"लाला लाजपत राय": अवतरणों में अंतर

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'''लाला लाजपत राय''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Lala Lajpat Rai'', जन्म: [[28 जनवरी]], [[1865]]; मृत्यु: [[17 नवंबर]], [[1928]] ई., [[लाहौर]], अविभाजित भारत) को [[भारत]] के महान् क्रांतिकारियों में गिना जाता है। आजीवन ब्रिटिश राजशक्ति का सामना करते हुए अपने प्राणों की परवाह न करने वाले लाला लाजपत राय को 'पंजाब केसरी' भी कहा जाता है। लालाजी [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के [[गरम दल]] के प्रमुख नेता तथा पूरे पंजाब के प्रतिनिधि थे। उन्हें 'पंजाब के शेर' की उपाधि भी मिली थी। उन्होंने क़ानून की शिक्षा प्राप्त कर [[हिसार]] में वकालत प्रारम्भ की थी, किन्तु बाद में [[दयानंद सरस्वती|स्वामी दयानंद]] के सम्पर्क में आने के कारण वे [[आर्य समाज]] के प्रबल समर्थक बन गये। यहीं से उनमें उग्र राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। लालाजी को [[पंजाब]] में वही स्थान प्राप्त है, जो [[महाराष्ट्र]] में [[लोकमान्य तिलक]] को प्राप्त है।
==जन्म==
लाला लाजपत राय का जन्म [[28 जनवरी]], [[1865]] ई. को अपने ननिहाल के [[ग्राम]] ढुंढिके, [[फ़रीदकोट ज़िला|ज़िला फ़रीदकोट]], [[पंजाब]] में हुआ था। उनके [[पिता]] लाला राधाकृष्ण [[लुधियाना ज़िला|लुधियाना ज़िले]] के जगराँव क़स्बे के निवासी अग्रवाल वैश्य थे। लाला राधाकृष्ण अध्यापक थे। वे [[उर्दू]] तथा [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के अच्छे जानकार थे। इसके साथ ही [[इस्लाम धर्म|इस्लाम]] के मन्तव्यों में भी उनकी गहरी आस्था थी। वे मुसलमानी धार्मिक अनुष्ठानों का भी नियमित रूप से पालन करते थे। [[नमाज़]] पढ़ना और [[रमज़ान]] के महीने में [[रोज़ा|रोज़ा]] रखना उनकी जीनवचर्या का अभिन्न अंग था, यथापि वे सच्चे धर्म-जिज्ञासु थे। अपने पुत्र लाला लाजपत राय के आर्य समाजी बन जाने पर उन्होंने [[वेद]] के दार्शनिक सिद्धान्त 'त्रेतवाद'<ref>ईश्वर, जीव तथा प्रकृति का अनादित्य।</ref> को समझने में भी रुचि दिखाई। पिता की इस जिज्ञासु प्रवृत्ति का प्रभाव उनके पुत्र लाजपत राय पर भी पड़ा था।<ref name="bb">{{cite web |url= http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3530|title= योगीराज श्रीकृष्ण|accessmonthday=17 मई |accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language= हिन्दी}}</ref> लाजपत राय के पिता [[वैश्य]] थे, किंतु उनकी माती [[सिक्ख]] [[परिवार]] से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। इनकी माता एक साधारण महिला थीं। वे एक [[हिन्दू]] नारी की तरह ही अपने पति की सेवा करती थीं।<ref>{{cite web|url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3988|title=लाला लाजपतराय |accessmonthday=1अगस्त |accessyear=2010 |authorlink=विनोद तिवारी|format=एच.टी.एम.एल |publisher=मनोज पब्लिकेशन|language=[[हिन्दी]]}}</ref>
====शिक्षा====
लाजपत राय की शिक्षा पाँचवें [[वर्ष]] में आरम्भ हुई। सन [[1880]] में उन्होंने [[कलकत्ता विश्वविद्यालय|कलकत्ता]] तथा [[पंजाब विश्वविद्यालय]] से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में उत्तीर्ण की और आगे पढ़ने के लिए [[लाहौर]] आ गए। यहाँ वे गर्वमेंट कॉलेज में प्रविष्ट हुए और [[1882]] में एफ. ए. की परीक्षा तथा मुख़्तारी की परीक्षा साथ-साथ उत्तीर्ण की। यहीं वे [[आर्य समाज]] के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये।
==वकालत==
लाला लाजपत राय ने एक मुख़्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवास स्थल जगराँव में ही वकालत आरम्भ कर दी थी; किन्तु यह क़स्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके कार्य के बढ़ने की अधिक सम्भावना नहीं थी। अतः वे रोहतक चले गये। उन दिनों पंजाब प्रदेश में वर्तमान [[हरियाणा]], [[हिमाचल प्रदेश|हिमाचल]] तथा आज के पाकिस्तानी पंजाब का भी समावेश था। रोहतक में रहते हुए ही उन्होंने [[1885]] ई. में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। [[1886]] में वे [[हिसार]] आए।<ref>लाला लाजपतराय की आत्मकथा ग्रंथमाला, में प्रकाशित 1932</ref> एक सफल वकील के रूप में [[1892]] तक वे यहीं रहे और इसी [[वर्ष]] लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया।
==आर्य समाज में प्रवेश==
सन 1882 के अंतिम दिनों में लाजपत राय पहली बार [[आर्य समाज]] के लाहौर के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित हुए। इस मार्मिक प्रसंग का वर्णन लालाजी ने अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है-


