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| '''रामकृष्ण गोपाल भंडारकर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''R. G. Bhandarkar'' जन्म: [[6 जुलाई]], 1837 मालवन ज़िला [[रत्नागिरि]]; मृत्यु: [[24 अगस्त]], [[1925]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध इतिहासविद् , समाज सुधारक और शिक्षाशास्त्री थे। ऑल इण्डिया सोशल कांफ़्रेंस (अखिल भारतीय सामाजिक सम्मलेन) के सक्रिय सदस्य रहे रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए अपने शोध आधारित निष्कर्षों के आधार पर विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही उन्होंने जाति-प्रथा एवं बाल विवाह की कुप्रथा का खण्डन भी किया। प्राचीन संस्कृत साहित्य के विद्वान की हैसियत से इन्होंने संस्कृत की प्रथम पुस्तक और संस्कृत की द्वितीय पुस्तक की रचना भी की, जो अंग्रेज़ी माध्यम से [[संस्कृत]] सीखने की सबसे आरम्भिक पुस्तकों में से एक हैं।<ref>{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=725|url=}}</ref>
| | {| class="bharattable-green" width="100%" |
| ==परिचय==
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| रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का जन्म 6 जुलाई 1837 को [[महाराष्ट्र]] के रत्नागिरी ज़िले के मालवण में एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके पिता मालवण के मामलेदार के अधीनस्थ मुंशी (क्लर्क) थे। शुरुआती शिक्षा में आयी कठिनाई के बाद जब इनके पिता का स्थानांतरण रत्नागिरी ज़िले के राजस्व विभाग में हुआ तो इन्हें [[अंग्रेज़ी]] स्कूल में पढ़ने का मौका मिला।
| | | valign="top"| |
| | {| width="100%" |
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| | <quiz display=simple> |
| | {किस राजपूत रानी ने [[हुमायूँ]] के पास [[राखी]] भेजकर [[बहादुर शाह]] के विरुद्ध सहायता माँगी थी? |
| | |type="()"} |
| | +[[रानी कर्णावती]] |
| | -[[संयोगिता]] |
| | -हाड़ारानी |
| | -रानी अनारा |
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| ==शिक्षा==
| | {जो सम्बंध स्त्रियों के झुमकों का [[कान|कानों]] से है, वही पुरुषों में- |
| रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने रत्नागिरी से स्कूली शिक्षा पूरी करके 1853 में [[मुम्बई]] के एल्फ़िंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया जहाँ इन्होंने जिन जानी मानी हस्तियों से शिक्षा प्राप्त की उनमें प्रथम राष्ट्रवादी 'चिंतक' और 'ड्रेन थियरी' के प्रतिपादक [[दादाभाई नौरोजी|दादाभाई नौरोज़ी]] प्रमुख थे। दादाभाई नौरोज़ी के प्रोत्साहन के कारण ही [[अंग्रेज़ी साहित्य]], प्राकृतिक विज्ञान और गणित के प्रति रुचि के बावजूद भण्डारकर ने [[संस्कृत]] और [[पालि]] के ज्ञान के सहारे गौरवशाली अतीत के पुनर्निर्माण हेतु इतिहास-लेखन को अपनाया। [[1862]] में ये एल्फ़िंस्टन कॉलेज के पहले बैच से ग्रेजुअट होने वालों में से एक थे। वहाँ पर बी. ए. तथा एम. ए. की परीक्षाओं में इन्होंने सर्वोत्तम अंक प्राप्त किए। [[1863]] में ही इन्होंने परास्नातक की उपाधि प्राप्त की।
| | |type="()"} |
| | | -बाली का [[कान|कानों]] से है। |
| == शिक्षाशास्त्री के रूप में== | | -बोर का कानों से है। |
| रामकृष्ण गोपाल भंडारकर कुछ समय तक [[सिंध]] के [[हैदराबाद]] और रत्नागिरी के राजकीय विद्यालयों में हेडमास्टर के तौर पर कार्य करने के बाद ये एल्फ़िंस्टन कॉलेज में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए और आगे चल कर [[पुणे]] के डेक्कन कॉलेज में संस्कृत के प्रथम भारतीय प्रोफ़ेसर हुए। [[1894]] में अपनी सेवानिवृत्ति से पूर्व भण्डारकर [[मुम्बई विश्वविद्यालय]] के उपकुलपति रहे। [[1885]] में [[जर्मनी]] की गोतिन्गे युनिवर्सिटी ने इन्हें 'डॉक्टरेट' की उपाधि प्रदान की। प्राच्यवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन मे शामिल होने के लिए ये [[लंदन]] ([[1874]]) और वियना ([[1886]]) भी गये। शिक्षाशास्त्री के तौर पर भण्डारकर [[1903]] में भारतीय परिषद् के अनाधिकारिक सदस्य चुने गये। [[गोपाल कृष्ण गोखले]] भी उस परिषद् के सदस्य थे। [[1911]] में रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर को 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया गया।
| | -पुन्छा का कानों से है। |
| | | +मुरकियों का कानों से है। |
| ==कार्य==
| | </quiz> |
