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==शारीरिक संरचना==
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इस कृमि में पाये जाने वाले काँटें इसे पोषक की आंत्र की दीवार में स्थापित करने का काम करते हैं। इस श्रेणी में कृमियों में मुख, गुदा तथा अंतत्र आदि पाचक अवयवों का सर्वथा अभाव रहता है। अत: पोषक से प्राप्त आत्मसात्कृत भोजन कृमि के शरीर की दीवार से व्याप्त होकर कृमि का पोषण करता है। भिन्न-भिन्न जातियों की कंटशुंडियों की लंबाई भिन्न-भिन्न होती है और दो मिलीमीटर से लेकर 650 मिलीमीटर तक पाई जाती है। किंतु प्रत्येक जाति के नर तथा नारी कृमि की लंबाई में बड़ा अंतर रहता है। सभी जातियों की कंटशुंडियों में नारी सर्वदा नर से अधिक बड़ी होती है। विभिन्न जातियों की आकृति में भी बड़ी भिन्नता पाई जाती है। किसी का शरीर लंबा, दुबला और बेलनाकार होता है तो किसी का पार्श्व से चिपटा, छोटा और स्थूल होता है। शरीर की सतह चिकनी हो सकती है, किंतु प्राय: झुर्रीदार होती है। मांसपेशियों के कारण इनमें फैलने तथा सिकुड़ने की विशेष क्षमता होती है। शरीर का [[रंग]] पोषक के भोजन के रंग पर निर्भर रहता है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://khoj.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A5%80|title=कंटशुंडी|accessmonthday=10 मई|accessyear=2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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====अंत:परोपजीवी====
====अंत:परोपजीवी====
इस श्रेणी का कोई भी सदस्य स्वतंत्र जीवन व्यतीत नहीं करता। सभी सदस्य अंत:परोपजीवी<ref>एंडोपैरासाइट, endoparasite</ref> होते हैं और प्रत्येक सदस्य अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था<ref>डिंभावस्था अर्थात्‌ लार्वल स्टेज</ref> संधिपाद समुदाय की कठिनी<ref>Crustacea</ref> श्रेणी के प्राणी में और उत्तरार्ध अवस्था<ref>वयस्क अवस्था अर्थात्‌ adult state</ref> किसी पृष्ठविंशी प्राणी में व्यतीत करता है। सभी श्रेणियों के पृष्ठवंशी इन कंटशुंडियों के पोषक हो सकते हैं; यद्यपि प्रत्येक जाति किसी विशेष पृष्ठवंशी में ही पाई जाती हैं।
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12:30, 25 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

कंटशुंडी (अकांथोसेफ़ाला, Acanthocephala), एक प्रकार की पराश्रयी अथवा परोपजीवी कृमियों की श्रेणी है, जो पृष्ठवंशी प्राणियों की सभी श्रेणियों- स्तनपायियों, चिड़ियों, उरगमों, मेंढ़कों और मछलियों में पाई जाती है। इस श्रेणी का यह नाम इसकी बेलनाकार आकृति तथा शिरोभाग में मुड़े हुए काँटों के कारण पड़ा है। इस श्रेणी का वर्गीकरण विभिन्न वैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है, किंतु सबसे आधुनिक वर्गीकरण 'हाइमन' का है। इन कृमियों के शरीर का रंग पोषक के भोजन के रंग पर निर्भर रहता है। गंदे भूरे रंग से लेकर चमकीले रंग तक की कंटशुंडियाँ पाई जाती हैं।

