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| __TOC__ {{चयनित लेख}}{{सुरक्षा}}
| | {{शिवाजी विषय सूची}}{{चयनित लेख}}{{सुरक्षा}} |
| {{सूचना बक्सा ऐतिहासिक पात्र | | {{सूचना बक्सा ऐतिहासिक शासक |
| |चित्र=Chatrapati-Shivaji.jpg | | |चित्र=Chatrapati-Shivaji.jpg |
| |चित्र का नाम=शिवाजी | | |चित्र का नाम=शिवाजी |
| |पूरा नाम=शिवाजी राजे भोंसले | | |पूरा नाम=शिवाजी राजे भोंसले |
| |अन्य नाम= | | |अन्य नाम=छत्रपति शिवाजी महाराज |
| |जन्म=[[19 फ़रवरी]], 1630 | | |जन्म=[[19 फ़रवरी]], 1630 |
| |जन्म भूमि=[[शिवनेरी]] महाराष्ट्र | | |जन्म भूमि=[[शिवनेरी]], [[महाराष्ट्र]] |
| |पिता/माता=[[शाहजी भोंसले]], [[जीजाबाई]] | | |मृत्यु तिथि=[[3 अप्रैल]], 1680 |
| | |मृत्यु स्थान=दुर्ग [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] |
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| ||पति/पत्नी=साइबाईं निम्बालकर | | ||पति/पत्नी=साइबाईं निम्बालकर |
| |संतान=सम्भाजी | | |संतान=[[सम्भाजी]] |
| |उपाधि=छत्रपति | | |उपाधि=छत्रपति |
| |शासन=[[महाराष्ट्र]] | | |शासन काल=1642 - 1680 ई. |
| |धार्मिक मान्यता=हिन्दू | | |शासन अवधि=38 वर्ष |
| | |धार्मिक मान्यता=[[हिन्दू धर्म]] |
| |राज्याभिषेक=[[6 जून]], 1674 ई. | | |राज्याभिषेक=[[6 जून]], 1674 ई. |
| |युद्ध=मुग़लों के विरुद्ध अनेक युद्ध हुए | | |युद्ध=[[मुग़ल|मुग़लों]] के विरुद्ध अनेक युद्ध हुए |
| |प्रसिद्धि= | | |प्रसिद्धि= |
| |निर्माण=अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार | | |निर्माण=अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार |
| |सुधार-परिवर्तन=हिन्दू राज्य की स्थापना | | |सुधार-परिवर्तन=हिन्दू राज्य की स्थापना |
| |राजधानी=दुर्ग राजगढ़ | | |राजधानी=दुर्ग राजगढ़ |
| |पूर्वाधिकारी=शाहजी भोंसले | | |पूर्वाधिकारी=[[शाहजी भोंसले]] |
| | |उत्तराधिकारी=[[सम्भाजी]] |
| |राजघराना=[[मराठा साम्राज्य]] | | |राजघराना=[[मराठा साम्राज्य]] |
| |वंश=भोंसले | | |वंश=भोंसले |
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| |मृत्यु तिथि=[[3 अप्रैल]], 1680
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| |मृत्यु स्थान=दुर्ग रायगढ़
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| |संबंधित लेख=[[ताना जी]], [[महाराष्ट्र]], [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]], [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]], [[पूना]] | | |संबंधित लेख=[[ताना जी]], [[महाराष्ट्र]], [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]], [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]], [[पूना]] |
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| |अन्य जानकारी="शिव सूत्र" (गुरिल्ला युद्ध) का आरम्भ किया। | | |अन्य जानकारी="शिव सूत्र" ([[गुरिल्ला युद्ध]]) का आरम्भ किया। |
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| }} | | }} |
| *छत्रपति शिवाजी महाराज का पूरा नाम '''शिवाजी राजे भोंसले''' था। शिवाजी का जन्म [[19 फ़रवरी]], 1630 को [[शिवनेरी]], [[महाराष्ट्र]] राज्य में हुआ। इनके पिताजी का नाम [[शाहजी भोंसले]] और माताजी का नाम [[जीजाबाई]] था।
| | '''शिवाजी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Shivaji'', पूरा नाम: 'शिवाजी राजे भोंसले', जन्म: [[19 फ़रवरी]], 1630 ई.; मृत्यु: [[3 अप्रैल]], 1680 ई.) [[पश्चिम भारत|पश्चिमी भारत]] के [[मराठा साम्राज्य]] के संस्थापक थे। शिवाजी के [[पिता]] का नाम [[शाहजी भोंसले]] और [[माता]] का नाम [[जीजाबाई]] था। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। शिवाजी ने अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार करवाया। उनके निर्देशानुसार सन 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया, जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। |
| *शिवाजी [[भारत]] में [[मराठा साम्राज्य]] के संस्थापक थे। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है।
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| *शिवाजी ने अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार करवाया। शिवाजी के निर्देशानुसार सन 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ।
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| ==जीवन परिचय== | | ==जीवन परिचय== |
| इनके पिताजी शाहजी भोंसले ने शिवाजी को जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी जीजाबाई को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव तथा जीजाबाई के [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]] की देखरेख में हुआ। माता जीजाबाई तथा गुरु रामदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान के प्रशिक्षण पर अधिक बल न देकर शिवाजी के मष्तिष्क में यह भावना भर दी थी कि देश, समाज, गौ तथा ब्राह्मणों को मुसलमानों के उत्पीड़न से मुक्त करना उनका परम कर्तव्य है। शिवाजी स्थानीय लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में पूना के निकट तीरण के दुर्ग पर अधिकार करके अपना जीवन-क्रम आरम्भ किया। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह '''साइबाईं निम्बालकर''' के साथ सन 1641 में [[बंगलौर]] में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया। | | {{main|शिवाजी का परिचय}} |
| {{top}}
| | इनके पिताजी शाहजी भोंसले ने शिवाजी के जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी [[जीजाबाई]] को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई [[यादव वंश]] से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक [[दादाजी कोंडदेव]], जीजाबाई तथा [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]] की देखरेख में हुआ। |
| ==आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ== | | ==आरंभिक जीवन== |
| | | {{main|शिवाजी का आरम्भिक जीवन}} |
| शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय [[भारत]] पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में [[बीजापुर]] और [[गोलकुंडा]] में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के जोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिंदूओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिंदू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमज़ोर सीमा चौकियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिंदूओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ [[अफ़ज़ल ख़ाँ]] के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफ़ज़ल ख़ाँ की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेख़बर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था। | | शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय [[भारत]] पर मुस्लिम शासन था। [[उत्तर भारत|उत्तरी भारत]] में [[मुग़ल|मुग़लों]] तथा दक्षिण में [[बीजापुर]] और [[गोलकुंडा]] में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के ज़ोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने [[मुस्लिम|मुस्लिमों]] द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि [[हिन्दू|हिन्दुओं]] की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिन्दू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। |
| [[चित्र:Chatrapati Shivaji-2.jpg|200px|left]] | | [[चित्र:Chatrapati Shivaji-2.jpg|200px|left]] |
| शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह [[औरंगज़ेब]] ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औरंगज़ेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति [[जयसिंह|मिर्जा राजा जयसिंह]] के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फ़ौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया और उन्हें वायदा करना पड़ा की वह मुग़लों के अधीन जागीरदारी स्वीकार करने के लिए अपने पुत्र के साथ [[आगरा]] में औरंगज़ेब के दरबार में हाजिर होंगे। अपने घर से सैंकड़ों मील दूर आगरा में शिवाजी और उनके पुत्र को नज़रबंद कर दिये गया, जहाँ वह निरंतर मृत्युदंड के भय में रहे। | | ==शिवाजी और जयसिंह== |
| {{top}} | | {{main|शिवाजी और जयसिंह}} |
| ==राजनीतिक स्थिति==
| | शिवाजी को कुचलने के लिए [[राजा जयसिंह]] ने [[बीजापुर]] के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के क़िले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में [[24 अप्रैल]], 1665 ई. को 'व्रजगढ़' के क़िले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के क़िले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक 'मुरार जी बाजी' मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गये और [[22 जून]], 1665 ई. को '[[पुरन्दर की सन्धि]]' सम्पन्न हुई। |
| दक्षिण की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति भी एक सशक्त मराठा आंदोलन के उदय में सहायक हुई। अहमद नगर राज्य के बिखराव और [[अकबर]] की मृत्यु के पश्चात दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार की धीमी गति ने महत्त्वाकांक्षी सैन्य अभियानों को प्रोत्साहित किया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय तक मराठे अनुभवी लड़ाके जाति के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। दक्षिणी सल्तनतों एवं मुग़लों, दोनों ही पक्षों की ओर से वे सफलतापूर्वक युद्ध कर चुके थे। उनके पास आवश्यक सैन्य प्रशिक्षण और अनुभव तो था ही, जब समय आया तो उन्होंने इसका उपयोग राज्य की स्थापना के लिए किया। यह कहना तो कठिन है कि मराठों के उत्थान में उपर्युक्त तथ्य कहाँ तक उत्तरदायी थे और इसमें अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की दृढ़ इच्छा शक्ति का कितना हाथ था। फिर भी, यदि शिवाजी की नीतियों के सामाजिक पहलुओं और उनका साथ देने वाले लोगों की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो स्थिति बहुत सीमा तक स्पष्ट हो सकती है।
| | ==आगरा यात्रा== |
| | {{main|शिवाजी की आगरा यात्रा}} |
| | अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर शिवाजी [[आगरा]] के दरबार में औरंगज़ेब से मिलने के लिए तैयार हो गये। वह [[9 मई]], 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 [[मराठा]] सैनिकों के साथ [[मुग़ल]] दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगज़ेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को 'विश्वासघाती' कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगज़ेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को 'जयपुर भवन' में क़ैद कर दिया। वहाँ से शिवाजी [[13 अगस्त]], 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फ़रार हो गये और [[22 सितम्बर]], 1666 ई. को [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] पहुँचे। कुछ दिन बाद शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को पत्र लिखकर कहा कि "यदि सम्राट उसे (शिवाजी) को क्षमा कर दें तो वह अपने पुत्र शम्भाजी को पुनः मुग़ल सेवा में भेज सकते हैं।" औरंगज़ेब ने शिवाजी की इन शर्तों को स्वीकार कर उसे 'राजा' की उपाधि प्रदान की। |
| | ==राज्याभिषेक== |
| | {{main|शिवाजी का राज्याभिषेक}} |
| | सन 1674 तक [[शिवाजी]] ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था, जो [[पुरन्दर की संधि]] के अन्तर्गत उन्हें [[मुग़ल|मुग़लों]] को देने पड़े थे। पश्चिमी [[महाराष्ट्र]] में स्वतंत्र [[हिन्दू]] राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] ने उनका घोर विरोध किया। शिवाजी के निजी सचिव बालाजी आव जी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने ने [[काशी]] में गंगाभ नामक एक [[ब्राह्मण]] के पास तीन दूतों को भेजा, किन्तु गंगाभ ने प्रस्ताव ठुकरा दिया, क्योंकि शिवाजी [[क्षत्रिय]] नहीं थे। उसने कहा कि क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा। बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध [[मेवाड़]] के [[सिसोदिया वंश]] से समबंद्ध के प्रमाण भेजे, जिससे संतुष्ट होकर वह [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] आया ओर उसने राज्याभिषेक किया। |