पंजाब केसरी लाला लाजपत राय (जन्म- [[28 जनवरी]], [[1865]], मृत्यु- [[17 नवंबर]], [[1928]])। आजीवन ब्रिटिश राजशक्ति का सामना करते हुए अपने प्राणों की परवाह न करने वाले लाला लाजपत राय 'पंजाब केसरी' कहे जाते हैं। लाला लाजपत राय [[भारत]] के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। ये भारतीय 'राष्ट्रीय कांग्रेस' के 'गरम दल' के प्रमुख नेता थे। वह पूरे [[पंजाब]] के प्रतिनिधि थे। उनकी देशसेवा विख्यात है। 
"उस दिन स्वर्गीय लाला मदनसिंह बी.ए.<ref>डी.ए.वी. कॉलेज के संस्थापकों में प्रमुख।</ref> का व्याख्यान था। उनको मुझसे बहुत प्रेम था। उन्होंने व्याख्यान देने से पहले समाज मंदिर की छत पर मुझे अपना लिखा व्याख्यान सुनाया और मेरी सम्मति पूछी। मैंने उस व्याख्यान को बहुत पसन्द किया। जब मैं छत से नीचे उतरा तो लाला साईंदासजी<ref>आर्य समाज लाहौर के प्रथम मंत्री।</ref> ने मुझे पकड़ लिया और अलग ले जाकर कहने लगे कि- "हमने बहुत समय तक इन्तज़ार किया है कि तुम हमारे साथ मिल जाओ।" मैं उस घड़ी को भूल नहीं सकता। वह मेरे से बातें करते थे, मेरे मुँह की ओर देखते थे, तथा प्यार से पीठ पर हाथ फेरते थे। मैंने उनको जवाब दिया कि- "मैं तो उनके साथ हूँ।" मेरा इतना कहना था कि उन्होंने फौरन समाज के सभासद बनने का प्रार्थना-पत्र मंगवाया और मेरे सामने रख दिया। मैं दो-चार मिनट तक सोचता रहा, परन्तु उन्होंने कहा कि- "मैं तुम्हारे हस्ताक्षर लिए बिना तुम्हें जाने न दूँगा।" मैंने फौरन हस्ताक्षर कर दिए। उस समय उनके चेहरे पर प्रसन्नता की जो झलक थी, उसका वर्णन मैं नहीं कर सकता। ऐसा मालूम होता था कि उनको हिन्दुस्तान की बादशाहत मिल गयी है। उन्होंने एकदम [[पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी|पण्डित गुरुदत्त]] को बुलाया और सारा हाल सुनाकर मुझे उनके हवाले कर दिया। वह भी बहुत खुश हुए। लाला मदनसिंह के व्याख्यान की समाप्ति पर लाला साँईदास ने मुझे और पण्डित गुरुदत्त को मंच पर खड़ा कर किया। हम दोनों से व्याखान दिलवाये। लोग बहुत खुश हुए और खूब तालियाँ बजाई। इन तालियों ने मेरे दिल पर जादू का-सा असर किया। मैं प्रसन्नता और सफलता की मस्ती में झूमता हुआ अपने घर लौटा।" यह है लालाजी के आर्य समाज में प्रवेश की [[कथा]]।<ref name="bb"/>
==जीवन परिचय==
==डी..वी. कॉलेज की स्थापना==
लाला लाजपत राय का जन्म [[पंजाब]] के मोगा ज़िले में हुआ था। 28 जनवरी सन 1865 को मुंशी जी की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया। बालक ने अपनी किलकारियों से चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ बिखेर दीं। बालक के जन्म की खबर पूरे गाँव में फैल गई। बालक के मुखमंडल को देखकर गाँव के लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। माता-पिता बड़े लाड़-प्यार से अपने बालक का लालन-पालन करते रहे। वे प्यार से अपने बच्चे को लाजपत राय कहकर बुलाते थे। लाजपत राय के पिता जी वैश्य थे, किंतु उनकी माती जी सिक्ख परिवार से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। वे एक साधारण महिला थीं। वे एक हिन्दू नारी की तरह अपने पति की सेवा करती थीं।<ref>{{cite web|url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3988|title=लाला लाजपतराय|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=विनोद तिवारी|format=एच.टी.एम.एल |publisher=मनोज पब्लिकेशन|language=[[हिन्दी]]}}</ref>
लाला साँईदास [[आर्य समाज]] के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। [[स्वामी श्रद्धानन्द]]<ref>तत्कालीन लाला मुंशीराम</ref> को आर्य समाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। [[30 अक्टूबर]], [[1883]] को जब [[अजमेर]] में [[स्वामी दयानन्द सरस्वती|स्वामी दयानन्द]] का देहान्त हो गया तो [[9 नवम्बर]], [[1883]] को [[लाहौर]] में आर्य समाज की ओर से एक शोक सभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चित हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये, जिसमें [[वैदिक साहित्य]], [[संस्कृति]] तथा [[हिन्दी]] की उच्च शिक्षा के साथ-साथ [[अंग्रेज़ी]] और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। [[1886]] में जब इस शिक्षण संस्थान की स्थापना हुई तो आर्य समाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपत राय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर में डी.ए.वी. कॉलेज, लाहौर के महान् स्तम्भ बने। [[पंजाब]] के 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना के लिए लाजपत राय ने अथक प्रयास किये थे। स्वामी दयानन्द के साथ मिलकर उन्होंने [[आर्य समाज]] को पंजाब में लोकप्रिय बनाया था। आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने 'दयानंद कॉलेज' के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया। डी.ए.वी. कॉलेज पहले [[लाहौर]] में स्थापित किया था। [[लाला हंसराज]] के साथ 'दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों' (डी.ए.वी.) का प्रसार भी लालाजी ने किया। उनकी आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद एवं उनके कार्यों के प्रति अनन्य निष्ठा थी। स्वामी जी के देहावसान के बाद उन्होंने आर्य समाज के कार्यों को पूरा करने के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया था। [[हिन्दू धर्म]] में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष, प्राचीन और आधुनिक शिक्षा पद्धति में समन्वय, [[हिन्दी भाषा]] की श्रेष्ठता और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आर-पार की लड़ाई आर्य समाज से मिले संस्कारों के ही परिणाम थे।
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने क़ानून की उपाधि प्राप्त करने के लिए [[1880]] में [[लाहौर]] के 'राजकीय कॉलेज' में प्रवेश ले लिया। इस दौरान वे [[आर्य समाज]] के आंदोलन में शामिल हो गए। लालाजी ने क़ानूनी शिक्षा पूरी करने के बाद जगरांव में वक़ालत शुरू कर दी। इसके बाद उन्होंने [[हरियाणा]] के [[रोहतक हरियाणा|रोहतक]] और [[हिसार]] शहरों में वक़ालत की।
====आदर्श====
==लाल-बाल-पाल==
[[इटली]] के क्रांतिकारी ज्यूसेपे मेत्सिनी को लाजपत राय अपना आदर्श मानते थे। किसी पुस्तक में उन्होंने जब मेत्सिनी का भाषण पढ़ा तो उससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मेत्सिनी की जीवनी पढ़नी चाही। वह [[भारत]] में उपलब्ध नहीं थी। उन्होंने उसे इंग्लैण्ड से मंगवाया। मेत्सिनी द्वारा लिखी गई अभूतपूर्व पुस्तक ‘ड्यूटीज ऑफ़ मैन’ का लाला लाजपत राय ने [[उर्दू]] में अनुवाद किया। इस [[पांडुलिपि]] को उन्होंने लाहौर के एक पत्रकार को पढ़ने के लिए दिया। उस पत्रकार ने उसमें थोड़ा बहुत संशोधन किया और अपने नाम से छपवा दिया।<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?bookid=3988|title= लाला लाजपत राय|accessmonthday=16 मई|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language= हिन्दी}}</ref>
लाला लाजपत राय, [[बाल गंगाधर तिलक|बालगंगाधर तिलक]] और [[विपिनचंद्र पाल]] को 'लाल-बाल-पाल' के नाम से जाना जाता है। इन नेताओं ने सबसे पहले [[भारत]] की पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग उठाई।
==स्वामी दयानन्द का प्रभाव==
लाला लाजपत राय स्वामी दयानन्द से काफ़ी प्रभावित थे। पंजाब के 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना के लिए भी इन्होंने अथक प्रयास किये थे। [[दयानंद सरस्वती|स्वामी दयानन्द सरस्वती]] के साथ मिलकर इन्होंने [[आर्य समाज]] को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने 'दयानंद कॉलेज' के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया। डी.ए.वी. कॉलेज पहले [[लाहौर]] में स्थापित किया। लाला हंसराज के साथ 'दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों (डी.ए.वी.) का प्रसार किया।
==कांग्रेस के कार्यकर्ता==
==कांग्रेस के कार्यकर्ता==
हिसार में लालाजी ने [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेस]] की बैठकों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।  
लाला लाजपत राय जब [[हिसार]] में वकालत करते थे, तब उन्होंने [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेस]] की बैठकों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। [[1892]] में वे लाहौर चले गए। उनके [[हृदय]] में राष्ट्रीय भावना भी बचपन से ही अंकुरित हो उठी थी। [[चित्र:Lala-Lajpath-Rai.jpg|thumb|250px|left|लाला लाजपत राय की प्रतिमा]] [[1888]] के कांग्रेस के 'प्रयाग सम्मेलन' में वे मात्र 23 [[वर्ष]] की आयु में शामिल हुए थे। कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन' को सफल बनाने में लालाजी का ही हाथ था। वे 'हिसार नगर निगम' के सदस्य चुने गए थे और फिर बाद में सचिव भी चुन लिए गए।
*[[1892]] में वे लाहौर चले गए। उनके हृदय में राष्ट्रीय भावना भी बचपन से ही अंकुरित हो उठी थी।  
==समाज सेवी==
*[[1888]] के कांग्रेस के 'प्रयाग सम्मेलन' में वे मात्र 23 वर्ष की आयु में शामिल हुए थे। कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन' को सफल बनाने में आपका ही हाथ था।
लालाजी ने यों तो समाज सेवा का कार्य हिसार में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, जहाँ उन्होंने लाला चंदूलाल, पण्डित लखपतराय और लाला चूड़ामणि जैसे आर्य समाजी कार्यकर्ताओं के साथ सामाजिक हित की योजनाओं के कार्यान्वयन में योगदान किया, किन्तु लाहौर आने पर वे आर्य समाज के अतिरिक्त राजनैतिक आन्दोलन के साथ भी जुड़ गये। [[1888]] में वे प्रथम बार [[कांग्रेस]] के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे, जिसकी अध्यक्षता मि. जार्ज यूल ने की थी। [[1897]] और [[1899]] के देशव्यापी [[अकाल]] के समय लाजपत राय पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लालाजी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए। देश में आए [[भूकंप]], अकाल के समय [[ब्रिटिश शासन]] ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की। उनके व्यक्तित्व के बारे में तत्कालीन मशहूर [[अंग्रेज़]] लेखक विन्सन ने लिखा था-
*वे स्वभाव से ही मानव सेवी थे। [[1897]] और [[1899]] के देशव्यापी अकाल के समय वे पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लालाजी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की।  
*लाला लाजपतराय के व्यक्तित्व के बारे में तत्कालीन मशहूर अंग्रेज़ लेखक विन्सन ने लिखा था- "लाजपतराय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित ग़रीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी-इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।"
*1901-08 की अवधि में उन्हें फिर भूकम्प एवं अकाल पीड़ितों की मदद के लिए सामने आना पड़ा।
*वे हिसार नगर निगम के सदस्य चुने गए और बाद में सचिव भी चुन लिए गए। 
==स्वदेशी आन्दोलन==
उन्होंने देशभर में स्वदेशी वस्तुएँ अपनाने के लिए अभियान चलाया। अंग्रेज़ों ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो लालाजी ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेज़ों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। 3 मई 1907 को ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें रावलपिंडी में गिरफ्तार कर लिया। रिहा होने के बाद भी लालाजी आज़ादी के लिए लगातार संघर्ष करते रहे।
==निर्वासन==
[[गोपालकृष्ण गोखले]] के साथ एक प्रतिनिधिमंडल में लाला जी इंग्लैंड गए। वहाँ से [[जापान]] जाने में अपने देश का हित देखा तो चले गए। लाला जी कहीं भारतीय सैनिकों की भर्ती में व्यवधान न खड़ा कर दें, इसलिए सरकार ने उनको [[भारत]] आने की अनुमति नहीं दी।