| रामकृष्ण गोपाल भंडारकर की सबसे बड़ी देन लुप्तप्राय इतिहास के तत्वों को प्रकाश में आना है। उस समय तक [[भारत]] में इस विषय की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। इन्होंने [[ब्राह्मी |ब्राह्मी]], [[खरोष्ठी]] आदि [[प्राकृत]] भाषाओं का अध्ययन करके शोध के इस क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक का काम किया। सरकार ने इन्हें हस्तलिखित ग्रंथों की खोज और प्रकाशन का कार्य सौंपा था। शोध के बाद जो पांच विशाल खंड प्रकाशित किए वे पुरातत्व के इतिहासकारों के लिए आज भी मार्गदर्शक हैं। [[1883]] के वियना के प्राच्य भाषा सम्मेलन में इनकी विद्वता से विदेशी विद्वान चकित रह गए थे। इनके सम्मान में [[1917]] में [[पूना]] में 'भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की गई।
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| ==राजनीतिक जीवन==
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| भंडारकर समाजसुधारक और सार्वजनिक नेता के रूप में भी प्रसिद्ध थे। ये '[[प्रार्थना समाज]]' के सक्रिय सदस्य थे। राजनीति में भी ये [[भारत]] को ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत बनाए रखने के पक्षधर में थे। ऑल इण्डिया सोशल कांफ़्रेंस (अखिल भारतीय सामाजिक सम्मलेन) के सक्रिय सदस्य रहे रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए अपने शोध आधारित निष्कर्षों के आधार पर विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही इन्होंने जाति-प्रथा एवं [[बाल विवाह]] की कुप्रथा का खण्डन भी किया। सामाजिक रूढ़िवादी माहौल के बावजूद भण्डारकर ने अपनी पुत्रियों और पौत्रियों को विश्वविद्यालयी शिक्षा दिलायी और अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने की परिपक्वता प्राप्ति तक उनका [[विवाह]] नहीं किया। इन्होंने अपनी विधवा पुत्री के पुनर्विवाह के लिए भी अनुमति दी और इन्होंने अपनी विधवा पुत्री का पुनर्विवाह करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया था।
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| ==निधन==
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| रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का [[24 अगस्त]] [[1925]] को निधन हो गया।
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| '''श्वेतकेतु''' की कथा [[उपनिषद]] में मूलत: आती है। एक तत्वज्ञानी आचार्य जिनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण, छान्दोग्य, वृहदारण्यक आदि उपनिषदों में मिलता है। कौशीतकि उपनिषद के अनुसार ये [[गौतम ऋषि]] के वंशज और [[आरुणि]] के पुत्र थे। छांदोग्य में इसको उद्दालक आरुणि का पुत्र बताया गया है। ये [[पांचाल]] देश के निवासी थे और विदेहराज जनक की सभा में भी गए थे। अद्वैत वेदांत के महावाक्य 'तत्वमसि' क, जिसका उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में है, उपदेश इन्हें अपने पिता से मिला था। इसके एक प्रश्न के उत्तर में पिता ने कहा था- "तुम एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएं एक है एवं इन सारी वस्तुओं का तू ही है (तत्त्वमसि)।"
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| इन्होंने एक बार ब्राह्मणों के साथ दुर्व्यवहार किया जिससे इनके पिता ने इनका परित्याग कर दिया था।
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| ==समाज सुधारक==
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| श्वेतकेतु का समय पाणिनी से पहले माना जाता है। ये देश के प्रथम समाज सुधारक थे। समाज कल्याण की दृष्टि से इन्होंने अनेक नियमों की स्थापना की। एक [[महाभारत]] में आए उल्लेख के अनुसार एक [[ब्राह्मण]] ने इनकी माता का हरण कर लिया था। इसी पर श्वेतेकेतु ने पुरुषों के लिए एक पत्नी व्रत और महिलाओं के लिए प्रतिव्रत का नियम बनाया और परस्त्री गमन पर रोक लगाई। इन्होंने यह नियम प्रचारित किया कि पति को छोड़कर पर पुरुष के पास जानेवाली स्त्री तथा अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से संबंध कर लेनेवाला पुरुष दोनों ही भ्रूणहत्या के अपराधी माने जाएँ। इनकी कथा महाभारत के आदिपर्व में है और उनके द्वारा प्रचारित यह नियम धर्मशास्त्र में अब तक मान्य है। एक बार अतिथि सत्कार में उद्दालक ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया। वास्तव में कुछ पर्वतीय [[आरण्यक]] लोगों में आदिम जीवन के कुछ अवशेष कहीं-कहीं अब भी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध कर सकती थीं। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया। इनका [[विवाह]] देवल श्रषि की कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था और अष्टावक्र इनके मामा थे।
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