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| ====किसानों के साथ सीधा संबंध====
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| [[चित्र:Shivaji-Maharaj-With-Jijamata.jpg|शिवाजी महाराज की प्रतिमा, [[जीजाबाई|जीजामाता]] के साथ|thumb|220px]]
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| इतिहासकार बड़े उत्साहपूर्वक शिवाजी के क्रांतिकारी भू-कर सुधारों की बात करते हैं, जिन्होंने उदीयमान राज्य को एक विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। रानाडे लिखते हैं, <blockquote>'शिवाजी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे किसी भी नागरिक या सैन्य प्रमुख को जागीरें नहीं देंगे। भारत में केंद्र विमुख एवं बिखराव की प्रवृत्तियाँ सदा ही बलवान रही हैं, और जागीरें देने की प्रथा, जागीरदारों को भू-कर से प्राप्त धन द्वारा अलग से अपनी सेना रखने की अनुमति देने से यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सुव्यवस्थित शासन लगभग असंभव हो जाता है––अपने शासन काल में शिवाजी ने केवल मंदिरों को एवं दान धर्म की दिशा में ही भूमि प्रदान की थी।'</blockquote> जदुनाथ सरकार ने भी उपर्युक्त मत का ही समर्थन किया है और कहा है कि शिवाजी किसानों को अपनी ओर इसीलिए कर सके कि उन्होंने ज़मीदारी और जागीरदारी प्रथा को बंद किया और राजस्व प्रशासन के माध्यम से किसानों के साथ सीधा संबंध स्थापित किया।
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| [[चित्र:Sinhagarh-Fort-Pune.jpg|thumb|[[सिंहगढ़ क़िला]], [[पुणे]]|250px|left]]
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| किंतु सभासद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि शिवाजी के राजस्व प्रशासन के संबंध में ऐसे बड़े-बड़े दावे करना निराधार है और इसे जल्दबाजी में बनाई गई धारणा ही कहा जाएगा। उनका कहना है कि शिवाजी ने देसाईयों के दुर्गों और सुदृढ़ जमाव को नष्ट किया और जहाँ कहीं मज़बूत क़िले थे वहाँ अपनी दुर्ग-सेना रखी। उनका यह भी कहना है कि शिवाजी ने मिरासदारों द्वारा मनमाने ढंग से वसूल किए जाने वाले उपहारों या हज़ारे को बंद करवाया और नक़द एवं अनाज के रूप में गाँवों से जमींदारों का हिस्सा निश्चित किया। साथ ही उन्होंने देशमुखों, देशकुलकर्णियों, पाटिलों और कुलकर्णियों के अधिकार एवं अनुलाभ भी तय किए, इन्हीं कथनों से प्रेरित होकर आधुनिक इतिहासकार कहते हैं कि शिवाजी ने भूमि प्रदान करने की प्रथा को समाप्त कर दिया था। यह सत्य है कि सभासद ऐसी संभावना की बात करता है किंतु कदाचित यह शिवाजी या स्वयं सभासद का अपेक्षित आदर्श रहा हो, क्योंकि वह स्वयं एकाधिक स्थानों पर शिवाजी द्वारा भूमि प्रदान किए जाने की बात कहता है। यही लक्ष्य एक अन्य तत्कालीन रचना आज्ञापत्र में ध्वनित होता है, जिसमें कहा गया है कि वर्तमान वतन वैसे ही चलते रहेंगे और उनके पास जो भी है उसमें थोड़ी भी वृद्धि नहीं की जाएगी और न ही उसे रत्ती भर कम किया जाएगा। इसमें यह चेतावनी भी दी गई है कि 'किसी वृत्ति (वतन) का प्रत्यादान करना पाप है---भले ही वह कितनी ही छोटी क्यों न हो।' उचित संदर्भ में रखे जाने पर सभासद के कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। पाटिल, कुलकर्णी और देशमुख राजस्व एकत्र करते थे और उसमें से राज्य को अपनी इच्छानुसार अंश देते थे जो प्रायः बहुत कम होता था। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी स्थिति अत्यंत सुदृढ़ कर ली, दुर्ग इत्यादि बनवा लिए, और प्यादे एवं बंदूकची लेकर चलने लगे। वे सरकारी राजस्व अधिकारी की परवाह नहीं करते थे और यदि वह अधिक राजस्व की माँग करता था तो लड़ाई-झगड़े पर उतर आते थे। यह वर्ग विद्रोही हो उठा था। इन्हीं की गढ़ियों और दुर्गों पर शिवाजी ने धावा बोला था।
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| [[चित्र:Statue-Shivaji-Pratapgarh-Fort-2.jpg|शिवाजी महाराज की प्रतिमा, [[महाराष्ट्र]]|thumb|250px]]
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| ====राजस्व वसूली==== | | <div align="center">'''[[शिवाजी का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div> |
| स्पष्ट है कि शिवाजी शांतिप्रिय ज़मीदारों के नहीं अपितु केवल उन्हीं के विरुद्ध थे जो उनके राजनीतिक हितों के लिए गंभीर खतरा बन गए थे। स्पष्ट है कि वे राजस्व वसूली की संपूर्ण मशीनरी को समाप्त नहीं कर सकते थे। इसलिए ऐसा नहीं है कि इसके स्थान पर नई व्यवस्था लाने के लिए उनके पास प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं थे। वे केवल इतना चाहते थे कि राजस्व की गड़बड़ी दूर हो और राज्य को उचित अंश मिले। यह भी स्पष्ट है कि शिवाजी को बड़े देशमुखों के विरोध का सामना करना पड़ा। ये देशमुख स्वतंत्र मराठा राज्य के पक्ष में नहीं थे और बीजापुर के सांमत ही बने रहना चाहते थे जिससे अपने वतनों के प्रशासन में अधिक स्वायत्त रह सकें। यही शिवाजी का धर्मसंकट था। देशमुखों के समर्थन के बिना वे स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना नहीं कर सकते थे। अतः शिवाजी ने इस नाज़ुक राजनीतिक स्थिति का सामना करने के लिए भय और प्रीति की नीति अपनाई। कुछ बड़े देशमुखों को तो उन्होंने सैन्य शक्ति से पराजित किया और कुछ के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। बड़े देशमुखों के साथ शिवाजी की इस अनोखी लड़ाई में छोटे देशमुखों ने शिवाजी का साथ दिया। बड़े देशमुख छोटे देशमुखों को सताते थे और ज़मीन की बंदोबस्ती और कृषि को बढ़ावा देने की शिवाजी की नीति छोटे देशमुखों के लिए हितकर थी। संपूर्ण दक्षिण पर शिवाजी के सरदेशमुखी के दावे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त मोरे, शिर्के और निंबालकर देशमुखों के परिवारों में विवाह संबंध करके भी शिवाजी ने अपना सामाजिक रुतबा बढ़ाया। इससे मराठा समाज में उनकी सम्मानजनक स्वीकृति सरल हो गई।