1907 में उन्हें 6 माह का निर्वासन सहना पड़ा था। वे कई बार [[इंग्लैंड]] गए जहाँ उन्होंने भारत की स्थिति में सुधार के लिए अंग्रेज़ों से विचार-विमर्श किया। प्रथम विश्व युद्ध के समय लाला जी ने [[अमेरिका]] जाकर वहाँ के जनमत को अपने अनुकूल बनाने का भी सराहनीय प्रयास किया था। लालाजी ने अमेरिका पहुँचकर वहाँ के न्यूयॉर्क शहर में अक्टूबर 1917 में 'इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका' नाम से एक संगठन की स्थापना की। उन्होंने 'तरुण भारत' नामक एक देशप्रेम तथा नवजागृति से परिपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। अमेरिका में उन्होंने 'इंण्डियन होमरूल लीग' की स्थापना की और 'यंग इंण्डिया' नामक मासिक पत्र भी निकाला। इसी दौरान उन्होंने 'भारत का इंग्लैंड पर ऋण', 'भारत के लिए आत्मनिर्णय' आदि पुस्तकें लिखी, जो यूरोप की प्रमुख भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। लालाजी परदेश में रहकर भी अपने देश और देशवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे।
<blockquote>"लाजपत राय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित ग़रीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी। इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।"</blockquote>


