"द्वैध शासन पद्धति": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "अर्थात " to "अर्थात् ") |
||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
'''द्वैध शासन पद्धति''' | '''द्वैध शासन पद्धति''' संवैधानिक व्यवस्था का एक रूप थी। 'द्वैध शासन' का सिद्धान्त सबसे पहले [[अंग्रेज़]] लियोनेल कर्टिस ने प्रतिपादित किया था, जो बहुत दिनों तक 'राउण्ड टेबिल' का सम्पादक रहा। बाद में यह सिद्धान्त [[1919]] ई. के 'भारतीय शासन विधान' में लागू किया गया, जिसके अनुसार प्रान्तों में द्वैध शासन स्थापित हुआ। अंग्रेज़ों द्वारा यह कहा गया कि "यह शासन पद्धति भारतीयों को नेतृत्व का प्रशिक्षण देने के लिए है", किंतु वास्तव में यह पद्धति भारतीयों की क्षमताओं पर एक भीषण आघात था। | ||
{{tocright}} | |||
==पद्धति== | ==पद्धति== | ||
इस पद्धति के अनुसार प्रान्तों में शिक्षा, स्वायत्त शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण, [[कृषि]] तथा सहकारिता आदि विभागों का प्रशासन मंत्रियों को | इस पद्धति के अनुसार प्रान्तों में शिक्षा, स्वायत्त शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण, [[कृषि]] तथा सहकारिता आदि विभागों का प्रशासन मंत्रियों को हस्तांतरित कर दिया गया। ये मंत्री प्रान्तीय विधान सभा के निर्वाचित सदस्य होते थे और विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होते थे। दूसरी ओर राजस्व, क़ानून, न्याय, पुलिस, सिंचाई, श्रम तथा वित्त आदि विभागों का प्रशासन गवर्नर की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के लिए सुरक्षित रखा गया था। ये सदस्य गवर्नर द्वारा मनोनीत होते थे और उन्हीं के प्रति उत्तरदायी होते थे, विधानसभा के प्रति नहीं।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय इतिहास कोश |लेखक= सच्चिदानन्द भट्टाचार्य|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=213|url=}}</ref> | ||
====भारतीयों की नाराज़गी | ==भारतीयों की नाराज़गी== | ||
[[अंग्रेज़]] शासकों के मतानुसार 'द्वैध शासन पद्धति' की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को क्रमिक रूप से प्रशासन चलाने की कला का प्रशिक्षण देना था और यह एक प्रकार से भारतीयों की प्रशासन क्षमता पर आक्षेप था। इसके अलावा हस्तांतरित विभाग ख़र्चे वाले विभाग थे, जबकि सुरक्षित विभाग आमदनी वाले विभाग थे। इस प्रकार के विभागों का बँटवारा मंत्रियों के लिए परेशानी पैदा करने वाला | [[अंग्रेज़]] शासकों के मतानुसार 'द्वैध शासन पद्धति' की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को क्रमिक रूप से प्रशासन चलाने की कला का प्रशिक्षण देना था और यह एक प्रकार से भारतीयों की प्रशासन क्षमता पर आक्षेप था। इसके अलावा हस्तांतरित विभाग ख़र्चे वाले विभाग थे, जबकि सुरक्षित विभाग आमदनी वाले विभाग थे। इस प्रकार के विभागों का बँटवारा मंत्रियों के लिए परेशानी पैदा करने वाला था, क्योंकि ऐसी स्थिति में उन्हें ख़र्चे के लिए 'एक्जीक्यूटिव कौंसिल' के सदस्यों का मुँह देखना पड़ता था। वास्तव में यह 'द्वैध शासन पद्धति' एक प्रकार से संक्रमणकालीन शासन पद्धति थी, जिसे भारतीयों ने पसन्द नहीं किया। | ||
==अन्त== | ==अन्त== | ||
भारतीयों की सोच से अलग अंग्रेज़ सरकार को इस शासन पद्धति में अधिक लाभ नज़र आता था, क्योंकि अधिक महत्त्वपूर्ण विभाग 'एक्जीक्यूटिव कौंसिल' के सदस्यों के हाथों में थे, जो गवर्नर के प्रति उत्तरदायी थे। इस शासन पद्धति की अलोकप्रियता तथा कार्यान्वयन में कठिनाई के बावजूद इसे आगे चलकर [[1935]] ई. के 'भारतीय शासन विधान' में भी शामिल कर लिया गया, | भारतीयों की सोच से अलग [[अंग्रेज़]] सरकार को इस शासन पद्धति में अधिक लाभ नज़र आता था, क्योंकि अधिक महत्त्वपूर्ण विभाग 'एक्जीक्यूटिव कौंसिल' के सदस्यों के