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| {{top}}
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| ==मुग़लों और दक्षिणी राज्यों के साथ संबंध==
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| यद्यपि मराठे पहले ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के प्रति सचेत होने लगे थे फिर भी उन्हें संगठित करने और उनमें एक राजनीतिक लक्ष्य के प्रति चेतना जगाने का कार्य शिवाजी ने ही किया। शिवाजी की प्रगति का लेखा मराठों के उत्थान को प्रतिबिंबित करता है। 1645-47 के बीच 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने [[पूना]] के निकट अनेक पहाड़ी क़िलों पर विजय प्राप्त की। जैसे- [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]], कोडंना और तोरना। फिर 1656 में उन्होंने शक्तिशाली मराठा प्रमुख चंद्रराव मोरे पर विजय प्राप्त की और जावली पर अधिकार कर लिया, जिसने उन्हें उस क्षेत्र का निर्विवाद स्वामी बना दिया और सतारा एवं कोंकण विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। शिवाजी की इन विस्तारवादी गतिविधियों से बीजापुर का सुल्तान शंकित हो उठा किंतु उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि वह फिलहाल चुपचाप स्थिति पर निगाह रखे। किंतु जब शिवाजी ने कल्याण पर अधिकार कर लिया और कोंकण पर धावा बोल दिया तो सुल्तान आपा खो बैठा और उसने शाहजी को क़ैद करके उनकी जागीर छीन ली। इससे शिवाजी झुकने के लिए विवश हो गए और उन्होंने वचन दिया कि वे और हमले नहीं करेंगे। किंतु उन्होंने बड़ी चतुराई से मुग़ल [[शाहजादा मुराद]], जो मुग़ल सूबेदार था, से मित्रता स्थापित की और मुग़लों की सेवा में जाने की बात कही। इससे बीजापुर के सुल्तान की चिंता बढ़ गई और उसने शाहजी को मुक्त कर दिया। शाहजी ने वादा किया कि उसका पुत्र अपनी विस्तारवादी गतिविधियाँ छोड़ देगा। अतः अगले छः वर्षों तक शिवाजी धीरे-धीरे अपनी शक्ति सृदृढ़ करते रहे। इसके अतिरिक्त मुग़लों के भय से मुक्त बीजापुर मराठा गतिविधियों का दमन करने में सक्षम था—इस कारण भी शिवाजी को शांति बनाए रखने के लिए विवश होना पड़ा। किंतु जब औरंगज़ेब उत्तर चला गया तो शिवाजी ने अपनी विजयों का सिलसिला फिर आरंभ कर दिया। जिसकी कीमत चुकानी पड़ी बीजापुर को।
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| [[चित्र:Tiger-Claws.jpg|बघ नखा|left|thumb|250px]]
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| {{highright}}जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ [[अफ़ज़ल ख़ाँ]] के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया।{{highclose}}
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| ====अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध====
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| उन्होंने समुद्र और घाटों के बीच तटीय क्षेत्र कोंकण पर धावा बोल दिया और उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। स्वाभाविक था कि बीजापुर का सुल्तान उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई करता। उसने अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 सैनिकों की टुकड़ी शिवाजी को पकड़ने के लिए भेजी। उन दिनों छल-कपट और विश्वासघात की नीति अपनाना आम बात थी और शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ाँ दोनों ने ही अनेक अवसरों पर इसका सहारा लिया। शिवाजी की सेना को खुले मैदान में लड़ने का अभ्यास नहीं था, अतः वह अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध करने से कतराने लगा। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया। इस घटना को लेकर ग्रांट डफ़ जैसे यूरोपीय इतिहासकार शिवाजी पर विश्वासघात और हत्या का आरोप लगाते हैं जो सरासर ग़लत है क्योंकि शिवाजी ने आत्मरक्षा में ही ऐसा किया था। इस विजय से मित्र और शत्रु दोनों ही पक्षों में शिवाजी का सम्मान बढ़ गया। दूरदराज के इलाकों से जवान उनकी सेना में भरती होने के लिए आने लगे। शिवाजी में उनकी अटूट आस्था थी। इस बीच दक्षिण में मराठा शक्ति के इस चमत्कारी उत्थान पर औरंगज़ेब बराबर दृष्टि रखे हुए था। पूना और उसके आसपास के क्षेत्रों, जो [[अहमद नगर]] राज्य के हिस्से थे और 1636 की संधि के अंतर्गत बीजापुर को सौंप दिए गए थे, को अब मुग़ल वापस माँगने लगे। पहले तो बीजापुर ने मुग़लों की इस बात को मान लिया था कि वह शिवाजी से निपट लेगा और इस पर कुछ सीमा तक अमल भी किया गया किंतु बीजापुर का सुल्तान यह भी नहीं चाहता था कि शिवाजी पूरी तरह नष्ट हो जाएँ। क्योंकि तब उसे मुग़लों का सीधा सामना करना पड़ता। [[चित्र:Shivaji-Maharaj-Statue.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा]] औरंगज़ेब ने अपने संबंधी [[शाइस्ता ख़ाँ]] को शिवाजी से निपटने की ज़िम्मेदारी सौंपी। शाइस्ता ख़ाँ दक्षिणी सूबे का सूबेदार था। आत्मविश्वास भरे सूबेदार शाहस्ता ख़ाँ ने पूना पर कब्ज़ा कर लिया, चाकण के क़िलों को अपने अधिकार में ले लिया और दो वर्षों के भीतर ही उसने कल्याण सहित संपूर्ण उत्तरी कोंकण पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। केवल दक्षिण कि कुछ जागीरें ही शिवाजी के पास रह गईं। शाइस्ता ख़ाँ को आशा थी कि वर्षा समाप्त होने पर वह उन्हें भी जीत लेगा। शिवाजी ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने चुने हुए चार सौ सिपाही लेकर बारात का साज सजाया और पूना में प्रविष्ट हो गए। आधी रात के समय उन्होंने सूबेदार के घर धावा बोल दिया। सूबेदार और उसके सिपाही तैयार नहीं थे। नौकरानी की होशियारी से शाइस्ता ख़ाँ तो बच निकला किंतु मुग़ल सेना को मौत के घाट उतार दिया गया।