फिर वह [[अमेरिका]] चले गए। वहां भारतीय स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी सरकार और जनता की सहानुभूति पाने के लिए प्रयत्न किए। अपने चार वर्ष के प्रवास काल में उन्होंने 'इंडियन इन्फार्मेशन' और 'इंडियन होम रूल' दो संस्थाएं सक्रियता से चलाई। लाला लाजपतराय ने जागरूकता और स्वतंत्रता के प्रयास किए। 'लोक सेवक मंडल' स्थापित करने के साथ वह राजनीति में आए।{{दाँयाबक्सा2|पाठ="लाजपतराय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित ग़रीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी- इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।"- '''विन्सन|विचारक=}}
[[1901]]-[[1908]] की अवधि में उन्हें फिर [[भूकम्प]] एवं [[अकाल]] पीड़ितों की मदद के लिए सामने आना पड़ा।
==हरिजन उद्धार==
====विदेश यात्रा====
1912 में उन्होंने एक 'अछूत कांफ्रेस' आयोजित की थी जिसका उद्देश्य हरिजनों के उद्धार के लिये ठोस कार्य करना था।
सन [[1906]] में लाला लाजपत राय, [[गोपालकृष्ण गोखले]] के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में [[इंग्लैड]] गये। यहाँ से वे [[अमरीका]] चले गये। उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ कीं और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों के समक्ष [[भारत]] की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहाँ के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन की जानकारी दी।<ref name="bb"/>
==लेखक के रूप में==
==कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश==
बंगाल की खाड़ी में हज़ारों मील दूर मांडले जेल में लाला लाजपत राय का किसी से संबंध या संपर्क नहीं था। अपने समय का उपयोग उन्होंने महान अशोक, श्रीकृष्ण<ref>{{cite web|url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3530|title=योगिराज श्रीकृष्ण|accessmonthday=[[3 अगस्त]]|accessyear=2010|authorlink=लाला लाजपतराय|format=एच.टी.एम.एल |publisher=आर्य प्रकाशन मंडल|language=[[हिन्दी]]}}</ref> और उनकी शिक्षा, छत्रपति शिवाजी जैसी पुस्तकें लिखने में किया। जब वे जेल से लौटे तो विकट समस्याएं सामने थीं। 1914 में विश्वयुद्ध छिड़ गया था और विदेशी सरकार ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरू कर दी।
लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों-[[लोकमान्य तिलक]] तथा [[विपिनचन्द्र पाल]] के साथ मिलकर [[कांग्रेस]] में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। [[1885]] में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने एक राजभवन संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण [[वर्ष]] में एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रतापूर्वक शासनों के सूत्रधारों से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट कराने का प्रयत्न करते थे। जब ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ था, जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी। [[1907]] में जब [[पंजाब]] के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह<ref>शहीद [[भगतसिंह]] के चाचा</ref> पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश [[बर्मा]] के मांडले नगर में नज़रबंद कर दिया गया, किन्तु देशवासियों द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी पुनः स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया।<ref name="bb"/>
==नायक==
====बंगाल विभाजन का विरोध====
लालाजी ने अमेरिका पहुँचकर वहाँ के न्यूयॉर्क शहर में अक्टूबर 1917 में इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका नाम से एक संगठन की स्थापना की। 20 फ़रवरी 1920 को जब भारत लौटे तो उस समय तक वे देशवासियों के लिए एक नायक बन चुके थे।  
लाला लाजपत राय ने देशभर में स्वदेशी वस्तुएँ अपनाने के लिए अभियान चलाया। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने जब [[1905]] में [[बंगाल का विभाजन]] कर दिया तो लालाजी ने [[सुरेंद्रनाथ बनर्जी]] और [[विपिनचंद्र पाल]] जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेज़ों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। [[3 मई]], [[1907]] को ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें रावलपिंडी में गिरफ़्तार कर लिया। रिहा होने के बाद भी लालाजी आज़ादी के लिए लगातार संघर्ष करते रहे।
==असहयोग आंदोलन में==
{{दाँयाबक्सा|पाठ="लाजपत राय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित ग़रीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी। इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।"- '''विन्सन|विचारक=}}
लालाजी ने 1920 में [[कोलकाता|कलकत्ता]] में कांग्रेस के एक विशेष सत्र में भाग लिया। वे [[महात्मा गाँधी|गांधी]] जी द्वारा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में कूद पड़े जो सैद्धांतिक तौर पर [[रॉलेक्ट एक्ट]] के विरोध में चलाया जा रहा था। सन 1920 में उन्होंने पंजाब में असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण 1921 में आपको जेल हुई। इसके बाद लाला जी ने 'लोक सेवक संघ' की स्थापना की। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल में आग की तरह फैल गया और जल्द ही वे 'पंजाब का शेर या पंजाब केसरी' जैसे नामों से पुकारे जाने लगे।
==पुन: राजनैतिक आंदोलन==
लालाजी को [[1907]] में 6 माह का निर्वासन सहना पड़ा था। वे कई बार [[इंग्लैंड]] गए, जहाँ उन्होंने [[भारत]] की स्थिति में सुधार के लिए अंग्रेज़ों से विचार-विमर्श किया था। [[1907]] के [[सूरत]] के प्रसिद्ध [[कांग्रेस अधिवेशन सूरत|कांग्रेस अधिवेशन]] में लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में [[गरम दल]] की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। जनभावना को देखते हुए ही अंग्रेज़ों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। निर्वासन के बाद वे स्वदेश आये और पुनः स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये। प्रथम विश्वयुद्ध ([[1914]]-[[1918]]) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुनः इंग्लैंड गये और देश की आज़ादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे [[जापान]] होते हुए [[अमरीका]] चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमरीकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ '[[इण्डियन होमरूल लीग]]' की स्थापना की तथा कुछ [[ग्रन्थ]] भी लिखे।
====लेखन कार्य====
उन्होंने 'तरुण भारत' नामक एक देशप्रेम तथा नवजागृति से परिपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे [[ब्रिटिश सरकार]] ने प्रतिबंधित कर दिया था। उन्होंने 'यंग इंण्डिया' नामक मासिक पत्र भी निकाला। इसी दौरान उन्होंने 'भारत का इंग्लैंड पर ऋण', 'भारत के लिए आत्मनिर्णय' आदि पुस्तकें लिखीं, जो [[यूरोप]] की प्रमुख भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। लालाजी परदेश में रहकर भी अपने देश और देशवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे थे। अपने चार [[वर्ष]] के प्रवास काल में उन्होंने 'इंडियन इन्फ़ॉर्मेशन' और 'इंडियन होमरूल' दो संस्थाएं सक्रियता से चलाईं। लाला लाजपत राय ने जागरूकता और स्वतंत्रता के प्रयास किए। 'लोक सेवक मंडल' स्थापित करने के साथ ही वह राजनीति में आए।
====असहयोग आन्दोलन में सहभागिता====
[[20 फ़रवरी]], [[1920]] को जब लाला लाजपत राय स्वदेश लौटे तो [[अमृतसर]] में '[[जलियांवाला बाग़|जलियांवाला बाग़ काण्ड]]' हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच [[महात्मा गाँधी]] ने '[[असहयोग आन्दोलन]]' आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये, जो सैद्धांतिक तौर पर [[रॉलेक्ट एक्ट]] के विरोध में चलाया जा रहा था। 1920 में ही उन्होंने [[पंजाब]] में असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण [[1921]] में आपको जेल हुई। इसके बाद लालाजी ने 'लोक सेवक संघ' की स्थापना की। उनके नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल की आग की तरह फैल गया और जल्द ही वे 'पंजाब का शेर' या 'पंजाब केसरी' जैसे नामों से पुकारे जाने लगे। बाद में वे [[कलकत्ता]] में आयोजित [[कांग्रेस]] के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थानों के बहिष्कार, विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतों का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, [[चरखा]] और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये।
==राजनीतिक मतभेद==
[[1924]] में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी [[स्वराज्य पार्टी]] में शामिल हो गये और 'केन्द्रीय धारा सभा'<ref>सेंट्रल असेम्बली</ref> के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका [[पण्डित मोतीलाल नेहरू]] से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने 'नेशनलिस्ट पार्टी' का गठन किया और पुनः असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाली [[मुस्लिम]] तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए [[स्वामी श्रद्धानन्द]] तथा [[मदनमोहन मालवीय]] के सहयोग से उन्होंने '[[हिन्दू महासभा]]' के कार्य को आगे बढ़ाया। [[1925]] में उन्हें 'हिन्दू महासभा' के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। ध्यातव्य है कि उन दिनों 'हिन्दू महासभा' का कोई स्पष्ट राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था और वह मुख्य रूप से [[हिन्दू]] संगठन, अछूतोद्धार, शुद्धि जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में ही दिलचस्पी लेती थी। इसी कारण कांग्रेस से उसे थोड़ा भी विरोध नहीं था। यद्यपि संकीर्ण दृष्टि से अनेक राजनैतिक कर्मी लालाजी के '[[हिन्दू महासभा]]' में रुचि लेने से नाराज़ भी हुए, किन्तु उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की और वे अपने कर्तव्यपालन में ही लगे रहे।<ref name="bb"/>
;हरिजन उद्धार
सन [[1912]] में लाला लाजपत राय ने एक 'अछूत कॉन्फ्रेंस' आयोजित की थी, जिसका उद्देश्य हरिजनों के उद्धार के लिये ठोस कार्य करना था।
=='अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' के अध्यक्ष==
द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद राजनीतिक आन्दोलनों में काफ़ी तेज़ी आ गई थी, जिसके फलस्वरूप श्रमिकों के आन्दोलनों को बल मिला। [[रूस]] में [[1918]] ई. की 'साम्यवादी क्रांति' ने भारतीय मज़दूर संघों को प्रोत्साहित किया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 'अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ' (आई.एल.ओ.) की स्थापना हुई। वी.पी. वाडिया ने [[भारत]] में आधुनिक श्रमिक संघ 'मद्रास श्रमिक संघ' की स्थापना की। उन्हीं के प्रयासों से [[1926]] ई. में 'श्रमिक संघ अधिनियम' पारित किया गया। 1920 ई. में स्थापित 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' (ए.आई.टी.यू.सी.) में तत्कालीन, लगभग 64 श्रमिक संघ शामिल हो गये। एन. एम. जोशी, लाला लाजपत राय एवं [[जोसेफ़ बैपटिस्टा]] के प्रयत्नों से [[1920]] ई. में स्थापित 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' पर वामपंथियों का प्रभाव बढ़ने लगा। 'एटक' (ए.आई.टी.यू.सी) के प्रथम अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे। यह सम्मेलन 1920 ई. में [[बम्बई]] में हुआ था। इसके उपाध्यक्ष जोसेफ़ बैप्टिस्टा तथा महामंत्री दीवान चमनलाल थे।
==ओजस्वी लेखक==
लाला लाजपत राय जीवनपर्यंत राष्ट्रीय हितों के लिए जूझते रहे। वे उच्च कोटि के राजनीतिक नेता ही नहीं थे, अपितु ओजस्वी लेखक और प्रभावशाली वक्ता भी थे। '[[बंगाल की खाड़ी]]' में हज़ारों मील दूर मांडले जेल में लाला लाजपत राय का किसी से भी किसी प्रकार का कोई संबंध या संपर्क नहीं था। अपने इस समय का उपयोग उन्होंने लेखन कार्य में किया। लालाजी ने [[श्रीकृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]], [[अशोक]], [[शिवाजी]], [[स्वामी दयानंद सरस्वती]], [[पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी|गुरुदत्त]], मेत्सिनी और गैरीबाल्डी की संक्षिप्त जीवनियाँ भी लिखीं। 'नेशनल एजुकेशन', 'अनहैप्पी इंडिया' और 'द स्टोरी ऑफ़ माई डिपोर्डेशन' उनकी अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। उन्होंने 'पंजाबी', 'वंदे मातरम्‌' (उर्दू) और 'द पीपुल' इन तीन [[समाचार पत्र|समाचार पत्रों]] की स्थापना करके इनके माध्यम से देश में 'स्वराज' का प्रचार किया। लाला लाजपत राय ने [[उर्दू]] दैनिक 'वंदे मातरम्‌' में लिखा था-
 
