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| '''बाबा राघवदास''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Baba Raghavdas'', जन्म: [[2 दिसंबर]], [[1886]], [[महाराष्ट्र]]; मृत्यु: [[15 जनवरी]], [[1958]], [[जबलपुर]]) [[उत्तर प्रदेश]] के प्रसिद्ध जनसेवक तथा संत थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=528|url=}}</ref>ये हिन्दी के प्रचारक भी थे और इस काम के लिए इन्होंने बरहज आश्रम में राष्ट्र भाषा विद्यालय खोला। बाबा राघवदास ने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया। और इस दौरान इन्हें कई बार जेल की हवा भी खानी पड़ी।
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| ==जन्म एवं परिचय==
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| बाबा राघवदास का जन्म 12 दिसम्बर 1886 को [[पुणे]] (महाराष्ट्र) में एक संभ्रान्त [[ब्राह्मण]] [[परिवार]] में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री शेशप्पा और माता का नाम श्रीमती गीता था। इनके पिता एक नामी व्यवसायी थे। इनके बचपन का नाम राघवेन्द्र था। इन्हें बचपन में ही अपने परिवार से सदा के लिए अलग होना पड़ा क्योंकि [[1891]] के प्लेग में 5 वर्ष के आयु में ही इन्हें छोड़ कर शेष परिवार के अन्य सभी सदस्यों की मृत्यु हो गई। आरंभ के कुछ दो वर्ष इन्होंने अपनी विवाहित बहनों की ससुराल में बिताएं और वहीं थोड़ी-बहुत शिक्षा पाई। इसी बीच ये [[1913]] में 17 वर्ष की अवस्था में एक सिद्ध गुरु की खोज में संत-साहित्य के संपर्क में आए और वैराग्य की भावना लेकर गुरु की खोज में निकल पड़े। ये [[प्रयाग]], [[काशी]] आदि तीर्थों में विचरण करते हुए [[गाजीपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]] का एक जनपद) पहुँचे जहाँ इनकी भेंट मौनीबाबा नामक एक संत से हुई। मौनीबाबा ने बाबा राघवदास को हिन्दी सिखाई। गाजीपुर में कुछ समय बिताने के बाद ये बरहज (देवरिया जनपद की एक तहसील) पहुँचे और वहाँ वे एक प्रसिद्ध संत योगीराज अनन्त महाप्रभु से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए। और यहीं से बाबा राघवदास के लोगसेवक जीवन का आरंभ हुआ।
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| | <quiz display=simple> |
| | {किस राजपूत रानी ने [[हुमायूँ]] के पास [[राखी]] भेजकर [[बहादुर शाह]] के विरुद्ध सहायता माँगी थी? |
| | |type="()"} |
| | +[[रानी कर्णावती]] |
| | -[[संयोगिता]] |
| | -हाड़ारानी |
| | -रानी अनारा |
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| ==लोगसेवक जीवन==
| | {जो सम्बंध स्त्रियों के झुमकों का [[कान|कानों]] से है, वही पुरुषों में- |
| बाबा राघवदास हर संकट में लोगों की सहायता के लिए तत्पर रहते थे। इनका जीवन समाज कल्याण के लिए समर्पित था। ये समाज और लोगो के लिए जीए। ''राजाओं, नवाबों के वंश खत्म हो गए और उन्हें कोई जानता भी नहीं। ऋषि, संतों ने नि:स्वार्थ सेवा की। उन्हें लोग आज भी याद करते हैं।'' इसी कड़ी के महामानव थे बाबा राघवदास। ये शरीर से भले ही न हों पर हमारे बीच अपनी कृतियों से आज भी मौजूद हैं। ये हिन्दी के प्रचारक थे और इस काम के लिए बरहज आश्रम में राष्ट्र भाषा विद्यालय खोला। बाबा देवरियाई जनता के कितने प्रिय थे, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि [[1948]] के एम.एल.ए. ([[विधायक]]) के चुनाव में इन्होंने प्रख्यात शिक्षाविद्ध, समाजसुधारक एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी [[आचार्य नरेन्द्र देव]] को पराजित किया। बाबा राघवदास ने अपना सारा जीवन जनता की सेवा में समर्पित कर दिया। इन्होंने कई सारे समाजसेवी संस्थानों की स्थापना की और बहुत सारे समाजसेवी कार्यों की अगुआई भी। [[रेल परिवहन|रेल]] यात्रियों को सुविधा दिलाने के लिए बाबा राघवदास ने बड़े प्रयत्न किए और अनेक बार सत्याग्रह भी किया था। भूदान आंदोलन में ये [[विनोबा भावे|विनोबा]] के साथ गांव-गांव घूमते रहे।
| | |type="()"} |
| | | -बाली का [[कान|कानों]] से है। |