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| इस घटना ने मुग़ल साम्राज्य की शान को घटाया और शिवाजी के हौसले तथा प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया। औरंगज़ेब के क्रोध की सीमा न रही। जसवंत सिंह की निष्ठा पर संदेह हुआ और शाइस्ता ख़ाँ को बंगाल भेज दिया। इस बीच शिवाजी ने एक और दुस्साहिक अभियान किया। उन्होंने [[सूरत]] पर धावा बोल दिया। सूरत मुग़लों का एक महत्त्वपूर्ण क़िला था। शिवाजी ने उसे जी भर कर लूटा (1664) और धनदौलत से लद कर घर लौटे। 1665 ई. के आरंभ में औरंगज़ेब ने राजा [[जयसिंह]] के नेतृत्व में एक अन्य सेना शिवाजी का दमन करने के लिए भेजी। जयसिंह जो कि कछवाहा राजा था, युद्ध और शांति, दोनों ही की कलाओं में निपुण था। वह बड़ा चतुर कूटनीतिज्ञ था और उसने समझ लिया कि बीजापुर को जीतने के लिए शिवाजी से मैत्री करना आवश्यक है। अतः पुरन्धर के क़िले पर मुग़लों की विजय और रायगढ़ की घेराबंदी के बावजूद उसने शिवाजी से संधि की। पुरन्धर की यह संधि जून 1665 ई. में हुई जिसके अनुसार—
| | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता=|शोध=}} |
| [[चित्र:Shivaji-Statue-2.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा|250px|left]]
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| *शिवाजी को चार लाख हूण वार्षिक आमदनी वाले तेईस क़िले मुग़लों को सौंपने पड़े और उन्होंने अपने लिए सामान्य आय वाले केवल बारह क़िले रखे।
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| *मुग़लों ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को पंज हज़ारी मन्सुबदारी एवं उचित जागीर देना स्वीकर किया।
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| *मुग़लों ने शिवाजी के विवेकरहित और बेवफ़ा व्यवहार को क्षमा करना स्वीकार कर लिया।
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| *शिवाजी को कोंकण और [[बालाघाट]] में जागीरें दी जानी थी जिनके बदले उन्हें मुग़लों को तेरह किस्तों में चालीस लाख हूण की रक़म अदा करनी थी। साथ ही उन्हें बीजापुर के ख़िलाफ़ मुग़लों की सहायता भी करनी थी।
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| ====शाही नौकरी====
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| यह संधि राजा जयसिंह की व्यक्तिगत विजय थी। वह न केवल शक्तिशाली शत्रु पर काबू पाने में सफल रहा था अपितु उसने बीजापुर राज्य के विरुद्ध उसका सहयोग भी प्राप्त कर लिया था। किंतु उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। दरबार में शिवाजी को पाँच हज़ारी मनसुबदारों की श्रेणी में रखा गया। यह ओहदा उनके नाबालिग पुत्र को पहले ही प्रदान कर दिया गया था। इसे शिवाजी ने अपना अपमान समझा। बादशाह का जन्मदिन मनाया जा रहा था और उसके पास शिवाजी से बात करने की फुर्सत भी नहीं थी अपमानित होकर शिवाजी वहाँ से चले आए और उन्होंने शाही नौकरी करना अस्वीकार कर दिया। तुरंत मुग़ल अदब के ख़िलाफ़ कार्य करने के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। दरबारियों का गुट उन्हें दंड दिए जाने के पक्ष में था किंतु जयसिंह ने बादशाह से प्रार्थना की कि मामले में नरमी बरतें। किंतु कोई भी निर्णय लिए जाने से पूर्व ही शिवाजी क़ैद से भाग निकले।
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| [[चित्र:Purandarh-Fort-Pune-1.jpg|thumb|250px|पुरंदर क़िला, [[पुणे]]|250px]]
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| ====आगरा यात्रा====
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| इसमें कोई संदेह नहीं कि शिवाजी की आगरा यात्रा मुग़लों के साथ मराठों के संबंधों की दृष्टि से निर्णायक सिद्ध हुई। औरंगज़ेब शिवाजी को मामूली भूमिस समझता था। बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि शिवाजी के प्रति औरंगज़ेब का दृष्टिकोण, शिवाजी के महत्त्व को अस्वीकार करना और उनकी मित्रता के मूल्य को न समझना राजनीतिक दृष्टि से उसकी बहुत बड़ी भूल थी। शिवाजी के संघर्ष की तार्किक पूर्णाहूति हुई 1647 ई. में छत्रपति के रूप में उनका औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। स्थानीय ब्राह्मण शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी उच्च कुल क्षत्रिय नहीं थे। अतः उन्होंने [[वाराणसी]] के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट को इस बात के लिए सहमत किया कि वह उन्हें उच्चकुल क्षत्रिय और राजा घोषित करे। इस एक व्यवस्था से होकर शिवाजी दक्षिणी सुल्तानों के समकक्ष हो गए और उनका दर्जा विद्रोही का न रहकर एक प्रमुख़ का हो गया। अन्य मराठा सरदारों के बीच भी शिवाजी का रुतबा बढ़ गया। उन्हें शिवाजी की स्वाधीनता स्वीकार करनी पड़ी और मीरासपट्टी कर भी चुकाना पड़ा।
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| ====प्रमुख उपलब्धि====
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| राज्यारोहण के पश्चात शिवाजी की प्रमुख उपलब्धि थी 1677 में [[कर्नाटक]] क्षेत्र पर उनकी विजय जो उन्होंने कुतुबशाह के साथ मिलकर प्राप्त की थी। जिन्जी, वेल्लेर और अन्य दुर्गों की विजय ने शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि की।
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| ==दुर्गों पर नियंत्रण==