<blockquote>"मेरा मज़हब हक़परस्ती है, मेरी मिल्लत क़ौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा ज़मीर है, मेरी जायदाद मेरी क़लम है, मेरा मंदिर मेरा दिल है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं।"</blockquote>
 
जब वे जेल से लौटे तो विकट समस्याएँ सामने थीं। [[1914]] में विश्वयुद्ध छिड़ गया था और विदेशी सरकार ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरू कर दी थी।
[[चित्र:Lal-Bal-Pal.jpg|thumb|250px|लाला लाजपत राय, [[बालगंगाधर तिलक]] और [[बिपिनचंद्र पाल]]<br />Lala Lajpat, Bal Gangadhar Tilak and Bipinchandra Pal]]
[[चित्र:Lal-Bal-Pal.jpg|thumb|250px|लाला लाजपत राय, [[बालगंगाधर तिलक]] और [[बिपिनचंद्र पाल]]<br />Lala Lajpat, Bal Gangadhar Tilak and Bipinchandra Pal]]
==साइमन कमीशन==
====लाल-बाल-पाल====
{{मुख्य|साइमन कमीशन}}
लाला लाजपत राय, [[बाल गंगाधर तिलक|बालगंगाधर तिलक]] और [[विपिनचंद्र पाल]] को 'लाल-बाल-पाल' के नाम से जाना जाता है। इन नेताओं ने सबसे पहले [[भारत]] की पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग उठाई थी।
30 अक्टूबर, 1928 में उन्होंने लाहौर में 'साइमन कमीशन' के विरुद्ध आन्दोलन का भी नेतृत्व किया था और अंग्रेज़ों का दमन सहते हुए लाठी प्रहार से घायल हुए थे। इसी आघात के कारण उसी वर्ष उनका देहान्त हो गया। लालाजी ने अपना सर्वोच्च बलिदान साइमन कमीशन के समय दिया। इस घटना के सत्रह दिन बाद यानि 17 नवंबर 1928 को लाला जी ने आख़िरी सांस ली थी...
==निधन==
 
[[3 फ़रवरी]], [[1928]] को [[साइमन कमीशन]] [[भारत]] पहुँचा, जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। [[लाहौर]] में [[30 अक्टूबर]], [[1928]] को एक बड़ी घटना घटी, जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए। इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था-
तीन फ़रवरी 1928 को कमीशन भारत पहुँचा जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। लाहौर में 30 अक्टूबर 1928 को एक बड़ी घटना घटी जब लाला लाजपतराय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपतराय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए, इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा,
<blockquote>'''मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी।'''</blockquote>  
<blockquote>'''मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी।'''</blockquote>  
और इस चोट ने कितने ही [[ऊधमसिंह]] और [[भगतसिंह]] तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली।
और इस चोट ने कितने ही [[ऊधमसिंह]] और [[भगतसिंह]] तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली।


==निधन==
इस घटना के 17 दिन बाद यानि [[17 नवम्बर]], [[1928]] को लाला जी ने आख़िरी सांस ली और सदा के लिए अपनी [[आँख|आँखें]] मूँद लीं।
17 नवंबर 1928 को इन चोटों की वजह से उनका देहान्त हो गया।
==लालाजी की मृत्यु का प्रतिशोध==
==देश भक्तों की प्रतिज्ञा==
लालाजी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और [[चंद्रशेखर आज़ाद]], [[भगतसिंह]], [[राजगुरु]], [[सुखदेव]] व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया। इन जाँबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और [[17 दिसंबर]], [[1928]] को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई गई।
लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और [[चंद्रशेखर आज़ाद]], [[भगतसिंह]], [[राजगुरु]], [[सुखदेव]] व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया । इन जाँबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसंबर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफसर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया।
====गाँधीजी द्वारा श्रद्धांजलि====
लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फाँसी की सज़ा सुनाई गई।
लाला जी को श्रद्धांजलि देते हुए [[महात्मा गाँधी]] ने कहा था-
==श्रद्धांजलि==
*लाला जी को श्रद्धांजलि देते हुए [[महात्मा गांधी]] ने कहा था-
<blockquote>"भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लालाजी जैसे व्यक्तियों की मृत्यु नहीं होगी। वे अमर रहेंगे।" - महात्मा गाँधी</blockquote>
<blockquote>"भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लालाजी जैसे व्यक्तियों की मृत्यु नहीं होगी। वे अमर रहेंगे।" - महात्मा गाँधी</blockquote>
==लाजपत राय के प्रभावी वाक्य==
#'जो अमोघ और अधिकतम राष्ट्रीय शिक्षा लाभकारी राष्ट्रीय निवेश है, राष्ट्र की सुरक्षा के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितनी भौतिक प्रतिरक्षा के लिए सैन्य व्यवस्था।
#ऐसा कोई भी श्रम रूप अपयशकर नहीं है, जो सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो और समाज को जिसकी आवश्यकता हो।'
#'राजनीतिक प्रभुत्व आर्थिक शोषण की ओर ले जाता है। आर्थिक शोषण पीड़ा, बीमारी और गंदगी की ओर ले जाता है और ये चीजें धरती के विनीततम लोगों को सक्रिय या निष्क्रिय बगावत की ओर धकेलती हैं और जनता में आज़ादी की चाह पैदा करती हैं।'<ref>{{cite web |url= http://hindi.webdunia.com/inspiring-personality/%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A4%A4-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF-112111700028_1.htm|title= लाला लाजपतराय|accessmonthday= 16 मई|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= वेबदुनिया|language= हिन्दी}}</ref>
#'सब एक हो जाओ, अपना कर्तव्य जानो, अपने [[धर्म]] को पहचानो, तुम्हारा सबसे बड़ा धर्म तुम्हारा राष्ट्र है। राष्ट्र की मुक्ति के लिए, देश के उत्थान के लिए कमर कस लो, इसी में तुम्हारी भलाई है और इसी से समाज का उपकार हो सकता है।'


लालाजी ने एक बार देशवासियों से कहा था कि-


{{प्रचार}}
"मैंने जो मार्ग चुना है, वह ग़लत नहीं है। हमारी कामयाबी एकदम निश्चित है। मुझे जेल से जल्द छोड़ दिया जाएगा और बाहर आकर मैं फिर से अपने कार्य को आगे बढ़ाऊंगा, ऐसा मेरा विश्वास है। यदि ऐसा न हुआ तो मैं उसके पास जाऊंगा, जिसने हमें इस दुनिया में भेजा था। मुझे उसके पास जाने में किसी भी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं होगी।"
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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* [http://hindi.webdunia.com/news/news/national/0811/17/1081117010_1.htm वीर सेनानी थे लाला लाजपतराय]
* [http://hindi.webdunia.com/news/news/national/0811/17/1081117010_1.htm वीर सेनानी थे लाला लाजपतराय]
* [http://www.britannica.com/EBchecked/topic/328063/Lala-Lajpat-Rai Lala Lajpat Rai]
* [http://www.britannica.com/EBchecked/topic/328063/Lala-Lajpat-Rai Lala Lajpat Rai]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
{{लाला लाजपत राय}}{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
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05:59, 28 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