हाथों में थे, जो गवर्नर के प्रति उत्तरदायी थे। इस शासन पद्धति की अलोकप्रियता तथा कार्यान्वयन में कठिनाई के बावजूद इसे आगे चलकर [[1935]] ई. के 'भारतीय शासन विधान' में भी शामिल कर लिया गया, अर्थात् केन्द्र में भी 'द्वैध प्रशासन पद्धति' लागू करने की व्यवस्था की गयी, जबकि पहले यह केवल प्रान्तों में ही लागू थी। लेकिन 1935 ई. का नया शासन विधान कभी पूर्णतया लागू नहीं किया जा सका। अत: केन्द्र में 'द्वैध शासन पद्धति' लागू नहीं हुई। जब स्वतंत्र [[भारत]] का नया [[संविधान]] बना, पुराने शासन विधान और 'द्वैध शासन पद्धति' का स्वत: ही अन्त हो गया।<ref name="aa"/> | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{औपनिवेशिक काल}} | {{औपनिवेशिक काल}} | ||
[[Category: | [[Category:औपनिवेशिक काल]][[Category:अंग्रेज़ी शासन]][[Category:इतिहास कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
07:51, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
द्वैध शासन पद्धति संवैधानिक व्यवस्था का एक रूप थी। 'द्वैध शासन' का सिद्धान्त सबसे पहले अंग्रेज़ लियोनेल कर्टिस ने प्रतिपादित किया था, जो बहुत दिनों तक 'राउण्ड टेबिल' का सम्पादक रहा। बाद में यह सिद्धान्त 1919 ई. के 'भारतीय शासन विधान' में लागू किया गया, जिसके अनुसार प्रान्तों में द्वैध शासन स्थापित हुआ। अंग्रेज़ों द्वारा यह कहा गया कि "यह शासन पद्धति भारतीयों को नेतृत्व का प्रशिक्षण देने के लिए है", किंतु वास्तव में यह पद्धति भारतीयों की क्षमताओं पर एक भीषण आघात था।
पद्धति
इस पद्धति के अनुसार प्रान्तों में शिक्षा, स्वायत्त शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण, कृषि तथा सहकारिता आदि विभागों का प्रशासन मंत्रियों को हस्तांतरित कर दिया गया। ये मंत्री प्रान्तीय विधान सभा के निर्वाचित सदस्य होते थे और विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होते थे। दूसरी ओर राजस्व, क़ानून, न्याय, पुलिस, सिंचाई, श्रम तथा वित्त आदि विभागों का प्रशासन गवर्नर की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के लिए सुरक्षित रखा गया था। ये सदस्य गवर्नर द्वारा मनोनीत होते थे और उन्हीं के प्रति उत्तरदायी होते थे, विधानसभा के प्रति नहीं।[1]
भारतीयों की नाराज़गी
अंग्रेज़ शासकों के मतानुसार 'द्वैध शासन पद्धति' की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को क्रमिक रूप से प्रशासन चलाने की कला का प्रशिक्षण देना था और यह एक प्रकार से भारतीयों की प्रशासन क्षमता पर आक्षेप था। इसके अलावा हस्तांतरित विभाग ख़र्चे वाले विभाग थे, जबकि सुरक्षित विभाग आमदनी वाले विभाग थे। इस प्रकार के विभागों का बँटवारा मंत्रियों के लिए परेशानी पैदा करने वाला था, क्योंकि ऐसी स्थिति में उन्हें ख़र्चे के लिए 'एक्जीक्यूटिव कौंसिल' के सदस्यों का मुँह देखना पड़ता था। वास्तव में यह 'द्वैध शासन पद्धति' एक प्रकार से संक्रमणकालीन शासन पद्धति थी, जिसे भारतीयों ने पसन्द नहीं किया।
अन्त
भारतीयों की सोच से अलग अंग्रेज़ सरकार को इस शासन पद्धति में अधिक लाभ नज़र आता था, क्योंकि अधिक महत्त्वपूर्ण विभाग 'एक्जीक्यूटिव कौंसिल' के सदस्यों के हाथों में थे, जो गवर्नर के प्रति उत्तरदायी थे। इस शासन पद्धति की अलोकप्रियता तथा कार्यान्वयन में कठिनाई के बावजूद इसे आगे चलकर 1935 ई. के 'भारतीय शासन विधान' में भी शामिल कर लिया गया, अर्थात् केन्द्र में भी 'द्वैध प्रशासन पद्धति' लागू करने की व्यवस्था की गयी, जबकि पहले यह केवल प्रान्तों में ही लागू थी। लेकिन 1935 ई. का नया शासन विधान कभी पूर्णतया लागू नहीं किया जा सका। अत: केन्द्र में 'द्वैध शासन पद्धति' लागू नहीं हुई। जब स्वतंत्र भारत का नया संविधान बना, पुराने शासन विधान और 'द्वैध शासन पद्धति' का स्वत: ही अन्त हो गया।[1]
|
|
|
|
|