| ==आंदोलन में भाग==
| | -बोर का कानों से है। |
| बाबा राघवदास ने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया। जब ये [[1921]] में [[गाँधीजी]] से मिले तो ये स्वतंत्र [[भारत]] का सपना साकार करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए तथा साथ ही साथ जनसेवा भी करते रहे। गांधी जी के हर रचनात्मक कार्य में ये अग्रणी थे। 1921 में अपनी [[गोरखपुर]] यात्रा में गांधी जी ने इन्हें 'बाबा राघवदास' कह कर संबोधित किया था। तब से यही इनका नाम हो गया। गांधी जी ने कहा था- ''यदि बाबा राघवदास जैसे कुछ संत मुझे और मिल जाएं तो भारत को स्वतंत्र कराना सरल हो जाएगा।'' स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इन्हें कई बार जेल की हवा भी खानी पड़ी पर ये कभी विचलित न होते हुए पूर्ण निष्ठा के साथ अपना कर्म करते रहे। [[1931]] में गाँधीजी के [[नमक सत्याग्रह]] को सफल बनाने के लिए राघवबाबा ने क्षेत्र में कई स्थानों पर जनसभाएँ की और जनता को सचेत किया।
| | -पुन्छा का कानों से है। |
| ==निधन== | | +मुरकियों का कानों से है। |
| [[15 जनवरी]], [[1958]] को [[जबलपुर]] के निकट आयोजित सर्वोदय सम्मेलन के अवसर पर बाबा राघवदास का देहांत हो गया। इनकी स्मृति में पूर्वी उत्तर प्रदेश में अनेक शिक्षा संस्थाओं का नाम उनके नाम पर रखा गया है, जैसे-
| | </quiz> |
| बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज, गोरखपुर
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| बाबा राघवदास इण्टर कॉलेज, देवरिया
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| बाबा राघवदास स्नात्कोत्तर महाविद्यालय, बरहज
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| '''बिशन नारायण दर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bishan Narayan Dar'', जन्म: [[1864]], [[बाराबंक, ([[उत्तर प्रदेश]]); मृत्यु: [[1916]] [[भारत]] के राजनेता तथा अधिवक्ता थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=545|url=}}</ref> इन पर पंडित आदित्य नाथ, कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह, [[सुरेन्द्र नाथ बनर्जी]] तथा [[इंग्लैंण्ड]] में मिले लाल मोहन घोष और चंद्रावरकर आदि के विचारों का प्रभाव पड़ा।
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| ==परिचय==
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| प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता पंडित बिशन नारायन दर का जन्म 1864 ई. में बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में एक संपन्न कश्मीरी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित किशन नारायन दर था जो सरकारी सेवा में मुंसिफ थे। इनकी आरंभिक शिक्षा [[उर्दू]] और [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] में हुई। फिर [[लखनऊ]] से बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद इन्होंने [[इंग्लैंण्ड]] में कानून की शिक्षा पाई और [[1887]] ई. में भारत लौटने पर वकालत करने लगे। शीघ्र ही उनकी गणना अपने समय के प्रमुख अधिवक्ताओं में होने लगी।
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| ==राजनीतिक क्षेत्र==
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| पंडित बिशन नारायण दर ने अपनी गतिविधियां केवल वकालत के द्वारा धन अर्जित करने तक सीमित नहीं रखीं। ये सार्वजनिक कार्यों में भी भाग लेने लगे। उनके ऊपर तत्कालीन नेताओं-पंडित आदित्य नाथ, कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी तथा इंग्लैंण्ड में मिले लाल मोहन घोष और चंद्रावरकर आदि के विचारों का प्रभाव पड़ा। [[1882]] में ये राजनीति के क्षेत्र में आए और फिर जीवन-भर उससे जुड़े रहे। उस वर्ष ये पहली बार [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए और फिर सदा इन अधिवेशनों में भाग लेते रहे। ये बड़े प्रभावशाली वक्ता थे और [[कांग्रेस]] में महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव प्रस्तुत करने का दायित्व निभाते थे। [[1911]] में पंडित बिशन नारायन दर ने कोलकाता कांग्रेस की अध्यक्षता की। इससे पूर्व वे केन्द्रीय कौंसिल के सदस्य भी रह चुके थे। उन्होंने सब जगह अपने भाषणों और लेखों में भारतवासियों की समस्याएं हल करने पर जोर दिया। उस समय के अन्य नेताओं की भांति बिशन नारायन दर भी सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अधिक स्थान देने की माँग करते हुए आई.सी.एस. की परीक्षाएं [[इंग्लैंण्ड]] और [[भारत]] में साथ-साथ करने पर जोर देते थे।