लाला लाजपत राय
पूरा नाम लाला लाजपत राय
अन्य नाम लालाजी
जन्म 28 जनवरी, 1865
जन्म भूमि फ़रीदकोट ज़िला, पंजाब
मृत्यु 17 नवंबर, 1928
मृत्यु स्थान लाहौर, अविभाजित भारत
अभिभावक लाला राधाकृष्ण अग्रवाल
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
पार्टी कांग्रेस
शिक्षा वक़ालत
विद्यालय राजकीय कॉलेज, लाहौर
जेल यात्रा 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान
विशेष योगदान पंजाब के 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' (डी.ए.वी. कॉलेज) की स्थापना
संबंधित लेख बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल
रचनाएँ 'पंजाब केसरी', 'यंग इंण्डिया', 'भारत का इंग्लैंड पर ऋण', 'भारत के लिए आत्मनिर्णय', 'तरुण भारत'।
अन्य जानकारी लालाजी ने अमरीका के न्यूयॉर्क शहर में अक्टूबर, 1917 में 'इंडियन होमरूल लीग ऑफ़ अमेरिका' नाम से एक संगठन की स्थापना की थी। 20 फ़रवरी, 1920 को जब वे भारत लौटे, उस समय तक वे देशवासियों के लिए एक नायक बन चुके थे।

लाला लाजपत राय (अंग्रेज़ी: Lala Lajpat Rai, जन्म: 28 जनवरी, 1865; मृत्यु: 17 नवंबर, 1928 ई., लाहौर, अविभाजित भारत) को भारत के महान् क्रांतिकारियों में गिना जाता है। आजीवन ब्रिटिश राजशक्ति का सामना करते हुए अपने प्राणों की परवाह न करने वाले लाला लाजपत राय को 'पंजाब केसरी' भी कहा जाता है। लालाजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के प्रमुख नेता तथा पूरे पंजाब के प्रतिनिधि थे। उन्हें 'पंजाब के शेर' की उपाधि भी मिली थी। उन्होंने क़ानून की शिक्षा प्राप्त कर हिसार में वकालत प्रारम्भ की थी, किन्तु बाद में स्वामी दयानंद के सम्पर्क में आने के कारण वे आर्य समाज के प्रबल समर्थक बन गये। यहीं से उनमें उग्र राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। लालाजी को पंजाब में वही स्थान प्राप्त है, जो महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक को प्राप्त है।

जन्म

लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 ई. को अपने ननिहाल के ग्राम ढुंढिके, ज़िला फ़रीदकोट, पंजाब में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण लुधियाना ज़िले के जगराँव क़स्बे के निवासी अग्रवाल वैश्य थे। लाला राधाकृष्ण अध्यापक थे। वे उर्दू तथा फ़ारसी के अच्छे जानकार थे। इसके साथ ही इस्लाम के मन्तव्यों में भी उनकी गहरी आस्था थी। वे मुसलमानी धार्मिक अनुष्ठानों का भी नियमित रूप से पालन करते थे। नमाज़ पढ़ना और रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना उनकी जीनवचर्या का अभिन्न अंग था, यथापि वे सच्चे धर्म-जिज्ञासु थे। अपने पुत्र लाला लाजपत राय के आर्य समाजी बन जाने पर उन्होंने वेद के दार्शनिक सिद्धान्त 'त्रेतवाद'[1] को समझने में भी रुचि दिखाई। पिता की इस जिज्ञासु प्रवृत्ति का प्रभाव उनके पुत्र लाजपत राय पर भी पड़ा था।[2] लाजपत राय के पिता वैश्य थे, किंतु उनकी माती सिक्ख परिवार से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। इनकी माता एक साधारण महिला थीं। वे एक हिन्दू नारी की तरह ही अपने पति की सेवा करती थीं।[3]

शिक्षा

लाजपत राय की शिक्षा पाँचवें वर्ष में आरम्भ हुई। सन 1880 में उन्होंने कलकत्ता तथा पंजाब विश्वविद्यालय से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में उत्तीर्ण की और आगे पढ़ने के लिए लाहौर आ गए। यहाँ वे गर्वमेंट कॉलेज में प्रविष्ट हुए और 1882 में एफ. ए. की परीक्षा तथा मुख़्तारी की परीक्षा साथ-साथ उत्तीर्ण की। यहीं वे आर्य समाज के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये।

वकालत

लाला लाजपत राय ने एक मुख़्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवास स्थल जगराँव में ही वकालत आरम्भ कर दी थी; किन्तु यह क़स्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके कार्य के बढ़ने की अधिक सम्भावना नहीं थी। अतः वे रोहतक चले गये। उन दिनों पंजाब प्रदेश में वर्तमान हरियाणा, हिमाचल तथा आज के पाकिस्तानी पंजाब का भी समावेश था। रोहतक में रहते हुए ही उन्होंने 1885 ई. में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1886 में वे हिसार आए।[4] एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया।

आर्य समाज में प्रवेश

सन 1882 के अंतिम दिनों में लाजपत राय पहली बार आर्य समाज के लाहौर के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित हुए। इस मार्मिक प्रसंग का वर्णन लालाजी ने अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है-

"उस दिन स्वर्गीय लाला मदनसिंह बी.ए.[5] का व्याख्यान था। उनको मुझसे बहुत प्रेम था। उन्होंने व्याख्यान देने से पहले समाज मंदिर की छत पर मुझे अपना लिखा व्याख्यान सुनाया और मेरी सम्मति पूछी। मैंने उस व्याख्यान को बहुत पसन्द किया। जब मैं छत से नीचे उतरा तो लाला साईंदासजी[6] ने मुझे पकड़ लिया और अलग ले जाकर कहने लगे कि- "हमने बहुत समय तक इन्तज़ार किया है कि तुम हमारे साथ मिल जाओ।" मैं उस घड़ी को भूल नहीं सकता। वह मेरे से बातें करते थे, मेरे मुँह की ओर देखते थे, तथा प्यार से पीठ पर हाथ फेरते थे। मैंने उनको जवाब दिया कि- "मैं तो उनके साथ हूँ।" मेरा इतना कहना था कि उन्होंने फौरन समाज के सभासद बनने का प्रार्थना-पत्र मंगवाया और मेरे सामने रख दिया। मैं दो-चार मिनट तक सोचता रहा, परन्तु उन्होंने कहा कि- "मैं तुम्हारे हस्ताक्षर लिए बिना तुम्हें जाने न दूँगा।" मैंने फौरन हस्ताक्षर कर दिए। उस समय उनके चेहरे पर प्रसन्नता की जो झलक थी, उसका वर्णन मैं नहीं कर सकता। ऐसा मालूम होता था कि उनको हिन्दुस्तान की बादशाहत मिल गयी है। उन्होंने एकदम पण्डित गुरुदत्त को बुलाया और सारा हाल सुनाकर मुझे उनके हवाले कर दिया। वह भी बहुत खुश हुए। लाला मदनसिंह के व्याख्यान की समाप्ति पर लाला साँईदास ने मुझे और पण्डित गुरुदत्त को मंच पर खड़ा कर किया। हम दोनों से व्याखान दिलवाये। लोग बहुत खुश हुए और खूब तालियाँ बजाई। इन तालियों ने मेरे दिल पर जादू का-सा असर किया। मैं प्रसन्नता और सफलता की मस्ती में झूमता हुआ अपने घर लौटा।" यह है लालाजी के आर्य समाज में प्रवेश की कथा[2]