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| शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था [[सिंहगढ़ दुर्ग]], जिसे जीतने के लिए उन्होंने ताना जी को भेजा था। और वे वहाँ से विजयी हुए। ताना जी शिवाजी के बहुत विश्वासपात्र सेनापति थे। जिन्होंने सिंहगढ़ की लड़ाई में वीरगति पाई थी। ताना जी के पास बहुत अच्छी तरह से सधाई हुई गोह थी। जिसका नाम यशवन्ती था। शिवाजी ने [[ताना जी]] की मृत्यु पर कहा था- <blockquote>'''गढ़ आला पण सिंह गेला''' (गढ़ तो हमने जीत लिया पर सिंह हमें छोड़ कर चला गया)।</blockquote> बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] (1646) में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गये। 1655 ई. तक शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जाबली के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने जाबली के राजा चंद्रदेव का बलपूर्वक वध करवा दिया। शिवाजी की राज्य विस्तार की नीति से क्रुद्ध होकर बीजापुर के सुल्तान ने 1659 ई. में अफ़ज़ल ख़ाँ नामक अपने एक वरिष्ठ सेनानायक को विशाल सैन्य बल सहित शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास नहीं था। अतः उन्होंने संधिवार्ता प्रारम्भ कर दी। दोनों की भेंट के अवसर पर अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को दबोच कर मार डालने का प्रयत्न किया। परन्तु वे इसके प्रति पहले से ही सजग थे। उन्होंने अपने गुप्त शस्त्र बघनखा का प्रयोग करके मुसलमान सेनानी का पेट फाड़ डाला। जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तदुपरान्त शिवाजी ने एक विकट युद्ध में बीजापुर की सेनाओं को परास्त कर दिया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी का सामना करने का साहस नहीं किया।
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| [[चित्र:Shivaji-Maharaj.jpg|thumb|250px|छत्रपति शिवाजी महाराज का सिक्का]]
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| अब उन्हें एक और प्रबल शत्रु मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का सामना करना पड़ा। 1660 ई. में औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता ख़ाँ नामक सेनाध्यक्ष शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शायस्ता ख़ाँ ने शिवाजी के कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उनके केन्द्र-स्थल पूना पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही शिवाजी ने अचानक रात्रि में शायस्ता ख़ाँ पर आक्रमण कर दिया। जिससे उसको अपना एक पुत्र अपने हाथ की तीन अँगुलियाँ गँवाकर अपने प्राण बचाने पड़े। शायस्ता ख़ाँ को वापस बुला लिया गया। फिर भी औरंगज़ेब ने शिवाजी के विरुद्ध नये सेनाध्यक्षों की संरक्षा में नवीन सैन्यदल भेजकर युद्ध जारी रखा। शिवाजी ने 1664 ई. में मुग़लों के अधीनस्थ सूरत को लूट लिया, किन्तु मुग़ल सेनाध्यक्ष मिर्जा राजा जयसिंह ने उनके अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया, जिससे शिवाजी को 1665 ई. में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी। उसके अनुसार उन्होंने केवल 12 दुर्ग अपने अधिकार में रखकर 23 दुर्ग मुग़लों को दे दिये और राजा जयसिंह द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर आगरा में मुग़ल दरबार में उपस्थित होने के लिए प्रस्थान किया।
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| ==आगरा से बच निकलना==
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| शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे ग़रीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके [[पुर्तग़ाली]] और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्त्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औरंगज़ेब ने हिंदूओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई।
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| ==राज्याभिषेक==
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| मई 1666 ई. में शाही दरबार में उपस्थित होने पर उनके साथ तृतीय श्रेणी के मनसुबदारों से सदृश व्यवहार किया गया और उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से अपने अल्पवयस्क पुत्र [[शम्भुजी]] और अपने विश्वस्त अनुचरों सहित नज़रबंदी से भाग निकले। संन्यासी के वेश में द्रुतगामी अश्वों की सहायता से वे दिसम्बर 1666 ई. में अपने प्रदेश में पहुँच गये। अगले वर्ष औरंगज़ेब ने निरुपाय होकर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की, और इसके बाद दो वर्षों तक शिवाजी और मुग़लों के बीच शान्ति रही। [[चित्र:Shivaji-Throne.jpg|thumb|250px|शिवाजी महाराज का सिंहासन|left]] शिवाजी ने इन वर्षों में अपनी शासन-व्यवस्था संगठित की। 1671 ई. में उन्होंने मुग़लों से पुनः संघर्ष प्रारंभ किया और खानदेश के कुछ भू-भागों के स्थानीय मुग़ल पदाधिकारियों को सुरक्षा का वचन देकर उनसे चौथ वसूल करने का लिखित इकारारनामा ले लिया और दूसरी बार [[सूरत]] को लूटा। 6 जून 1674 ई. में रायगढ़ के दुर्ग में [[महाराष्ट्र]] के स्वाधीन शासक के रूप में उनका राज्याभिषेक हुआ।
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| ==शिवाजी का प्रशासन==
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| सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। किंतु नागरिक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता आज भी स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं की जाती। यूरोपीय इतिहासकारों में दृष्टि में मराठा प्रभुत्व, जो लूट पर आधारित था, को किसी भी प्रकार का कर लेने का अधिकार नहीं था। कुछ अन्य इतिहासकारों की मान्यता है कि शिवाजी के प्रशासन के पीछे कोई आधारभूत सिद्धांत नहीं था और इसी कारण प्रशासन के क्षेत्र में उनका कोई स्थायी योगदान नहीं रहा। शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था काफ़ी सीमा तक दक्षिणी राज्यों और मुग़लों की प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनका पुर्तग़ालियों के अधिकार क्षेत्र के अतिरिक्त लगभग समस्त (मराठा) देश में फैला हुआ था। पुर्तग़ालियों का आधिपत्य उत्तर में रामनगर से बंबई ज़िले में गंगावती नदी के तट पर करवार तक था। शिवाजी की पूर्वी सीमा उत्तर में बागलना को छूती थी और फिर दक्षिण की ओर [[नासिक]] एवं पूना ज़िलों के बीच से होती हुई एक अनिश्चित सीमा रेखा के साथ समस्त सतारा और कोल्हापुर के ज़िले के अधिकांश भाग को अपने में समेट लेती थी। इस सीमा के भीतर आने वाले क्षेत्र को ही मरी अभिलेखों में शिवाजी का "स्वराज" कहा गया है। पश्चिमी [[कर्नाटक]] के क्षेत्र कुछ देर बाद सम्मिलित हुए। स्वराज का यह क्षेत्र तीन मुख्य भागों में विभाजित था और प्रत्येक भाग की देखभाल के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया गया था-