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| ==व्यक्तित्व==
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| बिशन नारायण दर विचारों में वे बड़े उदार थे और रूढ़िवादी परंपराओं का डट कर विरोध करते थे। कौंसिल में एक बार अल्पसंख्यकों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर विचार किया जा रहा था। बिशन नारायन दर ने इसका जोरदार विरोध किया। उन्होंने कहा-राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में केवल राष्ट्रीय महत्त्व के ऐसे प्रश्नों पर विचार होना चाहिए जिनका संबंध सभी भारतवासियों से है न कि किसी छोटे वर्ग की बातों पर। इनके [[इंग्लैंण्ड]] से वापस आने पर कश्मीरी पंडित समाज ने उनसे प्रायश्चित करने के लिए कहा, पर बिशन नारायन ने साफ इनकार कर दिया। बाद में इनके विचारों की विजय हुई और यह प्रथा समाप्त हो गई। [[1916]] ई. में इनका देहांत हो गया।
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| '''राजेन्द्रलाल मित्रा'''
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| भारत विद्या से संबंधित विषयों के प्रख्मात विद्वान राजा राजेन्द्रलाल मित्रा का जन्म 16 फरवरी, 1822 ई. में कोलकाता में हुआ था। उनकी शिक्षा में बड़ी बाधाएं आईं। 15 वर्ष की उम्र में मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुए। चार वर्ष की पढ़ाई में अपनी योग्यता से बड़ी ख्याति अर्जित की, पर कुछ कारणों से डिग्री नहीं ले सके। फिर कानून की पढ़ाई आरंभ की, पर पर्चे आउट हो जाने की सूचना से यहां भी परीक्षा नहीं हो सकी। लेकिन अपने अध्यवसाय से उन्होंने संस्कृत, फ़ारसी, बंगला और अंग्रेजी भाषाओं में दक्षता-प्राप्त की और 1849 में प्रसिद्ध संस्था 'एशियाटिक सोसायटी' के सहायक मंत्री बन गए। यहां पर पुस्तकों और पांड्डलिपियों का भंडार उनके अध्ययन के लिए खुल गया। 10 वर्ष सोसायटी में रहने के बाद 25 वर्ष तक वे 'वाड़िया इंस्टीट्यूट' के निदेशक रहे। फिर भी सोसायटी से उनका संपर्क बना रहा।
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| अपने कार्यवाही जीवन की पूरी अवधि में राजेन्द्रलाल मित्रा भारतीय वांङ्मय की खोज और उसे पाठकों के लिए उपलब्ध कराने में लगे रहे। उन्होंने सोसायटी पांड्डलिपियों की सूचियां प्रकाशित कीं और विभिन्न विषयों के नामक ग्रंथों की रचना की। उनके उल्लेखनीय कुछ ग्रेंथ हैं- 'छांदोग्य उपनिषद्', 'तैत्तरीय ब्राह्मण' और 'आरण्यक', 'गोपथ ब्राह्मण', 'ऐतरेय आरण्यक', 'पातंजलि का योगसूत्र', 'अग्निपुराण', 'वायुपुराण' और 'बौद्ध ग्रेंथ ललित विस्तार' तथा 'अष्टसहसिक'। 'उड़ीसा का पुरातत्व', 'बोध गया' और 'शाक्य मुनि' भी उनके चर्चित ग्रेंथ रहे हैं।
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| श्री मित्रा अनेक संस्थाओं के सम्मानित सदस्य थे। 1885 में वे 'एशियाटिक सोसायटी' के सध्यक्ष रहे। 1886 की कोलकाता कांग्रेस में उन्होंने अपने विचार प्रकट किए थे। 'विविधार्थ' और 'रहस्य संदर्भ' नामक पत्रों का संपादन किया। वे निष्ठावान बुद्धिजीवी और सच्चे अर्थों में इतिहासवेत्ता थे। उनका कहना था कि यदि राष्ट्रप्रेम का यह अर्थ लिया जाए कि हमारे अतीत का अच्छा या बुरा जो कुछ है, उससे कमें प्रेम करना चाहिए, तो ऐसी राष्ट्रभक्ति को मैं दूर से ही प्रणम करता हूं, उनकी योग्यता के कारण सरकार ने पहले उन्हें रायबहादुर और 1888 में राजा की उपाधि दे कर सम्मानित किया था। 27 जुलाई, 1891 में उनका देहांत हो गया।
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