डी.ए.वी. कॉलेज की स्थापना

लाला साँईदास आर्य समाज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। स्वामी श्रद्धानन्द[7] को आर्य समाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में स्वामी दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर में आर्य समाज की ओर से एक शोक सभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चित हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये, जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेज़ी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 में जब इस शिक्षण संस्थान की स्थापना हुई तो आर्य समाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपत राय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर में डी.ए.वी. कॉलेज, लाहौर के महान् स्तम्भ बने। पंजाब के 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना के लिए लाजपत राय ने अथक प्रयास किये थे। स्वामी दयानन्द के साथ मिलकर उन्होंने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया था। आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने 'दयानंद कॉलेज' के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया। डी.ए.वी. कॉलेज पहले लाहौर में स्थापित किया था। लाला हंसराज के साथ 'दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों' (डी.ए.वी.) का प्रसार भी लालाजी ने किया। उनकी आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद एवं उनके कार्यों के प्रति अनन्य निष्ठा थी। स्वामी जी के देहावसान के बाद उन्होंने आर्य समाज के कार्यों को पूरा करने के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया था। हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष, प्राचीन और आधुनिक शिक्षा पद्धति में समन्वय, हिन्दी भाषा की श्रेष्ठता और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आर-पार की लड़ाई आर्य समाज से मिले संस्कारों के ही परिणाम थे।

आदर्श

इटली के क्रांतिकारी ज्यूसेपे मेत्सिनी को लाजपत राय अपना आदर्श मानते थे। किसी पुस्तक में उन्होंने जब मेत्सिनी का भाषण पढ़ा तो उससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मेत्सिनी की जीवनी पढ़नी चाही। वह भारत में उपलब्ध नहीं थी। उन्होंने उसे इंग्लैण्ड से मंगवाया। मेत्सिनी द्वारा लिखी गई अभूतपूर्व पुस्तक ‘ड्यूटीज ऑफ़ मैन’ का लाला लाजपत राय ने उर्दू में अनुवाद किया। इस पांडुलिपि को उन्होंने लाहौर के एक पत्रकार को पढ़ने के लिए दिया। उस पत्रकार ने उसमें थोड़ा बहुत संशोधन किया और अपने नाम से छपवा दिया।[8]

कांग्रेस के कार्यकर्ता

लाला लाजपत राय जब हिसार में वकालत करते थे, तब उन्होंने कांग्रेस की बैठकों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। 1892 में वे लाहौर चले गए। उनके हृदय में राष्ट्रीय भावना भी बचपन से ही अंकुरित हो उठी थी।

लाला लाजपत राय की प्रतिमा

1888 के कांग्रेस के 'प्रयाग सम्मेलन' में वे मात्र 23 वर्ष की आयु में शामिल हुए थे। कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन' को सफल बनाने में लालाजी का ही हाथ था। वे 'हिसार नगर निगम' के सदस्य चुने गए थे और फिर बाद में सचिव भी चुन लिए गए।

समाज सेवी

लालाजी ने यों तो समाज सेवा का कार्य हिसार में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, जहाँ उन्होंने लाला चंदूलाल, पण्डित लखपतराय और लाला चूड़ामणि जैसे आर्य समाजी कार्यकर्ताओं के साथ सामाजिक हित की योजनाओं के कार्यान्वयन में योगदान किया, किन्तु लाहौर आने पर वे आर्य समाज के अतिरिक्त राजनैतिक आन्दोलन के साथ भी जुड़ गये। 1888 में वे प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे, जिसकी अध्यक्षता मि. जार्ज यूल ने की थी। 1897 और 1899 के देशव्यापी अकाल के समय लाजपत राय पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लालाजी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की। उनके व्यक्तित्व के बारे में तत्कालीन मशहूर अंग्रेज़ लेखक विन्सन ने लिखा था-

"लाजपत राय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित ग़रीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी। इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।"

1901-1908 की अवधि में उन्हें फिर भूकम्प एवं अकाल पीड़ितों की मदद के लिए सामने आना पड़ा।

विदेश यात्रा

सन 1906 में लाला लाजपत राय, गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में इंग्लैड गये। यहाँ से वे अमरीका चले गये। उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ कीं और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों के समक्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहाँ के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन की जानकारी दी।[2]

कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश

लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों-लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने एक राजभवन संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्ष में एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रतापूर्वक शासनों के सूत्रधारों से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट कराने का प्रयत्न करते थे। जब ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ था, जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी। 1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह[9] पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नज़रबंद कर दिया गया, किन्तु देशवासियों द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी पुनः स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया।[2]

बंगाल विभाजन का विरोध

लाला लाजपत राय ने देशभर में स्वदेशी वस्तुएँ अपनाने के लिए अभियान चलाया। अंग्रेज़ों ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो लालाजी ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेज़ों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। 3 मई, 1907 को ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें रावलपिंडी में गिरफ़्तार कर लिया। रिहा होने के बाद भी लालाजी आज़ादी के लिए लगातार संघर्ष करते रहे।

"लाजपत राय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित ग़रीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी। इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।"- विन्सन

पुन: राजनैतिक आंदोलन

लालाजी को 1907 में 6 माह का निर्वासन सहना पड़ा था। वे कई बार इंग्लैंड गए, जहाँ उन्होंने भारत की स्थिति में सुधार के लिए अंग्रेज़ों से विचार-विमर्श किया था। 1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। जनभावना को देखते हुए ही अंग्रेज़ों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। निर्वासन के बाद वे स्वदेश आये और पुनः स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुनः इंग्लैंड गये और देश की आज़ादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमरीका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमरीकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ 'इण्डियन होमरूल लीग' की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे।

लेखन कार्य

उन्होंने 'तरुण भारत' नामक एक देशप्रेम तथा नवजागृति से परिपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। उन्होंने 'यंग इंण्डिया' नामक मासिक पत्र भी निकाला। इसी दौरान उन्होंने 'भारत का इंग्लैंड पर ऋण', 'भारत के लिए आत्मनिर्णय' आदि पुस्तकें लिखीं, जो यूरोप की प्रमुख भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। लालाजी परदेश में रहकर भी अपने देश और देशवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे थे। अपने चार वर्ष के प्रवास काल में उन्होंने 'इंडियन इन्फ़ॉर्मेशन' और 'इंडियन होमरूल' दो संस्थाएं सक्रियता से चलाईं। लाला लाजपत राय ने जागरूकता और स्वतंत्रता के प्रयास किए। 'लोक सेवक मंडल' स्थापित करने के साथ ही वह राजनीति में आए।

असहयोग आन्दोलन में सहभागिता

20 फ़रवरी, 1920 को जब लाला लाजपत राय स्वदेश लौटे तो अमृतसर में 'जलियांवाला बाग़ काण्ड' हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच महात्मा गाँधी ने 'असहयोग आन्दोलन' आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये, जो सैद्धांतिक तौर पर रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में चलाया जा रहा था। 1920 में ही उन्होंने पंजाब में असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण 1921 में आपको जेल हुई। इसके बाद लालाजी ने 'लोक सेवक संघ' की स्थापना की। उनके नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल की आग की तरह फैल गया और जल्द ही वे 'पंजाब का शेर' या 'पंजाब केसरी' जैसे नामों से पुकारे जाने लगे। बाद में वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थानों के बहिष्कार, विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतों का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, चरखा और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये।