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| *पूना से लेकर सल्हर तक का क्षेत्र कोंकण का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, [[पेशवा]] मोरोपंत पिंगले के नियंत्रण में था।
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| *उत्तरी कनारा तक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तों के अधीन था।
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| *दक्षिणी देश के ज़िले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ और कोफाल का क्षेत्र था, दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र के अंतर्गत आते थे और दत्ताजी पंत के नियंत्रण में थे। इन तीन सूबों को पुनः परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था। परगनों के अंतर्गत तरफ़ और मौजे आते थे। हाल ही में जीते गए आषनी, जिन्जी, बैलोर, अन्सी एवं अन्य ज़िले, जिन्हें समयाभाव के कारण प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाया जा सका था, अधिग्रहण सेना की देखरेख में थे।
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| [[चित्र:Chhatrapati-Shivaji-Terminus.jpg|thumb|250px|[[छत्रपति शिवाजी टर्मिनस]], [[मुंबई]]]]
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| केंद्र में आठ मंत्रियों की परिषद् होती थी जिसे अष्ट प्रधान कहते थे जिसे किसी भी अर्थ में मंत्रिमडल नहीं कहा जा सकता था। शिवाजी अपने प्रधानमंत्री स्वयं थे और प्रशासन की बागडोर अपने ही हाथों में रखते थे। अष्ट प्रधान केवल उनके सचिवों के रूप में कार्य करते थे; वे न तो आगे बढ़कर कोई कार्य कर सकते थे और न ही नीति निर्धारण कर सकते थे। उनका कार्य शुद्ध रूप से सलाहकार का था। जब कभी उनकी इच्छा होती तो वे उनकी सलाह पर ध्यान देते भी थे अन्यथा सामान्यतः उनका कार्य शिवाजी के निर्दशों का पालन करना और उनके अपने विभागों की निगरानी करना मात्र होता था। संभव है कि शिवाजी पौरोहित्य एवं लेखा विभागों के काम-काज में दख़ल न देते हों किंतु इसका कारण उनकी प्रशासनिक अनुभवहीनता ही रही होगी। [[पेशवा]] का कार्य लोक हित का ध्यान रखना था। पंत आमात्य, आय-व्यय की लेखा परीक्षा करता था। मंत्री या वकनीस या विवरणकार राजा का रोज़नामचा रखता था। सुमंत या विदेश सचिव विदेशी मामलों की देखभाल करता था। पंत सचिव पर राजा के पत्राचार का दायित्व था। पंडितराव, विद्वानों और धार्मिक कार्यों के लिए दिए जाने वाले अनुदानों का दायित्व निभाता था। सेनापति एवं न्यायधीश अपना-अपना कार्य करते थे। वे क्रमशः सेना एवं न्याय विभाग के कार्यों की देखते थे।
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| ==सेना ==
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| शिवाजी ने अपनी एक स्थायी सेना बनाई थी और वर्षाकाल के दौरान सैनिकों को वहाँ रहने का स्थान भी उपलब्ध कराया जाता रहा था। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हज़ार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके तोपखानों के संबंध में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंतु इतना ज्ञात है कि उन्होंने सूरत और अन्य स्थानों पर आक्रमण करते समय तोपखाने का उपयोग किया था। नागरिक प्रशासन की भाँति ही सैन्य-प्रशासन में भी समुचित संस्तर बने हुए थे। घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में विभाजित थी-
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| *बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे
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| *सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी।
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| [[चित्र:Pratapgarh-Fort.jpg|प्रतापगढ़ क़िला, [[महाराष्ट्र]]|250px|thumb|left]]
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| '''घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था। पाँच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था; दस जुमलादारों की एक हज़ारी होती थी और पाँच हज़ारियो के ऊपर एक पंजहज़ारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था। मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले।''' विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 क़िले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रक़म खर्च करते थे। प्रत्येक क़िले को तिहरे नियंत्रण में रखा जाता था जिसमें एक ब्राह्मण, एक मरा, एक कुनढ़ी होता था। ब्राह्मण नागरिक और राजस्व प्रशासन देखता था, शेष दो सैन्य संचालन और रसद के पहलुओं को देखते थे। यह आम धारणा है कि शिवाजी के सैनिकों को वेतन नगद दिया जाता था। किंतु उस समय की परिस्थितियों और क्षेत्र की सामान्य स्थिति को देखते हुए यह व्यवस्था भी एक आदर्श थी जिसे शिवाजी साकार करना चाहते थे। सिपाहियों, हवलदारों इत्यादि का वेतन या तो ख़जाने से दिया जाता था या ग्रामीण क्षेत्रों की बारत (आज्ञा) द्वारा जिनका भुगतान कारकून करते थे। किंतु निश्चित रक़म के लिए भूमि या गाँव देने की पहले से चली आ रही प्रथा को भी पूर्णतः समाप्त नहीं किया गया था।
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| ==स्वतंत्र प्रभुसत्ता==
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| 1674 की ग्रीष्म ऋतु में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिंदू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के ज़रिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिंदू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को हिन्दू धर्म में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि ईसाई और मुसलमान बल प्रयोग के ज़रिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान दक्षिण भारत का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया।
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| ==राजस्व प्रशासन==
