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इसके अतिरिक्त कवि मियाँसिंह ने तथा महाराज रघुराज सिंह ने भी कुछ चमत्कारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिससे उनकी दिव्य-दृष्टि सम्पन्नता की सूचना मिलती है। [[नाभादास]] ने भी अपने '[[भक्तमाल]]' में उन्हें दिव्य-दृष्टि सम्पन्न बताया है। निश्चय ही सूरदास एक महान् [[कवि]] और [[भक्त]] होने के नाते असाधारण दृष्टि रखते थे, किन्तु उन्होंने अपने काव्य में वाह्य जगत के जैसे नाना रूपों, रंगों और व्यापारों का वर्णन किया है, उससे प्रमाणित होता है कि उन्होंने अवश्य ही कभी अपने चर्म-चक्षुओं से उन्हें देखा होगा। | |||
उनका काव्य उनकी निरीक्षण-शक्ति की असाधारण सूक्ष्मता प्रकट करता है, क्योंकि लोकमत उनके माहात्म्य के प्रति इतना श्रद्धालु रहा है कि वह उन्हें जन्मान्ध मानने में ही उनका गौरव समझती है, इसलिए इस सम्बन्ध में कोई साक्ष्य नहीं मिलता कि वे किसी परिस्थिति में दृष्टिहीन हो गये थे। हो सकता है कि वे वृद्धवस्था के निकट दृष्टि-विहीन हो गये हों, परन्तु इसकी कोई स्पष्ट सूचना उनके पदों में नहीं मिलती। विनय के पदों में वृद्धावस्था की दुर्दशा के वर्णन के अन्तर्गत चक्षु-विहीन हाने का जो उल्लेख हुआ है, उसे आत्मकथा नहीं माना जा सकता, वह तो सामान्य जीवन के एक तथ्य के रूप में कहा गया है। | |||
07:57, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
सूरदास की अन्धता
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पूरा नाम | महाकवि सूरदास |
जन्म | संवत् 1540 विक्रमी (सन् 1483 ई.) अथवा संवत 1535 विक्रमी (सन् 1478 ई.) |
जन्म भूमि | रुनकता, आगरा |
मृत्यु | संवत् 1642 विक्रमी (सन् 1585 ई.) अथवा संवत् 1620 विक्रमी (सन् 1563 ई.) |
मृत्यु स्थान | पारसौली |
अभिभावक | रामदास (पिता) |
कर्म भूमि | ब्रज (मथुरा-आगरा) |
कर्म-क्षेत्र | सगुण भक्ति काव्य |
मुख्य रचनाएँ | सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो आदि |
विषय | भक्ति |
भाषा | ब्रज भाषा |
पुरस्कार-उपाधि | महाकवि |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
सूरदास हिन्दी साहित्य के भक्ति काल में कृष्ण भक्ति के भक्त कवियों में अग्रणी हैं। महाकवि सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। उनका जन्म मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ था। कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत 1540 विक्रमी के सन्निकट और मृत्यु संवत 1620 विक्रमी के आसपास मानी जाती है।
सामान्य रूप से यह प्रसिद्ध रहा है कि सूरदास जन्मान्ध थे और उन्होंने भगवान की कृपा से दिव्य-दृष्टि पायी थी, जिसके आधार पर उन्होंने कृष्णलीला का आँखों देखा जैसा वर्णन किया। गोसाई हरिराय ने भी सूरदास को जन्मान्ध बताया है, परन्तु उनके जन्मान्ध होने का कोई स्पष्ट उल्लेख उनके पदों में नहीं मिलता। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के मूल रूप में भी इसका कोई संकेत नहीं मिलता। जैसा की पीछे कहा जा चुका है, उनके अन्धे होने का उल्लेख केवल अकबर की भेंट के प्रसंग में हुआ है। 'सूरसागर' के लगभग 7-8 पदों में भी प्रत्यक्ष रूप से और कभी प्रकारान्तर से सूरदास ने अपनी हीनता और तुच्छता का वर्णन करते हुए अपने को अन्धा कहा है।
सूरदास के सम्बन्ध में जितनी किंवदान्तियाँ प्रचलित हैं, उन सब में उनके अन्धे होने का उल्लेख हुआ है। उनके कुएँ में गिरने और स्वयं कृष्ण के द्वारा उद्धार पाने एवं दृष्टि प्राप्त करने तथा पुन: कृष्ण से अन्धे होने का वरदान माँगने की घटना लोकविश्रुत है। बिल्वमंगल सूरदास के विषय में भी यह चमत्कारपूर्ण घटना कही-सुनी जाती है।
इसके अतिरिक्त कवि मियाँसिंह ने तथा महाराज रघुराज सिंह ने भी कुछ चमत्कारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिससे उनकी दिव्य-दृष्टि सम्पन्नता की सूचना मिलती है। नाभादास ने भी अपने 'भक्तमाल' में उन्हें दिव्य-दृष्टि सम्पन्न बताया है। निश्चय ही सूरदास एक महान् कवि और भक्त होने के नाते असाधारण दृष्टि रखते थे, किन्तु उन्होंने अपने काव्य में वाह्य जगत के जैसे नाना रूपों, रंगों और व्यापारों का वर्णन किया है, उससे प्रमाणित होता है कि उन्होंने अवश्य ही कभी अपने चर्म-चक्षुओं से उन्हें देखा होगा।
उनका काव्य उनकी निरीक्षण-शक्ति की असाधारण सूक्ष्मता प्रकट करता है, क्योंकि लोकमत उनके माहात्म्य के प्रति इतना श्रद्धालु रहा है कि वह उन्हें जन्मान्ध मानने में ही उनका गौरव समझती है, इसलिए इस सम्बन्ध में कोई साक्ष्य नहीं मिलता कि वे किसी परिस्थिति में दृष्टिहीन हो गये थे। हो सकता है कि वे वृद्धवस्था के निकट दृष्टि-विहीन हो गये हों, परन्तु इसकी कोई स्पष्ट सूचना उनके पदों में नहीं मिलती। विनय के पदों में वृद्धावस्था की दुर्दशा के वर्णन के अन्तर्गत चक्षु-विहीन हाने का जो उल्लेख हुआ है, उसे आत्मकथा नहीं माना जा सकता, वह तो सामान्य जीवन के एक तथ्य के रूप में कहा गया है।
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