"तीर्थंकर उपदेश": अवतरणों में अंतर

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*जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य, प्रशस्त कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं।  
*जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य, प्रशस्त कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं।  
*आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है<ref><poem>ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।  
*आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है<ref><poem>ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।  
धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1</poem></ref> कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।<ref>आप्तपरीक्षा, कारिका 16</ref>  
धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1</poem></ref> कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात् बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।<ref>आप्तपरीक्षा, कारिका 16</ref>  
*इन तीर्थंकरों का वह उपदेश जिन शासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिन प्रवचन आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। उनके इस उपदेश को उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयवार भिन्न-भिन्न प्रकरणों में निबद्ध या ग्रथित करते हैं। अतएव उसे 'प्रबंध' एवं 'ग्रन्थ' भी कहते हैं। उनके उपदेश को निबद्ध करने वाले वे प्रमुख शिष्य जैनवाङमय में '''गणधर''' कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धि के धारक एवं विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है।  
*इन तीर्थंकरों का वह उपदेश जिन शासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिन प्रवचन आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। उनके इस उपदेश को उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयवार भिन्न-भिन्न प्रकरणों में निबद्ध या ग्रथित करते हैं। अतएव उसे 'प्रबंध' एवं 'ग्रन्थ' भी कहते हैं। उनके उपदेश को निबद्ध करने वाले वे प्रमुख शिष्य जैनवाङमय में '''गणधर''' कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धि के धारक एवं विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है।  
*इनके द्वारा निबद्ध वह उपदेश 'द्वादशाङ्ग-अङ्गप्रविष्ट' कहा जाता है।<ref>विद्यानन्द, आप्तपरीक्षा, का0 16</ref>  
*इनके द्वारा निबद्ध वह उपदेश 'द्वादशाङ्ग-अङ्गप्रविष्ट' कहा जाता है।<ref>विद्यानन्द, आप्तपरीक्षा, का0 16</ref>  

07:51, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

तीर्थंकर-उपदेश : द्वादशांगश्रुत

  • 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्म मार्ग से च्युत हो रहे जन समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्म मार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्म मार्ग-मोक्ष मार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक-तीर्थंकर कहा गया है।
  • जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य, प्रशस्त कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं।
  • आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है[1] कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात् बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।[2]
  • इन तीर्थंकरों का वह उपदेश जिन शासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिन प्रवचन आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। उनके इस उपदेश को उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयवार भिन्न-भिन्न प्रकरणों में निबद्ध या ग्रथित करते हैं। अतएव उसे 'प्रबंध' एवं 'ग्रन्थ' भी कहते हैं। उनके उपदेश को निबद्ध करने वाले वे प्रमुख शिष्य जैनवाङमय में गणधर कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धि के धारक एवं विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है।
  • इनके द्वारा निबद्ध वह उपदेश 'द्वादशाङ्ग-अङ्गप्रविष्ट' कहा जाता है।[3]
  • अंगप्रविष्ट के विषयक्रम से 12 भेद हैं जिनकी मूल 'अंग आगम' संज्ञा है। वे हैं:-
  1. आचारांग,
  2. सूत्रकृतांग,
  3. स्थानांग,
  4. समवायांग,
  5. व्याख्याप्रज्ञप्ति,
  6. ज्ञातृधर्मकथा,
  7. उपासकाध्ययन,
  8. अंत:कृत्दशांग,
  9. अनुत्तरौपपादिकदशांग,
  10. प्रश्नव्याकरण,
  11. विपाकसूत्र और
  12. दृष्टिवाद।
  • इनमें अन्तिम 12वें दृष्टिवाद अंग के 5 भेद हैं-
  1. परिकर्म,
  2. सूत्र,
  3. प्रथमानुयोग,
  4. पूर्वगत और
  5. चूलिका।
  • परिकर्म के 5 भेद ये हैं-
  1. चन्द्रप्रज्ञप्ति,
  2. सूर्यप्रज्ञप्ति,
  3. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति,
  4. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, और
  5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (यह 5वें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति से भिन्न है)।
  • पूर्वगत के 14 भेद इस प्रकार हैं-
  1. उत्पाद,
  2. आग्रायणीय,
  3. वीर्यानुवाद,
  4. अस्तिनास्तिप्रवाद,
  5. ज्ञानप्रवाद,
  6. सत्यप्रवाद,
  7. आत्मप्रवाद,
  8. कर्मप्रवाद,
  9. प्रत्याख्यान प्रवाद,
  10. विद्यानुवाद,
  11. कल्याणवाद,
  12. प्राणावाय,
  13. क्रियाविशाल और
  14. लोकबिन्दुसार।
  • चूलिका के 5 भेद हैं –
  1. जलगता,
  2. स्थलगता,
  3. मायागता,
  4. रूपगता और
  5. आकाशगता।
  • इनमें उनके नामानुसार विषयों का वर्णन है।[4]
  • अंगप्रविष्ट उपदेश गणधरों द्वारा निबद्ध किया जाता है।[5]
  • अंगबाह्य उपदेश उसके आधार से उनके शिष्यों-प्रशिष्यों, आचार्यो द्वारा रचा जाता है।[6]
  • इससे वह अंगबाह्य कहा जाता है, किन्तु प्रामणिकता की दृष्टि से दोनों ही प्रकार का श्रुत समान है, क्योंकि उसके उपदेष्टा भी परम्परा से तीर्थंकर ही माने जाते हैं।
  • इस अंगबाह्य जिनोपदेश के 14 भेद हैं। वे इस प्रकार हैं:-[7]
  1. सामायिक,
  2. चतुर्विंशतिस्तव,
  3. वंदना,
  4. प्रतिक्रमण,
  5. वैनयिक,
  6. कृतिकर्म,
  7. दशवैकालिक,
  8. उत्तराध्ययन,
  9. कल्पव्यवहार,
  10. कल्पाकल्प्य,
  11. महाकल्प,
  12. पुण्डरीक,
  13. महापुण्डरीक और
  14. निषिद्धिका।
  • इस अंगबाह्य श्रुत में श्रमणाचार का मुख्यतया वर्णन है।
  • उत्तरकाल में अल्पमेधा के धारक उत्तरवर्ती आचार्य इसी श्रुत का आश्रय लेकर अपने विविध ग्रंथों की रचना करते हैं और उनके द्वारा उसी जिनोपदेश को जन-जन तक पहुंचाने का प्रशस्त प्रयास करते हैं तथा क्षेत्रीय भाषाओं में भी उसे ग्रथित करते हैं। इनका स्रोत (मूल) तीर्थंकर-उपदेश होने से उन्हें भी प्रमाण माना जाता है।