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| शिवाजी ने भू-राजस्व एवं प्रशासन के क्षेत्र में अनेक क़दम उठाए। इस क्षेत्र की व्यवस्था पहले बहुत अच्छी नहीं थीं क्योंकि यह पहले कभी किसी राज्य का अभिन्न अंग नहीं रहा था। बीजापुर के सुल्तान, मुग़ल और यहाँ तक कि स्वयं मराठा सरदार भी अतिरिक्त उत्पादन को एक साथ ही लेते थे जो इजारेदारी या राजस्व कृषि की कुख्यात प्रथा जैसी ही व्यवस्था थी। मलिक अम्बर की राजस्व व्यवस्था में शिवाजी को आदर्श व्यवस्था दिखाई दी किंतु उन्होंने उसका अंधानुकरण नहीं किया। मलिक अम्बर तो माप की इकाइयों का मानकीकरण करने में असफल रहा था किंतु शिवाजी ने एक सही मानक इकाई स्थिर कर दी थी। उन्हारेंने रस्सी के माप के स्थान पर काठी और मानक छड़ी का प्रयोग आरंभ करवाया। बीस छड़ियों का एक बीघा होता है और 120 बीघे का एक चावर चवार होता था।
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| शिवाजी के निदेशानुसार सन् 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। अगले ही वर्ष शिवाजी की मृत्यु हो गई, इससे यह तर्क निरर्थक जान पड़ता है कि उन्होंने भूरास्व विभाग से बिचौलियों का अस्तित्व समाप्त कर दिया था और राजस्व उनके अधिकारी ही एकत्र करते थे। कुल उपज का 33% राजस्व के रूप में लिया जाता था जिसे बाद में बढ़ाकर 40% कर दिया गया था। राजस्व नगद या वस्तु के रूप में चुकाया जा सकता था। कृषकों को नियमित रूप से बीज और पशु ख़रीदने के लिए ऋण दिया जाता था जिसे दो या चार वार्षिक किश्तों में वसूल किया जाता था। अकाल या फ़सल खराब होने की आपात स्थिति में उदारतापूर्वक अनुदान एवं सहायता प्रदान की जाती थी। नए इलाक़े बसाने को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को लगानमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी।
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| [[चित्र:Fort-Raigarh-Maharashtra.jpg|thumb|250px|रायगढ़ क़िला, [[महाराष्ट्र]]|left]]
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| यद्यपि निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि शिवाजी ने ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था। फिर भी उनके द्वारा भूमि एवं उपज के सर्वेक्षण और भूस्वामी बिचौलियों की स्वतंत्र गतिविधियों पर नियंत्रण लगाए जाने से ऐसी संभावना के संकेत मिलते हैं। उन्होंने बार-बार किए जाने वाले भू-हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास भी किया यद्यपि इसे पूरी तरह समाप्त करना उनके लिए संभव नहीं था। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि इस नई व्यवस्था से किसान प्रसन्न हुए होंगे और उन्होंने इसका स्वागत किया होगा क्योंकि बीजापुरी सुल्तानों के अत्याचारी मराठा देशमुखों की व्यवस्था की तुलना में यह बहुत अच्छी थी। शिवाजी के शासन काल में राज्य की आय के दो और स्रोत थे-सरदेशमुखी और चौथ। उनका कहना था कि देश के वंशानुगत (और सबसे बड़े भी) होने के नाते और लोगों के हितों की रक्षा करने के बदले उन्हें सरदेशमुखी लेने का अधिकार है। चौथ के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं। [[चित्र:Shivaji-Statue.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]]|250px]] रानाडे के अनुसार यह 'सेना के लिए दिया जाने वाला अंशमात्र नहीं था जिसमें कोई नैतिक और क़ानूनी बाध्यता न होती, अपितु बाह्य शक्ति के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के बदले लिया जाने वाला कर था।' सरदेसाई इसे 'शत्रुता रखने वाले अथवा विजित क्षेत्रों से वसूल किया जाने वाला कर मानते हैं।' जदुनाथ सरकार के अनुसार 'यह मराठा आक्रमण से बचने की एवज़ में वसूले जाने वाले शुल्क से अधिक कुछ नहीं था। अतः इसे एक प्रकार का भयदोहन (दबावपूर्वक ऐंठना) ही कहा जाना चाहिए।' यह कहना भी अनुचित न होगा कि दक्षिण के सुल्तानों और मुग़लों ने मराठों को अपने इलाक़ों से ये दोनों कर वसूल करने का अधिकार दिया था जिसने इस उदीयमान राज्य को बड़ी सीमा तक वैधता प्रदान की थी।
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| मराठा राज्य के संबंध में सतीशचंद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि 'मराठा राज्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मराठा आंदोलन, जो मुग़ल साम्राज्य के केंद्रीकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय प्रतिक्रिया के रूप में आरंभ हुआ था, की परिणति शिवाजी द्वारा दक्षिण-मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को अपनाए जाने में हुई।"
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| ==अन्तिम समय==
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| शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया। मैकाले द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में 3 अप्रैल को मृत्यु हो गई।
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| ==उपसंहार==
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| इस प्रकार मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, [[गोवा]] के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद उन्होंने दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे। उनका राज्य [[बेलगांव कर्नाटक|बेलगांव]] से लेकर [[तुंगभद्रा नदी]] के तट तक समस्त पश्चिमी [[कर्नाटक]] में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऎसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल [[मराठा साम्राज्य]] की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे।<ref>यदुनाथ सरकार द्वारा लिखित शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स तथा एस. एन. सेन कृत छत्रपति शिवाजी</ref>
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| *[http://www.chhatrapatishivajimaharaj.com Chhatrapati Shivaji Maharaj] | | *[http://www.chhatrapatishivajimaharaj.com Chhatrapati Shivaji Maharaj] |
| ==संबंधित लेख== | | ==संबंधित लेख== |
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