राजनीतिक मतभेद

1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और 'केन्द्रीय धारा सभा'[10] के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पण्डित मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने 'नेशनलिस्ट पार्टी' का गठन किया और पुनः असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने 'हिन्दू महासभा' के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 में उन्हें 'हिन्दू महासभा' के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। ध्यातव्य है कि उन दिनों 'हिन्दू महासभा' का कोई स्पष्ट राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था और वह मुख्य रूप से हिन्दू संगठन, अछूतोद्धार, शुद्धि जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में ही दिलचस्पी लेती थी। इसी कारण कांग्रेस से उसे थोड़ा भी विरोध नहीं था। यद्यपि संकीर्ण दृष्टि से अनेक राजनैतिक कर्मी लालाजी के 'हिन्दू महासभा' में रुचि लेने से नाराज़ भी हुए, किन्तु उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की और वे अपने कर्तव्यपालन में ही लगे रहे।[2]

हरिजन उद्धार

सन 1912 में लाला लाजपत राय ने एक 'अछूत कॉन्फ्रेंस' आयोजित की थी, जिसका उद्देश्य हरिजनों के उद्धार के लिये ठोस कार्य करना था।

'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' के अध्यक्ष

द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद राजनीतिक आन्दोलनों में काफ़ी तेज़ी आ गई थी, जिसके फलस्वरूप श्रमिकों के आन्दोलनों को बल मिला। रूस में 1918 ई. की 'साम्यवादी क्रांति' ने भारतीय मज़दूर संघों को प्रोत्साहित किया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 'अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ' (आई.एल.ओ.) की स्थापना हुई। वी.पी. वाडिया ने भारत में आधुनिक श्रमिक संघ 'मद्रास श्रमिक संघ' की स्थापना की। उन्हीं के प्रयासों से 1926 ई. में 'श्रमिक संघ अधिनियम' पारित किया गया। 1920 ई. में स्थापित 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' (ए.आई.टी.यू.सी.) में तत्कालीन, लगभग 64 श्रमिक संघ शामिल हो गये। एन. एम. जोशी, लाला लाजपत राय एवं जोसेफ़ बैपटिस्टा के प्रयत्नों से 1920 ई. में स्थापित 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस' पर वामपंथियों का प्रभाव बढ़ने लगा। 'एटक' (ए.आई.टी.यू.सी) के प्रथम अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे। यह सम्मेलन 1920 ई. में बम्बई में हुआ था। इसके उपाध्यक्ष जोसेफ़ बैप्टिस्टा तथा महामंत्री दीवान चमनलाल थे।

ओजस्वी लेखक

लाला लाजपत राय जीवनपर्यंत राष्ट्रीय हितों के लिए जूझते रहे। वे उच्च कोटि के राजनीतिक नेता ही नहीं थे, अपितु ओजस्वी लेखक और प्रभावशाली वक्ता भी थे। 'बंगाल की खाड़ी' में हज़ारों मील दूर मांडले जेल में लाला लाजपत राय का किसी से भी किसी प्रकार का कोई संबंध या संपर्क नहीं था। अपने इस समय का उपयोग उन्होंने लेखन कार्य में किया। लालाजी ने भगवान श्रीकृष्ण, अशोक, शिवाजी, स्वामी दयानंद सरस्वती, गुरुदत्त, मेत्सिनी और गैरीबाल्डी की संक्षिप्त जीवनियाँ भी लिखीं। 'नेशनल एजुकेशन', 'अनहैप्पी इंडिया' और 'द स्टोरी ऑफ़ माई डिपोर्डेशन' उनकी अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। उन्होंने 'पंजाबी', 'वंदे मातरम्‌' (उर्दू) और 'द पीपुल' इन तीन समाचार पत्रों की स्थापना करके इनके माध्यम से देश में 'स्वराज' का प्रचार किया। लाला लाजपत राय ने उर्दू दैनिक 'वंदे मातरम्‌' में लिखा था-

"मेरा मज़हब हक़परस्ती है, मेरी मिल्लत क़ौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा ज़मीर है, मेरी जायदाद मेरी क़लम है, मेरा मंदिर मेरा दिल है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं।"

जब वे जेल से लौटे तो विकट समस्याएँ सामने थीं। 1914 में विश्वयुद्ध छिड़ गया था और विदेशी सरकार ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरू कर दी थी।

लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक और बिपिनचंद्र पाल
Lala Lajpat, Bal Gangadhar Tilak and Bipinchandra Pal

लाल-बाल-पाल

लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल को 'लाल-बाल-पाल' के नाम से जाना जाता है। इन नेताओं ने सबसे पहले भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग उठाई थी।

निधन

3 फ़रवरी, 1928 को साइमन कमीशन भारत पहुँचा, जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। लाहौर में 30 अक्टूबर, 1928 को एक बड़ी घटना घटी, जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए। इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था-

मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी।

और इस चोट ने कितने ही ऊधमसिंह और भगतसिंह तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली।

इस घटना के 17 दिन बाद यानि 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी ने आख़िरी सांस ली और सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

लालाजी की मृत्यु का प्रतिशोध

लालाजी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया। इन जाँबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसंबर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई गई।

गाँधीजी द्वारा श्रद्धांजलि

लाला जी को श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने कहा था-

"भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लालाजी जैसे व्यक्तियों की मृत्यु नहीं होगी। वे अमर रहेंगे।" - महात्मा गाँधी

लाजपत राय के प्रभावी वाक्य

  1. 'जो अमोघ और अधिकतम राष्ट्रीय शिक्षा लाभकारी राष्ट्रीय निवेश है, राष्ट्र की सुरक्षा के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितनी भौतिक प्रतिरक्षा के लिए सैन्य व्यवस्था।
  2. ऐसा कोई भी श्रम रूप अपयशकर नहीं है, जो सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो और समाज को जिसकी आवश्यकता हो।'
  3. 'राजनीतिक प्रभुत्व आर्थिक शोषण की ओर ले जाता है। आर्थिक शोषण पीड़ा, बीमारी और गंदगी की ओर ले जाता है और ये चीजें धरती के विनीततम लोगों को सक्रिय या निष्क्रिय बगावत की ओर धकेलती हैं और जनता में आज़ादी की चाह पैदा करती हैं।'[11]
  4. 'सब एक हो जाओ, अपना कर्तव्य जानो, अपने धर्म को पहचानो, तुम्हारा सबसे बड़ा धर्म तुम्हारा राष्ट्र है। राष्ट्र की मुक्ति के लिए, देश के उत्थान के लिए कमर कस लो, इसी में तुम्हारी भलाई है और इसी से समाज का उपकार हो सकता है।'

लालाजी ने एक बार देशवासियों से कहा था कि-

"मैंने जो मार्ग चुना है, वह ग़लत नहीं है। हमारी कामयाबी एकदम निश्चित है। मुझे जेल से जल्द छोड़ दिया जाएगा और बाहर आकर मैं फिर से अपने कार्य को आगे बढ़ाऊंगा, ऐसा मेरा विश्वास है। यदि ऐसा न हुआ तो मैं उसके पास जाऊंगा, जिसने हमें इस दुनिया में भेजा था। मुझे उसके पास जाने में किसी भी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं होगी।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ईश्वर, जीव तथा प्रकृति का अनादित्य।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 योगीराज श्रीकृष्ण (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 17 मई, 2015।
  3. लाला लाजपतराय (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) मनोज पब्लिकेशन। अभिगमन तिथि: 1अगस्त, 2010।
  4. लाला लाजपतराय की आत्मकथा ग्रंथमाला, में प्रकाशित 1932
  5. डी.ए.वी. कॉलेज के संस्थापकों में प्रमुख।
  6. आर्य समाज लाहौर के प्रथम मंत्री।
  7. तत्कालीन लाला मुंशीराम
  8. लाला लाजपत राय (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 16 मई, 2015।
  9. शहीद भगतसिंह के चाचा
  10. सेंट्रल असेम्बली
  11. लाला लाजपतराय (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 16 मई, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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