शारीरिक संरचना

इस कृमि में पाये जाने वाले काँटें इसे पोषक की आंत्र की दीवार में स्थापित करने का काम करते हैं। इस श्रेणी में कृमियों में मुख, गुदा तथा अंतत्र आदि पाचक अवयवों का सर्वथा अभाव रहता है। अत: पोषक से प्राप्त आत्मसात्कृत भोजन कृमि के शरीर की दीवार से व्याप्त होकर कृमि का पोषण करता है। भिन्न-भिन्न जातियों की कंटशुंडियों की लंबाई भिन्न-भिन्न होती है और दो मिलीमीटर से लेकर 650 मिलीमीटर तक पाई जाती है। किंतु प्रत्येक जाति के नर तथा नारी कृमि की लंबाई में बड़ा अंतर रहता है। सभी जातियों की कंटशुंडियों में नारी सर्वदा नर से अधिक बड़ी होती है। विभिन्न जातियों की आकृति में भी बड़ी भिन्नता पाई जाती है। किसी का शरीर लंबा, दुबला और बेलनाकार होता है तो किसी का पार्श्व से चिपटा, छोटा और स्थूल होता है। शरीर की सतह चिकनी हो सकती है, किंतु प्राय: झुर्रीदार होती है। मांसपेशियों के कारण इनमें फैलने तथा सिकुड़ने की विशेष क्षमता होती है। शरीर का रंग पोषक के भोजन के रंग पर निर्भर रहता है।[1]

अंत:परोपजीवी

इस श्रेणी का कोई भी सदस्य स्वतंत्र जीवन व्यतीत नहीं करता। सभी सदस्य अंत:परोपजीवी[2] होते हैं और प्रत्येक सदस्य अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था[3] संधिपाद समुदाय की कठिनी[4] श्रेणी के प्राणी में और उत्तरार्ध अवस्था[5] किसी पृष्ठविंशी प्राणी में व्यतीत करता है। सभी श्रेणियों के पृष्ठवंशी इन कंटशुंडियों के पोषक हो सकते हैं; यद्यपि प्रत्येक जाति किसी विशेष पृष्ठवंशी में ही पाई जाती हैं।

जीवनचक्र

इस श्रेणी में परिगणित 300 जातियों का नामकरण हो चुका है और उनमें से अधिकांश मछलियों, चिड़ियों तथा स्तनपायियों में पाई जाती हैं। कंटशुंडी संसार के सभी भूभागों में पाई जाती है। मुख्य जाति शल्यतुंड[6] वा बृहत्तुंड[7] है, जो सूअरों में पाई जाती है। इसकी लंबाई एक गज से भी अधिक तक की होती है। यह अपने पोषक की आंत्र की दीवार से अपने काँटों द्वारा लटकी रहती है। जब इसका भ्रूण तैयार हो जाता है, तब यह पोषक के मल के साथ शरीर से बाहर चली आती है। सूअर के मल को जब एक विशेष प्रकार का गुबरैला खाता है, तब उस गुबरैले के भीतर यह भ्रूण पहुँचकर लार्वा में विकसित हो जाता है। इस प्रकार के संक्रमित गुबरैले को जब सूअर खाता है तो डिंभ पुन: सूअर के आँत्र में पहुँच जाता है, जहाँ वह वयस्क हो जाता है। 'नवशल्यतुड'[8] एक अन्य उदाहरण है। यह कंटशुंडी वयस्क अवस्था में मछलियों तथा डिंभावस्था में प्रजालपक्ष डिंभों[9] में परोपजीवी जीवन व्यतीत करती है।[1]

श्रेणी

पहले कंटशुंडी सूत्रकृमि[10] समुदाय की श्रेणी में गिनी जाती थी, किंतु अब इसकी एक अलग श्रेणी निर्धारित की जा चुकी है। इस श्रेणी की वंशावली अभी अनिर्णीत है। इस श्रेणी का वर्गीकरण विभिन्न वैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है, किंतु सबसे आधुनिक वर्गीकरण 'हाइमन' का है। इन्होंने संपूर्ण श्रेणी को तीन वर्गों में विभक्त किया है-

  1. आदिकंटशुंडी[11]
  2. पुराकंटशुंडी[12]
  3. प्रादिकंटशुंडी[13]

इसी वर्गीकरण के मुख्य आधार शुंड[14] में वर्तमान काँटों की संख्या तथा कुछ अन्य विशेषताएँ हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 कंटशुंडी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 मई, 2014।
  2. एंडोपैरासाइट, endoparasite
  3. डिंभावस्था अर्थात्‌ लार्वल स्टेज
  4. Crustacea
  5. वयस्क अवस्था अर्थात्‌ adult state
  6. Echinorhynchus
  7. Gigantorhynchus
  8. Neoechinorhynchus
  9. Sialis larvae
  10. Nemathelminthes
  11. Archinacanthocephala
  12. Palaeacanthocephala
  13. Coacanthocephala
  14. Proboscis

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