उपलब्ध श्रुत

  • प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का श्रुत तीर्थंकर अजित तक, अजित का सम्भव तक और सम्भव का अभिनंदन तक, इस तरह पूर्व तीर्थंकर का श्रुत उत्तरवर्ती अगले तीर्थंकर तक रहा। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्व का द्वादशांग श्रुत तब तक रहा, जब तक महावीर तीर्थंकर धर्मोपदेष्टा नहीं हुए। आज जो आंशिक द्वादशांग श्रुत उपलब्ध है वह अंतिम 24 वें तीर्थंकर महावीर से संबद्ध है। अन्य सभी तीर्थंकरों का श्रुत लेख बद्ध न होने तथा स्मृतिधारकों के न रहने से नष्ट हो चुका है। वर्द्धमान महावीर का द्वादशांग श्रुत भी पूरा उपलब्ध नहीं है। प्रारम्भ में वह आचार्य-शिष्य परम्परा में स्मृति के आधार पर विद्यमान रहा। उत्तर काल में स्मृतिधारकों की स्मृति मन्द पड़ जाने पर उसे निबद्ध किया गया।
  • दिगम्बर परम्परा के[8] अनुसार वर्तमान में जो श्रुत उपलब्ध हैं वह 12वें अंग दृष्टिवाद का कुछ अंग हैं, जो धरसेनाचार्य को आचार्य परम्परा से प्राप्त था और जिसे उनके शिष्य आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त ने उनसे प्राप्त कर षट्खण्डागम नामक आगम ग्रन्थ में लेखबद्ध किया। शेष 11 अंग और 12वें अंग का बहुभाग नष्ट हो चुका है।
  • श्वेताम्बर परम्परा[9] के अनुसार आचार्य क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणी के नायकत्व में तीसरी और अन्तिम बलभी वाचना में संकलित 11 अंग मौजूद हैं, जिन्हें दिगम्बर परम्परा में मान्य नहीं किया गया। श्वेताम्बर परम्परा 12वें अंग दृष्टिवाद का समग्र रूप में विच्छेद स्वीकार करती है। जबकि दिगम्बर परम्परा कसायपाहुड और षट्खण्डागम-इन दो आगम ग्रन्थों के आधार पर इस दृष्टिवाद का कुछ ज्ञान वर्तमान में उपलब्ध मानती है, शेष प्रथम से लेकर ग्यारहवें अंग तक सभी का लोप मानती है।

