो दूं।
''राजा ने कहा'': मुझे बताओ, मैं क्या करुँ। जो मांगो, सो दूं।
रानियों ने वही खड़िया मांगी। राजा ने आनंद से दे दी।
रानियों ने वही खड़िया मांगी। राजा ने आनंद से दे दी।
''पुतली ने कहा'': राजा भोज, देखो, कैसी बढ़िया चीज़ विक्रमादित्य के हाथ लगी थी, पर मांगने पर उसने फौरन दे दी। तुम इतने उदार हो तो सिंहासन पर बैठो।
''पुतली ने कहा'': राजा भोज, देखो, कैसी बढ़िया चीज़ विक्रमादित्य के हाथ लगी थी, पर मांगने पर उसने फौरन दे दी। तुम इतने उदार हो तो सिंहासन पर बैठो।
वह दिन भी निकल गया। राजा क्या करता! अगले दिन जब सिंहासन की ओर बढ़ा तो तारा नाम की उन्नीसवीं पुतली झट उसके रास्ते को रोककर खड़ी हो गई।  
वह दिन भी निकल गया। राजा क्या करता! अगले दिन जब सिंहासन की ओर बढ़ा तो तारा नाम की उन्नीसवीं पुतली झट उसके रास्ते को रोककर खड़ी हो गई।  
''पुतली बोली'': पहले मेरी बात सुनो।


''पुतली बोली'': पहले मेरी बात सुनों।
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11:42, 3 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।

सिंहासन बत्तीसी अठ्ठारह

एक दिन दो संन्यासी झगड़ते हुए राजा विक्रमादित्य के यहां आये। एक कहता था कि सब कुछ मन के वश में है। मन की इच्छा से ही सब होता है। दूसरा कहता था कि सब कुछ ज्ञान से होता है।
राजा ने कहा: अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूंगा।
इसके बाद कई दिन तक राजा विचार करता रहा। आखिर एक दिन उसने दोनों सन्न्यासियों को बुलाकर कहा, "महराज! यह शरीर आग, पानी, हवा और मिट्टी से बना है। मन इनका सरदार है। अगर ये मन के हिसाब से चलें तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाए। इसलिए मन पर अंकुश होना ज़रूरी है। जो ज्ञानी लोग है।, उनकी काया अमर होती है। सो हे सन्न्यासियो! मन का होना बड़ा ज़रूरी है, पर उतना ही ज़रूरी ज्ञान का होना भी है।"
इस उत्तर से दोनों संन्यासी बहुत प्रसन्न हुए। उसमें से एक ने राजा को खड़िया का एक ढेला दिया और कहा, "हे राजन्! इस खड़िया से दिन में जो चित्र बनाओगे, रात को वे सब शक्लें तुम्हें प्रत्यक्ष अपनी आंखों से दिखाई देंगी।"
इतना कहकर दोनों संन्यासी चले गये। उनके जाने पर राजा ने अपने महल की सफाई कराई और फिर किवाड़ बंद करके उसने कृष्ण, सरस्वती आदि की तस्वीरें बनाई। रात होने पर वे सब उसे साफ़ दीखने लगे। वे आपस में जो बात करते थे, वह भी राजा को सुनायी देती थी। सवेरा होते ही वे सब गायब हो गये और दीवार पर चित्र बने रह गये।
अगले दिन राजा ने हाथी, घोड़े, पालकी, रथ, फ़ौज आदि बनाये। रात को ये सब दिखाई दिये। इसी तरह तीसरे दिन उसने मृदंग, सितार, बीन, बांसुरी, करताल, अलगोजा आदि एक-एक बजाने वाले साथ में बना दिये। रात भर वह गाना सुनता रहा।
राजा रोज कुछ-न-कुछ बनाता और रात को उनका तमाशा देखता। इस तरह कई दिन निकल गये। उधर राजा जब अंदर महल में रानियों के पास नहीं गये तो उन्हें चिंता हुई। पहले उन्होंने आपस में सलाह की, फिर चार रानियां मिलकर राजा के पास आयीं। राजा ने उन्हें सब बातें बता दीं। रानियों ने कहा कि हमें बड़ा दु:ख है। हम महल में आपके ही सहारे हैं।
राजा ने कहा: मुझे बताओ, मैं क्या करुँ। जो मांगो, सो दूं।
रानियों ने वही खड़िया मांगी। राजा ने आनंद से दे दी।
पुतली ने कहा: राजा भोज, देखो, कैसी बढ़िया चीज़ विक्रमादित्य के हाथ लगी थी, पर मांगने पर उसने फौरन दे दी। तुम इतने उदार हो तो सिंहासन पर बैठो।
वह दिन भी निकल गया। राजा क्या करता! अगले दिन जब सिंहासन की ओर बढ़ा तो तारा नाम की उन्नीसवीं पुतली झट उसके रास्ते को रोककर खड़ी हो गई।
पुतली बोली: पहले मेरी बात सुनो।

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