धर्म, दर्शन और न्याय

  • उक्त श्रुत में तीर्थंकर महावीर ने जहाँ धर्म का उपदेश दिया वहाँ दर्शन और न्याय का भी उपदेश दिया है। इन तीनों में भेद करते हुए उन्होंने बताया कि मुख्यतया आचार का नाम धर्म है। धर्म का जिन विचारों द्वारा समर्थन एवं संपोषण किया जाता है, वे विचार दर्शन हैं और धर्म के संपोषण के लिए प्रस्तुत विचारों को युक्ति-प्रतियुक्ति, खंडन-मंडन, प्रश्न-उत्तर एवं शंका-समाधानपूर्वक दृढ़ करना न्याय प्रमाणशास्त्र है।

इन तीनों के पार्थक्य को समझने के लिए हम यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। सब जीवों पर दया करो, किसी जीव की हिंसा न करो अथवा सत्य बोलो, असत्य मत बोलो आदि विधि और निषेधरूप आचार का नाम धर्म है। जब इसमें क्यों का सवाल उठता है तो उसके समर्थन में कहा जाता है कि जीवों पर दया करना कर्तव्य है, गुण (अच्छा) है, पुण्य है और इससे सुख मिलता है। किन्तु जीवों की हिंसा करना अकर्तव्य है, दोष है, पाप है और उससे दु:ख मिलता है। इसी तरह सत्य बोलना कर्तव्य है, गुण है, पुण्य है और उससे सुख मिलता है।

  • यदि अहिंसा जीव का स्वभाव न माना जाए तो कोई भी जीव जीवित नहीं रह सकता, सब सबके भक्षक या घातक हो जाएंगे। परिवार में, देश में और विश्व के राष्ट्रों में अनवतर हिंसा रहने पर शन्ति और सुख कभी उपलब्ध नहीं हो सकेंगे।
  • इसी प्रकार सत्य बोलना मनुष्य का स्वभाव न माना जाए तो संसार में अविश्वास छा जाएगा और लेन-देन आदि के सारे लोक-व्यवहार लुप्त हो जाएंगे और वे अविश्वसनीय बन जावेंगे। इस तरह धर्म के समर्थन में प्रस्तुत विचार, रूप, दर्शन को दृढ़ करना न्याय, युक्ति या प्रमाणशास्त्र है।
  • धर्म जहाँ सदाचार के विधान और असदाचार के निषेध के रूप हैं वहाँ दर्शन उनमें कर्त्तव्याकर्त्तव्य, पुण्यापुण्य और सुख-दु:ख का विवेक जागृत करता है तथा न्याय दर्शन रूप विचारों को हेतु पूर्वक मस्तिष्क में बिठा देता है।
  • वस्तुत: न्याय शास्त्र से दर्शन शास्त्र को जो दृढ़ता मिलती है वह स्थायी, विवेकयुक्त और निर्णयात्मक होती है। यही कारण है कि सभी भारतीय जैन, बौद्ध और वैदिक धर्मों में दर्शन शास्त्र और न्याय शास्त्र का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया गया है तथा दोनों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इतना ही नहीं, उन पर बल देते हुए इन्हें विकसित एवं समृद्ध किया गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।
    धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1

  2. आप्तपरीक्षा, कारिका 16
  3. विद्यानन्द, आप्तपरीक्षा, का0 16
  4. अकलंक, तत्त्वार्थवार्तिक, 1-20
  5. वीरसेन, धवलाटीका, पुस्तक 1, पृ0 108-112, जय ध0 प्र0 पृ0 93-122
  6. अकलंक, तत्त्वार्थवार्तिक 1-20-12, पृ0 72, भा0 ज्ञा0 संस्क0 1944
  7. अकलंक, तत्त्वार्थवार्तिक , भा0 ज्ञा0 संस्क0 1944, 1-20-13, पृ0 78
  8. वीरसेन, जयधवला, पृ. 25, धवला, पुस्तक 1, पृ0 96, गो0 जी0 367
  9. वीरसेन, धवला, पु0 1, प्रस्तावना पृ0 71, जयध0 पृ0 87